Friday, 29 September 2017

The Dream of Ravan - A Mystery / रावण का स्वप्न - एक रहस्य

रावण का स्वप्न
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आजकल ’रावण का स्वप्न’ नामक पुस्तक पढ़ रहा हूँ । अभी ३ अध्याय पढ़े हैं किसी भी किताब को पूरी तरह पढ़े बिना उस के बारे कोई राय नहीं बनाता, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि किसी हद तक यह रोचक और ज्ञानवर्धक तो है ही । ज्ञान के अपने ख़तरे होते ही हैं ज्ञान ’शक्ति’ है और शक्ति का प्रयोग खुद किया जाये या खुद पर हो, शक्ति के रूप में ज्ञान का अधूरा ज्ञान होना, लाभ के बजाय हानि भी पहुँचा सकता है । किसी भी प्रकार के ज्ञान के बारे में यह सत्य है । क्योंकि किसी भी प्रकार का ज्ञान सदा अधूरा ही होता है । हाँ ’जिसे’ ज्ञान अथवा अज्ञान है ’वह’ क्या है इसे जब जान लिया जाता है तो ऐसा ज्ञान शाब्दिक या अनुभवपरक न होकर यथार्थपरक होता है और उस पर पूर्ण-अपूर्ण का प्रयोग लागू नहीं होता । वह अखंडित, नित्य और शाश्वत है किंतु ’नया’ भी नहीं होता । ’नया’ और ’पुराना’ तो वह ’ज्ञान’ है जो आता-जाता रहता है ।
शायद ’रावण का स्वप्न’ की यही 'फलश्रुति' होगी, ऐसा अनुमान है ।
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The Dream of Ravan - A Mystery. 
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So far got through the 3 chapters. Started reading the next, which may be the last.
As I don't form an opinion about any book before reading up-to the end, just now unable to say confidently about this book also.
No doubt this one is quite interesting, fascinating and in terms of 'knowledge' informative as well.
The Seriousness of the subject could look somewhat boring for those who could skip a few lines and carry on.
As for as 'knowledge' is concerned, All 'knowledge' is dangerous, because 'knowledge' is Power, used upon oneself or upon other if done so without the perfect knowledge of 'knowledge', as Power can be a risky deal. Can harm or benefit according to the way it has been applied.
As is said 'Half-knowledge' is a dangerous thing, it is true for any knowledge that is acquired / remembered and is lost / forgotten in 'Time'.
All such knowledge is ever so incomplete and imperfect.
This 'knowledge' that keeps arriving and departing is always old though appears new also.
But the 'knowledge' or rather the 'wisdom' is the understanding of the 'One' who possesses and discards, remembers or forgets this acquired or discarded 'knowledge'.
This 'wisdom' is neither 'new' nor 'old' but ever-existent and independent of 'Time'.
Presently I can say this book deals with about giving this message.
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A Dream of Ravan - A Mystery
The Theosophical Publishing Society,
7, Duke Street, Adelphi, London, W.C.
1895
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144, Madison Avenue, New York, U.S.A.
(The Theosophist Office, Adyar, Madras / Chennai, India)
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Wednesday, 27 September 2017

A story in 3 words!

Write a happy story in 3 words Please!
Can't wait to read them!!
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There are a plenty!
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सत्-चित्-आनंद / sat-cit-ānaṃda
सत्यम्-शिवम् सुन्दरम् / satyam-śivam-sundaram
तत्-त्वम्-असि / tat-tvam-asi
अहं ब्रह्मास्मि / ahaṃ brahmāsmi
असतो-मा सद्-गमय / asato mā sadgamaya
अथातो ब्रह्म जिज्ञासा / athāto brahma jijñāsā
मृत्योः माम् अमृतं गमय / mṛtyoḥ mām amṛtaṃ gamaya
बुद्धं सरणं गच्छामि / buddhaṃ saraṇaṃ gacchāmi
धम्मम् सरणम् गच्छामि / dhammam saraṇaṃ gacchāmi
संघं सरणम् गच्छामि / saṃghaṃ saraṇam gacchāmi
एष धर्मः सनातनः / eṣa dharmaḥ sanātanaḥ 
एस धम्म सनंतनो / esa dhamma sanaṃtano / एक ओंकार सतनाम / eka oṃkāra satanāma
ईशावास्यम् इदम् सर्वम् / īśāvāsyam idam sarvam
ॐ मणि पद्मे हुम् / om̐ maṇi padme hum
ॐ नमः शिवाय / om̐ namaḥ śivāya
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ईश्वरोगुरुरात्मेति / īśvarogururātmeti

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ईश्वरोगुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।
व्योमवद्व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥

अर्थ :
एक ही परम सत्ता ईश्वर, गुरु तथा आत्मा (जीव) की तीन मूर्तियों के विभाजन की दृष्टि से तीन रूपों में देखी जाती है । किंतु वस्तुतः जैसे आकाश देह में (भीतर-बाहर) व्याप्त है, वैसी ही वह एक ही सत्ता इन तीनों में अविभाज्यतः ओत-प्रोत है । जब ’जीव’ परिपक्व होकर अनुसंधान से  युक्त होता है तो उत्साहपूर्वक जान लेता है कि वह परम पावन सत्ता श्रीदक्षिणामूर्ति ही इस प्रकार इन तीन रूपों में प्रकट और प्रच्छन्न हैं । श्रीदक्षिणामूर्ति को प्रणाम ! 
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ईश्वरोगुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।
व्योमवद्व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥
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īśvarogururātmeti mūrtibhedavibhāgine |
vyomavadvyāptadehāya dakṣiṇāmūrtaye namaḥ ||
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Meaning :
One and the only Reality pervades in three forms as God, Guru and the 'self'.
Obeisances to Lord दक्षिणामूर्ति / dakṣiṇāmūrti  Who assumes these 3 forms and the individual soul, when full of vigor and urge to find out discovers this.
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Saturday, 23 September 2017

Being a Hindu in Bharata

This article appeared in The Hindu in the 1940's..... when late Mr Kasturi (N Ram's father) was the editor.....can such an article be published now !!!!!!do zoom and read

Wish Politicians stop dividing people 
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Being a Hindu in Bharata
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Sir, -- I am a Hindu and have been a Hindu since my birth. As I call myself a Hindu, the Indian Government will look on me as a communalist. A Hindu in India is expected to be ashamed of his religion and not talk bout it in public. He must proclaim that he is secular. He must be tolerant when Hindus are attacked and Hinduism is ridiculed. Hindus believe that all religions lead to the same truth. Some other religions proclaim their uniqueness and feel that there can be salvation only through their religion. They want us to embrace their religion out of concern for the pagan Hindus. Hindus accept the right to convert others. Some ridicule Hindu gods and goddesses at street-corner meetings and Hindus do not protest. Hindus accept other’s right to propagate their faith by fair or foul means.
Governments manage Hindu temples. They do not interfere in the administration of the religious places of other religions as they belong to minority religious groups. Governments enact laws governing the life of Hindus but minority groups are given freedom to do what they want to.
Sri Rama’s birthday and Sri Krishna’s birthday are not national holiday. The Hindus do not mind as they are a tolerant people. They recite “Ishwar Allah tere nam” and no one else does.
Ambedkar ridiculed and abused Hindus and Hinduism. As tolerant Hindus we love him, adore him. Alladi Krishnaswami Iyer, B.N.Rao, and others also contributed a great deal towards the drafting of the Indian Constitution. We have forgotten them as they were foolish enough not to criticize Hindus and Hinduism.
Hindus adore Max Mueller for his translation of Hindu religious works into English. Some call him a Rishi. We forgive him for his views on Hindus and Hinduism. He translated Hindu religious works to prove that Christianity is superior to Hinduism. In 1886, Max Mueller wrote to his wife:    
I hope I shall finish the work, and I feel convinced though I shall not live to see it, yet this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.
He wrote to the Secretary of State for India that
The ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault will it be?
As true Hindus we forget his motives and value him for his work,
I am distressed at the way Hindus are treated by every government. Our governments are more interested in the minorities than in the majority community. Hindus are taken for granted. Their tolerance is mistaken for weakness.
In the name of secularism, governments trample on the feelings of Hindus. The present tensions in the country are due to the one-sided policy of the governments. Governments are united in dividing people on the basis of their religion. The British divided and ruled. The British have left us, their legacy remains.
K.Subramanian, Secundarabad.
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The Hindi Translation of the above :
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प्रस्तुत लेख वर्ष 1940 में, The Hindu में प्रकाशित हुआ था,
जब स्वर्गीय श्री कस्तूरी (श्री एन. राम / N. Ram के पिता), The Hindu के संपादक थे।
भारत में हिन्दू होने का तात्पर्य
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महोदय,
मैं एक हिन्दू हूँ और वह भी जन्म से ही -न कि किसी दूसरे समुदाय से धर्मान्तरित । चूँकि मैं अपने-आपको हिन्दू कहता हूँ इसलिए सरकार मुझे संप्रदायवादी की दृष्टि से देखेगी । भारत में हिन्दू होने के नाते आपसे अपेक्षा की जाती है कि आपको अपने धर्म (हिन्दू होने) के लिए शर्मिन्दा होना चाहिए, और इस बारे में सार्वजनिक रूप से बात नहीं करना चाहिए । आपको यह घोषित करना चाहिए कि आप ’धर्मनिरपेक्ष' अर्थात् secular हैं । जब भी हिन्दुओं पर हमला किया जाता है और हिन्दुत्व का उपहास किया जाता है तब आपको सहिष्णुता प्रदर्शित करना चाहिए । हिन्दू विश्वास करते हैं कि सभी धर्म एक ही सत्य तक ले जाते हैं । (जबकि) कुछ अन्य धर्म उनके अपने धर्म को इस बारे में एकमात्र और अद्वितीय घोषित करते हैं और समझते हैं कि केवल उनके ही धर्म को अपनाने, उसे सत्य मानने तथा उस पर चलने से ही मनुष्य की मुक्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं । इसलिए वे हमारे प्रति सहानुभूति रखते हुए चाहते हैं कि हम pagan / पगन् हिन्दू उनके धर्म को अङ्गीकार करें । दूसरे के धर्मान्तरण किए जाने के अधिकार को हिन्दू मान्य करते हैं । कुछ लोग नुक्कड़-चौराहों पर एकत्रित होकर हिन्दू देवी-देवताओं का मज़ाक उड़ाते हैं और हिन्दू इसका विरोध नहीं करते ।
हिन्दू, भले-बुरे किसी भी तरीके से अपने धर्म का प्रचार करने के उनके अधिकार का विरोध नहीं करते ।
सरकार हिन्दू धर्मस्थलों की देख-रेख करती है । सरकार दूसरे धार्मिक समुदायों के धर्मस्थलों की व्यवस्था में दखल नहीं देती क्योंकि वे अल्पसंख्यक हैं । सरकार हिन्दुओं के जीवन को नियंत्रित करनेवाले क़ानूनों  बनाती और लागू करती है, लेकिन अल्पसंख्यक वर्गों को यह स्वतंत्रता है कि वे जो चाहें करें ।
श्रीराम का जन्मदिन और श्रीकृष्ण का जन्मदिन राष्ट्रीय अवकाश नहीं होता । हिन्दू इससे उद्विग्न नहीं होते क्योंकि वे सहिष्णु हैं । केवल वे ही "ईश्वर अल्ला तेरे नाम" गाते हैं, जिसे उनके सिवा दूसरा कोई नहीं गाता ।
अम्बेडकर ने हिन्दुत्व का उपहास किया और उसे गालियाँ दीं । (लेकिन) सहिष्णु हिन्दू होने के नाते हम उनका सम्मान और आदर करते हैं । (अम्बेडकर के अलावा) अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर, बी.एन. राव, और दूसरे कुछ लोगों ने भी संविधान-निर्माण में अपना इतना ही या इससे भी कुछ अधिक और अमूल्य योगदान दिया । उन सबको हमने इसलिए भुला दिया क्योंकि मूर्खतावश उन्होंने हिन्दुओं और हिन्दुत्व की पर्याप्त निन्दा-भर्त्सना नहीं की ।
हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अंग्रेज़ी में अनुवाद करने के लिए हिन्दू मॅक्स-मूलर का आदर कारते हैं । कुछ लोग तो उसे ऋषि कहते हैं । हिन्दुओं और हिन्दुत्व के प्रति उसके दृष्टिकोण के लिए हम उसे क्षमा कर देते हैं । उसने हिन्दू धर्मग्रंथों को अंग्रेज़ी में इसलिए अनुवादित किया ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि क्रिश्चियनिटी हिन्दुत्व से श्रेष्ठ है । 1986 में उसने अपनी पत्नी को पत्र लिखा था :
" इस बारे में मुझे कोई संशय नहीं है और मुझे आशा है कि मेरा कार्य पूरा हो जाएगा, और यद्यपि उसे देख पाने के लिए, तब तक शायद ही मैं जीवित रहूँगा, लेकिन मेरे वेद के इस संस्करण / अनुवाद का कार्य भारत और इस राष्ट्र में रहनेवाले करोड़ों मनुष्यों के, आज के बाद के आनेवाले भविष्य को बहुत गहराई तक प्रभावित करेगा । यह (वेद), उनके धर्म का आधारभूत मूल तत्व है, और मेरा यह कार्य अर्थात् उन्हें यह दिखलाना कि उनके धर्म का आधारभूत मूल तत्व क्या है, उनके उस धर्म के आधारभूत मूल तत्व को, जो पिछले तीन हज़ार वर्षों से पनपा-बढ़ा है, जड से उखाड़ने, उस पर कुठाराघात करने का एकमात्र उपाय है ।"
और, भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट (Secretary of Sṭaṭe for India) को उसने पत्र लिखा :
"भारत का प्राचीन धर्म मरणासन्न स्थिति में है और अगर इस समय क्रिश्चियनिटी आगे आकर इस मौके का फ़ायदा नहीं उठाता तो यह किसका दोष होगा?"
सच्चे हिन्दू होने के कारण हमने उसके ध्येयों को क्षमा कर दिया और उसके कार्य के लिए उसका सम्मान करते हैं ।
प्रत्येक सरकार हिन्दुओं से जैसा व्यवहार करती चली आ रही है, उससे मैं बहुत निराश (और उद्विग्न) हूँ । हमारी सरकारों की रुचि (और चिन्ता) बहुसंख्यकों के बजाय अल्पसंख्यकों के लिए अधिक है । हिन्दुओं की उपेक्षा कर दी जाती है । उनकी सहिष्णुता को उनकी कमज़ोरी समझ लिया गया है ।
’धर्म-निरपेक्षता’ (secularism) के नाम पर सरकारें हिन्दुओं की भावनाओं को कुचलती रही हैं । देश में मौजूदा वर्तमान तनाव सरकारों की इसी पक्षपातपूर्ण नीति के कारण है । लोगों के धर्म के आधार पर उनमें भेदभाव पैदा करने के लिए सरकारें पूरी तरह से एकमत हैं । अंग्रेज़ यहाँ से चले गए, उनकी विरासत बाक़ी है ।
के.सुब्रमणियन, सिकन्दराबाद  
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Friday, 22 September 2017

