Monday, 31 December 2018

The New Year!

नव-वर्ष
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संस्कृत भाषा में एक क्रियापद धातु (verb-root) है ईर् -- ईर्यते -जो प्रेरणा देने के अर्थ में प्रयुक्त होता है।   जिसमें 'प्र' उपसर्ग जुड़ने पर बनता है 'प्रेरणा' अर्थात inspiration, वह स्थानसूचक पद जिसका एक पर्याय है इरा; - अर्थात् पृथ्वी।
ऐरावत (इंद्र का हाथी) और इरावती (नदी) इसी से बने अन्य शब्द हैं।
किंतु एक और शब्द है 'आर्य' जो हमें ज्ञात ही है।
और पहले यह ध्यान देना ज़रूरी है कि संस्कृत भाषा में भी 'आर्य' शब्द और इसका अर्थ किसी नस्ल या जाति का सूचक नहीं बल्कि 'श्रेष्ठ' / 'उदात्त' का सूचक होता है। यह श्रेष्ठता नस्ल या जाति, यहाँ तक कि कुल, वंश अथवा 'वर्ण' तक की भी नहीं, बल्कि मनुष्यमात्र में पाए जा सकनेवाले मानवीय गुणों की होती है। इसी प्रकार 'अनार्य' शब्द मनुष्य में ऐसे श्रेष्ठ गुणों के अभाव को या हीन / निकृष्ट गुणों की विद्यमानता को सूचित करता है।
[पिछली किसी पोस्ट में मैंने भवभूति रचित 'उत्तररामचरित' से प्रथम अंक का छोटा सा उद्धरण दिया था, जहाँ लक्ष्मण हनुमान को इंगित कर सीता से कहते हैं :
"अयमार्यो हनूमान् !"
और सीता जहाँ श्रीराम को अज्जउत्त (आर्यपुत्र) कहती है, वहीँ लक्ष्मण को 'वत्स' से संबोधित करती है।]             
'आर्य' का अर्थ है : 'प्रेरक'- 'प्रेरित करनेवाला' /motivator, श्रेष्ठ उदाहरण ।]
यही स्थानवाचक 'इरा' अंग्रेज़ी भाषा में कालवाचक 'Era' / 'Year' का उद्गम है।
जर्मन भाषा में यही Yahr और Erde अर्थात् वर्ष और पृथ्वी (Earth) के लिए प्रयुक्त होता है।
इसी प्रकार 'वर्ष' शब्द काल तथा भौगोलिक स्थान-विशेष के लिए भी प्रयुक्त होता है ; जैसे 'भारतवर्ष' में।  
इस प्रकार नव-वर्ष का तात्पर्य हुआ नया स्थान, काल और 'समय'!
इस नए 'समय' के आगमन का उद्देश्य है नए 'धर्म' के स्वागत के लिए तैयार होना।
किसी किताब से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि उस प्रेरणा से प्रेरित होकर जो किताब को किताब तक महत्त्व देता है, किसी भी किताब का अपमान नहीं करता लेकिन किसी एक किताब को ही धर्म की एकमात्र प्रेरणा मानने से इंकार करता है।
आज अनेक 'धर्मों' की विद्यमानता से हम 'धर्म' क्या है इस बारे में बहुत भ्रांत हैं।
धर्म क्या है यह तय करना तो बहुत कठिन है किंतु किसी भी धर्म से कम से कम यह अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए कि वह 'व्यावहारिक' हो, सबको स्वीकार्य हो और मनुष्य-मनुष्य के बीच विद्वेष न पैदा करता हो। संक्षेप में, वह viable, feasible, और sustainable हो।  और इसे अपने लिए हर मनुष्य को स्वयं ही तय करना होगा कि  उसके लिए धर्म क्या है ! क्या उसका धर्म परंपरा इतिहास का ऐसा दोहराव भर है जो निरंतर युद्धों के लिए प्रेरित करता है? क्या उसका धर्म अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है? अर्थात् क्या वह ऐसा स्वाभाविक धर्म है जिसका प्रचार-प्रसार करने की ज़रूरत ही न होती हो ? जो किसी के 'विरुद्ध' न हो ? क्योंकि जैसे ही कोई परंपरा / इतिहास किसी के विरोध में होता है वह रक्षात्मक होने की मर्यादा तोड़कर आक्रामक हो जाता है। आक्रामकता आतंक से पैदा होती है और आतंक पैदा करती है।  भयग्रस्त मनुष्य (और पशु भी) मूढ़तावश दुस्साहसी हो जाता है, और उस दुस्साहस को धर्म कहकर अपने-आपमें साहस का संचार करता है। ऐसा धर्म viable, feasible, और sustainable नहीं हो सकता।
इस दृष्टि से भी हम 'आर्य-धर्म' और 'अनार्य-धर्म' के बीच एक सीमा-रेखा खींच सकते हैं।   
हो सकता है नए वर्ष में हम इस दृष्टि से सोच-समझकर आत्मावलोकन करें और नए वर्ष की नई पटकथा लिखें।
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Friday, 28 December 2018

सांख्ययोगौ


गीता अध्याय 5, श्लोक 4 :
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।
अर्थ :
पंडित नहीं, केवल बाल-बुद्धि अर्थात् अविकसित बुद्धि वाले ही कहते हैं कि (कपिलमुनि द्वारा प्रतिपादित) सांख्य दर्शन और (पतञ्जलि मुनि द्वारा प्रतिपादित) योग दर्शन दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं।  (जबकि सत्य यह है कि) एक में भी सम्यक् रीति से स्थित हुआ दोनों के ही (एक ही) फल को प्राप्त कर लेता है।
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वर्तमान समय में 'योग' को अनेक प्रकार से परिभाषित और व्याख्यायित करने के प्रयास व्यापक हैं।
पतञ्जलि के योग दर्शन के प्राचीन प्रकारांतर गोरक्षनाथ कृत हठयोग-प्रदीपिका या घेरण्ड-संहिता में के रूप में तो पाए जाते ही हैं।
दर्शन का सीधा तात्पर्य है अपरोक्ष अनुभूति से प्राप्त ज्ञान (non-mediate knowledge)।
ज्ञाता जब तक किसी ज्ञान के माध्यम से किसी विषय को जानता है तो ऐसा ज्ञान परोक्ष-ज्ञान होता है और ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय की त्रिपुटी से युक्त होता है।  अपरोक्ष अनुभूति से प्राप्त ज्ञान के अनुभव में ऐसी त्रिपुटी नहीं होती। किंतु इस प्रकार की अपरोक्ष अनुभूति भी दो प्रकार की होती है।  एक वह, जब ज्ञाता ध्यान के सम्यक् प्रयोग से किसी विषय-विशेष से पूर्ण तादात्म्य कर लेता है और ऐसी सविकल्प समाधि के अनुभव के बाद पुनः उसी या किसी दूसरे विषय को अपने से भिन्न की तरह पाता है। दूसरी ओर जब ध्यानकर्ता अस्मिता (वृत्ति, प्रत्यय या संकल्प) अर्थात् 'अहं-ग्रंथि' को ही ध्यान के विषय के रूप में ग्रहण कर उससे पूर्ण तादात्म्य क्या है इस अनुभव को जान लेता है तो भी वह उस अनुभव के गुज़र जाने के बाद पुनः किसी अन्य विषय से संपर्क में आने से अपने को विषयी की तरह विषय से भिन्न पाता है। किंतु इसके पश्चात् जब ध्यानकर्ता चेतना को ही ध्यान के विषय के रूप में ग्रहण कर लेता है तो किसी भी त्रिपुटी से रहित 'प्रज्ञानं ब्रह्म' को जानकर जिस फल को पाता उसे ही उपरोक्त दो दर्शनों में 'फल' कहा गया है।
योग की किसी भी प्रकार की व्याख्या और प्रयोग का अपना महत्व तो है ही किंतु दर्शन और दर्शनशास्त्र में बुनियादी भेद यह है कि दर्शन प्रत्यभिज्ञा है जबकि दर्शनशास्त्र विचार की भेड़चाल तक बंधा रह जाता है।
हिंदी में प्रयुक्त 'भेड़' संस्कृत 'एड' का अपभ्रंश है जो अंग्रेज़ी में Aries के रूप में मेष राशि का द्योतक है। इससे ही बना 'एड़ी' जिसे घोड़े को 'एड़' लगाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है।
दूसरी ओर मृग नक्षत्र को Orien / Odean / Hunter के रूप में चित्रित किया जाता है, जो व्याध (शिकारी) Archer की तरह धनुष-बाण को किसी लक्ष्य पर संधान करने की चेष्टा कर रहा है।
J.Krishnamurti : "Observer is the observed"
का उल्लेख यहाँ उपयोगी होगा।
वेदान्त दर्शन में इसी बुनियादी सन्दर्भ में दृक्-दृश्य विवेक को महत्व दिया गया है।
'विचार' (Thought) के सक्रिय होते ही अस्तित्वमात्र दृक्-दृश्य में विभाजित हुआ प्रतीत होने लगता है और यह दृश्याभास अवश्य ही किसी चेतना में घटित होता है जिसमें दृक्-दृश्य एक ही समय में एक साथ उठते और विलीन होते हैं। इस विभाजन में ही कल्पित दृष्टा भी अस्तित्व ग्रहण कर लेता है और 'विचार' के माध्यम से दृक्-दृश्य के द्वैत को सत्यता दी जाती है। इस प्रकार से, 'विचार' के अभाव में ऐसे किसी द्वैत का अस्तित्व ही संदिग्ध है।  तात्पर्य यह कि एक ही सत्ता दृक्-दृश्य विभाजन में द्वैत की तरह बँटी हुई मान ली जाती है।
इसे ही "ज्ञान में ज्ञाता ही जाना जाता है" अर्थात् ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञाता का विभाजन दो स्तरों पर होता है :
प्रथम है परोक्ष-ज्ञान के रूप में जहाँ विषय, विषयी और ज्ञान तीन पृथक सत्ताएँ (entities / realities) हैं। 
दूसरा है अपरोक्ष-ज्ञान जहाँ ये तीनों एकमेव वास्तविकता (unique Reality) हैं। किंतु ज्ञान का अर्थ है चेतना / consciousness, जो एक जीवन्त तत्व (living-element) होने से अनिर्वचनीय स्वरूप का है, जबकि ज्ञेय (object) और ज्ञाता (subject) क्रमशः दृश्य और दृक् हैं। 'विचार ही वह आभासी शीशे की पारदर्शक दीवार है जो स्वयं अदृश्य होते हुए भी दृक्-दृश्य-दर्शन को संभव बनाती है।
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Thursday, 27 December 2018

यमेवैष वृणुते

सपने : दूसरों के या अपने?
अपने सपनों में, जो हमें हमारी नींद में आते हैं, यूँ तो हम अपने आपसे विस्मृत होकर न जाने किन-किन लोकों में भटकते रहते हैं, और प्रायः हम जागते हुए भी एकाएक उनमें डूबकर अपनी दुनिया को भूल बैठते हैं, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम अपने सपने में मिले किसी दूसरे व्यक्ति के सपने में प्रविष्ट होकर अपने आपको वही व्यक्ति समझकर उसके स्वप्न के लोक में भी चले जाते हैं।
मुण्डकोपनिषत् 3/2/23  तथा कठोपनिषत् 1/1/23 में कहा गया है :
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वयं।।
जैसा कि गीता के अध्याय 2 में कहा गया है :
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।17     
चूँकि एक ही अविनाशी आत्मा है जो सबमें व्याप्त और अभिव्यक्त है तथा जिसमें सब व्याप्त और अभिव्यक्त है इसलिए दूसरों के हों या अपने, सभी स्वप्न आत्मा के अर्थात् अपने ही होते हैं और उनमें दिखाई देनेवाले लोग भी अपनी ही एकमेव अविनाशी आत्मा के भिन्न भिन्न प्रकार होते हैं।
किंतु एक बार यही आत्मा किसी देह में स्वयं की तरह स्वयं को सीमित कर एक स्वप्नलोक रच लेती है तो खेल या नाटक के लिए ही सही सपनों की अनवरत श्रंखला शुरू हो जाती है।
फिर यही आत्मा अपने-आपमें अनेक को देखकर कभी उत्सुकतावश, कभी भय से, कभी आकर्षण या विकर्षण से, मोहितबुद्धि होकर इन सपनों को अपने या दूसरे के सपनों की तरह देखती है। मेरा जन्म हुआ या मृत्यु होगी ऐसी कल्पना से ग्रस्त हो जाती है।
हर बुद्धि इसी प्रकार मोहित होकर यह सारा प्रपञ्च रचती है और अंततः (!) इस प्रपञ्च को खुद ही समेट लेती है। वही बुद्धि जो मोहित होती है, मोहवश इस विराट सृष्टि को अपने से पृथक और भिन्न की तरह ग्रहण करती है, रूपांतरित होते ही मोह को मिटाकर अपनी सहज स्थित में प्रतिष्ठित होकर उस शान्ति और सौंदर्य को एक नवीनतः प्राप्त हुई वस्तु समझकर पुलकित होती है।
सुबह उठते ही जैसे ही मोबाईल चालू होता है, अखबार आता है, टीवी शुरू होता है, खबरें हर दिशा से आक्रमण करती हैं तो यह समझा जा सकता है कि हमारे पास वही लौटकर बार बार आता है जो हम अपने आपको देते रहते हैं। किसी भी वस्तु का, किताब का, धर्म का, सिद्धांत का हम जैसा उपयोग, सदुपयोग या दुरुपयोग करते हैं, वैसा ही वे हमें प्रत्युत्तर देते हैं। वे हमारा वैसा ही उपयोग, सदुपयोग या दुरुपयोग करते हैं।
केवल मोहवश ही भ्रमित होने से हम अपनी अखंड आत्मा को विभाजित कर काल्पनिक दुःखों, क्लेशों में निरंतर त्रस्त हैं।
"आतंक का कोई धर्म नहीं होता" यह भले ही सत्य हो या न हो, ऐसी किसी भी वस्तु का, किताब का, धर्म या सिद्धांत का आतंक हम स्वयं ही तो पैदा करते हैं !
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टिप्पणी : कृपया टाइपिंग की त्रुटि के लिए क्षमा करें !
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुतेतनुं स्वाम्।।
(edited after 11 hours at 06:55 p.m. today, 28/12/2018)                   

