श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -7 / śrīdakṣiṇāmūrtistotram 7
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बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥
(श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -7)
अर्थ :
बाल्य-अवस्था में, किशोर, युवा तथा वृद्ध इत्यादि अवस्थाओं में तथा जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इत्यादि सभी अवस्थाओं में, उन अवस्थाओं से घिरे होने पर भी अहम् के रूप में जो नित्य हमारे अन्तर्हृदय में अनयास स्फुरित होता हुआ अपनी सौम्य मुद्राओं / भाव-भंगिमाओं के माध्यम से अपनी भक्ति करनेवालों के समक्ष स्वयं को प्रकट करता है, उन मूर्तरूप परम गुरु श्रीदक्षिणामूर्ति को प्रणाम ।
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bālyādiṣvapi jāgradādiṣu tathā sarvāsvavasthāsvapi
vyāvṛttāsvanuvartamānamahamityantaḥ sphurantaṃ sadā |
svātmānaṃ prakaṭīkaroti bhajatāṃ yo mudrayā bhadrayā
tasmai śrīgurumūrtaye nama idaṃ śrīdakṣiṇāmūrtaye ||
(śrīdakṣiṇāmūrtistotram 7)
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बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥
(श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -7)
अर्थ :
बाल्य-अवस्था में, किशोर, युवा तथा वृद्ध इत्यादि अवस्थाओं में तथा जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इत्यादि सभी अवस्थाओं में, उन अवस्थाओं से घिरे होने पर भी अहम् के रूप में जो नित्य हमारे अन्तर्हृदय में अनयास स्फुरित होता हुआ अपनी सौम्य मुद्राओं / भाव-भंगिमाओं के माध्यम से अपनी भक्ति करनेवालों के समक्ष स्वयं को प्रकट करता है, उन मूर्तरूप परम गुरु श्रीदक्षिणामूर्ति को प्रणाम ।
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bālyādiṣvapi jāgradādiṣu tathā sarvāsvavasthāsvapi
vyāvṛttāsvanuvartamānamahamityantaḥ sphurantaṃ sadā |
svātmānaṃ prakaṭīkaroti bhajatāṃ yo mudrayā bhadrayā
tasmai śrīgurumūrtaye nama idaṃ śrīdakṣiṇāmūrtaye ||
(śrīdakṣiṇāmūrtistotram 7)
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Meaning :
The one Who in the form of 'I-sense in every being, keeps shining through-out all the states like that of childhood, youth, adulthood, and old-age, Who keeps shining through-out all states like waking, dream and deep sleep, Who keeps resonating as 'I' in the heart (but because of the impure and imperfect intellect, identifying itself with the objects that are illuminated by His light only, and is taken as 'I am this or that'), Who through all its auspicious expressions reveals One-Self before those who share one's being in Him (and thus lose one's separate identity),
Obeisance to Him, to That Spiritual Master Supreme, That Lord Supreme śrīdakṣiṇāmūrti.
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