’मन, ’संबंध', 'पहचान और याददाश्त'
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पहचान याददाश्त पर निर्भर होती है और याददाश्त पहचान पर । यह एक ऐसा सत्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता । अर्थात् जिसे गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता । इस प्रकार हमारा जानकारी-रूपी संपूर्ण ज्ञान केवल इन दो रूपों में मस्तिष्क में अंकित होता है । यदि आप किसी चीज़ को याद रखते हैं तो ही उसे पहचान सकते हैं और विलोम-क्रम में यदि आप किसी चीज़ को पहचान सकते हैं तो वह अवश्य ही आपकी याद का हिस्सा है । विचार केवल शब्द-समूह होता है जिसमें किसी कल्पना का चित्रांकन हुआ होता है । और जिस कल्पना का चित्रांकन हुआ होता है उसका कोई स्थिर चित्र कहीं होता ही नहीं । मस्तिष्क इसी अल्पप्राय सूचना पर एक सीमित धारणा बनाता है । ऐसी कोई भी धारणा सत्य नहीं बल्कि सत्य का एक विरूपण मात्र होती है । इसी प्रकार प्रत्येक मस्तिष्क में उससे संबंधित जानकारी का एक संग्रह होता है जो यूँ तो पहचान अर्थात् याददाश्त के अंतर्गत सीमित किंतु बहुत विस्तीर्ण होता है । ’समय’ का अतीत, वर्तमान और भविष्य नामक विभाजन उसी याददाश्त अर्थात् पहचान में स्थित संग्रह के वर्गीकरण का एक प्रकार है, जिसमें ’ज्ञात’ से अतीत का तथा उस अतीत पर आधारित अनुमान से कल्पित भविष्य का सृजन मस्तिष्क द्वारा कर लिया जाता है । अतीत को जहाँ एक ठोस अपरिवर्तनीय वास्तविकता समझा जाता है वहीं भविष्य को एक लचीले अनुमान के रूप में देखा जाता है । यह अतीत और भविष्य भी पुनः भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में भिन्न-भिन्न रूप बनाते हैं और उनमें से कोई भी वैसा नहीं होता जैसा कि समझा जाता है । इस प्रकार मन नामक चेतन सत्ता द्वारा अतीत और भविष्य की बनाई गई प्रतिमा, और मस्तिष्क द्वारा की गई उसकी पहचान, -अर्थात् याददाश्त भी एक अस्थिर संरचना होती है ।
शुद्धतः ठोस इन्द्रियगम्य ’अनुभवों’ से ’प्रमाणित’ तथाकथित ’विज्ञान’ और ’गणित’ की मूल आधारभूत कल्पनाएँ केवल अनुमानित धारणाएँ होती हैं, इसलिए उनके निष्कर्ष भी ऐसे ही उनके भंगुर विकल्प मात्र होते हैं । इसलिए अनुभवों को नए-पुराने कहकर उनकी तुलना से जो ठोस प्रतीत होनेवाले ’नियम’ और ’सिद्धांत’ गढ़े जाते हैं उनकी सत्यता सदा संदिग्ध ही रहती है ।
संपूर्ण ’सूचना-तंत्र’ घटनाओं की जानकारी, और स्मृति पर अवलंबित उनकी व्याख्याओं का जोड़ भर होता है जो भिन्न-भिन्न मनुष्यों के मस्तिष्क में ’वर्तमान’ का एक पृथक चित्र बनाता है जिसकी सबके लिए कोई समान सत्यता नहीं हो सकती । इसे हम ’माया’ भी कह सकते हैं जो वास्तविकता को आवरित कर उसका एक नितांत भिन्न चित्र हमारे समक्ष रखती है और हम ’संसार’ के बारे में अपनी एक से दूसरी कल्पना पर पहुँचते हुए एक ऐसे ’संसार’ की वास्तविकता को ठोस यथार्थ समझने की भूल कर बैठते हैं जिसमें हम हैं । यह ’हम’ भी जो मूलतः ’मैं’ का ही समूहात्मक रूप होता है इसी प्रकार की ’संसार’ जैसी ही एक स्मृतिजनित और पहचान-आधारित कल्पना है जो इस संसार को इतना विविध और समृद्ध बनाती प्रतीत होती है ।
’संबंध’ किन्हीं भी दो चीज़ों या दो चेतन-सत्ताओं अर्थात् मनुष्यों या जीवित कही जानेवाली वस्तुओं के बीच की पहचान (अर्थात् पहचान की स्मृति) और स्मृति (अर्थात् स्मृति की पहचान) रूपी ’धारणा’ मात्र है । भले ही उसे कितना भी ठोस सत्य माना जाए, वह मूलतः साररहित विचार और कल्पना मात्र है ।
इस प्रकार ’संबंध’ का तत्व (निस्सारता) समझ लिये जाने पर उनके निर्वाह का, उनके बनने-मिटने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है?
क्या स्मृति और पहचान अर्थात् याददाश्त और इस पर अवलंबित ’मन’ को बीच में लाए बिना भी जीवन निरंतर अज्ञात से अज्ञात में ही गतिशील नहीं है?
