राघवयादवीयम् और वेदभाषा
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प्रथम श्लोक में पहली पंक्ति का अंतिम शब्द भारामोराः जिसका विलोम > रामोराभा होगा,
त्रुटिपूर्ण जान पड़ता है क्योंकि विलोम श्लोक में दूसरी पंक्ति के प्रथम दो शब्द मिलकर रामारामाधीराप्यागो बनते हैं ....
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कहा जाता है कि ऐसा ही एक ग्रंथ और भी है जिसके श्लोकों को अनुलोम-विलोम रीति से पढ़ने पर एक प्रकार से तो रामायण की कथा तो दूसरे प्रकार से महाभारत की कथा का वर्णन होता है । इस बारे में सुना-पढ़ा तो है, लेकिन अभी तक कहीं प्राप्त नहीं हुआ ।
ऐसी जानकारी का अवश्य ही बहुत महत्व है, किंतु ऐसे कोरे कौतूहल से क्या लाभ कि जो उपलब्ध है उसकी पर्याप्त गहराई में जाने के बारे में विचार तक न करते हुए जो अनुपलब्ध है उसके बारे में जान लिया जाए? कौतूहल संतुष्ट भी हो जाए तो क्या? क्या हम तर्क-कुतर्कयुक्त विवादों में उलझने से या मन को व्यस्त रखने के लिए मनोरंजन में लिप्त होना बंद कर देंगे?
शायद इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि क्या नित्य है और क्या अनित्य है? इस पर ध्यान से विचार करनेवाले को ही विवेक प्राप्त होता है, विवेक के परिपक्व होने पर समस्त अनित्य समझी जानेवाली वस्तुओं से वैराग्य (राग-द्वेष दोनों का अभाव) हो जाता है । तब नित्य तत्व की ओर मनुष्य का ध्यान आकर्षित होता है और उसे वह एकमात्र चैतन्यतत्व के रूप में ’ईश्वर’ की तरह ग्रहण कर उसकी भक्ति कैसे हो इस ओर ध्यान देता है । या फिर उसके मन में ’मैं कौन?’ अर्थात् वह कौन है जो ईश्वर की भक्ति करना चाहता है, जो असंतुष्ट है, जो भ्रमित है जिसे पता नहीं कि मृत्यु के बाद उसका क्या होगा, इसलिए वह परस्पर विपरीत धारणाओं की शरण लेता है.... इस प्रकार की गहरी जिज्ञासा को स्वाभाविक ’निष्ठा’ कहा जाता है । स्वाभाविक निष्ठा का एक रूप वह भी है जिसे श्रीमद्भग्वद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अध्याय ३, श्लोक ३ में योगनिष्ठा और ज्ञाननिष्ठा के रूप में वर्णित किया है और जो क्रमश योगियों (अर्थात् कर्मयोग पर आस्था रखने और उस पर चलनेवालों में) और ज्ञानियों (अर्थात् साङ्ख्य के अनुसार स्थितप्रज्ञ) के सन्दर्भ में होती है । पुनः जो इनमें से किसी भी स्थिति में नहीं है अभी जिज्ञासु मात्र है और या तो किसी दिव्य अलौकिक ईश्वरीय सत्ता को सबका नियन्ता स्वीकार कर किसी नाम-रूप से उसकी उपासना करता है या सीधे ही ’मैं’ शब्द के तात्पर्य को समझने के लिए प्रवृत्त होता है, और जिसे ऐसे व्यक्ति को प्रचलित पारंपरिक अर्थ में नास्तिक भी कहा जा सकता है क्योंकि वह ईश्वर के बारे में जानने का दावा तो नहीं करता और इसलिए ईश्वर की अवहेलना भी नहीं करता किंतु वह अपने-आप के अस्तित्व को अनायास जानता है (और प्रत्येक ही जानता है) इसलिए ’अपने होने’ के तात्पर्य को समझना उसे अधिक आवश्यक और संभव जान पड़ता है । दूसरी ओर, जो जीवन को दुःखस्वरूप जानने से ’अपने’ को दुःख-निरोध के उपाय को खोजने मे प्रवृत्त पाता है, वह भी ’आत्म-जिज्ञासा’ से अंततः परम सत्य को अवश्य ही जान लेता है । जिन खोजाँ तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ, मैं अभागन रोती रही, रही किनारे बैठ ...