’मन, ’संबंध', 'पहचान और याददाश्त'

’मन, ’संबंध', 'पहचान और याददाश्त'
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पहचान याददाश्त पर निर्भर होती है और याददाश्त पहचान पर । यह एक ऐसा सत्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता । अर्थात् जिसे गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता । इस प्रकार हमारा जानकारी-रूपी संपूर्ण ज्ञान केवल इन दो रूपों में मस्तिष्क में अंकित होता है । यदि आप किसी चीज़ को याद रखते हैं तो ही उसे पहचान सकते हैं और विलोम-क्रम में यदि आप किसी चीज़ को पहचान सकते हैं तो वह अवश्य ही आपकी याद का हिस्सा  है । विचार केवल शब्द-समूह होता है जिसमें किसी कल्पना का चित्रांकन हुआ होता है । और जिस कल्पना का चित्रांकन हुआ होता है उसका कोई स्थिर चित्र कहीं होता ही नहीं । मस्तिष्क इसी अल्पप्राय सूचना पर एक सीमित धारणा बनाता है । ऐसी कोई भी धारणा सत्य नहीं बल्कि सत्य का एक विरूपण मात्र होती है । इसी प्रकार प्रत्येक मस्तिष्क में उससे संबंधित जानकारी का एक संग्रह होता है जो यूँ तो पहचान अर्थात् याददाश्त के अंतर्गत सीमित किंतु बहुत विस्तीर्ण होता है । ’समय’ का अतीत, वर्तमान और भविष्य नामक विभाजन उसी याददाश्त अर्थात् पहचान में स्थित संग्रह के वर्गीकरण का एक प्रकार है, जिसमें ’ज्ञात’ से अतीत का तथा उस अतीत पर आधारित अनुमान से कल्पित भविष्य का सृजन मस्तिष्क द्वारा कर लिया जाता है । अतीत को जहाँ एक ठोस अपरिवर्तनीय वास्तविकता समझा जाता है वहीं भविष्य को एक लचीले अनुमान के रूप में देखा जाता है । यह अतीत और भविष्य भी पुनः भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में भिन्न-भिन्न रूप बनाते हैं और उनमें से कोई भी वैसा नहीं होता जैसा कि समझा जाता है । इस प्रकार मन नामक चेतन सत्ता द्वारा अतीत और भविष्य की बनाई गई प्रतिमा, और मस्तिष्क द्वारा की गई उसकी पहचान, -अर्थात् याददाश्त भी एक अस्थिर संरचना होती है ।
शुद्धतः ठोस इन्द्रियगम्य ’अनुभवों’ से ’प्रमाणित’ तथाकथित ’विज्ञान’ और ’गणित’ की मूल आधारभूत कल्पनाएँ केवल अनुमानित धारणाएँ होती हैं, इसलिए उनके निष्कर्ष भी ऐसे ही उनके भंगुर विकल्प मात्र होते हैं । इसलिए अनुभवों को नए-पुराने कहकर उनकी तुलना से जो ठोस प्रतीत होनेवाले ’नियम’ और ’सिद्धांत’ गढ़े जाते हैं उनकी सत्यता सदा संदिग्ध ही रहती है ।
संपूर्ण ’सूचना-तंत्र’ घटनाओं की जानकारी, और स्मृति पर अवलंबित उनकी व्याख्याओं का जोड़ भर होता है जो भिन्न-भिन्न मनुष्यों के मस्तिष्क में ’वर्तमान’ का एक पृथक चित्र बनाता है जिसकी सबके लिए कोई समान सत्यता नहीं हो सकती । इसे हम ’माया’ भी कह सकते हैं जो वास्तविकता को आवरित कर उसका एक नितांत भिन्न चित्र हमारे समक्ष रखती है और हम ’संसार’ के बारे में अपनी एक से दूसरी कल्पना पर पहुँचते हुए एक ऐसे ’संसार’ की वास्तविकता को ठोस यथार्थ समझने की भूल कर बैठते हैं जिसमें हम हैं । यह ’हम’ भी जो मूलतः ’मैं’ का ही समूहात्मक रूप होता है इसी प्रकार की ’संसार’ जैसी ही एक स्मृतिजनित और पहचान-आधारित कल्पना है जो इस संसार को इतना विविध और समृद्ध बनाती प्रतीत होती है ।
’संबंध’ किन्हीं भी दो चीज़ों या दो चेतन-सत्ताओं अर्थात् मनुष्यों या जीवित कही जानेवाली वस्तुओं के बीच की पहचान (अर्थात् पहचान की स्मृति) और स्मृति (अर्थात् स्मृति की पहचान) रूपी ’धारणा’ मात्र है । भले ही उसे कितना भी ठोस सत्य माना जाए, वह मूलतः साररहित विचार और कल्पना मात्र है ।
इस प्रकार ’संबंध’ का तत्व (निस्सारता) समझ लिये जाने पर उनके निर्वाह का, उनके बनने-मिटने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है?
क्या स्मृति और पहचान अर्थात् याददाश्त और इस पर अवलंबित ’मन’ को बीच में लाए बिना भी जीवन निरंतर अज्ञात से अज्ञात में ही गतिशील नहीं है?    
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Thursday, 21 September 2017

ज्ञान की प्राप्ति स्वतः क्यों नहीं हो जाती?

ज्ञान की प्राप्ति स्वतः क्यों नहीं हो जाती? 
क्या बिना किसी 'माध्यम' के मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है?
श्रीमद्भग्वद्गीता :
अध्याय 3 श्लोक 38,
अध्याय 5 श्लोक 15, 
अध्याय 7 श्लोक 27,
में अज्ञान का निवारण होने के बाद ज्ञान कैसे प्रस्फुटित और स्पष्ट होता है इसे कहा गया है ।
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जीवन स्वयं ही हमें शिक्षा देता है या तो हम बिना किसी माध्यम को बीच में लाए जीवन का अवलोकन करें या जीवन से गुज़रते हुए ’अनुभवों’ का परीक्षण करते हुए उनकी अनित्यता को समझ सकें । यदि हम ’मन’ के ’माध्यम’ को भी बीच में नहीं लाते हैं तो ज्ञान का आविष्कार अपेक्षतया सरल है । किंतु यह ’मन’ और इसे ’अपना’ कहनेवाला विचार इतने गड्ड-मड्ड हैं कि ’मन’ के अभाव में जीवन क्या है, इस प्रश्न पर ध्यान तक नहीं जा पाता । विचार रूपी ’मन’ ही स्वयं ’मन’ नामक चेतना को आवरित कर स्वयं को सतत भ्रमित करता रहता है और इसे समझने के लिए बहुत धैर्य और शान्ति तथा गहरी रुचि होना ज़रूरी है । चेतना विचार के अभाव में भी अबाध और अखंडित स्वरूप से सक्रिय होती है और विचार के आगमन से आच्छन्न होकर विचारकर्ता के भ्रम के उत्पन्न होने के लिए आधार बन जाती है । चेतना की इस भूमि पर टिका हुआ विचार और आभासी विचारकर्ता आते-जाते रहते हैं जबकि चेतना आने-जानेवाली वस्तु नहीं । चेतना में विचार को जाना जाता है और विचारों का एक केन्द्र होने की कल्पना उठती है । इस केन्द्र को भूलवश / प्रमादवश, विचारों से स्वतंत्र उनका नियामक और सृजनकर्ता मान लिया जाता है । यह द्वन्द्व एक दुष्चक्र है जिसे तोड़ने के लिए यह ज़रूरी है कि उनसे निर्लिप्त, उदासीन रहा जए । जब तक किसी विचार से मोहित और इसलिए उसमें लिप्त होना बना रहता है, यह दुष्चक्र जारी रहता है । किंतु धैर्यपूर्वक विचार की अस्थिर गतिविधि का अवलोकन किया जाए तो चेतनारूपी उसकी पृष्ठभूमि सदा स्थिर और अचल है यह स्पष्ट हो जाता है । दूसरी ओर जो इसमें समर्थ नहीं होता और ’संसार’ में सुख प्राप्त करते रहना और कष्टों से दूर रहना चाहता है उसे जीवन स्वयं ही अनुभवों के माध्यम से सिखाता है कि ’संसार दुःख स्वरूप है’ और इसमें सुख की प्राप्ति होगी यह सोचना दिवास्वप्न या मृग-मरीचिका मात्र है । यह स्थिति सामान्यतः तब आती है जब बहुत ठोकरें खाने के बाद मनुष्य ’संसार दुःख स्वरूप है’ इस नतीज़े पर पहुँच पाता है । इससे पहले तक उसे संसार से बहुत आशा-अपेक्षाएँ होती हैं । इसलिए किन्हीं शास्त्रों या गुरुओं को बिना बीच में लाए भी ज्ञान स्वतः अवश्य प्राप्त हो सकता है, बशर्ते यह ’मन’ नामक माध्यम भी हमारे और जीवन के बीच में न हो, या हो भी तो इतना शुद्ध और निर्मल हो मानों शीशे की दीवार हो ।
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यदि ज्ञान सत्य है तो सतह पर भी क्यों नहीं पाया जा सकता, गहराई में जाना क्यों ज़रूरी है?
वास्तव में तो प्राप्त हुए सतही अज्ञान का निवारण करना है और यदि बिना गहराई में उतरे हो जाता है तो वेद या किसी शास्त्र की ज़रूरत ही कहाँ है? किंतु यदि सतह पर ऐसा नहीं हो रहा तो गहराई में जाने से शायद हो जाए? या फिर इस सब में दिलचस्पी ही न हो...!
बूँद को डर लग रहा था सागर से,
क्या मैं खो जाऊँगी, मिट जाऊँगी?
फिर हिम्मत कर वह सागर में उतरी,
लहर लहर लहराती फिर छलकी,
उसने खुद को पाया देखा फिर वहीं,
हाँ वह बूँद अभी थी पहले जैसी ही,
तब जाकर कहीं उसे यह पता चला,
वह पानी ही थी सागर भी पानी है,
दूर हो गया डर वहम उसका सारा,
क्या थी वही बूँद जो पहले उतरी थी?
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भाषा-व्यवहार

