Sunday, 17 September 2017

विचार, ईश्वर और आत्म-साक्षात्कार

विचार, ईश्वर और आत्म-साक्षात्कार
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शायद परिस्थितियाँ, संदर्भ, सरकार या मज़बूरियाँ रोक लगा सकती हैं, लेकिन सोचने-विचारने की स्वतंत्रता पर कोई रोक कैसे लगा सकता है! लेकिन यह भी आश्चर्य है कि कैसे हमारा सोच परिस्थितियों के अनुसार पल भर में भी एकदम बदल जाता है । कभी कभी तो एकदम ऐसा ’यू-टर्न’ भी ले लेता है जिसका हमें खुद को भी पल भर पहले तक भी अनुमान तक न था । क्या यही जीवन का जीवंत प्रवाह नहीं है? लेकिन जब जब हम कुछ ’तय’ कर लेते हैं तो जाने-अनजाने इस प्रवाह को प्रभावित करने की कोशिश करने लगते हैं, और तब जीवन में सफलता-असफलता, आशा-निराशा, अवसाद-उत्साह होते हैं । इन्हें भी हम प्रवाह का ही हिस्सा समझ लें तो शायद सही तरीके से सोच सकेंगे ....! सवाल यह भी है कि हम किसी भी मुद्दे पर अंतिम सिरे तक क्यों नहीं सोचते? जैसे धर्म के मामले पर, नैतिकता के मामले पर, सामाजिक प्रश्नों पर, क्या ’मुक्त-चिंतन’ इतना कठिन है? इसका एक कारण शायद यह है कि हम किसी भी मुद्दे के लाभ तो उठाना चाहते हैं लेकिन उसकी कीमत चुकाना नहीं चाहते । हम चाहते हैं कि सब-कुछ हमें मुफ़्त मिल जाए, तब असंतोष पैदा होता है । तब ’भ्रष्टाचार’ पैदा होता है । हम रिश्वत लेना तो अधिकार समझते हैं और उसके लिए तमाम दलीलें भी हमारे पास होती हैं, ऐसे रिश्वत देने में भी हमें संकोच नहीं होता जब कोई ख़तरा न हो और मज़बूरी हो या पैसा हमारे हाथ का मैल हो, या हमारे पास काला धन हो, जिसे ठिकाने लगाने का एक अच्छा रास्ता हमें मिल गया हो, लेकिन हम दूसरों के अधिकार का हनन करते समय शायद ही सोचते हों ।’आरक्षण’ जैसे मुद्दे पर हो या कावेरी या सतलज-रावी नदी-जल के विवाद पर, भाषाई विवाद हों या ऐसे ही कितने ही मुद्दे हैं जिन पर हम तभी सोचते हैं जब हमारा उनसे पाला पड़ता हो, और तब हमारे पूर्वाग्रह ही तय करते हैं कि हम किस दिशा में, किस दृष्टिकोण से सोचेंगे !
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इस बारे में सोचने लायक बात यह है कि हम सोचने की ज़हमत तभी उठाते हैं जब वह हमारे गले पड़ जाता है । अकसर तो हम सोचने से बचना ही चाहते हैं । यह भी इतना ही सच है कि एक ओर तो हम जो भी सोचते हैं आदतन सोचते हैं, तो दूसरी ओर सोचने से ही सोचना हमारी आदत बन जाता है । इस प्रश्न के पुनः दो पहलू हैं पहला दुनिया में हमारे व्यवहार से जुड़ा है तो दूसरा बिलकुल आध्यात्मिक । दुनिया से हमारे व्यवहार में सोचने का जो स्थान और महत्व है उस पर असंख्य विचारकों ने अनगिनत तरीकों से सोचा होगा ।
यहाँ सिर्फ़ आध्यात्मिक संदर्भ में देखें तो एक प्रश्न यह है कि हम क्यों सोचते हैं?
दूसरा इतना ही महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या हम सोचते हैं?
