जीवन में हर क्षण नई चुनौतियाँ है और हर नई चुनौती का सामना नए ढंग से होता है ।
शुद्ध भौतिक-ज्ञान भी, जो विश्लेषण पर आधारित होता है, किन्हीं संदर्भों में ही व्यावहारिक रूप से सार्थक और उपयोगी इसलिए ’तथ्य’ होता है और उन्हीं संदर्भों में पुनः पुनः काम में आता है । इस प्रकार समस्त ज्ञात मिलकर भी किसी को पूर्ण ज्ञानवान नहीं बना सकते । एक डॉक्टर भी चिकित्सा-शास्त्र के किसी एक ही क्षेत्र का विशेषज्ञ होता है । इसी प्रकार दूसरे क्षेत्रों और विद्याओं के बारे में है । इसलिए जीवन की नई चुनौतियों का सामना इस प्रकार के ज्ञान से नहीं किया जा सकता । आप किसी क्षेत्र में भले ही किसी दूसरे से कम अथवा ज़्यादा जानते हों, अपने बारे में तो आप ही सबसे अधिक अच्छी तरह जानते / जान सकते हैं । और यह जानना किसी प्रकार की संचित जानकारी मात्र न होकर कुछ बिलकुल अलग चीज़ है क्योंकि जानकारी-रूपी ज्ञान में हमेशा ’जाने गये’ और ’जाननेवाले’ के बीच एक स्पष्ट विभाजन होता है जबकि अपने बारे में जिस ज्ञान से जाना जाता है, उस ज्ञान में ऐसा विभाजन किया जाना संभव ही नहीं है । वैसे भी आप अपने-आपको अनायास, अपने बारे में बिना किसी जानकारी के जानते ही हैं । और इस स्वाभाविक ज्ञान के बाद ही आप ’मैं’ कह पाते हैं । और यह ’मैं’ भी किसी ’दूसरे’ के संदर्भ में ही प्रकट होता है । क्या इसका मतलब यह है इससे पहले आप नहीं हैं या तब आपको अपने होने के बारे में पता नहीं था? यह ’दूसरा’ जो एक रूप में आपसे मिलता-जुलता कोई ’अन्य’ हो सकता है या आपसे भिन्न प्रकार की कोई जड वस्तु । यह ’दूसरा’ कोई ’अनुभव’ हो सकता है, ’विचार’, ’कल्पना’ या स्मृति हो सकता है । बहरहाल यह तय है कि ’आप’ इस समूची गतिविधि में, इस समूची गतिविधि से नितांत अप्रभावित रहते हैं । यह और बात है कि सिर्फ़ भावुकता, मुग्धता, बाध्यता या अभ्यासवश आप ऐसी किसी दूसरी वस्तु से स्वयं को इतना जोड़ लें कि उसके बिना अपना होना आपको असंभव जान पड़े, लेकिन आपको भी यह सत्य अच्छी तरह पता है कि वह ’अन्य’ आपके ही समक्ष आता और जाता भी रहता है । इसके लिए क्या कोई प्रमाण दिया जाना होगा कि आप इस सबसे हमेशा ही और नितांत अछूते रहते हैं? लेकिन क्या यह ज्ञान या बोध उन असंख्य अनेक ’अन्य’ वस्तुओं की तरह की, -उनके जैसी, कोई ’आने-जाने वाली’ वस्तु है ? ’अनुभव’, ’विचार’, ’कल्पना’ या स्मृति की ही तरह ’अतीत’ और ’कल्पित-भविष्य’ का अनुमान भी क्या ऐसी ही ’अन्य’ वस्तु नहीं है?
क्या आपके होनेमात्र से ही आपमें अपने होने का भान भी नहीं होता? क्या आपका होनामात्र भी इसी भान से अभिन्न नहीं है? क्या यह भान और होना कोई ’अन्य’ वस्तु है?
इस प्रकार ’ज्ञात’ / जानकारी से विलक्षण प्रकार का ज्ञान ही, -क्या आपका अपने-आपके बारे में जानना नहीं है?