संकल्प-सूत्र

स्मृति, संस्कार, परिस्थिति और कर्म के अनुसार व्यक्ति में संकल्प उठता है।
संकल्प से प्रेरित चेतना ही मनुष्य को पुनः किसी विशिष्ट कर्म में संलग्न कर देती है।  
गीता :
अध्याय 6 श्लोक 24,
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।
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अध्याय 12 श्लोक 16,
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
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अध्याय 14, श्लोक 25,
मानापमानयोस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।। 
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अध्याय 2, श्लोक 62,
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
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संकल्प का उठना तीन स्तरों पर होता है।
पहला है चेतना का प्रसुप्त स्तर,
दूसरा है चेतना का अनभिव्यक्त स्तर,
तीसरा है चेतना का अभिव्यक्त स्तर।
चेतना के प्रसुप्त स्तर पर अनेक स्मृतियाँ, भावनाएँ, विचार और अतृप्त कामनाएँ होती हैं।  उनमे से कुछ विशेष ही परिस्थितियों के अनुसार अनभिव्यक्त स्तर और अभिव्यक्ति के स्तर के बीच प्रस्फुटन के लिए उद्यत रहती हैं और उनमें से भी प्रायः कोई एक जो सर्वाधिक प्रबल होती है, अभिव्यक्ति तक पहुँचती है।
उपरोक्त चार श्लोकों में यद्यपि उस भूमिका का वर्णन किया गया है जिसमें अवस्थित चेतना अर्थात् मनुष्य संकल्पमात्र से अप्रभावित और अछूता होता है। ये उस स्थिति के 'लक्षण' हैं जिनके लिए अभ्यास नहीं किया जा सकता। हाँ, इस पूरे क्रम पर ध्यान देने से संभवतः उस स्थिति का अनुमान किया जा सकता है।
सामान्यतः 'संकल्प' को 'निश्चय' समझा जाता है जबकि 'संकल्प', 'निश्चय' की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ रखता है। 
उपरोक्त तीन स्तरों में से 'वैचारिक' संकल्प वह है जो अभिव्यक्त रूप में प्रकट होता है। इसमें प्रायः कोई इच्छा कामना अथवा निश्चय होता है जो आवश्यकता की तरह भी अनुभव हो सकता है। इस पूरी अभिव्यक्ति में ये चारों लक्षण कम-अधिक परिमाण में जुड़े होते हैं। सामान्यतः मनुष्य इस प्रकार उठे संकल्प से कार्य करता है या करने के लिए उद्यत हो उठता है।
इसे शब्दों में व्यक्त किया जाता है और प्रायः इसका तात्पर्य यथावत ग्रहण किया जाता है।
इसे स्थूल या प्रत्यक्ष संकल्प भी कह सकते हैं।
संकल्प का अपेक्षाकृत गहरा स्तर वह होता है जो अनभिव्यक्त और अभिव्यक्त की सीमा-रेखा पर अवस्थित होता है। जिसे भावना, भाव कहा जा सकता है, जो अनुभवगम्य तो होता है किंतु सूक्ष्मतर होने से उसे शब्दों में कह पाना कभी-कभी संभव होता है, तो कभी-कभी नहीं हो पाता।
यह प्रश्न पूछना उपयोगी है कि ये सभी संकल्प मनुष्य में कहाँ से आते हैं ?
अंतिम श्लोक में एक संकेत दिया गया है कि विषयों पर ध्यान देने से उनसे चित्त का संसर्ग और संग होता है। पुनः स्मृति, संस्कार, परिस्थिति और कर्म (चेष्टा तथा अनुभव, भोग आदि) के अनुसार ही विषय सुखद, दुःखद या सुख-दुःख से अछूते जान पड़ते हैं।  और तब उनके प्रति राग-द्वेष की भावना मन में पैदा होती है।
इसी कामना के अनुभवगम्य रूप हैं चिंता, क्रोध, आशा, निराशा, भय, लोभ, ईर्ष्या, आकर्षण, विकर्षण, या बस उनसे निरपेक्षता या उदासीनता। इस प्रकार चिंता, क्रोध, आशा, निराशा, भय, लोभ, ईर्ष्या, आकर्षण, विकर्षण, या उनसे निरपेक्षता या उदासीनता मूलतः सूक्ष्म-संकल्प के ही विभिन्न प्रकार हैं।
अभिव्यक्त स्तर के संकल्पों को तो स्पष्टतः जाना-समझा-कहा-सुना जा सकता है किंतु सूक्ष्म-संकल्पों को न तो कहा या समझाया जा सकता है और न उन पर नियंत्रण किया जा सकता है।  वे बस अचानक 'आवेश' की तरह व्यक्त हो उठते हैं और स्मृति, संस्कार, परिस्थिति और कर्म (चेष्टा तथा अनुभव, भोग आदि) के अनुसार ही उनके प्रभाव से एकाएक विलीन भी हो सकते हैं।
कोई विशिष्ट या साधारण सी घटना भी हममें एकाएक क्षोभ, शोक, ख़ुशी और चिंता, क्रोध, आशा, निराशा, भय, लोभ, ईर्ष्या, आकर्षण, विकर्षण, या उनसे निरपेक्षता या उदासीनता जगा देती है और हम वर्तमान 'यथार्थ' से विच्छिन्न हो उठते हैं।
यदि हम संकल्प के अपेक्षाकृत गहराई पर स्थित इस सत्य को समझ सकें तो हमारे लिए यह समझना शायद संभव होगा कि संकल्परहित कैसे हुआ जा सकता है।
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Monday, 24 December 2018

Religion : The Trilogy

धर्मत्रयी
श्रुति / śruti / स्मृति / smṛti / 'Purana' / 'पुराण'
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In broad perspective, A Religion / धर्म is practiced in three ways :
1. As is revealed to one in terms of the inner voice of the soul.
2. As is expressed before someone other, in words so as to convey (about) the truth of it.
3. As is followed in tradition.
The genesis (उत्पत्ति-ग्रन्थ) of Religion / धर्म therefore has three aspects :
श्रुति / śruti / स्मृति / smṛti, and व्यवहार / Practice.
Veda / वेद is pure श्रुति / śruti, as is evident from the fact that it is the 'नाद' / 'word' literally so 'heard' in the 'heart' by the one who has arrived in the heart where this 'नाद' / 'word' is timelessly present without effort on the part of someone or something. This 'नाद' / 'word' is though the causeless source / origin of all the 'words' in any of the sounds, in human languages resembles to a great extent with the 'word'/ syllable 'Om' / 'ॐ'.
And more again, it is also not just a coincidence that all the religions of the Orient begin their spiritual and religious endeavor by uttering this word.
The vowel / word 'Omega' in the Greek and 'Amen' in the Latin, even in the Arabic and Persian too;  are but cognates of this.
We can see how this single word syllable is capable of uniting the whole humanity in one thread of Harmony and Peace (Amen!).
The Veda is the essence of  'Om' / 'ॐ', but  'Om' / 'ॐ' is all that is Veda and beyond too.
This 'Spiritual' / 'Religious' feeling (a realization and revealing rather than an 'experience') is unique and the same for all and every-one who might come across it.
There is a lot that could be said about the etymology of the Veda / वेद, but that may be of interest for the scholars. Here I would like to go straight about the
स्मृति / smṛti.
The  'Spiritual' / 'Religious' feeling that one comes across as if 'heard' in the 'heart',
when conveyed to someone else in the words that are used by the human in their worldly conversation, is deformed and acquires the touch of the human mind that is impure, -not as pure, chaste and virgin as the 'heart' is timelessly so.
Thus, Veda / वेद, that is pure श्रुति / śruti, when transformed to the written 'text', gets somewhat deformed and becomes the स्मृति / smṛti, which loosely means the 'memory'.
The (Sanskrit) etymology of  स्मृति / smṛti, could be traced to स्मृ / मृ which both mean 'transience' ; -that is repeated death and rebirth.
The English equivalent 'memory' is a perfect cognate (सज्ञाति) of the Sanskrit word मृ-म्रिय, which means 'to remember'. Again, this 'remember' too could be traced back to परिमृमीय, like most of the English words which are formed with the prefix 're', for 'परि' of the Sanskrit. As the two prefixes convey the same meaning, we can't doubt their authenticity.
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The Texts (The written form of the Veda / वेद)  has thus its own drawbacks, in that it carries two types of misunderstandings and misinterpretation.
The very first and the more important is the phonetic form.
The next one is the scriptural (script) form.
Of course, the phonetic form could be well preserved through oral tradition, the script / text form is likely to carry the various errors that come into because of many reasons.
Therefore a criteria was determined in two ways to minimize the errors that so creep in because of inadvertence on the part of the आचार्य / Predecessor (Master) and the disciple.
The two ways were :
1. The Devanagari script equipped with diacritical marks to show the exact intonation of the  Veda / वेद, as it is the most important aspect of the scripture.
2. The 'Tamizh' script which debars one who does not deserve / not qualified for the Teaching.
So one should inevitably 'hear' the same from a Competent अधिकारी Master in his own voice.
Though both the written forms could serve well to the disciple only, its kind of a double-check that one undeserving may not receive the Veda / वेद .
For the laymen and the scholars both The authorities of this sacred knowledge Veda / वेद, the ऋषि / the sages however noted-down the essence of Veda / वेद in the form of  स्मृति / smṛti, which from the Manu-smriti onward carry the essential teachings.
The श्रुति / śruti could never be 'translated' nor 'interpreted' and is to be taken  / learned in the original form only preferably from a आचार्य / Predecessor (Master), the स्मृति / smṛti, could be used for a referential purpose and accordingly there are differences of opinions in the various स्मृति / smṛti.
These differences are also because of the particular 'streams' / वैदिक संप्रदाय / शाखा (branches)
Now we come across a rather interesting point.
Most of the Religious Books could be thought of as स्मृति / smṛti, and therefore there are apparent differences of opinion in them. They agree / disagree with the opinions of the other स्मृति / smṛti .
The next kind of tradition is basically a reflection of 'Gospel' That is again a cognate (सज्ञाति) of the Sanskrit word 'गल्प' / 'गल्पस्' / which took another turn as 'Gossip' as well.
Thus Ramayana and Mahabharata are Basically 'History' that could be hardly called 'Mythology' for the events narrated there correspond to the three levels of Existence; namely :
The Spiritual, The Supra-mental and the mental / physical.
The exact words for them in the Oriental Sanskrit are :
आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक
respectively.
This Encyclopedia of Dharma is briefly addressed as 'Purana' / 'पुराण' also.
'Purana' / 'पुराण' again is timeless though written in the 'past-tense' just for the sake of it. For the convenience of the laymen and the erudite as well.
The 'Purana' / 'पुराण' is defined as 'What permeates the existence / What the existence is pevaded with.'
Gita   Chapter 2 stanza 17 describes the nature of the indestructible Spirit of the existence.
             
Chapter 2, śloka 17,

avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
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(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
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Meaning :
Know that, That (Brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
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अध्याय 2, श्लोक 17,

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
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(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
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भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
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This Dharma enunciated in 'Purana' / 'पुराण' is श्रौत धर्म which is but an off-shoot of  the Veda / वेद,  pure श्रुति / śruti through the स्मृति / smṛti .
   


Saturday, 22 December 2018

मेरे हिंदी ब्लॉग (hindi-ka-blog) से

एक सन्दर्भ वाल्मीकि रामायण से !
इस पोस्ट को भूल से मेरे ही दूसरे ब्लॉग में लिखा है कृपया लिंक देखें।
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मेरे हिंदी ब्लॉग (hindi-ka-blog) से  ....