पहले प्रश्न की विस्तार से व्याख्या करने के लिए हमें यह समझना होगा कि सोचने की प्रक्रिया कैसे होती है । यदि हम समझने की कोशिश करें तो सोचना कम होने लगता है यहाँ तक कि लगभग समाप्त भी हो जाता है । जैसे किसी आकस्मिक अज्ञात परिस्थिति में जहाँ हम वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ होते हैं । जैसे ऊँची घास के बीच से या पानी से भरे गड्ढोंवाली सड़क से गुज़रते समय । तब हम अनुमान तो लगा सकते हैं कि घास में साँप या ऐसा कोई जानवर तो नहीं है, या घास कँटीली तो नहीं है, लेकिन अप्रत्याशित ख़तरों के बारे में विचार करने की संभावना समाप्त हो जाती है इसलिए हम उम्मीद तो कर सकते हैं लेकिन सोच नहीं सकते । कौन सा गड्ढा कितना गहरा और छोटा या बड़ा होगा इसे समझने के लिए ’सोचने’ की ज़रूरत कम, समझने की, सावधानी की ज़रूरत अधिक होती है । इस दृष्टि से ’सोचना’ और ’सावधानी’ क्या दो भिन्न तरह की मानसिक गतिविधियाँ नहीं होतीं? जैसे ही ख़तरा समाप्त हो जाता है, जब हम खुली साफ़-सुथरी पक्की चिकनी सपाट सड़क पर आ जाते हैं, ’सावधानी’ पीछे रह जाती है और ’सोचना’ शुरु हो जाता है । इस प्रकार एक सोचना हमारी असावधानी या प्रमाद की स्थिति में होता है जो लगभग आदतन होता है तो दूसरा तब होता है जब सावधानी रखते हुए हम किसी नई स्थिति से रूबरू होते हैं । जैसे आपको सड़क पर कुछ दिखलाई दिया और आपने उसे पत्थर समझा और हटाने के लिए गाड़ी से उतरे, पास पहुँचने पर पता चला कि वह कोई जानवर है तो सोचना एक अलग दिशा ले लेता है यदि आपको पता चलता है कि वह साँप है तो आप सोचने लगते हैं कि ज़िंदा है या मरा, या घायल! यदि आपको  पताचलता है कि वह दुर्लभ जाति का एक कछुआ है तो आप उसके लिए चिंता या उत्सुकता से सोचने लगते हैं । यह भी हो सकता है कि आप् आदतन उसे नज़रन्दाज़ कर सीधे आगे निकल जाएँ ।
क्या ऐसी ही स्थितियाँ हममें सोचने की आदत नहीं बनातीं ।
फिर हमारा समाज, हमारा परिवेश, शिक्षा भी हमें सोचने के तरीकों के विशिष्ट प्रारूपों में नहीं ढाल देतीं?
क्या हम इस सबके (ख़तरे) के प्रति सावधान हैं? या क्या हम असावधानी से ही इन तरीकों को आदत में नहीं ढाल लेते?
’ईश्वर’ है या नहीं, एक है या अनेक, ऐसे प्रश्नों को हम सावधानी से नहीं समझते क्योंकि वह हमारे लिए जीवन-मरण का प्रश्न नहीं होता ।
दूसरी ओर ’ईश्वर’ से हमारा क्या अभिप्राय है इस बारे में भी हमें कुछ स्पष्ट नहीं होता । तब हम कहते हैं : "वह अदृश्य शक्ति जिसने दुनिया बनाई ..." या हम कहते हैं "जब हमें संकट की घड़ी में कोई अदृश्य सहायता प्राप्त होती है तो वह ईश्वर है ।"
इतना तो स्पष्ट है कि इस प्रकार से हम किसी अज्ञात वस्तु की कल्पना कर लेते हैं और उसे ’ईश्वर’ कहते हैं । या दूसरा तरीका है किसी किताब या परंपरा को आधार कहकर हम कहते हैं "शास्त्र भी मानते हैं ...बहुत लोगों ने ईश्वर को जाना है, पाया है ...।"
हम कुछ भी क्यों न मान लें वह हमारी मान्यता ही होता है और मान्यता को गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि उस पर प्रयोग नहीं किया जा सकता, जैसा कि तथ्य के साथ संभव है । और मान्यताएँ परस्पर भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं । हम सोचने-समझने की ज़हमत न उठाने के लिए इस या उस मान्यता को स्वीकार कर लेते हैं और आग्रह करते हैं कि दूसरे भी उसे ही सत्य मानें । यदि हमारे पास किसी क़िस्म की ताकत है, सत्ता की, धन की या बाहु-बल की तो उसे दूसरों पर लादने में भी संकोच नहीं गर्व अनुभव होता है और इसे हम परोपकार तक कहते और मानने लगते हैं ।
क्या इस दायरे में सोचना हमारी आदत ही नहीं हो जाता?