किंतु जानकारीयुक्त ज्ञान को ज्ञान समझ बैठने की भूल हमें हमारे इस सरल, सहज, स्वाभाविक ज्ञान की ओर ध्यान नहीं देने देती और तब हम ’आत्म-ज्ञान’ को कोई अत्यन्त दुर्लभ वस्तु समझकर किन्हीं गुरुओं और शास्त्रों की शरण में जाते हैं । क्या वे गुरु या शास्त्र भी हमसे ’अन्य’ ही नहीं हैं?
यह हुआ हमारा ’आध्यात्मिक-सत्य’ ।
क्या यह सत्य व्यावहारिक जगत् की चुनौतियों का सामना करने में हमें सहायक हो सकता है?
चूँकि व्यावहारिक जगत् की चुनौतियाँ चूँकि व्यावहारिक जगत् से ही उत्पन्न होती हैं इसलिए व्यावहारिक जानकारी से किसी हद तक उनका सामना भी शायद किया जा सकता है । क्या धर्म, परंपरा, जीवन की नई चुनौतियों का सामना करने के लिए कोई ’मन्त्र’ या सूत्र दे सकते हैं?
धर्म और परंपरा ने हमें ’परिवार’ की अवधारणा दी । वह निश्चित ही एक व्यवस्था है, और कोई भी व्यवस्था प्रारंभ में किसी कामचलाऊ ’प्रारूप’ में ही स्थापित होती है । ’परिवार’ की व्यवस्था और उसके लिए ’विवाह’ की विधि उन ऋषियों ने स्थापित की जिन्हें वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए वर्ण की शुद्धता को बनाए रखना अपरिहार्य जान पड़ा । क्योंकि वर्ण (की शुद्धता) ’गुणों’ और ’कर्म’ पर आधारित है इसलिए वर्णों के मिश्रण से व्यवस्था को स्थिर नहीं रखा जा सकता, और इसलिए समाज के स्तर पर ’विवाह’ ही एकमात्र सर्वोत्तम व्यवस्था हो सकती है । किंतु यह भी सत्य है कि एक बार यह व्यवस्था भंग हो गई तो फिर इसे बनाए रखना या न बनाए रखने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है । संयोगवश हम उसी काल में जी रहे हैं । और न तो वेद और न ही वे ऋषि किसी व्यवस्था को बलपूर्वक स्थापित करने के पक्ष में हैं, यह कहना गलत न होगा । अर्जुन द्वारा यह दलील दी गई कि युद्ध से कुलक्षय होगा, फिर कुलधर्मों का नाश होगा जिससे अधर्म होगा, अधर्म होने पर कुल की स्त्रियाँ प्रदूषित होंगीं, जिससे वर्णसङ्कर होगा और वर्णसङ्कर होने से पितरों को पिण्डदान, तर्पण आदि का अनुष्ठान भी नहीं होगा और हमारे पूर्वज भी अनियत समय तक नरकों में पड़े रहेंगे .... इस सब पाप में संलग्न होने से तो अधिक अच्छा यही होगा कि मैं युद्ध न करूँ ।
इसके बाद भी युद्ध हुआ क्योंकि अर्जुन अकेला होनी को कैसे टाल सकता था । और महाभारत की समाप्ति होते-होते कलियुग का आगमन हो गया ।
अब हमारे समक्ष ’विवाह’ का अर्थ और संदर्भ बदल गए हैं । अब विवाह एक साधन है, कुल या वंश को बनाए रखने का नहीं, बल्कि भौतिक समृद्धि पाने और बनाए रखने का साधन है । जहाँ शारीरिक संबंध यज्ञ-कर्म न होकर शारीरिक और मानसिक भूख मिटाने के लिए समाज और तथाकथित धर्म की कसौटी पर प्राप्त किया जानेवाला लाइसेंस भर है, इसलिए समलैंगिक विवाह भी विचारणीय विषय, बहस का विषय है । जहाँ विवाह के अर्थ और संदर्भ ही नितांत बदल गए हैं ।
क्या हम इन चुनौतियों का सामना करने को तैयार हैं?