Thursday, 20 December 2018

Gotra / गोत्र

Gotra / गोत्र
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A brief description about how 'Gotra' is scientific.
When a child is conceived in the mother's womb it either begins with choosing x-x chromosome and gets each one from both the parents, -becomes a female, Or, it begins with choosing x-y chromosome. Now the interesting fact is : the x-chromosome could come from mother or father both and when such both the chromosome are x only, one of them is from the father (the male- parent). But when a child gets an x-y pair of chromosome one y is invariably from the father and the child is born as a male or a boy like the father.This means the heredity is scientific way as basis for determining the 'Gotra'. In Vedik parlance and doctrine the same is true because the Father is the basis of the 'Gotra' concept. The son is called 'Atmaja' while the daughter is though 'AtmajA' after gave in to someone to of the other 'Gotra', she owns the 'Gotra' of the in-laws.
y-chromosome thus clearly undoubtedly defines with certainty the heredity in a unique way, as it justifies how Father is the basis of the Clan.
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Now there is no such a thing as 'Dattatreya' Gotra, though Lord 'Dattatreya' / दत्तात्रेय was born to the couple named Atri-AnasUyA (अत्रि-अनसूया).
 This is not Mythology but True History How the Three Lords namely Brahma, Vishnu and Shankara having taken up a human form approached as Brahmins (ब्राह्मण) at the door of the place where the couple lived in the 'Atri-Ashrama' / 'अत्रि-आश्रम' .
The three Lords were welcomed and were invited to take food.
As the three Lords were come there to examine the chastity (सतीत्व) of  AnasUyA / अनसूया, They put a condition that AnasUyA / अनसूया should discard all her clothes before serving them food.
She agreed and took water from the jar uttered a mantra and sprinkled upon the three ! Lo and Behold ! The three instantly lost their human form and became an infant though with three heads, six arms but only a single trunk. Then She fed them the cow-milk from her cow.
So 'Dattatreya' / दत्तात्रेय was born in the Atri -clan / अत्रि  (Gotra / गोत्र)., - Atreya आत्रेय .
This was / is the Gotra / गोत्र of 'Dattatreya' / दत्तात्रेय, an avatar of the three Lords.
'Dattatreya' / दत्तात्रेय is also known 'Atribhuta' / अत्रिभूत because He was an adopted son of the अत्रि-ऋषि (Father) and  AnasUyA / अनसूया (Mother)
The English word 'attribute' is but the cognate (सज्ञाति) of  'Atribhuta' / अत्रिभूत - the Sanskrit word .
This may also be of interest to know that the word Atri / अत्रि itself is a 'Gotra' /  गोत्र and 'Dattatreya' / दत्तात्रेय is just the conjured up for 'कौल' / 'कौलटेय' which is quite a misnomer .
Later on whosoever came to  'Dattatreya' / दत्तात्रेय was given this name at the time of initiation in the 'Gotra' /  गोत्र, while all those who belong to this were ब्रह्मचारी / celibate.
In the coming times कुल, कुलीन, कौल, कुलटा were the words which indicated the two entirely different / altogether contrary meanings of the word.
There is a 'Kaula'-Tantra / 'कौल'-तन्त्र  which is often confused with ' 'Dattatreya-tantra' / दत्तात्रेय-तंत्र
The same thing happened with the word 'KAshyap'  'काश्यप' which was though initially a Gotra / गोत्र, was used to be applied for and given to one whose Gotra / गोत्र was unknown.
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 By the way the word AnasUyA / अनसूया  means the one who never delivered a baby.
असूया asUyA means jealousy, AnasUyA / अनसूया means one without jealousy.
सू सूयते (आत्मनेपदीय धातु) - to give birth to .
This gives us the cognates (सज्ञाति) like 'sue', ensue' verbs in English and pursue (प्रसू -प्रसव) as well.
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Now, in the above light, we may perhaps better understand :
What is the Gotra / गोत्र of Rahul Gandhi ?
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नारी-प्रकृति / पुरुष-स्वभाव

सनातन धर्म में नारी  
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सोचता हूँ कि इसे लिख ही डालूँ , पता नहीं बाद में लिखना याद रहे न रहे !
सनातन धर्म एक स्वाभाविक जीवन-शैली है जिसमें बहुत कठोर नियम और अनुशासन नहीं हैं जिन्हें पालन करना किसी किसी के लिए ही संभव हो।
एक प्रकार से यह सहज विवेक से पैदा हुई समझ है जो परंपरा से, कुल से, वंश से प्राप्त होती है न कि समाज से।
आज की शिक्षा जो मुख्यतः किताबी है, इस धारणा पर आधारित है कि ज्ञान लिखने-पढ़ने से प्राप्त होता है।
भाषा-ज्ञान अवश्य लिखने-पढ़ने से और बातचीत से संबंधित है किंतु जीवन क्या है इसका ज्ञान तो प्रकृति के सान्निध्य में ही होता है।  प्रकृति न सिर्फ बाह्य (outer / objective) बल्कि आंतरिक (inner / subjective)  इन दो रूपों में है इसे जान लेने के बाद ही इन दोनों का सामञ्जस्य जीवन का वास्तविक ज्ञान है।
आज की शिक्षा में जहाँ co-education या सह-शिक्षा शिक्षा का एक प्रचलित प्रकार है, मनुष्य की प्रकृति के इन दो व्यावहारिक तथ्यों पर शायद ही कभी कोई ध्यान दिया जाता हो, पता नहीं कि किसी ने शायद ही इस आधार पर शिक्षा के बारे में विचार किया होगा।
स्पष्ट है कि मनुष्य होने के नाते और फिर स्त्री या पुरुष होने के नाते हर स्त्री या पुरुष की अन्तःप्रकृति और बाह्यप्रकृति भी किसी दूसरे से भिन्न होती है।  इसलिए 'सीखना' / शिक्षा पाना,  स्त्रियों के लिए और पुरुषों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से होनेवाली गतिविधि है।  जीवन इतना विविधतापूर्ण, विराट, व्यापक, विशाल है कि यद्यपि हर मनुष्य अपने आपमें अनूठा (unique) होता है और मोटे तौर पर स्त्री और पुरुष का वर्गीकरण करना उपयोगी और आवश्यक भी है, किंतु वैसा वर्गीकरण सतही ही होता है।  इसलिए शिक्षा का प्रकार न सिर्फ किन्हीं भी दो व्यक्तियों के लिए बहुत अलग-अलग हो सकता है बल्कि दो पुरुषों या दो स्त्रियों में भी यह बहुत भिन्न हो सकता है।
किसे किसी विशेष कार्य (work) / कौशल (skill) की शिक्षा लेना चाहिए यह उसे स्वयं ही खोजना और तय करना चाहिए लेकिन कोई न्यूनतम मौलिक शिक्षा तो सभी के लिए आवश्यक है, ताकि वह जीवन और समाज से सामञ्जस्य के साथ आगे बढ़ सके।
सनातन धर्म में वास्तव में सभी को वही शिक्षा दी जाती थी / है, जिसका उसे निरंतर उपयोग हो।
इसलिए ऐसी शिक्षा का आधार नारी-प्रकृति और पुरुष-स्वभाव की भिन्नता ही हो सकता है।
नारी प्रकृति है इसलिए वह अंतःप्रेरणा से परिचालित होती है, उसकी प्रेरणा उसे स्वयं ही से मिलती है और परिवेश या परिस्थितियों से वह प्रेरणा प्रभावित होकर नारी को जीवन का ज्ञान सिखाती है।  दूसरी ओर, पुरुष किसी बाह्य चुनौती से प्रेरणा पाता है और उस चुनौती से निर्देशित अपने स्वभाव के अनुसार सीखता है।
यह बुनियादी भेद दोनों के बीच होता है। 
आज की शिक्षा में सभी को स्पर्धा करने के लिए प्रेरित किया जाता है। स्पर्धा पुरुष-मानसिकता के लिए उपयोगी हो सकती है जबकि स्त्री के लिए उसके स्वाभाविक विकास में अवरोध भी हो सकती है। दीर्घकाल में इसका परिणाम यह होता है कि दुनिया में यद्यपि कोई सफलता के झंडे गाड़ सकता है, किंतु अन्ततः उसे यह अनुभव होता है कि जीवन में कुछ छूट गया जिससे जीवन में सार्थकता और संतोष मिलता।
इस सार्थकता और संतोष का एक पड़ाव है वह आयु जब व्यक्ति अपना परिवार बनाता है।  यदि परिवार नहीं तो जीवन में सार्थकता और संतोष नहीं हो सकता क्योंकि परिवार ही तो सृष्टि की बुनियादी इकाई है। और परिवार का आधार है विवाह। सनातन-धर्म में विवाह की अवधारणा में काम-तुष्टि का स्थान अत्यंत गौण है जबकि वंश और कुल (अर्थात् वर्ण) को शुद्ध रखना प्रमुख है।
स्त्री परिवार का केंद्र है और परिवार में ही सुरक्षित हो सकती है।
संभवतः स्त्री साध्वी और वैराग्यसंपन्न हो तो भी परिवार में ही उसे सुरक्षा मिल सकती है। इस प्रकार परिवार की इकाई से बना समाज भी सबके लिए सुख का आधार हो सकता है।
किंतु यदि स्त्री को पैसा कमाना पड़े तो वह सबका दुर्भाग्य है।  इसलिए स्त्री को बाज़ार से दूर रहना चाहिए (न कि रखा जाना चाहिए) गीता के प्रथम अध्याय में ही अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से प्रश्न करते हैं कि यदि युद्ध होगा तो अनेक पुरुष मारे जाएँगे और कुलधर्म भी विनष्ट हो जाएगा।  तब उनकी स्त्रियाँ प्रदूषित हो जाएँगी (क्योंकि स्त्री प्रकृति होने से पुरुष से दुर्बल है और पुरुष स्वभाव से ही आक्रामक स्वभाव का है, इसलिए स्त्रियाँ आततायी पुरुषों से अपनी रक्षा न कर सकेंगीं। तब वर्णों की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाने से पूरा समाज ही विश्रंखलित हो जाएगा।)
सिद्धांततः तो अर्जुन का तर्क वज़नदार है लेकिन हर मनुष्य का आचरण उसकी प्रकृति या स्वभाव से प्रेरित होता है इसलिए महाभारत का युद्ध अवश्यम्भावी था।  इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य के द्वारा किए जानेवाले मनुष्य से होने वाले कर्मों के क्रमशः पाँच कारण अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टाएँ तथा दैव होते हैं इसलिए अपने-आपको ही एकमात्र कर्ता मान लेना भूल है।  गीता के अध्याय 18 के श्लोक 59 में 'प्रकृतिः त्वां नियोक्ष्यति' तथा श्लोक 60 में
'स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।'
के द्वारा यही दर्शाया गया है कि मनुष्य अपनी प्रकृति / स्वभाव को जानकर विहित कर्म को ही करने का यत्न करे और निषिद्ध कर्म करने से बचे।  इसका सीधा अर्थ यह है कि अपने विवेक से ही मनुष्य (स्त्री हो या पुरुष) इस प्रकार अपने स्वाभाविक  धर्म का पालन करे।
स्त्रियों के लिए स्वाभाविक धर्म है पतिव्रता होना। यह स्त्रियों के लिए वेदों द्वारा दी गयी यह न्यूनतम आवश्यक शिक्षा है। वहीँ किसी परंपरा या दैववश उसके एक से अधिक पति हों (जैसे द्रौपदी के थे) तो भी उसका धर्म नष्ट नहीं होता। इसी प्रकार पुरुष यद्यपि एक से अधिक विवाह कर सकता है तो भी यदि वह भोग-बुद्धि से प्रेरित होने से नहीं बल्कि केवल वंश को बढ़ाने के लिए ऐसा करता है तो यह अधर्म नहीं है।  पुरुष के लिए एक से अधिक विवाह करना क्षत्रिय के लिए स्वाभाविक है क्योंकि उसे युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।  युद्ध केवल दूसरों पर आक्रमण करने के लिए ही ज़रूरी नहीं होते बल्कि अपने राज्य और प्रजा की शत्रुओं से रक्षा करने के लिए भी ज़रूरी होते हैं। यदि क्षत्रिय युद्ध न करें तो भी आखेट के द्वारा वे युद्धाभ्यास तो कर ही सकते हैं, किंतु ऐसा करने के लिए वे बाध्य हैं यह समझना गलत होगा।  इस प्रकार की अपने-अपने वर्ण-आश्रम द्वारा 'प्राप्त' गुण-कर्म के निर्वाह से समस्त चातुर्वर्ण समान रूप से जीवन के परम श्रेयस् को अनायास ही पा लेता है।
यह है 'शिक्षा।
गीता अध्याय 18 में श्लोक 42 से 46 तक इसे ही स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य के गुण तथा कर्म से ही उसका 'वर्ण' निर्धारित होता है, (न कि वर्ण से 'जाति' और व्यवसाय), 'जाति' तो उसके जन्म से उसे 'प्राप्त' होती है और वह उसके गुण-कर्म का प्राथमिक संकेतक है। तात्पर्य यह कि किसी भी मनुष्य का वर्ण उसके गुणों तथा कर्मों से, उसकी प्रकृति या स्वभाव से तय होता है।
इसलिए सनातन धर्म में औपचारिक शिक्षा (लिखना-पढ़ना) ब्राह्मणों के लिए ही आवश्यक था / है।
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यह हमारी पाश्चात्य शिक्षा का ही कमाल है कि 'प्रगतिशीलता' और 'स्त्री-पुरुष समानता' / 'स्त्री-स्वातंत्र्य' के नाम पर हम अनजाने ही उन मूल्यों  महत्वपूर्ण समझ बैठे हैं जो हमारे सम्पूर्ण समाज को निरंतर नष्ट कर रहे हैं।
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India and China : The Duet