वर्तनी और उच्चारण 
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खुशी की बात है कि कुछ भाषाशास्त्री अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि किसी भी भाषा के लिखे जानेवाले और बोले जानेवाले रूप अर्थात् शब्दों की वर्तनी और उच्चारण में समानता होनी चाहिए । जिन्होंने संस्कृत का आविष्कार किया क्या वे इसकी आवश्यकता से अनभिज्ञ थे? संस्कृत का एक एक शब्द (पद) यहाँ तक कि प्रत्येक वर्ण (स्वर, व्यञ्जन, मात्रा - दीर्घ, अर्ध आदि) कंप्यूटरीय / गणितीय सूक्ष्मता से नियोजित किया जाना यही दर्शाता है कि उपरोक्त तथ्य / निष्कर्ष तक वे बहुत पहले पहुँच चुके थे ।
और कमोबेश यह बात दूसरी भी प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में भी देखी जा सकती है । हिंदी से अधिक प्रशंसा करना चाहूँगा तमिऴ् भाषा की, और संभवतः तेलुगु, कन्नड तथा मलयालम की भी, क्योंकि उन भाषाओं में ए ऎ और ऐ, ओ ऒ तथा औ के लिए तथा व्यञ्जनों के साथ उन मात्राओं के लिए विशेष चिह्न हैं ।  
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ए ऎ ऐ ओ ऒ औ
ஏ எ ஐ ஓ ஒ ஔ
ఏ ఎ ఐ ఓ ఒ ఔ
ಏ ಎ ಐ ಓ ಒ ಔ
ഏ എ ഐ ഓ ഒ ഔ
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के कॆ कै को कॊ कौ
கே கெ கை கோ கொ கௌ
కే కె కై కో కొ కౌ
ಕೇ ಕೆ ಕೈ ಕೋ ಕೊ ಕೌ
കേ കെ കൈ കോ കൊ കൗ
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भाषा-व्यवहार  

Wednesday, 20 September 2017

राघवयादवीयम् और वेदभाषा

राघवयादवीयम् और वेदभाषा
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प्रथम श्लोक में पहली पंक्ति का अंतिम शब्द भारामोराः जिसका विलोम > रामोराभा होगा,
त्रुटिपूर्ण जान पड़ता है क्योंकि विलोम श्लोक में दूसरी पंक्ति के प्रथम दो शब्द मिलकर रामारामाधीराप्यागो बनते हैं ....
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कहा जाता है कि ऐसा ही एक ग्रंथ और भी है जिसके श्लोकों को अनुलोम-विलोम रीति से पढ़ने पर एक प्रकार से तो रामायण की कथा तो दूसरे प्रकार से महाभारत की कथा का वर्णन होता है । इस बारे में सुना-पढ़ा तो है, लेकिन अभी तक कहीं प्राप्त नहीं हुआ ।
ऐसी जानकारी का अवश्य ही बहुत महत्व है, किंतु ऐसे कोरे कौतूहल से क्या लाभ कि जो उपलब्ध है उसकी पर्याप्त गहराई में जाने के बारे में विचार तक न करते हुए जो अनुपलब्ध है उसके बारे में जान लिया जाए? कौतूहल संतुष्ट भी हो जाए तो क्या? क्या हम तर्क-कुतर्कयुक्त विवादों में उलझने से या मन को व्यस्त रखने के लिए मनोरंजन में लिप्त होना बंद कर देंगे?
शायद इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि क्या नित्य है और क्या अनित्य है? इस पर ध्यान से विचार करनेवाले को ही विवेक प्राप्त होता है, विवेक के परिपक्व होने पर समस्त अनित्य समझी जानेवाली वस्तुओं से वैराग्य (राग-द्वेष दोनों का अभाव) हो जाता है । तब नित्य तत्व की ओर मनुष्य का ध्यान आकर्षित होता है और उसे वह एकमात्र चैतन्यतत्व के रूप में ’ईश्वर’ की तरह ग्रहण कर उसकी भक्ति कैसे हो इस ओर ध्यान देता है । या फिर उसके मन में ’मैं कौन?’ अर्थात् वह कौन है जो ईश्वर की भक्ति करना चाहता है, जो असंतुष्ट है, जो भ्रमित है जिसे पता नहीं कि मृत्यु के बाद उसका क्या होगा, इसलिए वह परस्पर विपरीत धारणाओं की शरण लेता है.... इस प्रकार की गहरी जिज्ञासा को स्वाभाविक ’निष्ठा’ कहा जाता है । स्वाभाविक निष्ठा का एक रूप वह भी है जिसे श्रीमद्भग्वद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अध्याय ३, श्लोक ३ में योगनिष्ठा और ज्ञाननिष्ठा के रूप में वर्णित किया है और जो क्रमश योगियों (अर्थात् कर्मयोग पर आस्था रखने और उस पर चलनेवालों में) और ज्ञानियों (अर्थात् साङ्ख्य के अनुसार स्थितप्रज्ञ) के सन्दर्भ में होती है । पुनः जो इनमें से किसी भी स्थिति में नहीं है अभी जिज्ञासु मात्र है और या तो किसी दिव्य अलौकिक ईश्वरीय सत्ता को सबका नियन्ता स्वीकार कर किसी नाम-रूप से उसकी उपासना करता है या सीधे ही ’मैं’ शब्द के तात्पर्य को समझने के लिए प्रवृत्त होता है, और जिसे ऐसे व्यक्ति को प्रचलित पारंपरिक अर्थ में नास्तिक भी कहा जा सकता है क्योंकि वह ईश्वर के बारे में जानने का दावा तो नहीं करता और इसलिए ईश्वर की अवहेलना भी नहीं करता किंतु वह अपने-आप के अस्तित्व को अनायास जानता है (और प्रत्येक  ही जानता है) इसलिए ’अपने होने’ के तात्पर्य को समझना उसे अधिक आवश्यक और संभव जान पड़ता है । दूसरी ओर, जो जीवन को दुःखस्वरूप जानने से ’अपने’ को दुःख-निरोध के उपाय को खोजने मे प्रवृत्त पाता है, वह भी ’आत्म-जिज्ञासा’ से अंततः परम सत्य को अवश्य ही जान लेता है । जिन खोजाँ तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ, मैं अभागन रोती रही, रही किनारे बैठ ...    
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यह ग्रंथ इस ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि संस्कृत मूलतः मंत्रमयी भाषा है क्योंकि विलोमक्रम से श्लोकों की रचना किए जाने में छन्द की दृष्टि से तो वर्णों की मात्रा काव्य-सिद्धान्त के अनुरूप है किंतु वर्णों के स्वरूप में भेद आ गया है । इसे और स्पष्ट समझने के लिए उन दोनों श्लोकों का संधि-विग्रह किया जाना पर्याप्त होगा जो परस्पर विलोम-क्रम से ये दो रूप लेते हैं ।
इससे यह भी समझना सरल होगा कि कि वेदों का अर्थ / अनुवाद करने का विचार न केवल व्यर्थ है बल्कि ऐसा करना महाअनिष्टकारी भी है ।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि वेद का प्रयोजन भी है और अर्थ भी है।  किसी उपयोगी वस्तु का प्रयोजन होता है किंतु 'अर्थ' होना आवश्यक नहीं।  वैसे ही किसी विचार का अर्थ हो सकता है किंतु 'प्रयोजन' हो यह आवश्यक नहीं। जब किसी शब्द-समूह को मन्त्र की तरह प्रयोग में लाया जाता है तब उसका सुनिश्चित अर्थ भी होता है और प्रयोजन भी।  इसलिए ग्रंथ के रूप में 'वेद' का अनुवाद करना निहायत जोखिम भरा प्रयास है।  हाँ, यदि वेद के संबंध में जानकारी के लिए औपचारिक प्रस्तावना की दृष्टि से कोई ऐसा प्रयास करता है तो लिए तो वह स्वतंत्र है ही।
यहाँ यह ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि वेदाध्ययन केवल 'अधिकारी' अर्थात् योग्य पात्र व्यक्ति के द्वारा किया और कराया जा सकता है । इसलिए वेद 'श्रुति' भी कहा जाता है।  तात्पर्य यह कि वेद का शुद्ध स्वरूप 'श्रव्य' है और इसी परंपरा के अनुसार इस सनातन धर्म को भावी पीढ़ियों तक सम्प्रेषित किया जाता है । किंतु इस प्रकार प्राप्त वेदरूपी विद्या को लिखे जाने की आवश्यकता भी निःसंदेह है। लिखे जाने के लिए दो लिपियाँ वेदविदों द्वारा उद्घाटित की गईं, जो वेद के श्रव्य रूप को शुद्धतम रूप में अभिव्यक्त कर सकें।  एक है ब्राह्मी दूसरी है नागरी।  यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ब्राह्मी (ब्रह्मा की) की तमिऴ् / தமிழ் लिपि के प्रयोग से उसका श्रव्य रूप केवल अनुमानित होता है और किसी आचार्य से ही उसके वास्तविक रूप को जाना जा सकता है, वहीं नागरी / देवनागरी में श्रव्य-रूप को अधिक शुद्ध रखा जा सकता है।  पुनः लिखे गए ग्रंथ में भी प्रमादवश या परिस्थितियों के कारण वर्तनी की भूल न होना असंभव तो नहीं है। इसलिए तमिऴ् / தமிழ்
हो या नागरी वेदपठन और पाठन श्रव्य-रूप में होना / किया जाना ही प्रामाणिक है।                
क्योंकि वेद (जिसका एक अर्थ छंद भी है) मूलतः ध्वनि-शास्त्र है । ध्वनि का अर्थ है phoneme और न केवल वर्णात्मक बल्कि प्राणात्मक रूप से भी अर्थात् स्वनिम् (phonetic) एवं रूपिम् (figurative) इन दोनों रूपों में ।
यह ग्रंथ इस ओर भी संकेत करता है कि ’ईश्वर’ जिसने श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया एक ही तत्व है और पुराणों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए ।
वैसे इस ग्रंथ को पूर्व में देखा था तो इस बारे में लिखने का विचार आया था ।
आज पुनः देखा तो स्मरण हुआ ।
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Sunday, 17 September 2017

