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जाने क्या बात है,
रात्रि में दो गीत मन में गूँज रहे थे ।
एक तो,
’जाने क्या बात है, जाने क्या बात है...’
दूसरा,
'ओ मेरे प्यार आ जा, बन के बहार ...’
जैसी मेरी आदत है, जब मैं किसी संगीत को सुनता हूँ तो या तो केवल संगीत के स्वरों को सुनता हूँ या केवल गीत के शब्दों को । संगीत सुनने में प्रायः हम इन दोनों को मिला देते हैं जिसके कारण मन अनायास एक दुरूह उलझन / कठिनाई में पड़ जाता है ।
क्या है वह कठिनाई?
जब हम किसी गीत के मुखड़े को याद करना चाहते हैं तो उसके स्वर याद नहीं आ पाते और स्वरों को याद करना चाहते हैं तो मुखड़ा याद नहीं आता ।
और यह प्रश्न और विकट तब हो जाता है जब दो गीतों के स्वर / लय एक जैसे होते हैं ।
उपरोक्त दो गीतों में यही समस्या मेरे साथ हुई ।
इसलिए नींद कैसे आती?
सुबह (!) तीन बजे नींद टूटी तो भी इनकी गूँज के मद्धम सुर लहरों की तरह इधर-उधर लहरा रहे थे ।
फिर दो छोटी पंक्तियाँ मन में उभरीं :
उग आए हैं काँटे, रूह के जिस्म में,
जिस्म को क्या पता रूह क्यों बेचैन है ।
जिस्म याने शरीर, देह, काया,
(का या? मा या, जो नहीं है, पर है जैसे प्रतीत होती है, इसलिए ’माया’)
जिस्म की रूह याने पाँच मूल तत्व जिनसे जिस्म बनता है ।
दूसरे ढंग से देखें तो चेतना भी पाँच तत्वों भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश की निर्मिति / विकार ही है ।
चेतना :
वह तत्व जिसे बोध होता है जो केवल इस बोध के ही माध्यम से ’जानता’ है किंतु यह ’जानना’ इन्द्रिय-अनुभवों से मिलकर ’सुनना’, ’देखना’, ’गंध अनुभव करना’, ’स्पर्श’ और स्वाद / रस के रूप में पहचाना जाता है । यह ’जानना’ स्वयं जब इनसे संबंधित होता है तभी इन्द्रिय-अनुभव और इन्द्रिय-ज्ञान हो पाता है । चूँकि दो या अधिक इन्द्रियाँ, अपने स्वतन्त्र रूप से अकेली ही इस इन्द्रिय-अनुभव और इन्द्रिय-ज्ञान को संभव बनाती हैं, इसलिये उनमें समान रूप से विद्यमान जिस तत्व की सहायता से वे ऐसा कर पाती हैं, वह तत्व स्वयं न तो कोई विशिष्ट अनुभव है, न विशिष्ट-ज्ञान, -वह केवल ज्ञान का तत्व या गुण मात्र है । इस की प्रगाढ़ता या गहनता इन्द्रियों में कम या अधिक होती है किंतु इसका गुण कम या अधिक नहीं होता । यह या तो होता है, या होता ही नहीं, या कहें तो सुप्त होता है । जैसे आप सुनते हैं तो यह बोध कानों तक और कानों से कार्यरूप में अनुभव और ज्ञान बनता है जिसे ’शब्द’ अर्थात् ध्वनि कहते हैं । इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों के बारे में भी है ।
ये ज्ञानेन्द्रियाँ तो बाह्य करण (साधन) हुए, जबकि जब मनुष्य बाह्य जगत से जुड़ा नहीं होता जैसे कि स्वप्न, निद्रा या अपने मन ही में कल्पना में डूबा होता है, तो जिन साधनों से उसे अनुभव और ज्ञान होता है उन्हें अन्तः-इन्द्रिय या अन्तःकरण कहा जाता है । जैसे बाह्य करणों के कार्य में ’बोध’ अर्थात् ’चेतना’ एक अनिवार्य और अपरिहार्य तत्व है, वैसे ही अन्तः-इन्द्रिय या अन्तःकरण के कार्य, अनुभव तथा ज्ञान में जो ’बोध’ मूल तत्व होता है, वह भी ’चेतना’ ही है । अन्तःकरण के कार्य कल्पना, मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार इन पाँच रूपों / प्रकारों से होते हैं । इनमें से प्रायः एक प्रधान होता है, शेष चार गौण । अर्थात् जब आप ’कल्पना’ करते हैं तब मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार नेपथ्य में चले जाते हैं । इसी प्रकार जब आप विचार करते हैं तब मन कार्य करता है, शेष नेपथ्य में चले जाते हैं । जब आपमें भावना का उद्रेक होता है तब ’चित्त’ कार्य करता है शेष नेपथ्य में चले जाते हैं । जब आप कुछ ’तय’ / निश्चय करते हैं, किसी निर्णय तक पहुँचने का यत्न करते हैं तो ’बुद्धि’ कार्यरत होती है, शेष नेपथ्य में चले जाते हैं । जब आप उस भावना से एकाकार / अभिभूत / आविष्ट हो जाते हैं तो ’अहंकार’ कार्य करता है शेष नेपथ्य में चले जाते हैं ।
पाँच मूल-तत्व जिनसे शरीर तथा मन बनते हैं अर्थात् ’पञ्चतत्व’ चेतना की प्रगाढ़ता या गहनता, सूक्ष्मता या स्थूलता के अनुसार बाह्य जगत तथा अन्तर्जगत के रूप में अनुभव किए जाते हैं ।
इस प्रकार चेतना का एक तो व्यक्त रूप है जो इन विभिन्न प्रकारों में प्रतीत होता है, दूसरा अव्यक्त आधारभूत जो इस सबका अविकारी अधिष्ठान है ।