This refers to an article in Hindustan Times, I came across a minute ago.
Incidentally, I hoped to write a post in Hindi with the title :
"सनातन धर्म में नारी का स्थान",
But presently feel this one is far more relevant and timely vis-a-vis the relation between these two Great Nations with an old link of culture and religion also that the two neighbors share.
It is well-known all over the world that India is the cradle of Buddhism that spread all over to China, Korea, Japan, Burma, Cambodia, Thailand, Vietnam and even to Sri Lanka (Ceylon).
Though Historically in the bygone era of yore, The Ceylon was सिंहल-द्वीप - 'The island named Simhal in Valmiki Ramayana and also in the next Versions of  Valmiki Ramayana, Afterwards the message of Buddha was sent through His son and daughter to this ancient land. That is though another story, but has the impact that how we neighbors of Asia Continent as a whole and not only the Indian sub-continent are bound together in a strong bond of religion and culture also.
Tibet is though a bone of contention between India and China, and the expansionist greed of Communist Party of China grabbed Tibet, still we can forget the enmity and bury the hatchet for good and live in broader and greater harmony that we had in History. The ethical and inspirational ambitions of all these countries resemble to a great extant and The Communist ideology that ultimately utterly failed in the erstwhile U.S.S.R.indicates that no nation could be kept united on such ground.
The Last century has been a witness to the evolution of the rational mind in the whole world even the parts of Europe, U.S. and Australia welcomed Buddhism and even Sanatana-Dharma (I personally, for my own preference, avoid calling it 'Hindu', but believe this word "Sanatana-Dharma" is applicable to and includes the tenets and core-elements of both (the so-called 'Hindu' Religion and the Buddhism).
Except the West Asia countries, the whole world shares this spirit of search in all spheres of life, -including Religion and Spiritual as well, and a rational approach to this.
The world has however utterly failed to address and deal with the "Islam" which originated in the West Asia and subsequently spread over the whole earth. Though "Islam" has been accorded the status of "a religion" no-where it was accepted naturally and welcomed cordially as was with the Buddhism.
China though forcibly occupied Tibet, The Communist Regime just failed in realizing that accession of Tibet to China could not be done with the application of force. If the example of the erstwhile U.S.S.R. is any clue, such larger 'states' could not be politically controlled and managed under one harsh regime, be it "Islam" or "Communism".
This may be interesting to see that Islam and Communism share the same political ideology.
1. Both have a "Holy Book".
2. Both have a "Prophet" / Founder.
3. Both have a goal of establishing a world-Government.
4. Both vehemently impose and dictate their authority over the rest.
5. Lastly though Islam believes in the Existence of 'One' Almighty (Call it 'God' if they agree). Communism is unique in that it rejects 'God' and 'religion' straightforward (at least in principle).
The Buddhism in comparison, is sometimes referred to as 'Atheist' religion, which reduces to the same. So Communism shares that cord with Buddhism.
With the fall of the U.S.S.R. Communism collapsed and along-with the Capitalism too.
But in this day of surging of many ethnic and 'nationalistic' movements, it is apparent that the very definition of a 'nation' holds no more.
We can think of a 'Democratic-World' where we all should live peacefully and harmony with all.
China and India both can have a meaningful dialogue to enhance the cohesive Democratic values and ideals with welfare of 'people' as a whole and not in the light of Islam, Communism, Capitalism or Jingoism. This is the only hope for humanity as well. This may eventually pave a path to :
वसुधैव कुटुम्बकं / The entire world is but one family.
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Monday, 17 December 2018

वसुधैव कुटुम्बकं

क्यों / कितना ज़रूरी है सनातन धर्म ? 
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सनातन धर्म का आधार-सूत्र है वसुधैव कुटुम्बकं।
आज यदि मूल धर्मग्रंथों में पाई जानेवाली सनातन धर्म की सर्वाधिक स्पष्ट परिभाषा है तो उनमें से एक मनुस्मृति में है और दूसरी धम्मपद में है।
किसी कारण से उपरोक्त लिंक कनेक्ट नहीं हो पा रही, अतः उसे नीचे कॉपी-पेस्ट कर रहा हूँ। 
धम्मपदम्
पालि [1.5] यमक
न हि वेरेण वेराणि
सम्मन्तीध कुदाचनम् ।
अवेरेण च सम्मन्ति
एस धम्मो सनन्तनो ॥
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पटना 253 [14.5] खान्ति
न हि वेरेण वेराणि
शामन्तीह कदाचनम् ।
अवेरेण तु शामंति
एस धंमो सनातनो ॥
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paṭanā 253 [14.5] khānti
na hi vereṇa verāṇi
śāmantīha kadācanam |
avereṇa tu śāmanti
esa dhaṃmo sanātano ||
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उदानवर्ग 14.11 द्रोह
न हि वैरेण वैराणि
शाम्यतीह कदा चन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति
एष धर्मः सनातनः ॥
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मूलसर्वास्तिवादिविनय
(गिल्गित .184)
न हि वैरेण वैराणि
शाम्यन्तीह कदाचन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति
एष धर्मः सनातनः ॥
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मनुस्मृति:
अध्याय 4, श्लोक 138,
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥138॥
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manusmṛtiḥ
adhyāya 4, śloka 138,
satyaṃ brūyāt priyaṃ brūyānna brūyāt satyamapriyam |
priyaṃ ca nānṛtaṃ brūyādeṣa dharmaḥ sanātanaḥ ||
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Revered Dr. Bhimarao R. Ambedkar (BabaSaheb) While accepting Bauddha-dharma declared He was relinquishing Hindu-dharma. Evidently, He didn't relinquish sanātana dharma.
We can say sanātana dharma is the true identity of the 'religion' of India.
And if He decided to leave Hindu-dharma and opted for Bauddha-dharma, this further questions if we should follow / insist to be 'Hindu'.
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मनुस्मृति वेद-पुराण पर आधारित 'स्मृति' कहा जानेवाला धर्मग्रन्थ है, तो धम्मपद भगवान् बुद्ध की शिक्षाओं का संग्रह अर्थात् एक 'स्मृति' ही है।
मनुस्मृति में अध्याय 4 में प्रस्तुत श्लोक 138 तो प्रसिद्ध है ही :
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं।
प्रियं च नानृतं  ब्रूयात् एष धर्म सनातनः।।
तात्पर्य यह कि सनातन धर्म वह धर्म है जो उस प्रकार के आचरण की शिक्षा देता है, -जिससे पूरे समाज को दृष्टि में रखते हुए सबके लिए जिस प्रकार से श्रेय की प्राप्ति हो सकती है । वैसे तो वैदिक आधार पर वर्णाश्रम-धर्म सभी के लिए अनुकूल है ही, किंतु किन्हीं कारणों से महाभारत-काल के बाद भगवान् बुद्ध के अवतार होने के बाद वेद-धर्म का लोप होने लगा अतः स्वाभाविक था कि मनुष्य की सामूहिक स्मृति से वर्ण-आश्रम-धर्म का भी विस्मरण होने लगा और भगवान् बुद्ध द्वारा निर्देशित 'धम्म' / धर्म की परंपरा समाज में प्रचलित हो गई। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि भगवान् तीर्थंकर महावीर (जो बुद्ध के समकालीन थे) का श्रमण-धर्म भी इसी के साथ अधिक प्रचलित हुआ किंतु वाल्मीकि रामायण में इन दोनों परंपराओं के वर्णन से स्पष्ट है कि ये दोनों परंपराएँ भी समाज में 'सनातन-धर्म' की ही तरह प्राचीन काल से मान्य रही हैं। वाल्मीकि रामायण में जाबालि ऋषि द्वारा श्रीराम को वन में न जाने के लिए आग्रह करना और ऋषि के वचनों की श्रीराम द्वारा भर्त्सना करते समय उन्हें 'तथागत' 'बुद्ध' और 'नास्तिक' कहा जाना यही सिद्ध करता है कि चार्वाकदर्शन से मंडित वेदविरोधी धारा भी सनातन काल से ही प्रचलित है। वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 108 में ब्राह्मणोत्तम ऋषि जाबालि ने जिस प्रकार का नास्तिक-मत-सम्मत तर्क श्रीराम के सामने रखा है और श्रीराम ने सर्ग 109 में उसका रोषपूर्ण शब्दों से खंडन किया है उससे यही सिद्ध होता है कि आत्म-ज्ञान (निर्वाण) की प्राप्ति के कारण सनातन धर्म का वैदिक रूप यद्यपि भगवान् बुद्ध को विष्णु के अवतार की तरह मान्य तो करता है किंतु उनकी नास्तिक परंपरा को वेदविरोधी मानता है।  सर्ग 109 में श्रीराम (जो स्वयं भी भगवान् विष्णु के ही अवतार हैं), अपने ही आगामी बुद्ध अवतार के स्वरूप की निंदा इन शब्दों से करते हैं :
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध
स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां
स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्।।34
अर्थ : जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धमतावलंबी) भी दण्डनीय है।  तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए।  इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के सामान दंड दिलाया ही जाए; परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो -- उससे वार्तालाप तक न करे।
इससे अगले श्लोक 35 में श्रेष्ठ ब्राह्मणों के आचरण की प्रशंसा करते हुए श्रीराम कहते हैं :
त्वत्तो जनाः पूर्वतरे द्विजाश्च
शुभानि कर्माणि बहूनि चक्रुः।
छित्त्वा सदेमं च परं  च लोकं
तस्माद् द्विजाः स्वस्ति कृतं हुतं च ।।35
अर्थ : आपके सिवा पहले के श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने इहलोक और परलोक की फल-कामना का परित्याग करके वेदोक्त धर्म समझकर सदा ही बहुत से शुभ कर्मों का अनुष्ठान किया है। अतः जो भी ब्राह्मण हैं, वे वेदों को ही प्रमाण मानकर स्वस्ति (अहिंसा और सत्य आदि) , कृत (तप, दान और परोपकार आदि) तथा हुत (यज्ञ-याग आदि) कर्मों का सम्पादन करते हैं।
इसका सार गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में अत्यंत सुन्दर रीति से इस प्रकार व्यक्त किया गया है :
ॐ तत्सदिति निर्देशों ब्रह्मणस्त्रिविधा स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता पुरा।।
बौद्धमतावलंबी नास्तिक के बारे में भी गीता अध्याय 16 का श्लोक २३ दृष्टव्य है :
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारकः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।
(इस प्रकार यदि वैराग्य नास्तिक और चार्वाक तथा बौद्ध मत का आधार न हो तो) शास्त्रविहित को छोड़कर स्वेच्छाचार-पूर्वक पालन किया जानेवाला ऐसे धर्म से न तो सुख, न श्रेष्ठ गति (मोक्ष या निर्वाण) और न सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
इसी स्वस्ति अर्थात् स्वस्ति को जैन मत में भी अत्यंत पूज्य माना जाता है।  किसी तीर्थंकर के वक्ष पर इसे अंकित भी देखा जाता है, जो 'कौस्तुभ' के या 'श्रीवत्स' के ही तुल्य है।
जैन मत अर्थात् श्रमण-धर्म का भी उल्लेख वाल्मीकि रामायण में अरण्यकाण्ड सर्ग 70 से 73 तक किया गया है। शबरी (संस्कृत में शर्वरी / शर्वाणि / शर्वाणी ) का अर्थ है रात्रि एवं, पार्वती।
[उल्लेखनीय है कि फारसी से उर्दू में आया 'शब' इसी शर्व का सज्ञाति / cognate है।]  
 सर्ग 73 के श्लोक 26 में शबरी का वर्णन कुछ यूँ है :
कबन्ध श्रीराम से मतङ्ग ऋषि के आश्रम के वर्णन के बाद शबरी के आश्रम का वर्णन इस प्रकार करता है :
तेषां गतानामद्यापि दृश्यते परिचारिणी।
श्रमणी शबरी नाम काकुत्स्थ चिरजीविनी।।26
त्वां तु धर्मे स्थिता नित्यं सर्वभूत नमस्कृतम्।
आश्रमस्थानमतुलं गुह्यं काकुत्स्थ पश्यसि।।27
इस तथा अगले सर्ग को पढ़ने से जैन धर्म के पांच णमोकार मन्त्र एकाएक स्मरण हो उठते हैं :
ॐ णमो अरिहंताणं।
ॐ णमो सिद्धाणं।
ॐ णमो आइरियाणं।
ॐ णमो उवज्झायाणं।
ॐ णमो सव्व साहूणं।
क्योंकि इस सर्ग में सभी के संकेत-सूत्र पाए जाते हैं।
अगले सर्ग 74 में पुनः श्लोक 5, 6 तथा 7 के अनुसार :
तौ तमाश्रममासाद्य द्रुमैर्बहुभिरावृतम्।
सुरम्यभिवीक्षन्तौ शबरीमभ्युपेयतुः।।5
तौ दृष्ट्वा तु तदा सिद्धा समुत्थाय कृताञ्जलिः।
पादौ जग्राह रामस्य लक्ष्मणस्य धीमतः।।6
पाद्यमाचमनीयं च सर्वं प्रादाद् यथाविधिः।
तामुवाच ततो रामः श्रमणीं धर्मसंस्थिताम्।।7
इसी सर्ग में शबरी श्री राम से कहती है :
एवमुक्ता महाभागैस्तदाहं पुरुषर्षभ।
मया तु संचितं वन्यं विविधं पुरुषर्षभ।।17
तवार्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायास्तीरसंभवम्।
एवमुक्तः स धर्मात्मा शबर्या शबरीमिदम्।।18
राघवः प्राह विज्ञाने तां नित्यमबहिष्कृताम्।
दनोः सकाशात् तत्वेन प्रभावं ते महात्मनाम्।।19
विज्ञाने तां नित्यमबहिष्कृताम् -- उसकी विज्ञान (अध्यात्मविद्या) में नित्य अवस्थिति अर्थात् उसका नित्य  अबहिष्कृत होना।
दनोः सकाशात् -- दानव कबन्ध से
संभव है इस विवेचना में मुझसे कोई भूल हुई हो तो क्षमा चाहूँगा।
किंतु यह तो स्पष्ट है की जैन धर्म भी वैदिक धर्म की तरह प्राचीन और सनातन है।
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टिप्पणी : वाल्मीकि रामायण के सभी अंश गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित इस ग्रन्थ के हिंदी अनुवाद से लिए गए हैं।
(क्रमशः)
सनातन धर्म में स्त्री का स्थान
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Thursday, 13 December 2018