विचार, ईश्वर और आत्म-साक्षात्कार

विचार, ईश्वर और आत्म-साक्षात्कार
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शायद परिस्थितियाँ, संदर्भ, सरकार या मज़बूरियाँ रोक लगा सकती हैं, लेकिन सोचने-विचारने की स्वतंत्रता पर कोई रोक कैसे लगा सकता है! लेकिन यह भी आश्चर्य है कि कैसे हमारा सोच परिस्थितियों के अनुसार पल भर में भी एकदम बदल जाता है । कभी कभी तो एकदम ऐसा ’यू-टर्न’ भी ले लेता है जिसका हमें खुद को भी पल भर पहले तक भी अनुमान तक न था । क्या यही जीवन का जीवंत प्रवाह नहीं है? लेकिन जब जब हम कुछ ’तय’ कर लेते हैं तो जाने-अनजाने इस प्रवाह को प्रभावित करने की कोशिश करने लगते हैं, और तब जीवन में सफलता-असफलता, आशा-निराशा, अवसाद-उत्साह होते हैं । इन्हें भी हम प्रवाह का ही हिस्सा समझ लें तो शायद सही तरीके से सोच सकेंगे ....! सवाल यह भी है कि हम किसी भी मुद्दे पर अंतिम सिरे तक क्यों नहीं सोचते? जैसे धर्म के मामले पर, नैतिकता के मामले पर, सामाजिक प्रश्नों पर, क्या ’मुक्त-चिंतन’ इतना कठिन है? इसका एक कारण शायद यह है कि हम किसी भी मुद्दे के लाभ तो उठाना चाहते हैं लेकिन उसकी कीमत चुकाना नहीं चाहते । हम चाहते हैं कि सब-कुछ हमें मुफ़्त मिल जाए, तब असंतोष पैदा होता है । तब ’भ्रष्टाचार’ पैदा होता है । हम रिश्वत लेना तो अधिकार समझते हैं और उसके लिए तमाम दलीलें भी हमारे पास होती हैं, ऐसे रिश्वत देने में भी हमें संकोच नहीं होता जब कोई ख़तरा न हो और मज़बूरी हो या पैसा हमारे हाथ का मैल हो, या हमारे पास काला धन हो, जिसे ठिकाने लगाने का एक अच्छा रास्ता हमें मिल गया हो, लेकिन हम दूसरों के अधिकार का हनन करते समय शायद ही सोचते हों ।’आरक्षण’ जैसे मुद्दे पर हो या कावेरी या सतलज-रावी नदी-जल के विवाद पर, भाषाई विवाद हों या ऐसे ही कितने ही मुद्दे हैं जिन पर हम तभी सोचते हैं जब हमारा उनसे पाला पड़ता हो, और तब हमारे पूर्वाग्रह ही तय करते हैं कि हम किस दिशा में, किस दृष्टिकोण से सोचेंगे !
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इस बारे में सोचने लायक बात यह है कि हम सोचने की ज़हमत तभी उठाते हैं जब वह हमारे गले पड़ जाता है । अकसर तो हम सोचने से बचना ही चाहते हैं । यह भी इतना ही सच है कि एक ओर तो हम जो भी सोचते हैं आदतन सोचते हैं, तो दूसरी ओर सोचने से ही सोचना हमारी आदत बन जाता है । इस प्रश्न के पुनः दो पहलू हैं पहला दुनिया में हमारे व्यवहार से जुड़ा है तो दूसरा बिलकुल आध्यात्मिक । दुनिया से हमारे व्यवहार में सोचने का जो स्थान और महत्व है उस पर असंख्य विचारकों ने अनगिनत तरीकों से सोचा होगा ।
यहाँ सिर्फ़ आध्यात्मिक संदर्भ में देखें तो एक प्रश्न यह है कि हम क्यों सोचते हैं?
दूसरा इतना ही महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या हम सोचते हैं?
पहले प्रश्न की विस्तार से व्याख्या करने के लिए हमें यह समझना होगा कि सोचने की प्रक्रिया कैसे होती है । यदि हम समझने की कोशिश करें तो सोचना कम होने लगता है यहाँ तक कि लगभग समाप्त भी हो जाता है । जैसे किसी आकस्मिक अज्ञात परिस्थिति में जहाँ हम वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ होते हैं । जैसे ऊँची घास के बीच से या पानी से भरे गड्ढोंवाली सड़क से गुज़रते समय । तब हम अनुमान तो लगा सकते हैं कि घास में साँप या ऐसा कोई जानवर तो नहीं है, या घास कँटीली तो नहीं है, लेकिन अप्रत्याशित ख़तरों के बारे में विचार करने की संभावना समाप्त हो जाती है इसलिए हम उम्मीद तो कर सकते हैं लेकिन सोच नहीं सकते । कौन सा गड्ढा कितना गहरा और छोटा या बड़ा होगा इसे समझने के लिए ’सोचने’ की ज़रूरत कम, समझने की, सावधानी की ज़रूरत अधिक होती है । इस दृष्टि से ’सोचना’ और ’सावधानी’ क्या दो भिन्न तरह की मानसिक गतिविधियाँ नहीं होतीं? जैसे ही ख़तरा समाप्त हो जाता है, जब हम खुली साफ़-सुथरी पक्की चिकनी सपाट सड़क पर आ जाते हैं, ’सावधानी’ पीछे रह जाती है और ’सोचना’ शुरु हो जाता है । इस प्रकार एक सोचना हमारी असावधानी या प्रमाद की स्थिति में होता है जो लगभग आदतन होता है तो दूसरा तब होता है जब सावधानी रखते हुए हम किसी नई स्थिति से रूबरू होते हैं । जैसे आपको सड़क पर कुछ दिखलाई दिया और आपने उसे पत्थर समझा और हटाने के लिए गाड़ी से उतरे, पास पहुँचने पर पता चला कि वह कोई जानवर है तो सोचना एक अलग दिशा ले लेता है यदि आपको पता चलता है कि वह साँप है तो आप सोचने लगते हैं कि ज़िंदा है या मरा, या घायल! यदि आपको  पताचलता है कि वह दुर्लभ जाति का एक कछुआ है तो आप उसके लिए चिंता या उत्सुकता से सोचने लगते हैं । यह भी हो सकता है कि आप् आदतन उसे नज़रन्दाज़ कर सीधे आगे निकल जाएँ ।
क्या ऐसी ही स्थितियाँ हममें सोचने की आदत नहीं बनातीं ।
फिर हमारा समाज, हमारा परिवेश, शिक्षा भी हमें सोचने के तरीकों के विशिष्ट प्रारूपों में नहीं ढाल देतीं?
क्या हम इस सबके (ख़तरे) के प्रति सावधान हैं? या क्या हम असावधानी से ही इन तरीकों को आदत में नहीं ढाल लेते?
’ईश्वर’ है या नहीं, एक है या अनेक, ऐसे प्रश्नों को हम सावधानी से नहीं समझते क्योंकि वह हमारे लिए जीवन-मरण का प्रश्न नहीं होता ।
दूसरी ओर ’ईश्वर’ से हमारा क्या अभिप्राय है इस बारे में भी हमें कुछ स्पष्ट नहीं होता । तब हम कहते हैं : "वह अदृश्य शक्ति जिसने दुनिया बनाई ..." या हम कहते हैं "जब हमें संकट की घड़ी में कोई अदृश्य सहायता प्राप्त होती है तो वह ईश्वर है ।"
इतना तो स्पष्ट है कि इस प्रकार से हम किसी अज्ञात वस्तु की कल्पना कर लेते हैं और उसे ’ईश्वर’ कहते हैं । या दूसरा तरीका है किसी किताब या परंपरा को आधार कहकर हम कहते हैं "शास्त्र भी मानते हैं ...बहुत लोगों ने ईश्वर को जाना है, पाया है ...।"
हम कुछ भी क्यों न मान लें वह हमारी मान्यता ही होता है और मान्यता को गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि उस पर प्रयोग नहीं किया जा सकता, जैसा कि तथ्य के साथ संभव है । और मान्यताएँ परस्पर भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं । हम सोचने-समझने की ज़हमत न उठाने के लिए इस या उस मान्यता को स्वीकार कर लेते हैं और आग्रह करते हैं कि दूसरे भी उसे ही सत्य मानें । यदि हमारे पास किसी क़िस्म की ताकत है, सत्ता की, धन की या बाहु-बल की तो उसे दूसरों पर लादने में भी संकोच नहीं गर्व अनुभव होता है और इसे हम परोपकार तक कहते और मानने लगते हैं ।
क्या इस दायरे में सोचना हमारी आदत ही नहीं हो जाता?
अब एक और प्रश्न यह है कि सोचना एक स्वैच्छिक गतिविधि है या अनैच्छिक गतिविधि है? जैसे साँस लेना यूँ तो शरीर की स्वचालित गतिविधि है लेकिन हम किसी हद तक स्वेच्छा से भी उसे नियंत्रित कर सकते हैं । फिर यह भी स्पष्ट है कि साँस लेना एक स्वाभाविक, प्राकृतिक गतिविधि भी है जिस पर हमें ध्यान तभी देना पड़ता है जब इसके होने में कोई बाधा उत्पन्न हो जाए । दूसरी ओर हमारे शरीर की अन्य गतिविधियाँ  जैसे नसों में रक्त का परिभ्रमण, पसीना आना, भूख-प्यास लगना, नींद आना भी बहुत हद तक ऐसी ही स्वाभाविक गतिविधियाँ है, जिन पर ज़रूरत होने पर ही हमारा ध्यान जाता है ।
क्या सोचना भी ऐसी कोई गतिविधि है? साँस का चलना और दूसरे अन्य शारीरिक कार्य जिनके बारे में कहा गया जैसे अनायास होते रहते हैं क्या सोचना भी वैसा ही एक कार्य है? या, क्या हम सोचने को नियंत्रित कर उसे किसी निश्चित ढंग से भी कर सकते हैं?
यहाँ यह देखना ज़रूरी है कि सोचना अर्थात् ’विचार’ हम हैं या हमसे भिन्न है? जब आप कहते हैं "मैं सोचता हूँ..." क्या तब आपमें यह विचार ही नहीं होता जिसे शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है? जैसे आप दौड़ते हैं, या बैठे हैं, या खड़े हैं तो आपका अपनी इस क्रिया पर जैसा नियंत्रण होता है, क्या वैसा ही नियंत्रण आपका ’विचार’ पर भी होता है?
आप जब कहते हैं ’मेरा विचार’? तो यह आपसे किस रूप में संबद्ध होता है कि इसे आप ’मेरा’ कह सकें?
स्पष्ट है कि मस्तिष्क में चल रहे अनेक विचारों में से जो आपको अच्छा लगता हो, उपयोगी प्रतीत होता हो उसे तो ’मेरा’ कहा जाता है जबकि जो प्रतिकूल होता है उसे ’मेरा नही’ कहा जाता है ।
विचार को ’मेरा’ या ’मेरा नहीं’ कहनेवाले क्या आप हैं या यह ’मैं’ भी मूलतः एक विचार ही है जो कभी होता है, तो कभी कभी अनुपस्थित भी होता है?
तो फिर आप विचार नहीं केवल वह चेतन अस्तित्व है जिसमें विचार आता-जाता या आते-जाते हैं ।
उस स्थिति में भी क्या विचार पर आपका नियंत्रण संभव है? स्पष्ट है कि विचार से वस्तुतः आपका कोई संबंध न कभी था, न हो सकता है, फिर ’मेरा विचार’ तो क्या नितांत भ्रांत कल्पना ही नहीं है?
यह हुआ विचार का दुनिया से जुड़ा पहलू ।
अब दूसरे प्रश्न पर आएँ । वह चेतन अस्तित्व ही जिसमें विचार आते-जाते हैं, क्या ’हम’ नहीं हैं, व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से नहीं, बल्कि बुनियादी रूप से और समष्टि-रूप से भी?
यूँ कहें कि जैसे पाँच तत्वों से बने हमारे शरीर व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से एक दूसरे से अलग-अलग दिखाई देते हैं और जिनके आधार पर हमारी व्यक्तिगत या सामूहिक पहचान बनाई जाती है, विचार के रूप में ही ऐसे हैं न? यदि विचार नहीं तो भिन्नता कहाँ? तब क्या समष्टि रूप में जो हम हैं वह कुछ बदल जाता है? स्पष्ट है कि विचार के न होने पर भी वही समष्टि एक ही चेतन सत्ता है जिसमें असंख्य भिन्न-भिन्न व्यक्तिगत और सामूहिक शरीरों में भिन्न-भिन्न विचार आते-जाते रहते हैं । इस समष्टि चेतन अस्तित्व का विचार से क्या कोई संबंध हो सकता है?
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’विचार’ के दो आयाम क्रमशः शाब्दिक / शब्दगत और काल्पनिक / कल्पनागत हो सकते हैं । शाब्दिक तो हम जानते ही हैं, काल्पनिक किसी अनुभव या अनुभव की कल्पना / भावना की तरह होता है । जैसे ’मिठास’, जिसका एक तो शाब्दिक अर्थ होता है ’स्वीटनेस’ दूसरा भावनात्मक, तीसरा काल्पनिक । शाब्दिक अर्थ शब्द को दूसरे शब्द से बदलने पर प्राप्त हो जाता है । भावनात्मक पुनः वस्तुवाची या अनुभवपरक हो सकता है । जैसे ’मिठाई’ । कल्पनात्मक इन दोनों जैसा या कभी-कभी दोनों से बिलकुल भिन्न भी हो सकता है । जैसे पत्थर या मिट्टी का स्वाद, जो न तो कोई भाव जगाता है, न अनुभव लेकिन उसकी कल्पना की जा सकती है । ’ईश्वर’ और ’मैं’ भी ऐसे ही दो शब्द हैं । तीसरा शब्द है ’आत्म-ज्ञान’ अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार या दर्शन । ’ईश्वर’ शब्द के अनेक शाब्दिक अर्थ हो सकते हैं जो भिन्न-भिन्न लोगों में भिन्न-भिन्न भाव, और स्वकल्पित रहस्यमय / चमत्कारिक अनुभव (जैसे भविष्य में होनेवाली घटना को देख लेना) भी जगा सकते हैं, लेकिन उनकी ’अनित्यता’ ही ’ईश्वर-दर्शन’ से उनके भिन्न होने का यथेष्ट प्रमाण है । 'मैं' 'ईश्वर' से इस अर्थ में भिन्न है कि 'मैं' के अस्तित्व को हर कोई अनायास प्रत्यक्षतः जानता ही है यद्यपि इसका गूढ़तम तात्पर्य उसे स्पष्ट नहीं होता।  फिर भी कोई न तो तर्क से, न अनुभव से और न ही व्यावहारिक रूप में इसके अस्तित्व पर न तो संदेह कर सकता है न इसे असिद्ध कर सकता है। लेकिन चूँकि यह स्वयं (अहम्-पदार्थ) अपने को विचारक और विचार के रूपों में व्यक्त करता है इसलिए इसे इन दोनों में विद्यमान उभयनिष्ठ अस्तित्व और चेतना की तरह अवश्य इंगित किया जा सकता है और तब विचार तथा विचारक का द्वंद्व विलीन हो जाता है।  अब रही बात आत्म-साक्षात्कार की, तो इस प्रकार से विचार तथा विचारक जो प्रकट और अप्रकट होते रहते हैं जब पूर्णतः विलीन हो जाते हैं तो जिस तत्व का बोध होता है वह नित्य की तरह स्पष्ट हो जाता है।  इसका अर्थ यही कि जन्म-मृत्यु कल्पना थी और वह चक्र भी विचार ही था।       
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Thursday, 14 September 2017

Victory is always vicious!