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यह ग्रंथ इस ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि संस्कृत मूलतः मंत्रमयी भाषा है क्योंकि विलोमक्रम से श्लोकों की रचना किए जाने में छन्द की दृष्टि से तो वर्णों की मात्रा काव्य-सिद्धान्त के अनुरूप है किंतु वर्णों के स्वरूप में भेद आ गया है । इसे और स्पष्ट समझने के लिए उन दोनों श्लोकों का संधि-विग्रह किया जाना पर्याप्त होगा जो परस्पर विलोम-क्रम से ये दो रूप लेते हैं ।
इससे यह भी समझना सरल होगा कि कि वेदों का अर्थ / अनुवाद करने का विचार न केवल व्यर्थ है बल्कि ऐसा करना महाअनिष्टकारी भी है ।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि वेद का प्रयोजन भी है और अर्थ भी है। किसी उपयोगी वस्तु का प्रयोजन होता है किंतु 'अर्थ' होना आवश्यक नहीं। वैसे ही किसी विचार का अर्थ हो सकता है किंतु 'प्रयोजन' हो यह आवश्यक नहीं। जब किसी शब्द-समूह को मन्त्र की तरह प्रयोग में लाया जाता है तब उसका सुनिश्चित अर्थ भी होता है और प्रयोजन भी। इसलिए ग्रंथ के रूप में 'वेद' का अनुवाद करना निहायत जोखिम भरा प्रयास है। हाँ, यदि वेद के संबंध में जानकारी के लिए औपचारिक प्रस्तावना की दृष्टि से कोई ऐसा प्रयास करता है तो लिए तो वह स्वतंत्र है ही।
यहाँ यह ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि वेदाध्ययन केवल 'अधिकारी' अर्थात् योग्य पात्र व्यक्ति के द्वारा किया और कराया जा सकता है । इसलिए वेद 'श्रुति' भी कहा जाता है। तात्पर्य यह कि वेद का शुद्ध स्वरूप 'श्रव्य' है और इसी परंपरा के अनुसार इस सनातन धर्म को भावी पीढ़ियों तक सम्प्रेषित किया जाता है । किंतु इस प्रकार प्राप्त वेदरूपी विद्या को लिखे जाने की आवश्यकता भी निःसंदेह है। लिखे जाने के लिए दो लिपियाँ वेदविदों द्वारा उद्घाटित की गईं, जो वेद के श्रव्य रूप को शुद्धतम रूप में अभिव्यक्त कर सकें। एक है ब्राह्मी दूसरी है नागरी। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ब्राह्मी (ब्रह्मा की) की तमिऴ् / தமிழ் लिपि के प्रयोग से उसका श्रव्य रूप केवल अनुमानित होता है और किसी आचार्य से ही उसके वास्तविक रूप को जाना जा सकता है, वहीं नागरी / देवनागरी में श्रव्य-रूप को अधिक शुद्ध रखा जा सकता है। पुनः लिखे गए ग्रंथ में भी प्रमादवश या परिस्थितियों के कारण वर्तनी की भूल न होना असंभव तो नहीं है। इसलिए तमिऴ् / தமிழ்
हो या नागरी वेदपठन और पाठन श्रव्य-रूप में होना / किया जाना ही प्रामाणिक है।
क्योंकि वेद (जिसका एक अर्थ छंद भी है) मूलतः ध्वनि-शास्त्र है । ध्वनि का अर्थ है phoneme और न केवल वर्णात्मक बल्कि प्राणात्मक रूप से भी अर्थात् स्वनिम् (phonetic) एवं रूपिम् (figurative) इन दोनों रूपों में ।
यह ग्रंथ इस ओर भी संकेत करता है कि ’ईश्वर’ जिसने श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया एक ही तत्व है और पुराणों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए ।
वैसे इस ग्रंथ को पूर्व में देखा था तो इस बारे में लिखने का विचार आया था ।
आज पुनः देखा तो स्मरण हुआ ।
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प्रथम श्लोक में पहली पंक्ति का अंतिम शब्द भारामोराः जिसका विलोम > रामोराभा होगा,
त्रुटिपूर्ण जान पड़ता है क्योंकि विलोम श्लोक में दूसरी पंक्ति के प्रथम दो शब्द मिलकर रामारामाधीराप्यागो बनते हैं ....