तीन ग्रन्थ : तीन रचयिता

रामायण, रघुवंशं और उत्तररामचरितं
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महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण का एक बार अवलोकन इस वर्ष के प्रारम्भ में किया था।
महाकवि कालिदास प्रणीत 'रघुवंशं' के प्रथम चार सर्ग अभी छः महीने पहले पढ़े थे। 
महाकवि भवभूति-प्रणीत 'उत्तररामचरितं' का अध्ययन वर्त्तमान में कर रहा हूँ।
पहले रामायण को पढ़ने का उत्साह हुआ किंतु पूरा पढ़ सकूँगा या नहीं इसका अनिश्चय था। फिर साहस कर पढ़ना शुरू किया तो आद्योपांत एक बार पाठ हो गया।
फिर जिज्ञासा हुई रघुवंशं को पढ़ने की तो उसे पढ़ना शुरू किया किंतु चार सर्ग पढ़ने के बाद कुछ शब्दों में हुई मुद्रण की या मेरे अपने संस्कृत भाषा के ज्ञान की कमज़ोरी की वजह से आगे पढ़ना कठिन लगने लगा। मुद्रण की कुछ भूलें मैंने अपनी बुद्धि से सुधार लीं, लेकिन भाषा की भूलों के बारे में इस अनिश्चय ने मुझे आगे पढ़ने से रोक दिया, कि यह मुद्रण की भूल है या मैं ही नहीं समझ पा रहा।
इन ग्रंथों को ध्यानपूर्वक पढ़ने से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि भगवान् श्रीराम के जिस चरित्र का वर्णन तीनों  महाकवियों ने किया है, उसमें कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं की गई है। न तो अपनी कल्पना से किसी घटना को अनावश्यक तरीके से अतिरंजित रीति से रूपायित किया गया है और न ही अलंकृत किया गया है। महर्षि वाल्मीकि चूँकि आदिकवि होने के साथ साथ महान् ऋषि भी थे इसलिए स्वाभाविक रूप से उन्होंने भगवान् श्रीराम के चरित्र का वर्णन आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक, इन तीनों तलों पर तथा ऐतिहासिक तल पर भी एक साथ घटित घटनाओं के तारतम्य में किया है।  दूसरी ओर, जिन विभिन्न पौराणिक कथाओं का समावेश इसमें किया गया है वे स्वतंत्र रूप से भी इसी प्रकार के इन तीनों तलों पर एक साथ ही समझी जा सकती है। आजकल 'वेद-पुराणों' के विज्ञानसम्मत होने न-होने का प्रश्न उठाना बुद्धिजीवियों का प्रिय अस्त्र हो गया है। केवल रामायण को ही ध्यानपूर्वक पढ़ने से मुझे प्रतीत हुआ कि तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टि केवल 'आधिभौतिक' इन्द्रियग्राह्य और तर्क-बुद्धि से प्रेरित वैचारिक सम्भावनात्मक निष्कर्षों के संकीर्ण दायरे में बद्ध है। यह बुद्धि स्वयं भी इन्द्रियज्ञान पर निर्भर जिन प्रेरणाओं से जागृत और सक्रिय होती है उनकी त्रुटिशून्यता संदिग्ध ही है। इस भौतिक विज्ञान को जितने परीक्षणों से गुज़रना होता है वह देवी सीता की अग्नि-परीक्षा की तरह कठोर है। इस बुद्धि के नियंता और संचालनकर्ता देवता को आधिदैविक रूप में गणेश कहा गया है। स्पष्ट है कि बुद्धि के चरित्र और स्वरूप के बारे में आज का बहुत विकसित विज्ञान अभी अँधेरे में ही टटोल रहा है। फिर आधिदैविक और आध्यात्मिक के बारे में, -जो बुद्धि के उद्गम का स्रोत और अधिष्ठान भी है, विज्ञान निश्चयपूर्वक क्या कह सकता है और क्या जान सकता है?
शेष दो महाकवियों कालिदास और भवभूति ने रामायण के ही आधार पर अपनी कृतियाँ रचीं।  जैसा कि दोनों ग्रंथों को देखने से पता चलता है, पहले कालिदास ने, बाद में भवभूति ने।  इसका केवल एक प्रमाण यह उल्लेख है कि कालिदास के कहने पर भवभूति ने 'एव' के स्थान पर 'एवं' (या 'एवं' के स्थान पर 'एव') को अपनी रचना में स्थान दिया।
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस उनके काल से ही भगवान् श्रीराम के जीवनचरित्र का सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रचलित ग्रन्थ रहा है लेकिन इसमें वाल्मीकि रामायण के अनेक प्रसंगों को या तो घटा-बढ़ा कर वर्णित किया गया है या स्वरूपतः ही बदल दिया गया है।
इसलिए आज हम श्रीरामचरितमानस के माध्यम से भगवान् श्रीराम के विषय में जो कुछ पढ़ते-सुनते हैं उनसे हमारे मन में अनेक प्रश्न उठते हैं और 'प्रगतिशील' बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ भी तुलसीदास की निंदा आलोचना करने में न सिर्फ गौरव और अभिमान अनुभव करते हैं, इस बहाने 'ब्राह्मण-धर्म' को भी लगे हाथ गालियाँ देने से पीछे नहीं हटते।
दो प्रसिद्ध उदाहरण हैं :
 पहला है :
"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।"
बहुत से तुलसीदासजी के और रामायण-प्रेमी भी इस चौपाई का अर्थ करने से घबराते या असहज महसूस करते हैं किंतु वाल्मीकि रामायण में वर्णित शम्बूक-वध के प्रसंग से इस चौपाई का वास्तविक तात्पर्य क्या है इसे अनायास समझा जा सकता है।
इसके लिए पहले हमें गीता के अध्याय 4 के श्लोक 13, अध्याय 18 के श्लोक 44 एवं इसी अध्याय के श्लोक 45 का अवलोकन करना होगा :
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अध्याय 18, श्लोक 45,

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए  उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
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संक्षेप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र मूलतः जाति न होकर गुणों और कर्मों में जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है उसके अनुसार उसके वर्ण होते हैं। जाति और वंश के अनुसार ही उसके संस्कार अर्थात् प्रवृत्ति हो यह ज़रूरी नहीं फिर भी किसी हद तक माता-पिता के वंशानुगत गुणों का स्थान तो उसकी प्रवृत्ति में हो सकता है, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।  दूसरी ओर गीता और रामायण धर्म और अध्यात्म के सनातन-मूल्यों पर आधारित सनातन धर्म की शिक्षा देते हैं जिसमें मौलिक दृष्टि यह है कि धर्म और अध्यात्म का प्रचार नहीं केवल रक्षा की जा सकती है। वाल्मीकि रामायण में तो संसार में फैले हुए विभिन्न मानव-वंशों की उत्पत्ति का भी वर्णन इस प्रकार से किया गया है जिसे आज भी 'प्रमाणित' पाया जाता है।  विस्तार से जानने के लिए वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच हुए युद्ध के प्रसंग (बालकाण्ड सर्ग 52 से 77 तक) का अवलोकन कर सकते हैं। यह जानना भी आश्चर्यजनक है कि इसी प्रसंग में ज्योतिष (Astronomy) के कुछ तथ्य भी दृष्टिगत होते हैं, जिन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में भी वैज्ञानिक आधार पर जांचा-परखा जा सकता है। इस बारे में मेरे इस ब्लॉग में पहले भी मैंने काफी-कुछ लिखा है। यदि वाल्मीकि रामायण में इन तथ्यों का इतना यथार्थतः सटीक और सत्य वर्णन है तो यह संदेह करने का क्या आधार है कि अन्य प्रसंगों के वर्णन जो हमारी वैज्ञानिक दृष्टि से हमें कपोल-कल्पना प्रतीत होते हैं, 'मिथ' हैं ?
अब बात करें
"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।"
के बारे में।
गोस्वामीजी ने 'अधिकारी' शब्द के प्रयोग से यही कहा है कि ढोल गँवार शूद्र पशु नारी ताड़ना पाने के अधिकारी हैं अर्थात् यदि चाहें तो ताड़ना से बचना या न बचना उनका अधिकार है।  जहाँ 'अधिकार' होता है वहाँ उस अधिकार का प्रयोग करने के लिए 'अधिकारी' स्वतंत्र होता है।  और ताड़न का अर्थ है आघात या डाँट-डपट।
ढोल तो बेचारा बनाया ही इसलिए जाता है कि ज़रुरत होने पर उसे पीटकर बजाया जाए। गँवार का तात्पर्य है असभ्य, अविकसित या सभ्य तौर-तरीकों से अनभिज्ञ। यदि वह इन तौर-तरीकों की अवहेलना करता है तो उसे चाहिए कि या तो ऐसे समाज से दूर रहे या उनके तौर-तरीके सीखे। ऐसा न करने पर वह स्वयं ही उनके द्वारा  उपहास किए जाने या डाँट-डपट खाने का, तिरस्कृत होने का पात्र / अधिकारी हो जाता है।
शूद्र की जैसी विवेचना की गई उसके अनुसार शूद्र का कर्म है serve करना अर्थात् सेवा (service) करना।  इस दृष्टि से जो भी 'सेवक' हैं इस श्रेणी में आते हैं भले ही जन्म या जाति से अन्य तीन वर्णों में पैदा हुए हों।  यहाँ तक कि 'प्रधान-सेवक' भी।  वे 'राजा' नहीं हैं।  लोकतंत्र में राजा तो प्रजा ही है।
पशु से काम लेना या उससे अपनी रक्षा करने के लिए कभी-कभी उसे मारना भी ज़रूरी होता है किंतु यदि वह ऐसी हरकत न करे जिससे उसे मार खानी पड़े तो इसके लिए भी वह स्वतंत्र है ही।
अब रही नारी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी की रक्षा करना पुरुष का कर्तव्य है और सनातन धर्म इसी आधार पर स्त्री और पुरुष के भिन्न भिन्न अधिकारों का वर्गीकरण करता है। गँवार और शूद्र तो सभी पुरुषों पर भी लागू होता है, यदि वे अभद्र, असभ्य आदि हों, और नारी के लिए भिन्न कसौटी इसलिए है क्योंकि नारी प्रकृति से ही पुरुष पर निर्भर है और इसलिए उसका अधिकार है कि पुरुष उसे सुरक्षा प्रदान करे। लेकिन आज के 'स्त्री-मुक्ति' के विचारों के दावेदार और स्त्री-पुरुष समानता के समर्थक तब मौन साध लेते हैं जब सनातन धर्म से भिन्न तथाकथित 'धर्म' कही जानेवाली परंपराएँ इसके विरोध में होती हैं। सनातन धर्म न तो स्त्री को स्वतंत्र मानता है न पुरुष को।  दोनों ही धर्म तथा अधर्म की मर्यादा में बँधे हैं और वहीँ तक स्वतंत्र हो सकते हैं।  और सनातन धर्म किसी पर धर्म की अपनी कोई परिभाषा नहीं लादता; - वह तो बस धर्म क्या है और अधर्म क्या है तथा धर्म के आचरण का क्या फल / परिणाम है और अधर्म के आचरण का क्या फल / परिणाम है इसे स्पष्ट करता है और यह आप पर छोड़ देता है कि आप अपने विवेक से धर्म-अधर्म क्या है इसे तय कर अपना कल्याण चाहते हैं या विनाश ? इसलिए आप वर्ण-आश्रम के धर्म का पालन करें या इनसे भिन्न अपनी स्वतंत्र राह चुनें जैसा बुद्ध और महावीर ने किया यह करने के लिए मनुष्य मात्र स्वतंत्र है। उच्छ्रंखल आचरण को स्वतन्त्रता समझना खुद को ही धोखा देना है। बुद्ध और महावीर ने भी मर्यादा का पालन करते हुए सुपात्र को ही शिक्षा / उपदेश दिए।  और इसलिए बहुत कम लोग ही वास्तव में उनकी शिक्षाओं से लाभान्वित हो सके। दोनों परंपराओं में स्त्री का स्थान पुरुष से निम्नतर रखा गया क्योंकि 'संघ' में रहने पर स्त्री की स्वतंत्रता का हनन हो जाता है। और 'सुरक्षा' का भी होता हो तो आश्चर्य नहीं।  परिवार ही स्त्री को सुरक्षा दे सकता है। किन्हीं भी कारणों से जब तक समाज स्त्री को पूरी तरह से सुरक्षित रखने में असमर्थ है, तब तक उसे परिवार में ही रहना चाहिए। क्योंकि असुरक्षा में न तो भौतिक विकास और न आध्यात्मिक विकास हो सकता है।
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दूसरा उदाहरण है शम्बूक-वध का :
शम्बूक तपस्वी मुनि था और शूद्र वर्ण का होने से वैसे भी उसके लिए उस प्रकार का तप उचित नहीं था जैसा कि  वह हठपूर्वक कर रहा था। भगवान् श्रीराम के पास एक दिन एक ब्राह्मण अपने मृत पुत्र को लेकर आया और उसने कहा :
 "हे राजा ! आपके राज्य में यह मेरा पुत्र अकाल-मृत्यु को प्राप्त हुआ है इसका एकमात्र कारण है आपके राज्य में कहीं कोई कार्य अधर्म का हो रहा है।  मुझे इसके लिए न्याय चाहिए।"
भगवान् श्रीराम ने पता लगाया और तलवार लेकर वहाँ  पहुंचे जहाँ शम्बूक अनधिकृत तपस्या में हठपूर्वक संलग्न था।  इसका सुन्दर वर्णन तो उत्तररामचरितं में भवभूति ने किया ही है, लेकिन श्रीराम ने ग्लानिपूर्वक उसके वध का यह कार्य किया और उसे इस प्रकार मरकर भी ब्रह्मलोक प्राप्त हुआ।  मरकर वह दिव्यपुरुष का रूप धारण कर भगवान् श्रीराम के सम्मुख उपस्थित हुआ और बोला :
"हे राम ! पता नहीं यह मेरे तप का फल है या आपकी कृपा का फल कि आपके हाथों से मृत्यु पाकर मैं यमराज के बंधन से छूट गया।"
 तात्पर्य यह कि केवल कर्तव्य और करुणावश ही भगवान् श्रीराम को यह भीषण कार्य करना पड़ा। इसी के पश्चात् वह मृत बालक भी जीवित हो उठा। यहाँ एक संकेत यह भी है कि यदि उस मृत को जीवित न किया जाता तो शम्बूक को, और शायद भगवान् श्रीराम को भी ब्रह्म-ह्त्या का पाप प्राप्त होता। इस प्रकार बालक को पुनर्जीवित करने से भगवान् श्रीराम ने शम्बूक को इस पाप से तो बचाया ही, उसके लिए दिव्यलोक में जाने का मार्ग भी प्रशस्त किया।                                 
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Tuesday, 11 December 2018