Victory is always vicious!
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 For Victory is the result of war, war is the result of defense or offence. Defense or offence is the result of violence. Violence is the result of fear or anger. Fear or anger is the result of despair or hope. Despair or hope is the result of imagination. Imagination is the result of accepting and assuming the unreal as real. Realizing this fact and denying reality to unreal is the only freedom.
Still, when war is imposed upon us, we will follow our subtle-most tendencies, and need not think of the result, -victory or defeat whatever we are rewarded with.Therefore it doesn't matter what we do. What really matters is the attitude with which we do whatever is done by us
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If we say we shall do this or that, which is according to our subtle tendencies.
Our senses (organs of action) follow the mind (tendencies) and we can't force upon them our wishes.
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If we say we don't have faith in Gita or Srikrishna, that too is because of our inherent tendencies (nature).
Forced by nature every-one even a jnAnI also does the things which are destined to be done by him. : 
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Wednesday, 13 September 2017

व्यावहारिक जगत् की चुनौतियाँ और आत्म-ज्ञान

जीवन में हर क्षण नई चुनौतियाँ है और हर नई चुनौती का सामना नए ढंग से होता है ।
शुद्ध भौतिक-ज्ञान भी, जो विश्लेषण पर आधारित होता है, किन्हीं संदर्भों में ही व्यावहारिक रूप से सार्थक और उपयोगी इसलिए ’तथ्य’ होता है और उन्हीं संदर्भों में पुनः पुनः काम में आता है । इस प्रकार समस्त ज्ञात मिलकर भी किसी को पूर्ण ज्ञानवान नहीं बना सकते । एक डॉक्टर भी चिकित्सा-शास्त्र के किसी एक ही क्षेत्र का विशेषज्ञ होता है । इसी प्रकार दूसरे क्षेत्रों और विद्याओं के बारे में है । इसलिए जीवन की नई चुनौतियों का सामना इस प्रकार के ज्ञान से नहीं किया जा सकता । आप किसी क्षेत्र में भले ही किसी दूसरे से कम अथवा ज़्यादा जानते हों, अपने बारे में तो आप ही सबसे अधिक अच्छी तरह जानते / जान सकते हैं । और यह जानना किसी प्रकार की संचित जानकारी मात्र न होकर कुछ बिलकुल अलग चीज़ है क्योंकि जानकारी-रूपी ज्ञान में हमेशा ’जाने गये’ और ’जाननेवाले’ के बीच एक स्पष्ट विभाजन होता है जबकि अपने बारे में जिस ज्ञान से जाना जाता है, उस ज्ञान में ऐसा विभाजन किया जाना संभव ही नहीं है । वैसे भी आप अपने-आपको अनायास, अपने बारे में बिना किसी जानकारी के जानते ही हैं । और इस स्वाभाविक ज्ञान के बाद ही आप ’मैं’ कह पाते हैं । और यह ’मैं’ भी किसी ’दूसरे’ के संदर्भ में ही प्रकट होता है । क्या  इसका मतलब यह है इससे पहले आप नहीं हैं या तब आपको अपने होने के बारे में पता नहीं था? यह ’दूसरा’ जो एक रूप में आपसे मिलता-जुलता कोई ’अन्य’ हो सकता है या आपसे भिन्न प्रकार की कोई जड वस्तु । यह ’दूसरा’ कोई ’अनुभव’ हो सकता है, ’विचार’, ’कल्पना’ या स्मृति हो सकता है । बहरहाल यह तय है कि ’आप’ इस समूची गतिविधि में, इस समूची गतिविधि से नितांत अप्रभावित रहते हैं । यह और बात है कि सिर्फ़ भावुकता, मुग्धता, बाध्यता या अभ्यासवश आप ऐसी किसी दूसरी वस्तु से स्वयं को इतना जोड़ लें कि उसके बिना अपना होना आपको असंभव जान पड़े, लेकिन आपको भी यह सत्य अच्छी तरह पता है कि वह ’अन्य’ आपके ही समक्ष आता और जाता भी रहता है । इसके लिए क्या कोई प्रमाण दिया जाना होगा कि आप इस सबसे हमेशा ही और नितांत अछूते रहते हैं? लेकिन क्या यह ज्ञान या बोध उन असंख्य अनेक ’अन्य’ वस्तुओं की तरह की, -उनके जैसी, कोई ’आने-जाने वाली’ वस्तु है ? ’अनुभव’, ’विचार’, ’कल्पना’ या स्मृति की ही तरह ’अतीत’ और ’कल्पित-भविष्य’ का अनुमान भी क्या ऐसी ही ’अन्य’ वस्तु नहीं है?
क्या आपके होनेमात्र से ही आपमें अपने होने का भान भी नहीं होता? क्या आपका होनामात्र भी इसी भान से अभिन्न नहीं है? क्या यह भान और होना कोई ’अन्य’ वस्तु है?
इस प्रकार ’ज्ञात’ / जानकारी से विलक्षण प्रकार का ज्ञान ही, -क्या आपका अपने-आपके बारे में जानना नहीं है?
किंतु जानकारीयुक्त ज्ञान को ज्ञान समझ बैठने की भूल हमें हमारे इस  सरल, सहज, स्वाभाविक ज्ञान की ओर ध्यान नहीं देने देती और तब हम ’आत्म-ज्ञान’ को कोई अत्यन्त दुर्लभ वस्तु समझकर किन्हीं गुरुओं और शास्त्रों की शरण में जाते हैं । क्या वे गुरु या शास्त्र भी हमसे ’अन्य’ ही नहीं हैं?
यह हुआ हमारा ’आध्यात्मिक-सत्य’ ।
क्या यह सत्य व्यावहारिक जगत् की चुनौतियों का सामना करने में हमें सहायक हो सकता है?
चूँकि व्यावहारिक जगत् की चुनौतियाँ चूँकि व्यावहारिक जगत् से ही उत्पन्न होती हैं इसलिए व्यावहारिक जानकारी से किसी हद तक उनका सामना भी शायद किया जा सकता है । क्या धर्म, परंपरा, जीवन की नई चुनौतियों का सामना करने के लिए कोई ’मन्त्र’ या सूत्र दे सकते हैं?
धर्म और परंपरा ने हमें ’परिवार’ की अवधारणा दी । वह निश्चित ही एक व्यवस्था है, और कोई भी व्यवस्था प्रारंभ में किसी कामचलाऊ ’प्रारूप’ में ही स्थापित होती है । ’परिवार’ की व्यवस्था और उसके लिए ’विवाह’ की विधि उन ऋषियों ने स्थापित की जिन्हें वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए वर्ण की शुद्धता को बनाए रखना अपरिहार्य जान पड़ा । क्योंकि वर्ण (की शुद्धता) ’गुणों’ और ’कर्म’ पर आधारित है इसलिए वर्णों के मिश्रण से व्यवस्था को स्थिर नहीं रखा जा सकता, और इसलिए समाज के स्तर पर ’विवाह’ ही एकमात्र सर्वोत्तम व्यवस्था हो सकती है । किंतु यह भी सत्य है कि एक बार यह व्यवस्था भंग हो गई तो फिर इसे बनाए रखना या न बनाए रखने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है । संयोगवश हम उसी काल में जी रहे हैं । और न तो वेद और न ही वे ऋषि किसी व्यवस्था को बलपूर्वक स्थापित करने के पक्ष में हैं, यह कहना गलत न होगा । अर्जुन द्वारा यह दलील दी गई कि युद्ध से कुलक्षय  होगा, फिर कुलधर्मों का नाश होगा जिससे अधर्म होगा, अधर्म होने पर कुल की स्त्रियाँ प्रदूषित होंगीं, जिससे वर्णसङ्कर होगा और वर्णसङ्कर होने से पितरों को पिण्डदान, तर्पण आदि का अनुष्ठान भी नहीं होगा और हमारे पूर्वज भी अनियत समय तक नरकों में पड़े रहेंगे .... इस सब पाप में संलग्न होने से तो अधिक अच्छा यही होगा कि मैं युद्ध न करूँ ।
इसके बाद भी युद्ध हुआ क्योंकि अर्जुन अकेला होनी को कैसे टाल सकता था । और महाभारत की समाप्ति होते-होते कलियुग का आगमन हो गया ।
अब हमारे समक्ष ’विवाह’ का अर्थ और संदर्भ बदल गए हैं । अब विवाह एक साधन है, कुल या वंश को बनाए रखने का नहीं, बल्कि भौतिक समृद्धि पाने और बनाए रखने का साधन है । जहाँ शारीरिक संबंध यज्ञ-कर्म न होकर शारीरिक और मानसिक भूख मिटाने के लिए समाज और तथाकथित धर्म की कसौटी पर प्राप्त किया जानेवाला लाइसेंस भर है, इसलिए समलैंगिक विवाह भी विचारणीय विषय, बहस का विषय है । जहाँ विवाह के अर्थ और संदर्भ ही नितांत बदल गए हैं ।
क्या हम इन चुनौतियों का सामना करने को तैयार हैं?
क्या कहेंगे आप?
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बाल्यादिष्वपि / bālyādiṣvapi

श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -7 / śrīdakṣiṇāmūrtistotram 7
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बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥
(श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -7)
अर्थ :
बाल्य-अवस्था में, किशोर, युवा तथा वृद्ध इत्यादि अवस्थाओं में तथा जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इत्यादि सभी अवस्थाओं में, उन अवस्थाओं से घिरे होने पर भी अहम् के रूप में जो नित्य हमारे अन्तर्हृदय में अनयास स्फुरित होता हुआ अपनी सौम्य मुद्राओं / भाव-भंगिमाओं के माध्यम से अपनी भक्ति करनेवालों के समक्ष स्वयं को प्रकट करता है, उन मूर्तरूप परम गुरु श्रीदक्षिणामूर्ति को प्रणाम ।
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bālyādiṣvapi jāgradādiṣu tathā sarvāsvavasthāsvapi
vyāvṛttāsvanuvartamānamahamityantaḥ sphurantaṃ sadā |
svātmānaṃ prakaṭīkaroti bhajatāṃ yo mudrayā bhadrayā
tasmai śrīgurumūrtaye nama idaṃ śrīdakṣiṇāmūrtaye ||
(śrīdakṣiṇāmūrtistotram 7)
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Meaning :
The one Who in the form of 'I-sense in every being, keeps shining through-out all the states like that of childhood, youth, adulthood, and old-age, Who keeps shining through-out all states like waking, dream and deep sleep, Who keeps resonating as 'I' in the heart (but because of the impure and imperfect intellect, identifying itself with the objects that are illuminated by His light only, and is taken as 'I am this or that'), Who through all its auspicious expressions reveals One-Self before those who share one's being in Him (and thus lose one's separate identity), 
Obeisance to Him, to That Spiritual Master Supreme, That Lord Supreme śrīdakṣiṇāmūrti.
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Tuesday, 12 September 2017

-Of J.Krishnamurti.