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कहा जाता है कि ऐसा ही एक ग्रंथ और भी है जिसके श्लोकों को अनुलोम-विलोम रीति से पढ़ने पर एक प्रकार से तो रामायण की कथा तो दूसरे प्रकार से महाभारत की कथा का वर्णन होता है । इस बारे में सुना-पढ़ा तो है, लेकिन अभी तक कहीं प्राप्त नहीं हुआ ।
ऐसी जानकारी का अवश्य ही बहुत महत्व है, किंतु ऐसे कोरे कौतूहल से क्या लाभ कि जो उपलब्ध है उसकी पर्याप्त गहराई में जाने के बारे में विचार तक न करते हुए जो अनुपलब्ध है उसके बारे में जान लिया जाए? कौतूहल संतुष्ट भी हो जाए तो क्या? क्या हम तर्क-कुतर्कयुक्त विवादों में उलझने से या मन को व्यस्त रखने के लिए मनोरंजन में लिप्त होना बंद कर देंगे?
शायद इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि क्या नित्य है और क्या अनित्य है? इस पर ध्यान से विचार करनेवाले को ही विवेक प्राप्त होता है, विवेक के परिपक्व होने पर समस्त अनित्य समझी जानेवाली वस्तुओं से वैराग्य (राग-द्वेष दोनों का अभाव) हो जाता है । तब नित्य तत्व की ओर मनुष्य का ध्यान आकर्षित होता है और उसे वह एकमात्र चैतन्यतत्व के रूप में ’ईश्वर’ की तरह ग्रहण कर उसकी भक्ति कैसे हो इस ओर ध्यान देता है । या फिर उसके मन में ’मैं कौन?’ अर्थात् वह कौन है जो ईश्वर की भक्ति करना चाहता है, जो असंतुष्ट है, जो भ्रमित है जिसे पता नहीं कि मृत्यु के बाद उसका क्या होगा, इसलिए वह परस्पर विपरीत धारणाओं की शरण लेता है.... इस प्रकार की गहरी जिज्ञासा को स्वाभाविक ’निष्ठा’ कहा जाता है । स्वाभाविक निष्ठा का एक रूप वह भी है जिसे श्रीमद्भग्वद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अध्याय ३, श्लोक ३ में योगनिष्ठा और ज्ञाननिष्ठा के रूप में वर्णित किया है और जो क्रमश योगियों (अर्थात् कर्मयोग पर आस्था रखने और उस पर चलनेवालों में) और ज्ञानियों (अर्थात् साङ्ख्य के अनुसार स्थितप्रज्ञ) के सन्दर्भ में होती है । पुनः जो इनमें से किसी भी स्थिति में नहीं है अभी जिज्ञासु मात्र है और या तो किसी दिव्य अलौकिक ईश्वरीय सत्ता को सबका नियन्ता स्वीकार कर किसी नाम-रूप से उसकी उपासना करता है या सीधे ही ’मैं’ शब्द के तात्पर्य को समझने के लिए प्रवृत्त होता है, और जिसे ऐसे व्यक्ति को प्रचलित पारंपरिक अर्थ में नास्तिक भी कहा जा सकता है क्योंकि वह ईश्वर के बारे में जानने का दावा तो नहीं करता और इसलिए ईश्वर की अवहेलना भी नहीं करता किंतु वह अपने-आप के अस्तित्व को अनायास जानता है (और प्रत्येक ही जानता है) इसलिए ’अपने होने’ के तात्पर्य को समझना उसे अधिक आवश्यक और संभव जान पड़ता है । दूसरी ओर, जो जीवन को दुःखस्वरूप जानने से ’अपने’ को दुःख-निरोध के उपाय को खोजने मे प्रवृत्त पाता है, वह भी ’आत्म-जिज्ञासा’ से अंततः परम सत्य को अवश्य ही जान लेता है । जिन खोजाँ तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ, मैं अभागन रोती रही, रही किनारे बैठ ...