'वह' 'तुम' तथा 'मैं'

अष्टावक्र-गीता और पातञ्जल योग-सूत्र
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विषय-विषयी चेतना और निर्विषय चेतना 
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उपरोक्त दोनों ग्रंथों में आरंभ में ही ग्रन्थ की विषय-वस्तु क्या है इसे स्पष्ट कर दिया गया है।
अष्टावक्र-गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में :
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयातोष सत्यं पियूषवद्भज।।1
"हे तात ! यदि तुम्हें मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विष की तरह त्याग दो।
क्षमा, आर्जव (ऋजुता / सरलता), दया, संतोष एवं सत्य का सेवन उन्हें अमृत समझकर करो।
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तथा पातञ्जल योग-सूत्र के प्रथम अध्याय में :
अथ योगअनुशासनम्।। 1
"अब योग की प्रणाली का वर्णन किया जाता है।"
योगश्चित्तवृत्ति निरोधः।।2
"योग है चित्त की वृत्ति का निरोध।
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अष्टावक्र-गीता के उपरोक्त श्लोक में विषयों का त्याग करने के लिए कहा गया है।
यह त्याग दो प्रकार से होता है :
पहला है; केवल विषयों को इन्द्रियों से दूर रखना, जो बाध्यतावश या हठपूर्वक किया जाता है।
जैसे परिस्थितियों के कारण या मन को बहला-फुसलाकर किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लोभ से या भय से संयम में रखना।
दूसरा है विषयों से राग-विराग से भिन्न वैराग्य-बुद्धि उत्पन्न हो जाने से मन का उनकी ओर आकर्षण न होना।
पहली स्थिति के बारे में गीता अध्याय 3 श्लोक ६ में कहा गया है :
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।
दूसरी स्थिति तब हो सकती है जब इन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले भोगों में रस अनुभव न होने से उन भोगों से सुख-प्राप्ति की आशा ही मन में पैदा नहीं होने से मन उनसे निवृत्त हो जाता है।
इस स्थिति के बारे में गीता अध्याय 2 श्लोक 59 में कहा गया है :
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
किन्तु इन दोनों के बीच एक स्थिति वह होती है जब विषय-भोगों की व्यर्थता और उनके विषस्वरूप होने का अनुमान हो जाने के बाद भी परतत्व / परब्रह्म को न देख पाने से विषय-भोगों के आकर्षण से बच पाना कठिन होता है।
ऐसी स्थिति में केवल विवेकपूर्वक ही मनुष्य को इन्द्रियों को संयमित करने का अभ्यास करना होता है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 60 में कहा गया है :
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।
"इस प्रकार मोक्ष का साधन करते हुए विवेकी मनुष्य के मन को भी इन्द्रियाँ विषयों के आकर्षण में बाँध कर हठपूर्वक हर लेती हैं," ...  इसलिए :
इसी अध्याय 2 के अगले श्लोक 61 में कहा गया है :
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
"जो मुझमें / मेरे परायण हुआ उन सब इन्द्रियों को नियंत्रण में रखता है उसकी प्रज्ञा सुस्थिर हो जाती है।"
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विषय-मात्र जड है, जबकि विषयों का या भोगों का भोग या त्याग करनेवाला चेतन है और स्वयं भोग अथवा त्याग यहाँ तक कि भोग या त्याग का अनुभव जड या चेतन से विलक्षण केवल मिथ्या की कोटि की वस्तु है।
जिसका नाम है लेकिन जिस वस्तु का नाम है उसका रूप नहीं है।  इसलिए वह मिथ्या / आभास मात्र है।
विषय जड और विषयी चेतन है जिसमें सभी आने-जानेवाले विषय प्रतीत होते हैं। इस प्रकार चेतन जो उनका आश्रय है वस्तुतः अविकारी (परिवर्तनरहित) आधार है, जबकि विषय सतत परिवर्तनशील अर्थात् विकारशील  / विकारी हैं।
यह चेतन आधार मूलतः निर्विषय होने से ही विभिन्न विषय उसमें आते जाते रहते हैं चाहे वे स्थूल जैसे भौतिक पदार्थ हों, या सूक्ष्म जैसे बुद्धि, भावना, विचार, स्मृति, आवेग आदि हों. इन्हें एक सूत्र में में बाँधनेवाला यदि कुछ / कोई है तो वह एकमात्र वस्तु है विषयी। इस प्रकार विषयी एक दृष्टि से तो केवल अविकारी चेतन है, दूसरी ओर एक सूक्ष्म अभिमानी विचार जो 'मैं' शब्द से जुड़कर उन से भिन्न प्रतीत होनेवाला अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित कर लेता है। अन्य विचारों की भाँति यह विचार भी अस्थायी स्थिति है किन्तु स्मृति-सातत्य से इसे स्थायी समझ लिया जाता है।  इस प्रकार विषयी जो अविकारी चेतन है इस 'मैं' के रूप में व्यक्ति-भाव ग्रहण कर लेता है। अध्याय 2 के श्लोक 61 में 'मत्परः' का तात्पर्य ध्यानपूर्वक समझना आवश्यक है।
'परः' का अर्थ है 'परायण', 'मत्' का संबंध 'मत्य' से है, 'मत्' पुनः 'अस्मत्' वाचक सर्वनाम 'मैं / हम दोनों / हम' - अहं -आवाम्- वयम्' है, जो अंग्रेज़ी में I -एकवचन तथा we बहुवचन का जनक है ।
'अस्' और 'मत्' शुद्ध चेतना के लक्षण अर्थात् द्योतक हैं। 'अस्मि' इसी का व्यावहारिक रूप में प्रयोग में लाया जानेवाला शाब्दिक रूप है। यही अंग्रेज़ी में 'I am' का जनक है। इसी प्रकार 'युज्' और 'मत्' मिलकर 'युष्मत्' (त्वं you) वाचक सर्वनाम है जो 'you' का जनक है, जबकि त्वं 'Thou' और 'Thy' का जनक है।
तत् इसी प्रकार 'that' का जनक है। यह सब समझना इतना सरल है लेकिन आज के 'स्थापित' भाषाविदों ने संस्कृत के अध्ययन और शोध के बहाने इन तथ्यों को इतना विरूपित कर दिया कि इस स्वाभाविक सज्ञता (cognizance) की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता।  वैसे यहाँ भाषाशास्त्र के बारे में कोई अध्ययन प्रस्तुत करना अप्रासंगिक जान पड़ता है।
अब हम 'मत्पर', संबंधवाची 'युज्पर' तथा अन्य-पुरुषवाची 'तत्पर' के तीन तात्पर्यों के माध्यम से क्रमशः उत्तम पुरुषवाची एकवचन सर्वनाम 'अहं' से 'अध्यात्म' अर्थात् 'विषयी', युष्मत् (तुम) अर्थात् मध्यम पुरुषवाची एकवचन सर्वनाम 'त्वं' से 'विषयों' से 'विषयी' को संबंधित करनेवाले संवेदनों (perceptions) का,  तथा 'तद्' / 'तत्य' - अर्थात अन्य पुरुषवाची एकवचन सर्वनाम से जड विषयों का तात्पर्य ग्रहण करें तो 'विषयी का स्वरुप क्या हो सकता है यह अनायास स्पष्ट हो जाता है। यद्यपि विषयी को 'मैं' से व्यक्त किया जाना व्यावहारिक बाध्यता है किंतु वस्तुतः 'विषयी' न तो किसी नाम या रूप से युक्त है और न इन्द्रियों, मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, अनुभव  आदि से अवगम्य / अवगत की जा सकने वाली कोई सत्ता है, जबकि यही 'तुम' तथा 'वह' का एकमात्र उनसे स्वतंत्र अधिष्ठान भी है। इस प्रकार 'मत्परः' का तात्पर्य हुआ 'विषयों' से या 'विषयों' के इन्द्रियों, मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, अनुभव आदि से प्रतीत होनेवाले समस्त तत्वों से तदाकारिता (identification) का अंत होकर 'मैं'(के संकल्प) से रहित चेतन-मात्र में सुस्थिर होना।
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तद्युष्मदोः अस्मदि संप्रतिष्ठा
तस्मिन् विनष्टे अस्मदि मूलबोधात्।
तद्युष्मदस्मिन्मति वर्जितैका
स्थितिर्ज्वलन्ती सहजात्मनः स्यात्।।
 (सद्दर्शनं श्लोक 16)
The notions 'He' and 'Thou' are bound with 'I',
But in the Realized root of 'I' vanishes the 'I',
Thus The inborn luminous state of Self, the Real 'I', 
Is free of the notions 'He', 'Thou' and 'I'.
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'वह' 'तुम' तथा 'मैं' की धारणा का आधार 'मैं' की कल्पना है।
इस 'मैं' की कल्पना के मूल के बोध से इस 'मैं' की कल्पना का निवारण हो जाता है।
इस प्रकार 'वह' 'तुम' तथा 'मैं' से मुक्त एकमेव आत्मा अपनी ज्वलंत स्थिति में सुप्रतिष्ठित हो जाती है ।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 2 में इसी विषयमात्र को क्षेत्र तथा विषयी को क्षेत्रज्ञ कहा गया है :
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत। 
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तद्ज्ञानं मतं मम ।।
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Sunday, 9 December 2018

ध्यायतो विषयान्पुंसः

स्मृति-विभाजन, तादात्म्य और सातत्य

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संसार की सत्यता एक असंदिग्ध सत्य है जबकि संसार की स्मृतियों का सातत्य (निरंतरता) आभासी संसार की प्रतीति को सत्यता प्रदान करता है।  इस प्रकार स्मृतियों के सातत्य से बना संसार का चित्र (इमेज) और उसके सामञ्जस्य में उसके साथ-साथ बननेवाला 'स्व' का चित्र दोनों स्मृति-विभाजन के परिणाम हैं। इस प्रकार स्व-प्रतिमा तथा संसार की प्रतिमा एक ही वस्तु के दो अवयव हैं और दोनों परस्पर आश्रित और एकमेव होने पर भी दो भिन्न सत्यताओं जैसे समझ लिए जाते हैं।  गहरी निद्रा के समय में और जागृति के समय में भी स्मृति-सातत्य से प्रतीत होनेवाली ये दो सत्ताएँ परस्पर अभिन्न और अपृथक होती हैं।  सुषुप्ति के समय जो संसार सत्य होता है और 'जिसके लिए' वह संसार होता है, वही संसार 'उसके ही लिए' उसकी जागृति के समय भी वैसा ही सत्य होता है। किंतु जागृति के समय स्मृति-विभाजन के सहारे संसार और 'स्व' की दो प्रतिमाएँ स्मृति-सातत्य के आधार पर कल्पित कर ली जाती हैं।  यह प्रक्रिया भी स्वयमेव होती है, उसे कोई 'करता' हो ऐसा पृथक 'कोई और' कहीं नहीं होता।

स्मृति का निर्माण (उत्पत्ति) और संग्रह मस्तिष्क की स्वाभाविक गतिविधि है और चाहते-न-चाहते हुए भी कुछ स्मृतियों को मस्तिष्क सुरक्षित (save) कर लेता  है और किन्हीं अन्य को निरस्त (delete) कर देता है।

स्मृति-विभाजन के बाद कुछ स्मृतियाँ 'स्व' के खाते में और शेष 'स्व' से पृथक आभासी 'संसार' के खाते में जमा कर दी जाती हैं।

क्या यह संभव है कि एक ही मनुष्य में 'दो 'स्व' होते हों ?

यद्यपि एकमेव निर्वैयक्तिक चेतना सर्वत्र और सबमें व्याप्त है और उसी एकमेव चेतना में सब, लेकिन स्व-प्रतिमा बनने के बाद यही निर्वैयक्तिक चेतना स्मृति के अंतर्गत केवल त्रुटि से, और प्रमादवश व्यक्ति-विशेष की चेतना के रूप में ग्रहण कर ली जाती है। अर्थात् स्व-प्रतिमा से तदाकारिता (identification) हो जाती है।  यह इसलिए भी हो जाती है कि व्यावहारिक तल पर शरीर को ही 'स्व' अर्थात् 'मैं' कहा-समझा जाता है।

मनुष्य इस संबंध में विशिष्ट है कि जहाँ दूसरे जीव भाषा के अधिक विकसित न हो पाने केवल व्यवहार तक ही 'स्व' को शेष विश्व से भिन्न और पृथक समझते हैं और अपनी विशिष्टता को विचार-प्रक्रिया के माध्यम से सुदृढ़ता नहीं प्रदान करते, वहीँ मनुष्य भाषा के प्रयोग का असावधानी से विचार-प्रक्रिया के लिए सहारा लेता है और स्मृतियों को वैचारिक विन्यास प्रदान कर देता है। इसलिए मनुष्य 'स्व' का भी मूल्यांकन, निंदा, प्रशंसा, गर्व, युक्तिकरण (justification) व्याख्या आदि करता है।  यह विचार के साधन का दुरुपयोग है क्योंकि यह स्मृति-विभाजन के फलस्वरूप पैदा हुई स्व-प्रतिमा को दृढ़ता देता है।  यह स्मृति-विभाजन कृत्रिम / बनावटी और अस्वाभाविक होने से अस्थायी, अ-सतत, अनित्य होता है। इसलिए इस स्मृति-विभाजन के पूर्व की चेतना वह स्वाभाविक स्थिति है जिसमें निर्वैयक्तिक चेतना उसी प्रकार से अपना कार्य करती है जैसे शरीर का निर्माण करनेवाले मूल भौतिक द्रव्य अपनी भूमिका का स्वाभाविक निर्वाह करते हैं। जैसे उन द्रव्यों के जटिल रासायनिक रूप डी. एन. ए., क्रोमोसोम, जीन, हार्मोन, आदि सक्रिय और निष्क्रिय होते हैं और इसलिए समय आने पर वे शरीर को नष्ट भी करने लगते हैं। इसलिए किसी रोग का आक्रमण होने पर जहाँ रोग-प्रतिरोधक क्षमता अपनी सीमा तक उनका मुकाबला करती है, वहीँ वे ही द्रव्य शरीर में विभिन्न रोग उत्पन्न करते हैं या रोगों का प्रतिरोध करने में असमर्थ हो जाते हैं।  इतना ही नहीं वे स्वयं ही विभिन्न रोगों के लिए सहायक भी सिद्ध होते हैं।  यह तो 'स्व' ही है जो स्मृति-विभाजन से प्रेरित होकर इस प्राकृतिक गतिविधि को नियंत्रित करना चाहता है। इस दृष्टि से 'स्व' को 'अहं' / ego, जीव, आत्मा आदि के रूप में उसकी प्रतिमा बनाकर संसार से विच्छिन्न कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व समझ लिया जाता है।  संसार की सत्ता से भिन्न, श्रेष्ठतर या निकृष्टतर सत्ता की तरह ग्रहण की हुई यह 'स्व' की स्मृति और पुनः उसी स्मृति के आधार पर 'स्व' के स्वरुप का निर्धारण हास्यास्पद भूल है।

इसे इस सन्दर्भ से भी देखा जा सकता है :
सद्दर्शनं 

Verse 35.