पहले को ’जीव-चेतना’ या केवल ’जीव’ कहा जाता है, जबकि दूसरे को ’शुद्ध-चेतना’, ’शिव-चेतना’, केवल ’शिव’, ’शक्ति’ या ईश्वर कहा जाता है । क्योंकि वही अस्तित्व की नियामक शक्ति / चेतना है ।
तो चेतना भी पाँच तत्वों भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश की निर्मिति / विकार ही है । भू अर्थात् पृथ्वी अर्थात् स्थूल जगत, जिसे स्पर्श, गंध, स्वाद, ध्वनि और रूप से जाना जाता है ।
इसी प्रकार शेष चार तत्वों के बारे में भी है ।
फिर, स्पर्श वायु का, गंध पृथ्वी का, स्वाद जल (रस) का, ध्वनि (शब्द) आकाश का, और रूप अग्नि का ’प्रतिनिधि-तत्व’ है ।
जिस्म > जि > जयति > जन्म लेता है, जीवन जीता है,
रूह > रूप -जिसकी आकृति होती है इस आकृति को भी उपरोक्त पाँच तरीकों से पहचाना जाता है ।
काँटे >’मैं’-बुद्धि, जो मन, चित्त, बुद्धि, अस्मिता और कल्पना के माध्यम से व्यक्त होकर कार्य करती है ।
ये चारों ही सृष्टि के सन्दर्भ में ’सृष्टिकर्ता’ अर्थात् ब्रह्मा के चार मुख हैं ।
इसलिए ब्रह्मा ही इन चारों में व्याप्त एकमेव तत्व है, न कि कोई व्यक्ति-विशेष ।
रूह का जिस्म > चेतना जो वैसे तो निराकार, निर्वैयक्तिक है, किन्तु शरीर की भिन्नता से व्यक्ति हो जाती है ।
अब प्रश्न है कि ’बेचैनी’ क्या है?
क्या शरीर बेचैनी को जानता है?
नहीं! रूह ही जानती है, जिसमें चार काँटे उग आए हैं ।
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The following is the English Translation.
(For the links of the 2 songs referred to here, check the links as are given in the original Hindi above version.)
जाने क्या बात है,
Two rhyhtmes were resonating in mind last night.
One :
’जाने क्या बात है, जाने क्या बात है...’
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"jāne kyā bāta hai,
jāne kyā bāta hai, jāne kyā bāta hai ... nīṃda kyoṃ nahīṃ ātī, ..."
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Another : ,
’ओ मेरे प्यार आ जा, बन के बहार ...’
"o mere pyāra ā-jā, bana ke bahāra ā-jā, ..."
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By my very habit itself, when I listen to some number I either focus either upon upon the notes only or on the wordings only. I often see, usually we just mixed-up the two while listening to such a lyrical composition, that causes kind of a serious trouble. I can’t say if people too find such a situation with them.
What is that problem?
When-ever we try to recall the number, we have to bring up either the tune or the wordings of the song. Here I’m talking with giving a special reference to such a kind of Indian piece. And even when we somehow remember the tune, we just forget the wordings, or if we remember the wordings, it becomes rather recall the exact rhythm. As the Indian musical composition (not the classical, but say folk) ordinarily comprises of a theme where there is a fixed main line or two which is repeated after every stanza and there are 2, 3 or more stanzas. This problem assumes a form even more grave, when two numbers have similar musical tunes (notes), and recalling one of them brings the another as if stringed to it. As we know, in indian music, a number is often based on a , राग / rāga, - a well-defined metrical basis and it is always quite possible to get confused unless we are not a great musician. So long as the musical-composition is not written in a form (of notes) for example as one that is written for playing upon a violin or piono, this problem at once get our attention switched over from one to another, and not remembering the lyrics worsens the difficulty even more.
The same thing happened in my case with the two above-referred to numbers.
So this was but expected that I could not go to sleep.
Today in the early morning (precisely at 3:00 a.m.), when I got up, the notes were just permeating in the mind, leaving me just sleepless. The reverberations forced the two songs getting mingled-up in such a way it was kind of a torture in itself.