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यह ग्रंथ इस ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि संस्कृत मूलतः मंत्रमयी भाषा है क्योंकि विलोमक्रम से श्लोकों की रचना किए जाने में छन्द की दृष्टि से तो वर्णों की मात्रा काव्य-सिद्धान्त के अनुरूप है किंतु वर्णों के स्वरूप में भेद आ गया है । इसे और स्पष्ट समझने के लिए उन दोनों श्लोकों का संधि-विग्रह किया जाना पर्याप्त होगा जो परस्पर विलोम-क्रम से ये दो रूप लेते हैं ।
इससे यह भी समझना सरल होगा कि कि वेदों का अर्थ / अनुवाद करने का विचार न केवल व्यर्थ है बल्कि ऐसा करना महाअनिष्टकारी भी है ।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि वेद का प्रयोजन भी है और अर्थ भी है। किसी उपयोगी वस्तु का प्रयोजन होता है किंतु 'अर्थ' होना आवश्यक नहीं। वैसे ही किसी विचार का अर्थ हो सकता है किंतु 'प्रयोजन' हो यह आवश्यक नहीं। जब किसी शब्द-समूह को मन्त्र की तरह प्रयोग में लाया जाता है तब उसका सुनिश्चित अर्थ भी होता है और प्रयोजन भी। इसलिए ग्रंथ के रूप में 'वेद' का अनुवाद करना निहायत जोखिम भरा प्रयास है। हाँ, यदि वेद के संबंध में जानकारी के लिए औपचारिक प्रस्तावना की दृष्टि से कोई ऐसा प्रयास करता है तो लिए तो वह स्वतंत्र है ही।
यहाँ यह ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि वेदाध्ययन केवल 'अधिकारी' अर्थात् योग्य पात्र व्यक्ति के द्वारा किया और कराया जा सकता है । इसलिए वेद 'श्रुति' भी कहा जाता है। तात्पर्य यह कि वेद का शुद्ध स्वरूप 'श्रव्य' है और इसी परंपरा के अनुसार इस सनातन धर्म को भावी पीढ़ियों तक सम्प्रेषित किया जाता है । किंतु इस प्रकार प्राप्त वेदरूपी विद्या को लिखे जाने की आवश्यकता भी निःसंदेह है। लिखे जाने के लिए दो लिपियाँ वेदविदों द्वारा उद्घाटित की गईं, जो वेद के श्रव्य रूप को शुद्धतम रूप में अभिव्यक्त कर सकें। एक है ब्राह्मी दूसरी है नागरी। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ब्राह्मी (ब्रह्मा की) की तमिऴ् / தமிழ் लिपि के प्रयोग से उसका श्रव्य रूप केवल अनुमानित होता है और किसी आचार्य से ही उसके वास्तविक रूप को जाना जा सकता है, वहीं नागरी / देवनागरी में श्रव्य-रूप को अधिक शुद्ध रखा जा सकता है। पुनः लिखे गए ग्रंथ में भी प्रमादवश या परिस्थितियों के कारण वर्तनी की भूल न होना असंभव तो नहीं है। इसलिए तमिऴ् / தமிழ்
हो या नागरी वेदपठन और पाठन श्रव्य-रूप में होना / किया जाना ही प्रामाणिक है।
क्योंकि वेद (जिसका एक अर्थ छंद भी है) मूलतः ध्वनि-शास्त्र है । ध्वनि का अर्थ है phoneme और न केवल वर्णात्मक बल्कि प्राणात्मक रूप से भी अर्थात् स्वनिम् (phonetic) एवं रूपिम् (figurative) इन दोनों रूपों में ।
यह ग्रंथ इस ओर भी संकेत करता है कि ’ईश्वर’ जिसने श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया एक ही तत्व है और पुराणों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए ।
वैसे इस ग्रंथ को पूर्व में देखा था तो इस बारे में लिखने का विचार आया था ।
आज पुनः देखा तो स्मरण हुआ ।
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