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न वेद्म्यहं मामुत वेद्म्यहं मा-

मिति प्रवादो मनुजस्य हास्यः ।

दृग्दृश्यभेदात्किमयं द्विधात्मा

स्वात्मैकतायां हि धियां न भेदा ॥

______________

Verse 38.

सोऽहं विचारो वपुरात्मभावे

साहाय्यकारी परमार्गणस्य ।

स्वात्मैक्यसिद्धौ स पुनर्निरर्थो

यथा नरत्वप्रमितिर्नरस्य ॥

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स्व-प्रतिमा के सृजन के बाद, संसार और स्वयं के सहवर्ती (simultaneous occurrence) को स्वीकार करने के बाद, इस समूचे द्वैत-प्रपंच का नियंता कोई है यह भी एक स्वाभाविक निष्कर्ष होता है, जिसे 'ईश्वर' कहा जाता है,  जो न तो स्व जैसी चेतन लेकिन क्षुद्र वस्तु है न संसार जैसी जड (स्व-चेतनारहित) किंतु उन दोनों से बहुत श्रेष्ठ और जीव से बहुत अधिक चेतन सत्ता की तरह संसार की स्वामी और नियंता है।  जीव की बुद्धि यद्यपि चेतना की शक्ति से ही उत्पन्न होती है किंतु उससे प्राप्त होनेवाला 'ज्ञान' अत्यंत अल्पप्राय होता है और समस्त जीवों की समूची बुद्धि भी अंततः जीव-जगत के द्वैत के कारण को समझ नहीं पाती।  इसका सीधा और सरल, स्वाभाविक कारण तो यही है की वही सत्ता जिसे 'ईश्वर' कहा गया उस निर्वैयक्तिक चेतना के रूप में समस्त जीवों और जगत का एकमात्र आदि-कारण है। उपरोक्त श्लोक में उसी परम सत्ता को 'सः' अर्थात् 'वह' के सर्वनाम से इंगित किया गया है शास्त्रों के अनुसार "सोऽहं" 'अहं' और 'सः' की अनन्यता को जान लिए जाने पर अर्थात् वही एक असंख्य जीवों में 'मैं' की तरह प्रस्फुटित है इसे जान लेने से यह आभासी द्वैत-प्रपंच विलीन हो जाता है और जैसे जाली हुई रस्सी जलने के बाद यद्यपि राख के रूप में रस्सी जैसी दिखाई देती है लेकिन बांधने के लिए काम में नहीं आ सकती उसी प्रकार व्यवहार के रूप में यद्यपि द्वैत सत्य दिखाई देता है लेकिन वह मनुष्य के लिए बंधन नहीं होता।

'स्व' का भान सर्वप्रथम किसी देह में चेतनता व्यक्त होने पर ही प्रकट होता है, अर्थात् देह ही, 'मैं' की संसार-सहितप्रथम अभिव्यक्ति है, जो बाद में 'स्व' तथा 'संसार' में बँट जाती है।  इसी आधार पर शरीर को 'मैं' तथा शेष संसार को अपने से भिन्न समझा जाता है।  इस प्रकार 'मैं' विषयी (subject) और संसार विषय (object) है।  इन दोनों सत्ताओं के आभासी भेद का निराकरण ही अद्वैत-सत्य है।

चेतना का विषयी और विषय में विभाजन होने के बाद ही विषयी को ध्यान तथा विषय को ध्यान का दूसरा सिरा (ध्रुव) कहा जाता है।  इन्हीं का वर्गीकरण / वर्णन गीता अध्याय 13 में क्रमशः क्षेत्रज्ञ तथा क्षेत्र के नाम से किया गया है।                                           

  अध्याय 13, श्लोक 1,



श्रीभगवानुवाच :

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥

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(इदम् शरीरम् कौन्तेय क्षेत्रम् इति अभिधीयते ।

एतत् यः वेत्ति तम् प्राहुः क्षेत्रज्ञः इति तत्-विदः ॥)

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भावार्थ :

भगवान् श्रीकृष्ण बोले -

हे कौन्तेय (अर्जुन) ! इस पञ्चभौतिक शरीर को ’क्षेत्र’ कहा जाता है । और जो इस शरीर का जाननेवाला है, उसे तत्वविद् ’क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं ।

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पुनः इसी अध्याय के अगले श्लोक 2 में स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि प्रत्येक शरीर में उसे जाननवाला एक 'स्व' अर्थात् 'अहं' / 'मैं' होता है जबकि  इन समस्त 'स्व' को जाननेवाला उनका अधिष्ठान जो उन सबमें तथा जिसमें सब अंतर्भूत हैं वह 'मैं' परमात्मा हूँ :

अध्याय 13, श्लोक 2,



क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥

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(क्षेत्रज्ञम् च अपि माम् विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः ज्ञानम् यत् तत् ज्ञानम् मतं मम ॥)

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भावार्थ :

हे भारत (हे अर्जुन)! इन देहरूपी समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी तुम मुझको ही  जानो ।  इस प्रकार का क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, मेरे मत में वही ज्ञान (साङ्ख्य में वर्णित, तथा अन्यत्र कहा जानेवाला आत्म-ज्ञान और परम ज्ञान भी) है ।

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इस प्रकार से क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है।

मनुष्य के सन्दर्भ में यद्यपि प्रत्येक शरीर में उसका अभिमानी देवता जो उस शरीर के अपने होने का दावा करता है, जीव है किंतु यह जीव सीमित क्षमता और ज्ञान से युक्त है।

इसे ही ध्यान के सन्दर्भ में कहें तो चेतना अवधान है जिसका विभाजन विषयी-विषय में ध्यान के रूप में व्यक्त होता है।

इस तरह चेतना का एक अर्थ है अवधान तथा दूसरा है ध्यान।  व्यावहारिक रूप में दोनों को ही चेतना कहा जाता है। ध्यान के किसी शरीर में व्यक्त-रूप लेने तथा इन्द्रियों से उसका संपर्क विषयों से होने पर विषयी का विषय से वैसा ही तादात्म्य प्रतीत होता है जैसे किसी पुष्प पर स्फटिक रखने पर स्फटिक पुष्प के रंग का प्रतीत होता है।  इस प्रकार इस तादात्म्य का अस्तित्व अनित्य है किन्तु बुद्धि में इसे स्मृति के माध्यम से नित्य समझ लिया जाता है। इसलिए शुद्ध चेतना को पहले 'अहं' तथा बाद में 'अहं' तथा 'इदं' इन रूपों में ग्रहण कर लिया जाता है। जीव-दृष्टि से यद्यपि असंख्य जीव हैं किंतु व्यक्ति की दृष्टि से प्रत्येक का अपना 'अहं' उसके शरीर तथा शरीर से जुड़ी संवेदनाओं, अनुभूतियों, ज्ञान, स्मृति आदि से संबद्ध होने से वह क्षेत्रज्ञ भी है। पुनः यही क्षेत्रज्ञ सबमें विद्यमान सर्वनिष्ठ परमात्मा भी है। संसार विषय (object) है और 'मैं' विषयी (subject) इसलिए 'ध्यान'  में विभाजन और विषय से तादात्म्य होना स्वाभाविक है।  किन्तु विषयों की अनेकता और विषयी का एकमेव होना यही सिद्ध करता है कि चेतना / अवधान नित्य एकरस है।

विषय-विषयी का यह विभाजन कृत्रिम है और निद्रा में विलुप्त हो जाता है।  पुनः जागृति में यह तब विलीन हो जाता है जब किसी वृत्ति या विकल्प / विचार आदि से तादात्म्य हो जाता है या कर लिया जाता है।  जैसे किसी गीत को सुनते हुए उसमें पूरी तरह इस प्रकार डूब जाना की अन्य बातों की और से ध्यान हट जाए।

इस प्रकार का तादात्म्य तात्कालिक रूप से सुखप्रद प्रतीत होता हो, स्थायी न होने से कुछ समय बाद स्वयं ही भंग भी हो ही जाता है।  तब किसी नए विषय, विकल्प या वृत्ति की ओर ध्यान आकर्षित होता है और स्वेच्छया या बाध्यता से उस पर एकाग्र होकर कुछ समय बाद उसे भी त्याग देता है।

यह तादात्म्य स्वाभाविक भी हो सकता है या स्मृति-सातत्य से पैदा हुई रूचि के कारण भी उत्पन्न हो जाता है।  जैसे निद्रा आने के समय निद्रा-वृत्ति से तादात्म्य होना, आकस्मिक संकट आने पर भय की भावना से तादात्म्य हो जाना, किसी सुखद विषय के सामने आने पर उस विषय का आकर्षण होना, किसी अप्रिय वस्तु के सामने होने पर उससे घृणा, द्वेष आदि की भावना उठना आदि।

सभी स्थितियाँ स्मृति-सातत्य से जुडी होने पर समस्या बन जाती हैं।  किन्तु स्मृति को न तो मिटाना ज़रूरी है और न उसे सत्यता दिया जाना।  यदि स्मृति से उत्पन्न सातत्य को संसार के यथार्थ सत्य से विचलन की तरह देखा जा सके तो स्मृतियों का सर्वाधिक बेहतर उपयोग भी किया जा सकता है।

स्मृति-विभाजन और संसार का सातत्य परस्पर एक-दूसरे के कारण और कार्य हैं।

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ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
गीता : अध्याय 2 श्लोक 62
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Sunday, 2 December 2018

हनुमान : वाल्मीकि-रामायण से

ॐ हं हनुमते नमः
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हनुमान :
वाल्मीकि-रामायण से
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बालकाण्ड, सर्ग 17 में वर्णन है :
पुत्रत्वं तु गते विष्णौ राज्ञस्तस्य महात्मनः।
उवाच देवताः सर्वाः स्वयम्भूर्भगवानिदम् ।।१
जब भगवान् विष्णु महामनस्वी राजा दशरथ के पुत्रभाव  प्राप्त हो गए, तब भगवान् ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण देवताओं से इस प्रकार कहा :
सत्यसन्धस्य वीरस्य सर्वेषां नो हितैषिणः।
विष्णोः सहायान् बलिनः सृजिध्वं कामरूपिणः।।२
मायाविदश्च शूरांश्च वायुवेगसमान् जवे।
नयज्ञान् बुद्धिसंपन्नान् विष्णुतुल्य पराक्रमान्।।३
असंहार्यानुपायज्ञान् दिव्यसंहननान्वितान्।
सर्वास्रगुणसंपन्नानमृतप्राशनानिव।।४
अप्सरस्सु च मुख्यासु गंधर्वीणां तनूषु च ।
यक्षपन्नगकन्यासु ऋक्षविद्याधरीषु च ।।५
किन्नरीणां च गात्रेषु वानरीणां तनूषु च।
सृजध्वं  हरिरूपेण पुत्रांस्तु पराक्रमान्   ।।६
पूर्वमेव मया सृष्टो जाम्बवानृक्ष पुङ्गवः।
जृम्भमाणस्य सहसा मम वक्त्रादजायत ।।७

...
...