Then 2 short lines came up in the mind :
उग आए हैं काँटे, रूह के जिस्म में,
जिस्म को क्या पता रूह क्यों बेचैन है ।
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Transliteration of the above:
uga āe haiṃ kām̐ṭe, rūha ke jisma meṃ,
jisma kyā patā, rūha kyoṃ becaina hai |
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The cacti have grown up in the body of the soul,
The body does not know why the soul is restless.
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Will be a near-about rendering into English.
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The body means the physical structure, the living organism.
Which is said to be made-up of the five basic elements the earth, the water, the air, the fire and the ether (space / sky).
This body is again a ‘magic’ / illusion which could be referred to as
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मा या / mā yā > माया / māyā , / का या / kā yā > काया > kāyā,
in संस्कृत / saṃskṛta,
these words beautifully explain how this is possible.
मा या / mā yā > means : What (feminine) exists / lasts not..
माया / māyā > means : magic or illusion, appearance.
का या / kā yā > means : That (feminine) which.
काया > kāyā, > means : the body.
Looking this through another angle implies the body and the body-consciousness too is but made of these very 5 elements and vice-versa.
Again here by ‘body-consciousness’ we mean the consciousness that ‘knows’ the body (because material-body is just inert in the sense of ‘knowing’ independently.
And by ‘body-consciousness’ we also mean the apparent ‘knowing’ itself, pure or compounded with knowledge, mind, intellect, ego-conceit, and imagination.
The element who perceives, knows so only through this consciousness, but this ‘knowing’ mixed-up with the experience of the senses is recognized in terms of ‘hearing’, ‘form’, ‘smell’, ‘touch’ ‘taste’.
Only when this ‘knowing’ is associated with any of the 5 senses of perception turns into the ‘sense-experience’, and gives rise to the ‘knowledge’ of the sense-kind. As we know, at any time, only one of the 5 senses assumes the prominant place while the other 4 go out of focus, keeping them on hold, only one specific sense-organ helps in ‘experiencing’ an object of perception. Only because of the common element and ‘the quality’ of ‘consciousness’, these 5 senses work independently and don’t interfere in one-another’s workingThis lets us see that this ‘knowing’, this formless factor that facilitates the working of senses, is though formless is not affected, nor affects them in inay way. The intensity and the subtlity, the inherent force it exerts is unaffected throughout the perception. While a sense-orgen performs its task, it is either there or just is not there, or is in a silent mode. For example when we ‘hear’, this helps hearing happen, and then hearing becomes knowledge and experience, though consciousness is none of the two.
These semse-organs are only the external instruments and have their respective roles while one is engaged in an activity of a purely physical kind. But when one is almost cut-off from the external world of senses, then also there are facilities that help one in performing mental tasks like when one is in a dream or just fast asleep, thinks or broods over something, ponders over a subject intellectually (through memory and the knowlede in the form of the memory) or tries to decide, -to reach at a conclusion, or just identified with a ‘feeling’ or emotion.The mental instruments through which this happens are called ‘internal-senses’ in the traditionala Vedant-texts. This implies that just as in the case of external senses and their working, the same ‘knowing’ facilitates the activities of the mind. Thus we can distinguish between a ‘consciousness’ in the form of ‘knowing’ that is neither knowledge, nor experience nor changes with the changing situations, external physical or internal mental, but the ground where this all happens. And at the same time, this is independent in its own Reality –whatever.
Again, the 5 internal mental core patterns that make the perception possible namely; imagination, mind, intellect, emotion / feeling, and ego-sense. are supported by this ‘knowing’ only and thought the ‘knowing’
is their only evidence, ‘knowing’ could not be grasped by any of them.
That formless incorriptible, immaculate ‘knowing’ is the substratum of these all things.
We see that this ‘knowing’ in one form is the manifest but in yet another the latent potential.
The first manifest form is either the body and the world internal of mind or external of material and objects.
Another is the immutable substratum, the support of all yet beyond the grasp of the senses or the mind.
The individual souls is caught into a physical form while the totality is beyond form but is essence only. The individual soul is called person that is a formal description of the imagined entity only, which comprises of body, mind and an imagines ‘self’ which is but a bye-product of body-consciousness only.
Apparently there is an Intellegence which keeps this compact manifestation strictly regulated and maintained in such a beautiful way with no inherent contradictions any.
This Intelligence is the roota and source, the expression and the manifestation.
So far we knew what is ‘self’ or individual,
What is the Intelligengence, core and the essence.
And what is the body of the ‘soul’ and the ‘soul’ of the body.
“Who suffers?” is yet to be answered.
The cactii, the evolution of the sense of one-self as a separate and distinct entity endowed with the thorns that is, of imagination, mind, intellect, emotion / feeling, and ego-sense. is the cactii, who suffers on its own.
Does the body ‘knows’ the suffering?
Does the Intelligence suffer?
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