Saturday, 2 September 2017

आज की कविता : अन्तर्दृष्टि

अनुसृष्टि और सु-प्रस्थितं / anusṛṣṭi and -su-prasthitaṃ
(Insight and Superstition)
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भाद्र भद्र है,
एकादशी ग्यारहवीं दिशा,
दश दिशाएँ संसार की ओर हैं,
ग्यारहवीं आत्मा की ओर,
भद्र भद्दा नहीं,
जैसे बुद्ध बुद्धू नहीं ।
भैरव भीरु नहीं,
अभय हैं,
शिव के द्वारपाल ।
आधुनिक नया है,
लेकिन नया ’नॉविस्’ भी होता है,
जबकि अधुनातन होता है नित्य नया,
नवोन्मेष,
जो चिरंतन, सनातन और भव्य है ।
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क्या वन से नव की ओर,
नाव खेना ही,
जीवन है?
वन अयन है,
कभी मार्ग, कभी बीहड़,
कभी सुगम्य, कभी अरण्य,
कभी सुगम, कभी दुर्गम,
नव नित नूतन है,
कभी मार्ग, कभी बीहड़,
कभी सुगम्य, कभी अरण्य,
कभी सुगम, कभी दुर्गम,
नाविक की दिशाएँ,
-जल तक सीमित,
जल कभी नदी है,
जल कभी प्राण,
तो कभी प्राण लेनेवाला ।
नाविक को जानना है,
कि हर नई नदी,
कभी मार्ग, कभी बीहड़,
कभी सुगम्य, कभी अरण्य,
कभी सुगम, कभी दुर्गम,
नव नित नूतन है,
कभी मार्ग, कभी बीहड़,
कभी सुगम्य, कभी अरण्य,
कभी सुगम, कभी दुर्गम,
नाविक तो अधुनातन होता है,
नित्य नया, नवोन्मेष,
जो चिरंतन, सनातन और भव्य है ।
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टिप्पणी : ’नॉविस्’ / novice;  ..... और 'new',- 'नव' का वैसा ही अपभ्रंश है, जैसा बुद्धू बुद्ध का ... 
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