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पहचान याददाश्त पर निर्भर होती है और याददाश्त पहचान पर । यह एक ऐसा सत्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता । अर्थात् जिसे गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता । इस प्रकार हमारा जानकारी-रूपी संपूर्ण ज्ञान केवल इन दो रूपों में मस्तिष्क में अंकित होता है । यदि आप किसी चीज़ को याद रखते हैं तो ही उसे पहचान सकते हैं और विलोम-क्रम में यदि आप किसी चीज़ को पहचान सकते हैं तो वह अवश्य ही आपकी याद का हिस्सा है । विचार केवल शब्द-समूह होता है जिसमें किसी कल्पना का चित्रांकन हुआ होता है । और जिस कल्पना का चित्रांकन हुआ होता है उसका कोई स्थिर चित्र कहीं होता ही नहीं । मस्तिष्क इसी अल्पप्राय सूचना पर एक सीमित धारणा बनाता है । ऐसी कोई भी धारणा सत्य नहीं बल्कि सत्य का एक विरूपण मात्र होती है । इसी प्रकार प्रत्येक मस्तिष्क में उससे संबंधित जानकारी का एक संग्रह होता है जो यूँ तो पहचान अर्थात् याददाश्त के अंतर्गत सीमित किंतु बहुत विस्तीर्ण होता है । ’समय’ का अतीत, वर्तमान और भविष्य नामक विभाजन उसी याददाश्त अर्थात् पहचान में स्थित संग्रह के वर्गीकरण का एक प्रकार है, जिसमें ’ज्ञात’ से अतीत का तथा उस अतीत पर आधारित अनुमान से कल्पित भविष्य का सृजन मस्तिष्क द्वारा कर लिया जाता है । अतीत को जहाँ एक ठोस अपरिवर्तनीय वास्तविकता समझा जाता है वहीं भविष्य को एक लचीले अनुमान के रूप में देखा जाता है । यह अतीत और भविष्य भी पुनः भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में भिन्न-भिन्न रूप बनाते हैं और उनमें से कोई भी वैसा नहीं होता जैसा कि समझा जाता है । इस प्रकार मन नामक चेतन सत्ता द्वारा अतीत और भविष्य की बनाई गई प्रतिमा, और मस्तिष्क द्वारा की गई उसकी पहचान, -अर्थात् याददाश्त भी एक अस्थिर संरचना होती है ।
शुद्धतः ठोस इन्द्रियगम्य ’अनुभवों’ से ’प्रमाणित’ तथाकथित ’विज्ञान’ और ’गणित’ की मूल आधारभूत कल्पनाएँ केवल अनुमानित धारणाएँ होती हैं, इसलिए उनके निष्कर्ष भी ऐसे ही उनके भंगुर विकल्प मात्र होते हैं । इसलिए अनुभवों को नए-पुराने कहकर उनकी तुलना से जो ठोस प्रतीत होनेवाले ’नियम’ और ’सिद्धांत’ गढ़े जाते हैं उनकी सत्यता सदा संदिग्ध ही रहती है ।
संपूर्ण ’सूचना-तंत्र’ घटनाओं की जानकारी, और स्मृति पर अवलंबित उनकी व्याख्याओं का जोड़ भर होता है जो भिन्न-भिन्न मनुष्यों के मस्तिष्क में ’वर्तमान’ का एक पृथक चित्र बनाता है जिसकी सबके लिए कोई समान सत्यता नहीं हो सकती । इसे हम ’माया’ भी कह सकते हैं जो वास्तविकता को आवरित कर उसका एक नितांत भिन्न चित्र हमारे समक्ष रखती है और हम ’संसार’ के बारे में अपनी एक से दूसरी कल्पना पर पहुँचते हुए एक ऐसे ’संसार’ की वास्तविकता को ठोस यथार्थ समझने की भूल कर बैठते हैं जिसमें हम हैं । यह ’हम’ भी जो मूलतः ’मैं’ का ही समूहात्मक रूप होता है इसी प्रकार की ’संसार’ जैसी ही एक स्मृतिजनित और पहचान-आधारित कल्पना है जो इस संसार को इतना विविध और समृद्ध बनाती प्रतीत होती है ।
’संबंध’ किन्हीं भी दो चीज़ों या दो चेतन-सत्ताओं अर्थात् मनुष्यों या जीवित कही जानेवाली वस्तुओं के बीच की पहचान (अर्थात् पहचान की स्मृति) और स्मृति (अर्थात् स्मृति की पहचान) रूपी ’धारणा’ मात्र है । भले ही उसे कितना भी ठोस सत्य माना जाए, वह मूलतः साररहित विचार और कल्पना मात्र है ।
इस प्रकार ’संबंध’ का तत्व (निस्सारता) समझ लिये जाने पर उनके निर्वाह का, उनके बनने-मिटने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है?
क्या स्मृति और पहचान अर्थात् याददाश्त और इस पर अवलंबित ’मन’ को बीच में लाए बिना भी जीवन निरंतर अज्ञात से अज्ञात में ही गतिशील नहीं है?
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