॥ तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
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नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ ज़रा,
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ।
पता नहीं अमिताभ बच्चन की फ़िल्म ’शराबी’ के गीत में ये पंक्तियाँ ऐसी ही हैं या कुछ अलग ।
मेरे गुरु ने मुझसे कहा :
पता लगाओ कि ’पहला नशा’ कौन सा है जिसके बाद दूसरे नशों का सवाल उठता है ।
मैंने पूछा : ’पहला नशा?’
उन्होंने कहा : क्या जब हम नशे में नहीं होते, जब हम सामान्य अवस्था में होते हैं या जिसे हम सामान्य अवस्था समझते हैं, उस अवस्था में क्या हममें कभी यह सवाल होता है कि जिस ’मैं’ शब्द का प्रयोग हर कोई इतने आत्म-विश्वास से करता है उस का तात्पर्य क्या है? व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से उसका उपयोग प्रतीत भी होता है किंतु क्या इस शब्द के अभाव में ’जीवन’ नहीं होता? कभी-कभी ऐसी स्थिति भी होती है (जैसे नींद में) जब न तो यह शब्द होता है न इससे जिसे इंगित किया जा सकता हो ऐसी कोई चीज़ ही होती है, क्या उस अवस्था के गुज़र जाने के बाद ही यह शब्द पुनः नहीं आकर हमारी उस स्थिति पर हावी हो जाता है? क्या वह स्थिति अकस्मात् ही, हमारे प्रयत्न के बिना ही स्वाभाविक रूप से नहीं आया करती है? हाँ उसके आने में शायद यह ’मैं’ बाधा ज़रूर डाल सकता है । क्या उसी स्थिति में ’मैं’ नामक ’ज्ञान’ हममें नहीं जन्म लेता? क्या यही पहला नशा है, ऐसा कह सकते हैं? क्या दूसरे नशे बाद में ही नहीं आते?
'मैं' निरुत्तर था।
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निरुत्तर दशा में तुरंत ही 'मैं' विलीन हो गया।
केवल वह दशा, वह अवस्था 'प्रकट' हो गई जो 'मैं' के आने-जाने से अछूती है।
वह कितने समय तक रही ऐसा कहने का प्रश्न ही कहाँ उठता है?
फिर वह 'चली गई' यह कहना भी उतना ही निरर्थक है।
वह आने-जानेवाली वस्तु नहीं, आने-जानेवाली वस्तु तो यह 'मैं' और इसका नशा है।
क्या वास्तव में कोई कहीं 'है', जो इस नशे के आने-जाने के प्रति सतर्क होता हो?
हाँ यह ज़रूर कहा जा सकता है कि 'मैं' लौट आया और उस दशा पर हावी हो गया, लेकिन अब 'मैं' का नाटक ख़त्म हो चुका था। 'मैं' यद्यपि बाद में भी अनेक बार आया-गया, और आता-जाता रहता भी है, इस शरीर में प्राण होने तक आता-जाता रहेगा भी लेकिन किसी नशे की तरह नहीं, बल्कि एक आभास की तरह, एक व्यावहारिक वस्तु की तरह।
तब 'मैं' ने गुरु के चरण-स्पर्श किए।
केवल गुरु की कृपा से ही 'मैं', अर्थात् यह 'पहला नशा' टूटा।
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॥ तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
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नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ ज़रा,
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ।
पता नहीं अमिताभ बच्चन की फ़िल्म ’शराबी’ के गीत में ये पंक्तियाँ ऐसी ही हैं या कुछ अलग ।
मेरे गुरु ने मुझसे कहा :
पता लगाओ कि ’पहला नशा’ कौन सा है जिसके बाद दूसरे नशों का सवाल उठता है ।
मैंने पूछा : ’पहला नशा?’
उन्होंने कहा : क्या जब हम नशे में नहीं होते, जब हम सामान्य अवस्था में होते हैं या जिसे हम सामान्य अवस्था समझते हैं, उस अवस्था में क्या हममें कभी यह सवाल होता है कि जिस ’मैं’ शब्द का प्रयोग हर कोई इतने आत्म-विश्वास से करता है उस का तात्पर्य क्या है? व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से उसका उपयोग प्रतीत भी होता है किंतु क्या इस शब्द के अभाव में ’जीवन’ नहीं होता? कभी-कभी ऐसी स्थिति भी होती है (जैसे नींद में) जब न तो यह शब्द होता है न इससे जिसे इंगित किया जा सकता हो ऐसी कोई चीज़ ही होती है, क्या उस अवस्था के गुज़र जाने के बाद ही यह शब्द पुनः नहीं आकर हमारी उस स्थिति पर हावी हो जाता है? क्या वह स्थिति अकस्मात् ही, हमारे प्रयत्न के बिना ही स्वाभाविक रूप से नहीं आया करती है? हाँ उसके आने में शायद यह ’मैं’ बाधा ज़रूर डाल सकता है । क्या उसी स्थिति में ’मैं’ नामक ’ज्ञान’ हममें नहीं जन्म लेता? क्या यही पहला नशा है, ऐसा कह सकते हैं? क्या दूसरे नशे बाद में ही नहीं आते?
'मैं' निरुत्तर था।
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निरुत्तर दशा में तुरंत ही 'मैं' विलीन हो गया।
केवल वह दशा, वह अवस्था 'प्रकट' हो गई जो 'मैं' के आने-जाने से अछूती है।
वह कितने समय तक रही ऐसा कहने का प्रश्न ही कहाँ उठता है?
फिर वह 'चली गई' यह कहना भी उतना ही निरर्थक है।
वह आने-जानेवाली वस्तु नहीं, आने-जानेवाली वस्तु तो यह 'मैं' और इसका नशा है।
क्या वास्तव में कोई कहीं 'है', जो इस नशे के आने-जाने के प्रति सतर्क होता हो?
हाँ यह ज़रूर कहा जा सकता है कि 'मैं' लौट आया और उस दशा पर हावी हो गया, लेकिन अब 'मैं' का नाटक ख़त्म हो चुका था। 'मैं' यद्यपि बाद में भी अनेक बार आया-गया, और आता-जाता रहता भी है, इस शरीर में प्राण होने तक आता-जाता रहेगा भी लेकिन किसी नशे की तरह नहीं, बल्कि एक आभास की तरह, एक व्यावहारिक वस्तु की तरह।
तब 'मैं' ने गुरु के चरण-स्पर्श किए।
केवल गुरु की कृपा से ही 'मैं', अर्थात् यह 'पहला नशा' टूटा।
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॥ तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
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अच्छा लगा
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