क्या कहेंगे आप?
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शुद्ध भौतिक-ज्ञान भी, जो विश्लेषण पर आधारित होता है, किन्हीं संदर्भों में ही व्यावहारिक रूप से सार्थक और उपयोगी इसलिए ’तथ्य’ होता है और उन्हीं संदर्भों में पुनः पुनः काम में आता है । इस प्रकार समस्त ज्ञात मिलकर भी किसी को पूर्ण ज्ञानवान नहीं बना सकते । एक डॉक्टर भी चिकित्सा-शास्त्र के किसी एक ही क्षेत्र का विशेषज्ञ होता है । इसी प्रकार दूसरे क्षेत्रों और विद्याओं के बारे में है । इसलिए जीवन की नई चुनौतियों का सामना इस प्रकार के ज्ञान से नहीं किया जा सकता । आप किसी क्षेत्र में भले ही किसी दूसरे से कम अथवा ज़्यादा जानते हों, अपने बारे में तो आप ही सबसे अधिक अच्छी तरह जानते / जान सकते हैं । और यह जानना किसी प्रकार की संचित जानकारी मात्र न होकर कुछ बिलकुल अलग चीज़ है क्योंकि जानकारी-रूपी ज्ञान में हमेशा ’जाने गये’ और ’जाननेवाले’ के बीच एक स्पष्ट विभाजन होता है जबकि अपने बारे में जिस ज्ञान से जाना जाता है, उस ज्ञान में ऐसा विभाजन किया जाना संभव ही नहीं है । वैसे भी आप अपने-आपको अनायास, अपने बारे में बिना किसी जानकारी के जानते ही हैं । और इस स्वाभाविक ज्ञान के बाद ही आप ’मैं’ कह पाते हैं । और यह ’मैं’ भी किसी ’दूसरे’ के संदर्भ में ही प्रकट होता है । क्या इसका मतलब यह है इससे पहले आप नहीं हैं या तब आपको अपने होने के बारे में पता नहीं था? यह ’दूसरा’ जो एक रूप में आपसे मिलता-जुलता कोई ’अन्य’ हो सकता है या आपसे भिन्न प्रकार की कोई जड वस्तु । यह ’दूसरा’ कोई ’अनुभव’ हो सकता है, ’विचार’, ’कल्पना’ या स्मृति हो सकता है । बहरहाल यह तय है कि ’आप’ इस समूची गतिविधि में, इस समूची गतिविधि से नितांत अप्रभावित रहते हैं । यह और बात है कि सिर्फ़ भावुकता, मुग्धता, बाध्यता या अभ्यासवश आप ऐसी किसी दूसरी वस्तु से स्वयं को इतना जोड़ लें कि उसके बिना अपना होना आपको असंभव जान पड़े, लेकिन आपको भी यह सत्य अच्छी तरह पता है कि वह ’अन्य’ आपके ही समक्ष आता और जाता भी रहता है । इसके लिए क्या कोई प्रमाण दिया जाना होगा कि आप इस सबसे हमेशा ही और नितांत अछूते रहते हैं? लेकिन क्या यह ज्ञान या बोध उन असंख्य अनेक ’अन्य’ वस्तुओं की तरह की, -उनके जैसी, कोई ’आने-जाने वाली’ वस्तु है ? ’अनुभव’, ’विचार’, ’कल्पना’ या स्मृति की ही तरह ’अतीत’ और ’कल्पित-भविष्य’ का अनुमान भी क्या ऐसी ही ’अन्य’ वस्तु नहीं है?
क्या आपके होनेमात्र से ही आपमें अपने होने का भान भी नहीं होता? क्या आपका होनामात्र भी इसी भान से अभिन्न नहीं है? क्या यह भान और होना कोई ’अन्य’ वस्तु है?
इस प्रकार ’ज्ञात’ / जानकारी से विलक्षण प्रकार का ज्ञान ही, -क्या आपका अपने-आपके बारे में जानना नहीं है?