The relevance of J.Krishnamurti.
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Those who have not heard or known about Him, take it that J.Krishnamurti is a thinker, Philosopher, or some teacher of the spiritual kind. We think He has His own organization, Mission. Unless we try to know and understand His self-less contribution, we just stay away from His teachings by one or the other excuse. We really love to live the life the way we live on and end up before the ending of the psychological time where-in we live as an 'individual'. J.Krishnamurti begins from the very beginning. To find out and question everything without holding on to beliefs, traditions, religions and the philosophies of all kinds. He is not against or in favor of any of the traditional approach 'we' have been adhering to blindly without understanding them but because of fear and hope only. We rarely question : Could a mind that lives in fear and hope ever find the essence, meaning of what 'life' is? Really, no one is born with an 'idea', but the idea 'I am' and 'I am an individual' are born within the mind only, and hold as the prominent thought. This fundamental error of perception further brings forth the endless confusion, conflict and the 'individual' / 'ego' which though tries to free itself from itself, can never succeed in this effort.
Seeing this is of utmost importance.
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Sunday, 10 September 2017

आत्माऽयम्

आत्माऽयम्
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"अपरिग्रहं निरहं भावं..."
वदतु कोऽपि :
कस्य वा कस्मै?
निरहं-भावे न तु कर्ता, न ध्येयं विद्येते ।
न चापि लोको,
न परो-अपरो च ।
आत्मा तु स्वरूपेण हि अविकारी ।
का वार्ता अस्य संशोधन-यत्ने?
आत्मा तु वेदितव्यः,
न तु परिमार्जितव्यः,
वरञ्च परिमार्गितव्यः,
यथा हि निर्दिष्टे शास्त्रेण,
श्रोतव्यः, मन्तव्यः, निदिध्यासितव्यः,
आत्माऽयम् ।
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(विगत 11 सितंबर 2016 को लिखी संस्कृत रचना किञ्चित रूपान्तरित पुनर्प्रस्तुत)

अर्थ 
यह आत्मा
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’अपरिग्रह है निरहंता ..."
किसी ने कहा ।
किसकी? किसके लिए?
निरहंता में न तो कर्ता / कर्तृत्व होता है,
न ही ध्येय ,
न तो कोई संसार और लोक,
न परलोक अथवा यह ।
आत्मा तो स्वरूप से ही अविकारी है ।
इसमें किसी रूपांतरण के यत्न की,
बात ही कहाँ हो सकती है?
आत्मा को तो जान लिया जाना होता है,
उसे बनाना, सुधारना नहीं होता ।
बल्कि बस यत्नपूर्वक समझ लिया जाना होता है ।
इसे तो सुना जाना,
इस पर मनन किया जाना,
इसमें निदि-ध्यासन करना होता है ।
... ऐसी है यह आत्मा ।
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विचार के झँझावात

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विचार को जीवन मत कहो,
और न जीवन को विचार,
ये दोनों एक-दूसरे से,
नितान्त अपरिचित हैं,
और बिलकुल अछूते भी!
विचार विचार से प्रभावित होता है,
विचार विचार को प्रभावित करता है,
लेकिन जीवन,
न तो विचार को प्रभावित करता है,
न ही विचार जीवन को ।
ये दोनों एक-दूसरे से,
नितान्त अपरिचित हैं,
और बिलकुल अछूते भी!
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’विचार’ जिन्हें सीखा गया है,
यान्त्रिक अभ्यास से,
यन्त्रवत आते हैं या जाते हैं,
विचार बुद्धि से भी,
बोध से भी आते हैं या जाते हैं,
स्पष्ट है कि विचार,
बुद्धि की तुलना में जड हैं,
और बुद्धि,
विचार की तुलना में चेतन,
किंतु यह भी सत्य है कि,
बुद्धि उनसे भ्रमित हो जाती है,
बस इतना ही ।
किंतु क्या बुद्धि के भ्रमित होने से ही,
’बुद्ध’ प्रभावित या भ्रमित हो जाए?
जिसने विचार के उद्गम को नहीं जाना,
वह विचार के संग्रह को,
ऊहापोह को ही बुद्धिमता समझ ले,
तो क्या आश्चर्य है?
विचार ’स्मृति’ है, बुद्धि प्रतिभा,
प्रतिभा स्वामिनी है, स्मृति दासी ।
विचार सेवक है, बुद्धि स्वामी ।
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क्या बुद्धि के अभाव में विचार संभव है?
हाँ स्मृति-रूप में अवश्य,
पर वह तो कंप्यूटर में भी होती है ।
और कोई कम्प्यूटर भी,
कविता लिख सकता है,
संगीत रच सकता है,
यहाँ तक कि थ्री-डी प्रिन्टिंग भी कर सकता है !
क्या आप उसे प्रतिभाशाली कहेंगे?
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Saturday, 9 September 2017

’विचार’ का औचित्य और मर्यादा

विचारों का प्रभाव जीवन पर पड़ता है,
या जीवन का प्रभाव विचारों पर?
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यहाँ यह देखना ज़रूरी है कि ’जीवन’ का क्या तात्पर्य ग्रहण किया जा रहा है?
एक ’जीवन’ तो वह है जिसे हम जी रहे हैं । हम अर्थात् ’शरीर’ के माध्यम से शरीर का स्वामी । दूसरा ’जीवन’ वह है जिसे इस शरीर के साथ-साथ असंख्य जीव जी रहे हैं । इनमें से कितने ’विचार’ की सुविधा का उपभोग करते हैं ? क्या मनुष्य के अलावा किसी और को ’विचार’ की सुविधा उपलब्ध है? ज़ाहिर है कि शायद मनुष्य ही विचार-संपन्न है जबकि शेष विश्व के जीव शायद इससे नितान्त वंचित हैं ।
किंतु मनुष्य ही क्यों? क्योंकि विचार का आधार है ’भाषा’ जिसमें कुछ ’ध्वनियों’ और ध्वनियों के समूह जिसे शब्द कहा जाता है, और ऐसे शब्दों का समूह, जिसे ’वाक्य’ कहा जाता है, होते हैं । इन ’वाक्यों’ / शब्दों का या तो कोई प्रयोजन और अर्थ होता है या कोई भाव । ये किसी अर्थ या प्रयोजन को इंगित करते हैं या किसी भाव / भावना को ।
’विचार’ का औचित्य यहीं तक सीमित है । और ’विचार’ केवल किसी नए अथवा पुराने विचार को ही अस्तित्व प्रदान करता है । यदि उसका व्यावहारिक अर्थ या प्रयोजन न हो तो वह केवल भूल-भुलैया है । और व्यावहारिक अर्थ या प्रयोजन केवल संकेत से भी संप्रेषित हो / किया जा सकता है । इस रूप में निश्चित ही मनुष्य अन्य जीवों की तुलना में शायद एक बहुत दरिद्र प्राणी है, जिसकी कोई ऐसी इतनी विकसित ’संकेत-भाषा’ नहीं है जैसी कि बहुत से अन्य जीवों की है ।
तो प्रश्न यह है कि क्या विचार सचमुच ’जीवन’ को, इस पूरे वृहत्तर ’जीवन’ को प्रभावित करता है, या केवल मनुष्य और उसके समाज के जीवन को? और क्या सचमुच यह जीवन ही विचारों (विचार) का मूल आधार नहीं है?
मनुष्य ने जिस विचार का आविष्कार किया वह बुद्धि तो है, किंतु ज्ञान भी है ऐसा कहना शायद सही नहीं है क्योंकि विचार में उलझी इस बुद्धि ने मनुष्य की स्वाभाविक समझ को कुंठित और संकुचित कर दिया है । इसने मनुष्य की कट्टरता को समाप्त करने के बजाय उसे अधिक कट्टर और पाखंडी ही बनाया है, उसमें ज्ञान तो नहीं ज्ञान का दंभ ज़रूर पैदा किया है ।  
’धर्म’ के वेश में यह कट्टरता मनुष्य के अपने लिए महाविनाश का कारण बन गई है ।  
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Nahuatl and Sanskrit / संस्कृत

Nahuatl and Sanskrit / संस्कृत
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.... Fantastic!
 This does explain there you could always invent another longer word in Nahuatl (NAHUATL). By instinct I could see this is quite like a Sanskrit word. And the way Dr. David Tuggy explained was quite similar the way we deduce any Sanskrit word. Not only the Etymology, but the compounding of 2 or more words which could be affixes (prefix, suffix, infix) under the rules of grammar. This speaks in volumes about the nature of evolution of languages.
Interestingly, this also helps us understand the formation of the compound-words in the German.
One important 'key' I could instantly see was
'x' which in Nahuatl is pronounced as  ’ष्’ / ’ṣ’  as in / अनुष्का / anuṣkā.
This 'x' though comes from Sanskrit phonemes in different ways.
Thus  दुरौघ / duraugha  / त्वरो / tvaro in Sanskrit and many words in French and Greek could be easily derived from Sanskrit.
अष्टक / aṣṭaka in Sanskrit becomes Aztec (the civilization).
There is another example :
Compare :
Mexico, Méjico in Spanish, Messico (spagnolo: México; nahuatl: Mēxihco),
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The Sanskrit texts like Veda and Purana do tell in detail about 
राजा नहुष् / King nahuṣ,
ऋषि अगस्त्य / ṛṣi (sage) agastya, 
राजा वृत्र / rājā (King) vṛtra  > Vittory / Victory, 
who was son of ’आयु’ āyu (आयु का पुत्र > Son of āyu
 Grandson of पुरुरवस् / pururavas - पुरुरवा का (पौत्र )/ pururavā, 
And  / ययाति का पिता / Father of  yayāti ...
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We can think of the Nahuatl Language as the Language of  राजा नहुष् / King nahuṣ,
We can see how 'Paul' is a cognate of 'पुलस्त्य / pulastya / पुलह / pulaha,
Augustine /  Augustus of ऋषि अगस्त्य / ṛṣi agastya,
(Which gave us the Roman month August).
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Thursday, 7 September 2017

पहला नशा

॥ तस्मै श्री गुरवे नमः ॥            
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नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ ज़रा,
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ।
पता नहीं अमिताभ बच्चन की फ़िल्म ’शराबी’ के गीत में ये पंक्तियाँ ऐसी ही हैं या कुछ अलग ।
मेरे गुरु ने मुझसे कहा :
पता लगाओ कि ’पहला नशा’ कौन सा है जिसके बाद दूसरे नशों का सवाल उठता है ।
मैंने पूछा :  ’पहला नशा?’
उन्होंने कहा : क्या जब हम नशे में नहीं होते, जब हम सामान्य अवस्था में होते हैं या जिसे हम सामान्य अवस्था समझते हैं, उस अवस्था में क्या हममें कभी यह सवाल होता है कि जिस ’मैं’ शब्द का प्रयोग हर कोई इतने आत्म-विश्वास से करता है उस का तात्पर्य क्या है? व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से उसका उपयोग प्रतीत भी होता है किंतु क्या इस शब्द के अभाव में ’जीवन’ नहीं होता? कभी-कभी ऐसी स्थिति भी होती है (जैसे नींद में) जब न तो यह शब्द होता है न इससे जिसे इंगित किया जा सकता हो ऐसी कोई चीज़ ही होती है, क्या उस अवस्था के गुज़र जाने के बाद ही यह शब्द पुनः नहीं आकर हमारी उस स्थिति पर हावी हो जाता है? क्या वह स्थिति अकस्मात् ही, हमारे प्रयत्न के बिना ही स्वाभाविक रूप से नहीं आया करती है? हाँ उसके आने में शायद यह ’मैं’ बाधा ज़रूर डाल सकता है । क्या उसी स्थिति में ’मैं’ नामक ’ज्ञान’ हममें नहीं जन्म लेता? क्या यही पहला नशा है, ऐसा कह सकते हैं? क्या दूसरे नशे बाद में ही नहीं आते?
'मैं' निरुत्तर था।
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निरुत्तर दशा में तुरंत ही 'मैं' विलीन हो गया।
केवल वह दशा, वह अवस्था 'प्रकट' हो गई जो 'मैं' के आने-जाने से अछूती है।
वह कितने समय तक रही ऐसा कहने का प्रश्न ही कहाँ उठता है?
फिर वह 'चली गई' यह कहना भी उतना ही निरर्थक है।
वह आने-जानेवाली वस्तु नहीं, आने-जानेवाली वस्तु तो यह 'मैं' और इसका नशा है।
क्या वास्तव में कोई कहीं 'है', जो इस नशे के आने-जाने के प्रति सतर्क होता हो?  
हाँ यह ज़रूर कहा जा सकता है कि 'मैं' लौट आया और उस दशा पर हावी हो गया, लेकिन अब 'मैं' का नाटक ख़त्म हो चुका था।  'मैं' यद्यपि बाद में भी अनेक बार आया-गया, और आता-जाता रहता भी है, इस शरीर में प्राण होने तक आता-जाता रहेगा भी लेकिन किसी नशे की तरह नहीं, बल्कि एक आभास की तरह, एक व्यावहारिक वस्तु की तरह।
तब 'मैं' ने गुरु के चरण-स्पर्श किए।
केवल गुरु की कृपा से ही 'मैं', अर्थात् यह 'पहला नशा' टूटा।
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॥ तस्मै श्री गुरवे नमः ॥              
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Wednesday, 6 September 2017

जाने क्या बात है ... ओ मेरे प्यार...