अब एक और प्रश्न यह है कि सोचना एक स्वैच्छिक गतिविधि है या अनैच्छिक गतिविधि है? जैसे साँस लेना यूँ तो शरीर की स्वचालित गतिविधि है लेकिन हम किसी हद तक स्वेच्छा से भी उसे नियंत्रित कर सकते हैं । फिर यह भी स्पष्ट है कि साँस लेना एक स्वाभाविक, प्राकृतिक गतिविधि भी है जिस पर हमें ध्यान तभी देना पड़ता है जब इसके होने में कोई बाधा उत्पन्न हो जाए । दूसरी ओर हमारे शरीर की अन्य गतिविधियाँ  जैसे नसों में रक्त का परिभ्रमण, पसीना आना, भूख-प्यास लगना, नींद आना भी बहुत हद तक ऐसी ही स्वाभाविक गतिविधियाँ है, जिन पर ज़रूरत होने पर ही हमारा ध्यान जाता है ।
क्या सोचना भी ऐसी कोई गतिविधि है? साँस का चलना और दूसरे अन्य शारीरिक कार्य जिनके बारे में कहा गया जैसे अनायास होते रहते हैं क्या सोचना भी वैसा ही एक कार्य है? या, क्या हम सोचने को नियंत्रित कर उसे किसी निश्चित ढंग से भी कर सकते हैं?
यहाँ यह देखना ज़रूरी है कि सोचना अर्थात् ’विचार’ हम हैं या हमसे भिन्न है? जब आप कहते हैं "मैं सोचता हूँ..." क्या तब आपमें यह विचार ही नहीं होता जिसे शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है? जैसे आप दौड़ते हैं, या बैठे हैं, या खड़े हैं तो आपका अपनी इस क्रिया पर जैसा नियंत्रण होता है, क्या वैसा ही नियंत्रण आपका ’विचार’ पर भी होता है?
आप जब कहते हैं ’मेरा विचार’? तो यह आपसे किस रूप में संबद्ध होता है कि इसे आप ’मेरा’ कह सकें?
स्पष्ट है कि मस्तिष्क में चल रहे अनेक विचारों में से जो आपको अच्छा लगता हो, उपयोगी प्रतीत होता हो उसे तो ’मेरा’ कहा जाता है जबकि जो प्रतिकूल होता है उसे ’मेरा नही’ कहा जाता है ।
विचार को ’मेरा’ या ’मेरा नहीं’ कहनेवाले क्या आप हैं या यह ’मैं’ भी मूलतः एक विचार ही है जो कभी होता है, तो कभी कभी अनुपस्थित भी होता है?
तो फिर आप विचार नहीं केवल वह चेतन अस्तित्व है जिसमें विचार आता-जाता या आते-जाते हैं ।
उस स्थिति में भी क्या विचार पर आपका नियंत्रण संभव है? स्पष्ट है कि विचार से वस्तुतः आपका कोई संबंध न कभी था, न हो सकता है, फिर ’मेरा विचार’ तो क्या नितांत भ्रांत कल्पना ही नहीं है?
यह हुआ विचार का दुनिया से जुड़ा पहलू ।
अब दूसरे प्रश्न पर आएँ । वह चेतन अस्तित्व ही जिसमें विचार आते-जाते हैं, क्या ’हम’ नहीं हैं, व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से नहीं, बल्कि बुनियादी रूप से और समष्टि-रूप से भी?