किंतु जानकारीयुक्त ज्ञान को ज्ञान समझ बैठने की भूल हमें हमारे इस सरल, सहज, स्वाभाविक ज्ञान की ओर ध्यान नहीं देने देती और तब हम ’आत्म-ज्ञान’ को कोई अत्यन्त दुर्लभ वस्तु समझकर किन्हीं गुरुओं और शास्त्रों की शरण में जाते हैं । क्या वे गुरु या शास्त्र भी हमसे ’अन्य’ ही नहीं हैं?
यह हुआ हमारा ’आध्यात्मिक-सत्य’ ।
क्या यह सत्य व्यावहारिक जगत् की चुनौतियों का सामना करने में हमें सहायक हो सकता है?
चूँकि व्यावहारिक जगत् की चुनौतियाँ चूँकि व्यावहारिक जगत् से ही उत्पन्न होती हैं इसलिए व्यावहारिक जानकारी से किसी हद तक उनका सामना भी शायद किया जा सकता है । क्या धर्म, परंपरा, जीवन की नई चुनौतियों का सामना करने के लिए कोई ’मन्त्र’ या सूत्र दे सकते हैं?
धर्म और परंपरा ने हमें ’परिवार’ की अवधारणा दी । वह निश्चित ही एक व्यवस्था है, और कोई भी व्यवस्था प्रारंभ में किसी कामचलाऊ ’प्रारूप’ में ही स्थापित होती है । ’परिवार’ की व्यवस्था और उसके लिए ’विवाह’ की विधि उन ऋषियों ने स्थापित की जिन्हें वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए वर्ण की शुद्धता को बनाए रखना अपरिहार्य जान पड़ा । क्योंकि वर्ण (की शुद्धता) ’गुणों’ और ’कर्म’ पर आधारित है इसलिए वर्णों के मिश्रण से व्यवस्था को स्थिर नहीं रखा जा सकता, और इसलिए समाज के स्तर पर ’विवाह’ ही एकमात्र सर्वोत्तम व्यवस्था हो सकती है । किंतु यह भी सत्य है कि एक बार यह व्यवस्था भंग हो गई तो फिर इसे बनाए रखना या न बनाए रखने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है । संयोगवश हम उसी काल में जी रहे हैं । और न तो वेद और न ही वे ऋषि किसी व्यवस्था को बलपूर्वक स्थापित करने के पक्ष में हैं, यह कहना गलत न होगा । अर्जुन द्वारा यह दलील दी गई कि युद्ध से कुलक्षय होगा, फिर कुलधर्मों का नाश होगा जिससे अधर्म होगा, अधर्म होने पर कुल की स्त्रियाँ प्रदूषित होंगीं, जिससे वर्णसङ्कर होगा और वर्णसङ्कर होने से पितरों को पिण्डदान, तर्पण आदि का अनुष्ठान भी नहीं होगा और हमारे पूर्वज भी अनियत समय तक नरकों में पड़े रहेंगे .... इस सब पाप में संलग्न होने से तो अधिक अच्छा यही होगा कि मैं युद्ध न करूँ ।
इसके बाद भी युद्ध हुआ क्योंकि अर्जुन अकेला होनी को कैसे टाल सकता था । और महाभारत की समाप्ति होते-होते कलियुग का आगमन हो गया ।
अब हमारे समक्ष ’विवाह’ का अर्थ और संदर्भ बदल गए हैं । अब विवाह एक साधन है, कुल या वंश को बनाए रखने का नहीं, बल्कि भौतिक समृद्धि पाने और बनाए रखने का साधन है । जहाँ शारीरिक संबंध यज्ञ-कर्म न होकर शारीरिक और मानसिक भूख मिटाने के लिए समाज और तथाकथित धर्म की कसौटी पर प्राप्त किया जानेवाला लाइसेंस भर है, इसलिए समलैंगिक विवाह भी विचारणीय विषय, बहस का विषय है । जहाँ विवाह के अर्थ और संदर्भ ही नितांत बदल गए हैं ।
क्या हम इन चुनौतियों का सामना करने को तैयार हैं?
क्या कहेंगे आप?
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