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जाने क्या बात है,
रात्रि में दो गीत मन में गूँज रहे थे ।
एक तो,
’जाने क्या बात है, जाने क्या बात है...’
दूसरा,
'ओ मेरे प्यार आ जा, बन के बहार ...’
जैसी मेरी आदत है, जब मैं किसी संगीत को सुनता हूँ तो या तो केवल संगीत के स्वरों को सुनता हूँ या केवल गीत के शब्दों को । संगीत सुनने में प्रायः हम इन दोनों को मिला देते हैं जिसके कारण मन अनायास एक दुरूह उलझन / कठिनाई में पड़ जाता है ।
क्या है वह कठिनाई?
जब हम किसी गीत के मुखड़े को याद करना चाहते हैं तो उसके स्वर याद नहीं आ पाते और स्वरों को याद करना चाहते हैं तो मुखड़ा याद नहीं आता ।
और यह प्रश्न और विकट तब हो जाता है जब दो गीतों के स्वर  / लय एक जैसे होते हैं ।
उपरोक्त दो गीतों में यही समस्या मेरे साथ हुई ।
इसलिए नींद कैसे आती?
सुबह (!) तीन बजे नींद टूटी तो भी इनकी गूँज के मद्धम सुर लहरों की तरह इधर-उधर लहरा रहे थे ।
फिर दो छोटी पंक्तियाँ मन में उभरीं :
उग आए हैं काँटे, रूह के जिस्म में,
जिस्म को क्या पता रूह क्यों बेचैन है ।
जिस्म याने शरीर, देह, काया,
(का या? मा या, जो नहीं है, पर है जैसे प्रतीत होती है, इसलिए ’माया’)
जिस्म की रूह याने पाँच मूल तत्व जिनसे जिस्म बनता है ।
दूसरे ढंग से देखें तो चेतना भी पाँच तत्वों भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश की निर्मिति / विकार ही है ।
चेतना :
वह तत्व जिसे बोध होता है जो केवल इस बोध के ही माध्यम से ’जानता’ है किंतु यह ’जानना’ इन्द्रिय-अनुभवों से मिलकर ’सुनना’, ’देखना’, ’गंध अनुभव करना’, ’स्पर्श’ और स्वाद / रस के रूप में पहचाना जाता है । यह ’जानना’ स्वयं जब इनसे संबंधित होता है तभी इन्द्रिय-अनुभव और इन्द्रिय-ज्ञान हो पाता है । चूँकि दो या अधिक इन्द्रियाँ, अपने स्वतन्त्र रूप से अकेली ही इस इन्द्रिय-अनुभव और इन्द्रिय-ज्ञान को संभव बनाती हैं, इसलिये उनमें समान रूप से विद्यमान जिस तत्व की सहायता से वे ऐसा कर पाती हैं, वह तत्व स्वयं न तो कोई विशिष्ट अनुभव है, न विशिष्ट-ज्ञान, -वह केवल ज्ञान का तत्व या गुण मात्र है । इस की प्रगाढ़ता या गहनता इन्द्रियों में कम या अधिक होती है किंतु इसका गुण कम या अधिक नहीं होता । यह या तो होता है, या होता ही नहीं, या कहें तो सुप्त होता है । जैसे आप सुनते हैं तो यह बोध कानों तक और कानों से कार्यरूप में अनुभव और ज्ञान बनता है जिसे ’शब्द’ अर्थात् ध्वनि कहते हैं । इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों के बारे में भी है ।
ये ज्ञानेन्द्रियाँ तो बाह्य करण (साधन) हुए, जबकि जब मनुष्य बाह्य जगत से जुड़ा नहीं होता जैसे कि स्वप्न, निद्रा या अपने मन ही में कल्पना में डूबा होता है, तो जिन साधनों से उसे अनुभव और ज्ञान होता है उन्हें अन्तः-इन्द्रिय या अन्तःकरण कहा जाता है । जैसे बाह्य करणों के कार्य में ’बोध’ अर्थात् ’चेतना’ एक अनिवार्य और अपरिहार्य तत्व है, वैसे ही अन्तः-इन्द्रिय या अन्तःकरण के कार्य, अनुभव तथा ज्ञान में जो ’बोध’ मूल तत्व होता है, वह भी ’चेतना’ ही है । अन्तःकरण के कार्य कल्पना, मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार इन पाँच रूपों / प्रकारों से होते हैं । इनमें से प्रायः एक प्रधान होता है, शेष चार गौण । अर्थात् जब आप ’कल्पना’ करते हैं तब मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार नेपथ्य में चले जाते हैं । इसी प्रकार जब आप विचार करते हैं तब मन कार्य करता है, शेष नेपथ्य में चले जाते हैं । जब आपमें भावना का उद्रेक होता है तब ’चित्त’ कार्य करता है शेष नेपथ्य में चले जाते हैं । जब आप कुछ ’तय’ / निश्चय करते हैं, किसी निर्णय तक पहुँचने का यत्न करते हैं तो ’बुद्धि’ कार्यरत होती है,  शेष नेपथ्य में चले जाते हैं । जब आप उस भावना से एकाकार / अभिभूत / आविष्ट हो जाते हैं तो ’अहंकार’ कार्य करता है शेष नेपथ्य में चले जाते हैं ।
पाँच मूल-तत्व जिनसे शरीर तथा मन बनते हैं अर्थात् ’पञ्चतत्व’ चेतना की प्रगाढ़ता या गहनता, सूक्ष्मता या स्थूलता के अनुसार बाह्य जगत तथा अन्तर्जगत के रूप में अनुभव किए जाते हैं ।
इस प्रकार चेतना का एक तो व्यक्त रूप है जो इन विभिन्न प्रकारों में प्रतीत होता है, दूसरा अव्यक्त आधारभूत जो इस सबका अविकारी अधिष्ठान है ।
पहले को ’जीव-चेतना’ या केवल ’जीव’ कहा जाता है, जबकि दूसरे को ’शुद्ध-चेतना’, ’शिव-चेतना’, केवल ’शिव’, ’शक्ति’ या ईश्वर कहा जाता है । क्योंकि वही अस्तित्व की नियामक शक्ति / चेतना है ।
तो चेतना भी पाँच तत्वों भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश की निर्मिति / विकार ही है । भू अर्थात् पृथ्वी अर्थात् स्थूल जगत, जिसे स्पर्श, गंध, स्वाद, ध्वनि और रूप से जाना जाता है ।
इसी प्रकार शेष चार तत्वों के बारे में भी है ।
फिर, स्पर्श वायु का, गंध पृथ्वी का, स्वाद जल (रस) का, ध्वनि (शब्द) आकाश का, और रूप अग्नि का ’प्रतिनिधि-तत्व’ है ।
जिस्म > जि > जयति > जन्म लेता है, जीवन जीता है,
रूह > रूप -जिसकी आकृति होती है इस आकृति को भी उपरोक्त पाँच तरीकों से पहचाना जाता है ।
काँटे >’मैं’-बुद्धि, जो मन, चित्त, बुद्धि, अस्मिता और कल्पना के माध्यम से व्यक्त होकर कार्य करती है ।
ये चारों ही सृष्टि के सन्दर्भ में ’सृष्टिकर्ता’ अर्थात् ब्रह्मा के चार मुख हैं ।
इसलिए ब्रह्मा ही इन चारों में व्याप्त एकमेव तत्व है, न कि कोई व्यक्ति-विशेष ।
रूह का जिस्म > चेतना जो वैसे तो निराकार, निर्वैयक्तिक है, किन्तु शरीर की भिन्नता से व्यक्ति हो जाती है ।
अब प्रश्न है कि ’बेचैनी’ क्या है?
क्या शरीर बेचैनी को जानता है?
नहीं! रूह ही जानती है, जिसमें चार काँटे उग आए हैं ।
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©
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The following is the English Translation.
(For the links of the 2 songs referred to here, check the links as are given in the original Hindi above version.) 
जाने क्या बात है,
Two rhyhtmes were resonating in mind last night.
One :
’जाने क्या बात है, जाने क्या बात है...’
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"jāne kyā bāta hai,
jāne kyā bāta hai, jāne kyā bāta hai ... nīṃda kyoṃ nahīṃ ātī, ..."
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Another : ,
’ओ मेरे प्यार आ जा, बन के बहार ...’
"o mere pyāra ā-jā, bana ke bahāra ā-jā, ..."
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By my very habit itself, when I listen to some number I either focus either upon upon the notes only or on the wordings only. I often see, usually we just mixed-up the two while listening to such a lyrical composition, that causes kind of a serious trouble. I can’t say if  people too find such a situation with them.
What is that problem?
When-ever we try to recall the number, we have to bring up either the tune or the wordings of the song. Here I’m talking with giving a special reference to such a kind of Indian piece. And even when we somehow remember the tune, we just forget the wordings, or if we remember the wordings, it becomes rather recall the exact rhythm. As the Indian musical composition (not the classical, but say folk) ordinarily comprises of a theme where there is a fixed main line or two which is repeated after every stanza and there are 2, 3 or more stanzas.    This problem assumes a form even more grave, when two numbers have similar musical tunes (notes), and recalling one of them brings the another as if stringed to it. As we know, in indian music, a number is often based on a , राग / rāga, - a well-defined metrical basis and it is always quite possible to get confused unless we are not a great musician. So long as the musical-composition is not written in a form (of notes) for example as one that is written for playing upon a violin or piono, this problem at once get our attention switched over from one to another, and not remembering the lyrics worsens the difficulty even more.
The same thing happened in my case with the two above-referred to numbers.
So this was but expected that I could not go to sleep.
Today in the early morning (precisely at 3:00 a.m.), when I got up, the notes were just permeating in the mind, leaving me just sleepless. The reverberations forced the two songs getting mingled-up in such a way it was kind of a torture in itself.
Then 2 short lines came up in the mind :
उग आए हैं काँटे, रूह के जिस्म में,
जिस्म को क्या पता रूह क्यों बेचैन है ।
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Transliteration of the above:
uga āe haiṃ kām̐ṭe, rūha ke jisma meṃ,
jisma kyā patā, rūha kyoṃ becaina hai |
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The cacti have grown up in the body of the soul,
The body does not know why the soul is restless.
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Will be a near-about rendering into English.
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The body means the physical structure, the living organism.
Which is said to be made-up of the five basic elements the earth, the water, the air, the fire and the ether (space / sky).
This body is again a ‘magic’ / illusion which could be referred to as
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मा या / mā yā >  माया / māyā ,  / का या / kā yā > काया > kāyā,
in संस्कृत  / saṃskṛta,
these words beautifully explain how this is possible.
मा या / mā yā >  means : What (feminine) exists / lasts not..
माया / māyā > means : magic or illusion, appearance.
का या / kā yā  > means : That (feminine) which.
काया > kāyā, > means : the body.