यूँ कहें कि जैसे पाँच तत्वों से बने हमारे शरीर व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से एक दूसरे से अलग-अलग दिखाई देते हैं और जिनके आधार पर हमारी व्यक्तिगत या सामूहिक पहचान बनाई जाती है, विचार के रूप में ही ऐसे हैं न? यदि विचार नहीं तो भिन्नता कहाँ? तब क्या समष्टि रूप में जो हम हैं वह कुछ बदल जाता है? स्पष्ट है कि विचार के न होने पर भी वही समष्टि एक ही चेतन सत्ता है जिसमें असंख्य भिन्न-भिन्न व्यक्तिगत और सामूहिक शरीरों में भिन्न-भिन्न विचार आते-जाते रहते हैं । इस समष्टि चेतन अस्तित्व का विचार से क्या कोई संबंध हो सकता है?
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’विचार’ के दो आयाम क्रमशः शाब्दिक / शब्दगत और काल्पनिक / कल्पनागत हो सकते हैं । शाब्दिक तो हम जानते ही हैं, काल्पनिक किसी अनुभव या अनुभव की कल्पना / भावना की तरह होता है । जैसे ’मिठास’, जिसका एक तो शाब्दिक अर्थ होता है ’स्वीटनेस’ दूसरा भावनात्मक, तीसरा काल्पनिक । शाब्दिक अर्थ शब्द को दूसरे शब्द से बदलने पर प्राप्त हो जाता है । भावनात्मक पुनः वस्तुवाची या अनुभवपरक हो सकता है । जैसे ’मिठाई’ । कल्पनात्मक इन दोनों जैसा या कभी-कभी दोनों से बिलकुल भिन्न भी हो सकता है । जैसे पत्थर या मिट्टी का स्वाद, जो न तो कोई भाव जगाता है, न अनुभव लेकिन उसकी कल्पना की जा सकती है । ’ईश्वर’ और ’मैं’ भी ऐसे ही दो शब्द हैं । तीसरा शब्द है ’आत्म-ज्ञान’ अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार या दर्शन । ’ईश्वर’ शब्द के अनेक शाब्दिक अर्थ हो सकते हैं जो भिन्न-भिन्न लोगों में भिन्न-भिन्न भाव, और स्वकल्पित रहस्यमय / चमत्कारिक अनुभव (जैसे भविष्य में होनेवाली घटना को देख लेना) भी जगा सकते हैं, लेकिन उनकी ’अनित्यता’ ही ’ईश्वर-दर्शन’ से उनके भिन्न होने का यथेष्ट प्रमाण है । 'मैं' 'ईश्वर' से इस अर्थ में भिन्न है कि 'मैं' के अस्तित्व को हर कोई अनायास प्रत्यक्षतः जानता ही है यद्यपि इसका गूढ़तम तात्पर्य उसे स्पष्ट नहीं होता।  फिर भी कोई न तो तर्क से, न अनुभव से और न ही व्यावहारिक रूप में इसके अस्तित्व पर न तो संदेह कर सकता है न इसे असिद्ध कर सकता है। लेकिन चूँकि यह स्वयं (अहम्-पदार्थ) अपने को विचारक और विचार के रूपों में व्यक्त करता है इसलिए इसे इन दोनों में विद्यमान उभयनिष्ठ अस्तित्व और चेतना की तरह अवश्य इंगित किया जा सकता है और तब विचार तथा विचारक का द्वंद्व विलीन हो जाता है।  अब रही बात आत्म-साक्षात्कार की, तो इस प्रकार से विचार तथा विचारक जो प्रकट और अप्रकट होते रहते हैं जब पूर्णतः विलीन हो जाते हैं तो जिस तत्व का बोध होता है वह नित्य की तरह स्पष्ट हो जाता है।  इसका अर्थ यही कि जन्म-मृत्यु कल्पना थी और वह चक्र भी विचार ही था।       
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