Looking this through another angle implies the body and the body-consciousness too is but made of these very 5 elements and vice-versa.
Again here by ‘body-consciousness’ we mean the consciousness that ‘knows’ the body (because material-body is just inert in the sense of ‘knowing’ independently.
And by ‘body-consciousness’ we also mean the apparent ‘knowing’ itself, pure or compounded with knowledge, mind, intellect, ego-conceit, and imagination.
The element who perceives, knows so only through this consciousness, but this ‘knowing’ mixed-up with the experience of the senses is recognized in terms of ‘hearing’, ‘form’, ‘smell’, ‘touch’ ‘taste’.
Only when this ‘knowing’ is associated with any of the 5 senses of perception turns into the ‘sense-experience’, and gives rise to the ‘knowledge’ of the sense-kind. As we know, at any time, only one of the 5 senses assumes the prominant place while the other 4 go out of focus, keeping them on hold, only one specific sense-organ helps in ‘experiencing’ an object of perception. Only because of the common element and ‘the quality’ of ‘consciousness’, these 5 senses work independently and don’t interfere in one-another’s workingThis lets us see that this ‘knowing’, this formless factor that facilitates the working of senses, is though formless is not affected, nor affects them in inay way. The intensity and the subtlity, the inherent force it exerts is unaffected throughout the perception. While a sense-orgen performs its task, it is either there or just is not there, or is in a silent mode.  For example when we ‘hear’, this helps hearing happen, and then hearing becomes knowledge and experience, though consciousness is none of the two.
These semse-organs are only the external instruments and have their respective roles while one is engaged in an activity of a purely physical kind. But when one is almost cut-off from the external world of senses, then also there are facilities that help one in performing mental tasks like when one is in a dream  or just fast asleep, thinks or broods over something, ponders over a subject intellectually (through memory and the knowlede in the form of the memory) or tries to decide, -to reach at a conclusion, or just identified with a ‘feeling’ or emotion.The mental instruments through which this happens are called ‘internal-senses’ in the traditionala Vedant-texts. This implies that just as in the case of external senses and their working, the same ‘knowing’ facilitates the activities of the mind. Thus we can distinguish between a ‘consciousness’  in the form of ‘knowing’ that is neither knowledge, nor experience nor changes with the changing situations, external physical or internal mental, but the ground where this all happens. And at the same time, this is independent in its own Reality –whatever.
Again, the 5 internal mental core patterns that make the perception possible namely; imagination, mind, intellect, emotion / feeling, and ego-sense. are supported by this ‘knowing’ only and thought the ‘knowing’
is their only evidence, ‘knowing’ could not be grasped by any of them.
That formless incorriptible, immaculate ‘knowing’ is the substratum of these all things.
We see that this ‘knowing’ in one form is the manifest but in yet another the latent potential.
The first manifest form is either the body and the world internal of mind or external of material and objects.
Another is the immutable substratum, the support of all yet beyond the grasp of the senses or the mind.
The individual souls is caught into a physical form while the totality is beyond form but is essence only.  The individual soul is called person that is a formal description of the imagined entity only, which comprises of body, mind and an imagines ‘self’ which is but a bye-product of body-consciousness only.
Apparently there is an Intellegence which keeps this compact manifestation strictly regulated and maintained in such a beautiful way with no inherent contradictions any.
This Intelligence is the roota and source, the expression and the manifestation.
So far we knew what is ‘self’ or individual,
What is the Intelligengence, core and the essence.
And what is the body of the ‘soul’ and the ‘soul’ of the body.
“Who suffers?” is yet to be answered.
The cactii, the evolution of the sense of one-self as a separate and distinct entity endowed with the thorns that is, of imagination, mind, intellect, emotion / feeling, and ego-sense. is the cactii, who suffers on its own.
Does the body ‘knows’ the suffering?
Does the Intelligence suffer?
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Monday, 4 September 2017

The Quest .

Poetry To-day
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Me and my alter-self,
Sitting side by side,
Talk about the subjects,
Narrow and wide,
Have no Guru, book,
Teacher or the Guide,
Trying to find-out,
The Reality inside.
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Sunday, 3 September 2017

यस्यैव स्फुरणं / yasyaiva sphuraṇaṃ

श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -3
śrīdakṣiṇāmūrtistotraṃ -3, 
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यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात् तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥
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अर्थ :
जिसका स्फुरण (जो अपने होने के शुद्ध-बोधरूप में जीवमात्र को होता ही है) मूलतः सदात्मक होते हुए भी (अपने कुछ विशिष्ट होने की असत्-भावना के रूप में अहंकार के रूप में व्यक्तरूप लेने से पूर्व ही होता है), ’मैं’ की कल्पना के असत्-अर्थ से युक्त प्रतीत होता है, जो (स्फुरणरूप में इस असत् कल्पनारूपी ’मैं’ को) ’तुम साक्षात् / प्रत्यक्ष तत्व हो’ इस प्रकार के श्रुतिवचन से अपने आश्रितों (जिनकी ’मैं’-बुद्धि अपने सदात्मक स्वरूप में स्थिर हो चुकी है उन जिज्ञासुओं) को स्वरूप का बोध प्रदान करता है । जिसके दर्शन कर लिए जाने पर (अर्थात् जब यह असत्-कल्पार्थक ’मैं’-बुद्धि जो केवल विषयों को ही देखती है, उनसे विमुख होकर उस नित्य स्फुरणरूपी सदात्मक चैतन्य को देख लेती है), पुनः इस भवसमुद्र में आगमन कभी नहीं होता (अर्थात् संसार की अत्यन्त / आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है), उन मूर्तरूप परम गुरु श्रीदक्षिणामूर्ति को प्रणाम !
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श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -3
śrīdakṣiṇāmūrtistotraṃ -3, 
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yasyaiva sphuraṇaṃ sadātmakamasatkalpārthakaṃ bhāsate
sākṣāt tattvamasīti vedavacasā yo bodhayatyāśritān |
yatsākṣātkaraṇādbhavenna punarāvṛttirbhavāmbhonidhau
tasmai śrīgurumūrtaye nama idaṃ śrīdakṣiṇāmūrtaye ||
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Meaning :
One who alone is manifest as Self and is of the nature of pure Existence only, but in imagination appears as if has a name and form of 'me', 'mine' and 'I', thus giving rise to an apparent but devoid of any sense, an outward 'world' as 'mine',
One who through the words 'Thou art That' of the Veda, awakens to those (aspirants / devotees though merged into the ignorance of the sense : 'I am so and so' and are caught into the sense of the world and 'oneself' as real entities distinct from each-other, having surrendered this sense to Him, have come to Him in anticipation of the freedom from this sense), who have taken shelter in Him,
One, when the aspirant has a vision of That, Who alone, as pure essence gives this wisdom and awakens such aspirants / devotees (as described above), thus dissolving their false 'I-sense' and merging the same for ever into the Self, Thus rescuing them from the ocean of misery that is the world, and then for them this world never appears again,
Obeisance to That Supreme Guru   श्रीदक्षिणामूर्ति  / śrīdakṣiṇāmūrti. Who is ever so manifest before us.
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Saturday, 2 September 2017

ज्ञेय-अज्ञेय

ज्ञेय-अज्ञेय
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कालरूपी एक अदृश्य सी दीवार,
स्थान का असीमित दृश्य विस्तार,
व्यक्ति के आयाम में फैलते आयाम,
देह में मन-विश्व, विश्व में मन-देह,
देह-विश्व-मन, काल-स्थान-सीमित,
कौन सा आयाम है स्वतंत्र किससे?
ये सभी आयाम केन्द्र, उभरते आयाम,
कौन सा आयाम जानेगा किसे ?
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https://www.facebook.com/rahul.singh.98096/posts/1583833801681419?comment_id=1583935205004612&notif_t=like&notif_id=1504332652024585
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आज की कविता : अन्तर्दृष्टि

अनुसृष्टि और सु-प्रस्थितं / anusṛṣṭi and -su-prasthitaṃ
(Insight and Superstition)
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भाद्र भद्र है,
एकादशी ग्यारहवीं दिशा,
दश दिशाएँ संसार की ओर हैं,
ग्यारहवीं आत्मा की ओर,
भद्र भद्दा नहीं,
जैसे बुद्ध बुद्धू नहीं ।
भैरव भीरु नहीं,
अभय हैं,
शिव के द्वारपाल ।
आधुनिक नया है,
लेकिन नया ’नॉविस्’ भी होता है,
जबकि अधुनातन होता है नित्य नया,
नवोन्मेष,
जो चिरंतन, सनातन और भव्य है ।
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क्या वन से नव की ओर,
नाव खेना ही,
जीवन है?
वन अयन है,
कभी मार्ग, कभी बीहड़,
कभी सुगम्य, कभी अरण्य,
कभी सुगम, कभी दुर्गम,
नव नित नूतन है,
कभी मार्ग, कभी बीहड़,
कभी सुगम्य, कभी अरण्य,
कभी सुगम, कभी दुर्गम,
नाविक की दिशाएँ,
-जल तक सीमित,
जल कभी नदी है,
जल कभी प्राण,
तो कभी प्राण लेनेवाला ।
नाविक को जानना है,
कि हर नई नदी,
कभी मार्ग, कभी बीहड़,
कभी सुगम्य, कभी अरण्य,
कभी सुगम, कभी दुर्गम,
नव नित नूतन है,
कभी मार्ग, कभी बीहड़,
कभी सुगम्य, कभी अरण्य,
कभी सुगम, कभी दुर्गम,
नाविक तो अधुनातन होता है,
नित्य नया, नवोन्मेष,
जो चिरंतन, सनातन और भव्य है ।
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टिप्पणी : ’नॉविस्’ / novice;  ..... और 'new',- 'नव' का वैसा ही अपभ्रंश है, जैसा बुद्धू बुद्ध का ... 
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Friday, 1 September 2017

अनुसृष्टि और सु-प्रस्थितं / Insight and Superstition.

अनुसृष्टि और सु-प्रस्थितं
Insight and Superstition.
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अनुसृष्टि (anusṛṣṭi )और सु-प्रस्थितं (su-prasthitaṃ)
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Yesterday I saw Two interesting items on the net.
We could perhaps detect the causes how we are caught into the the present degenerating situation that seems to have no end,
I can easily derive the English words 'Insight' and 'Superstition' respectively from the संस्कृत / saṃskṛta words : अनुसृष्टि (anusṛṣṭi) and सु-प्रस्थितं (su-prasthitaṃ).
And I seek no confirmation or approval of those Linguists and Philologists who have so for ruled over and took over the dominant positions as the experts and drove authority.
[I have my own independent way of derivation, though based upon the rules of 
 वैदिक व्याकरणम् / vaidika vyākaraṇam .
The Grammar as is there in Veda.
And this Grammar explains the derivation of words in different languages spoken and written by humans general, and in संस्कृत / saṃskṛta language specially.]  
This way 'Insight' follows अनुसृष्टि (anusṛṣṭi) which means the imagination, that comes in the first place independent of the external knowledge.
Like-wise;
'Superstition' comes from सु-प्रस्थितं (su-prasthitaṃ), which means a deliberate departure and   deviation from the fact or the Reality. 
Though there are alternative ways of deriving them from the other संस्कृत / saṃskṛta words, but that would be an unnecessary exercise here.
The two 'links' given here are examples how in our times we are used to apply the words 'Insight' and 'Superstition' interchangeably.

In my last post I had pointed out that even the birds and animals also follow their insight and withdraw inwards leaving aside all outward activity and stay silent for the duration, while we men, being 'progressive' and supposedly an evolved Species indulge in entertainment and partying.
To us this is 'common' and 'common-sense'.
Is this 'common-sense' or acquired habit?
The birds and animals follow their 'Insight'.
Men follow either the 'The Common-sense', 'The Insight' or the 'The Learning'.
Veda and the related scriptures advise to meditate at the times of the Eclipse,
That is the 'Learning' of ऋषि / ṛṣi (sages) who refined their insight by the observation of nature and the greater Reality. This 'Learning' was not mere intellectual debate only. And Veda declare this to be available and accessible for one and all who really deserves this 'Learning'. Veda even go to suggest that this Learning should not be imparted to one who is not eligible and more importantly not interested and has no urge.
With reference to The above 2 links, 
THE first was 'shared'  by one who thought the approach and Teaching of Veda is 'Superstition', but the LGBTQ and such other behavioral patterns are but 'common-sense'. 
THE second is about the dialogue that took place between two Great Freedom fighters who sacrificed their life for the independence of India.
The video is in Hindi, 
I don't know about haw far it is genuine or authentic, but (the truth of) the talks that are recorded there-in could also be verified by historical documents so we can take it as true.
The only point is :
Both the Mahatma and The Veer Freedom-fighter began the talk with a basically wrong notion of 'Hindutva' / 'Hinduism' and 'Hindu-dharma'.
Both are confused and though sure have 'common-sense', have neither the 'Insight' nor the 'Learning'.
Some scholars agree and with a vehemence and arrogance even claim that the word
हिन्दु-राष्ट्र / hindu-rāṣṭra / हिन्दू-राष्ट्र / hindū-rāṣṭra  and 'हिन्दुत्व / Hindutva' 
  was coined  by Veer Savarkar.
Interestingly, no-where in any of the संस्कृत / saṃskṛta texts we find a reference or mention of these words : 
हिन्दु-राष्ट्र / hindu-rāṣṭra / हिन्दू-राष्ट्र / hindū-rāṣṭra  and 'हिन्दुत्व / Hindutva'.
Even in the Veda and related संस्कृत / saṃskṛta texts, the word राष्ट्र / rāṣṭra is used to denote 'the Earth' which implies as the globe, and not a geographical or political part.
Mahatma was greatly confused no doubt, but Veera Sawarkar. was not any lesser.
And the lack of clarity in both led to India to the present state of catastrophe.
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