मारुतस्यौरसः श्रीमान् हनूमान् नाम वानरः।
वज्रसंहननोपेतो वैनतेयो समो जवे  ।।१६   
...
उपरोक्त संबंध में वानरेंद्र हनुमान् का वर्णन भवभूति ने 'उत्तरराम-चरित' ग्रन्थ में इस प्रकार से किया है :
प्रथमोऽङ्कः
...
...
...
सीता -- एत्थ किल अज्जउत्तेण विच्छिण्णामरिसधीरत्तणं पमुक्ककण्ठं रुण्णं  आसि।
          [ अत्र किलार्यपुत्रेण विच्छिन्नामर्षधीरत्वं प्रमुक्तकण्ठं रुदितमासीत्। ]           
रामः -- देवि ! रमणीयमेतत्सरः।
एतस्मिन्मदकलमल्लिकाक्षपक्षव्याधूतस्फुरदुरुदण्डपुण्डरीकाः।
वाष्पाम्भःपरिपतनोद्गमान्तराले संदृष्टाः कुवलयिनो मया विभागाः।।३१
लक्ष्मणः -- अयमार्यो हनूमान् !
सीता -- दिष्ट्या सोऽयं महाबाहुरञ्जनानन्दवर्धनः।
यस्य वीर्येण कृतिनो वयञ्च भुवनानि च ।।32
तात्पर्य यह कि सीता द्वारा जहाँ श्रीराम को 'आर्यपुत्र' कहकर संबोधित किया जाता है, वहीँ लक्ष्मण तथा हनूमान् को भी कभी 'वत्स' तो कभी 'आर्य' कहकर।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि 'हनूमान्' उसी प्रकार से 'आर्य' हैं जैसे श्री राम या श्री लक्ष्मण।
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गीता में भी 'आर्य' शब्द का प्रयोग 'श्रेष्ठ' के अर्थ में तथा 'अनार्य' का 'निकृष्ट' के अर्थ में है, न कि जातिवाचक।कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥  
विदेशी अध्ययनकर्ताओं द्वारा द्रविड और आर्य को दो जातियों / नस्लों का रूप केवल इस कुटिल उद्देश्य से दिया गया है कि भारतीय इतिहास का विकृत रूप 'ऐतिहासिक' सत्य की तरह हमारे जनमानस पर आरोपित कर दिया जाए।  यहाँ तक कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे महानुभाव भी इससे भ्रमित होकर यह खोजने और स्थापित करने लगे कि 'आर्य' उत्तरी ध्रुव से भारत में आए थे !
इसी प्रकार हनूमान् को दलित के वर्ग में रखा जाना 'दलित' को जाति के रूप में स्थापित करने का प्रयास है।
वैसे भी स्पष्ट है कि हनूमान् 'वानर-कुल' में उत्पन्न हुए थे जो राक्षस-कुल या दैत्य-कुल, दानव-कुल की तरह अर्थात् वंश विशेष में पैदा हुए थे।  रामायण में नाग, मनुष्य, वानर, गन्धर्व, राक्षस, देव, किन्नर, अप्सरा, ऋषि आदि कुल या वंश हैं जो एक ही प्रजापति की संतानें हैं। शारीरिक बनावट से उनमें बहुत भिन्नताएँ अवश्य हैं किंतु इससे उनके 'वर्ण' में भिन्नता नहीं होती।  रावण राक्षस-कुल में उत्पन्न होकर भी वर्ण से ब्राह्मण था।  श्रीराम मनुष्य होते हुए भी क्षत्रिय-वर्ण में पैदा हुए थे।
इस प्रकार श्रीराम जहाँ विष्णु नामक 'देवता'-विशेष के अवतार थे, वहीँ श्री हनूमान् 'पवन' या वायु-देवता के अंश से केशरी और अञ्जना नामक के पुत्र थे / हैं।           
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Friday, 30 November 2018

दृष्टिकोण / एक नज़रिया

अपने एक अन्य ब्लॉग
Hindi-ka-blog
में एक कविता अभी पोस्ट की।
उसे ही यहाँ उद्धृत करने का लोभ संवरित न कर सका।  
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दृष्टिकोण / एक नज़रिया जीवन को देखने का यह भी तो हो सकता है !
सुख कहाँ नहीं है?
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शीत में धूप का सुख,
ग्रीष्म में छाया का,
माया में ब्रह्म का सुख,
ब्रह्म में माया का,
देह में प्राणों का सुख,
प्राणों में काया का,
काया में जगत का सुख,
सुख में सब समाया सा।
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कविता 

Thursday, 29 November 2018

Real The perpetual and Timeless.

Below is an approximate translation of my last, the earlier
Hindi Post .
सनातन सत्य / सनातन धर्म
 The Last Writ .
The Reality of Existence that is both the perpetual as well as Timeless is though Eternal is indeed indescribable.Neither it is needed.
Relationship between the Description and the Described is what is the ever-present Truth that is 'Consciousness' .
Relationship as we know is though an assumed  mental construct / imagination / concept only, could be either transitory or temporary; or a permanent, ceaseless, perpetual one.
A relationship with the transitory, ephemeral, is no doubt temporary, but a relationship that connects with the ever-present abiding Reality could sure be a Timeless, ceaseless, unending eternal one.
But to see this, it is utmost necessary that we truly know and come across something which could be seen and found as eternal as such.Neither the intellect, thought, concepts, assumptions, guess, premises, surmises estimates and inferences, nor even the experience, emotions etc. could stay for long. All vanish in their time.
If there is anything that stands to the criteria of Timelessness, perpetuity, it is the 'Consciousness', that is so inconspicuous yet so evident as well always.
This 'Consciousness' has no beginning nor an end, For the very beginning and the end are seen within it. Even the I-sense, that appears and disappears too rises up, sprouts from the 'Consciousness', which prevails before , with and after the disappearance of the I-sense.
I-sense is therefore only a trifleof thought that happens in a split moment and is lost.
So, the 'Consciousness' is not a thing one could hold, own, grasp and claim oneself its owner.
On the contrary it is the 'Consciousness' that holds and bears innumerable life-forms; -the individual creatures and the sense of 'I' associated with and in each of them. nd as an individual every one is but an expression of that impersonal 'Consciousness' which is the substratum, foundation and the very support of the individual.
'Consciousness' itself is evidence of anything, including itself. And this is Timeless Reality. Because if it were transient, there should be another 'consciousness' that is its evidence. This is just absurd.
Therefore 'Consciousness' alone is Truth that is non-dual. Because all sense of duality/ plurality / multiplicity is merely an idea only .
 Again, it is also true that 'Consciousness' alone changeless and immutable state / fact while all else constantly undergoes change, mutates so is not the Reality worth its name.
In this way, 'Consciousness alone is the pointer that points out at itself as well.
And so, all that is seen coming and going away in the 'Consciousness'is temporary, of no value what-so-ever, and consequently illusory, Because everything that appears and disappears has no essence of its own. It is but the name and the form that is perceived in 'Consciousness' that causes a sense of our world for a short while only.
Waking dream and deep sleep states like-wise the sense of 'I'are temporary phases of mind and so are transient. They don't last.
Abiding in this pure Consciousness is the only way to be in communion with the Timeless; -the Ceaseless Eternal Reality.
This is what is expressed as सनातन सत्य / सनातन धर्म in the Upanishads.
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The Last Rites.....
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Sunday, 25 November 2018

सनातन सत्य / सनातन धर्म

संबंध : नित्य-अनित्य
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संबंध वैसे तो एक मान्यता और कल्पना होता है, लेकिन अनित्य या नित्य हो सकता है।
अनित्य से संबंध तो अनित्य होता ही है, नित्य से संबंध अवश्य नित्य हो सकता है।
लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि किसी ऐसी नित्य वस्तु की पहचान हमें हो।
न बुद्धि नित्य है, न विचार, न धारणाएँ, न मान्यताएँ, न अनुमान, न आकलन, न निष्कर्ष या अनुभव, भावनाएँ आदि। यदि नित्य कुछ है, तो वह है चेतना। यहाँ तक कि चेतना में आने-जानेवाली 'मैं' की भावना तक अस्थायी और इसलिए अनित्य है। चेतना इसलिए 'मेरी चेतना' जैसी व्यक्तिगत स्वामित्व की कोई चीज़ नहीं है। चेतना निर्वैयक्तिक सत्य है जिसमें असंख्य व्यक्ति-चेतनाएँ वैयक्तिक रूप से प्रकट और विलीन होती रहती हैं। 
चेतना किसी भी वस्तु का एकमात्र ठोस प्रमाण है किन्तु चेतना मूलतः तो स्वयं ही स्वयं का प्रमाण है, और यह सदा नित्य है क्योंकि यदि यह अनित्य होती तो इसकी अनित्यता का प्रमाण क्या होता?
इस प्रकार चेतना ही अद्वैत-सत्य भी है क्योंकि समस्त द्वैत अनित्य और मिथ्या हैं। 
और यह भी सत्य है कि चेतना ही नित्य अविकारी (changeless / immutable) सत् है जबकि शेष सब कुछ सतत विकारग्रस्त (changeable) होने से अस्थायी और असत् (false) है। 
इस प्रकार चेतना ही वह संकेत है जो स्वयं ही अपनी नित्यता का संकेत-चिह्न भी है।
इस नित्य सत्य चेतना में आने-जानेवाली हर वस्तु अनित्य और इसलिए मिथ्या है, क्योंकि वह न तो सत्य है न असत्य, किन्तु चेतना से संबंधित होने पर ही प्रतीति (appearance) की तरह अनुभव की जाती है।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, यहाँ तक कि 'मैं' की भावना तक अस्थायी और इसलिए अनित्य है।
'मैं' की भावना तक से रहित इस विशुद्ध चेतना में स्थिर रहना नित्य से संबंधित होना है।
इसलिए यह सनातन सत्य है, यही सनातन धर्म भी है।  
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स्मृति से परे

कलाकार की संगीत-साधना 
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1. राग 
मंच पर वह कलाकार सचमुच बहुत श्रम और कौशल से अपनी संगीत-रचना प्रस्तुत कर रहा था। सारंगी एक ही स्वर में निरंतर बजती जान पड़ती थी।  कलाकार अपने वाद्य-यंत्र पर धीरे-धीरे एक एक स्वर उठा रहा था।  बहुत देर तक भिन्न-भिन्न स्वरों का संधान करने के पीछे कला-प्रदर्शन का भाव बिलकुल नहीं था। फिर उसने एक टुकड़ा उठाया और पाँच स्वरों का एक राग मूल स्वरूप में बजाने लगा।  स्वर अब भी मंद-गति से एक के बाद एक क्रम से बज रहे थे जिनके बीच कब एक स्वर से दूसरा प्रकट होता था इसका आभास तक न होता था।  कोई भी स्वर कच्चा न था।  सभी मँजे हुए स्वर उसी प्रकार से निरंतर दुहराए जा रहे थे जैसे पिछली बार बजे थे।  इस प्रकार एक क्रम और एक समय, कल्पना में सृजित हुआ। सारंगी बहुत सामञ्जस्य से हर अगले स्वर के संवादी स्वर को उठा रही थी।  इस प्रकार सब कुछ अत्यंत सुचारु रूप से परस्पर संयोजित था।  Perfectly well-synchronized. तबला जो अपेक्षाकृत मंद स्वर में बज रहा था सारंगी और उस वाद्य-यंत्र के वादन को ताल के माध्यम से निश्चित समयावधि में बजनेवाले समय के लिए आधार प्रदान कर रहा था।  सब कुछ एक मोहक जादू की सृष्टि कर रहा था। धीरे-धीरे राग के स्वर भिन्न भिन्न उतार चढ़ाव लेते हुए भी उन्हीं पाँच स्वरों की मर्यादा, विस्तार और विकास थे जिनसे राग की पहचान होती है।  श्रोता यद्यपि मंत्र-मुग्ध थे लेकिन हर श्रोता समान रूप से कला का आस्वाद ले रहा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता था।  हर श्रोता सामान रूप से एकाग्र और दत्तचित्त रहा हो यह नहीं कहा जा सकता था।  क्योंकि हर श्रोता के चित्त का वाद्य-यंत्र उसकी स्मृति में बजनेवाले उन स्वरों को पूरी तरह चुप न करा पाया था जो इस आस्वाद में बाधा डालते थे।  वे स्वर भी उसे कम या अधिक और निरंतर सुनाई दे रहे थे, यद्यपि उनमें से शायद ही किसी को इसका आभास रहा हो।
फिर भी राग के आरोह-अवरोह के सुदीर्घ, सरल किंतु बंकिम पथ पर कभी धीमे कभी तेज़ क़दमों से मंदगति से चलते, ठिठकते या दौड़ते-भागते वे स्वर कितने काल तक गतिमान हुए या स्तब्ध से बजते रहे शायद ही किसी को पता चला हो।
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2. ताली और ख़ाली 
उसे मैं बरसों से जानता था।  लगभग मेरे बचपन ही से।  उसने संगीत सीखने के लिए किसी का आश्रय कभी नहीं लिया था।  उसे यह मालूम था कि संगीत साधना है, व्यवसाय या आजीविका का साधन नहीं।  और मैं ही क्या, उसके हम सभी मित्र, परिचित-अपरिचित उसके 'अभ्यास' को उसकी सनक समझते थे, और उस पर हँसते थे ।  किन्तु वह एक ही वाद्य-यंत्र पर बरसों श्रम करता रहता था, जब तक कि स्वर 'सिद्ध' न हो जाता था। इसके बाद ही उसने स्वरों के संयोजन की दिशा में अभ्यास प्रारंभ किया।  बहुत बाद में उसने सुना कि इन्हें 'राग' कहते हैं।  संपूर्ण, औडव, षाडव, संवादी, विवादी इस प्रकार के स्वर तथा राग, घरानों की शैली, टुकड़ा, दादरा, ठुमरी, टप्पा, मुरकी, गत, आदि शब्द तो उसे धीरे-धीरे मालूम हो चुके थे लेकिन  इसके बाद ही उसका ध्यान ताली और ख़ाली पर गया। ताली का अर्थ होता है आघात-प्रत्याघात जो हमेशा न्यूनतम स्वर-विस्तार होता था, जिसमें 'स्वर' नाममात्र के लिए अंश के रूप में जुड़ा होता था।  किंतु ताली के प्रयोग के दौरान उसे ख़ाली का महत्त्व और प्रयोजन स्पष्ट हुआ।  तुरंत ही उसका ध्यान इस ओर गया कि जैसे शून्य और एक, दोनों यूँ तो गणितीय अवधारणाएँ / संकल्पनाएँ हैं, और उनके संयोग से कोई संख्या कल्पित की जाती है, फिर भी शून्य के चरित्र पर सोचते हुए वह अचंभित होकर रह जाता था।  किसी वाद्य-यंत्र पर चाहे वह राग के लिए प्रयोग में लाया जाता हो, या ताल के लिए, ताली का प्रयोग ख़ाली पर ही निर्भर और ख़ाली से ही परिभाषित होता था।  कहना होगा कि शून्य प्रथम, मध्य और अंतिम भी था।  ताली, ख़ाली से ही उमगती थी, एक जादू पैदा होता था, श्रोता मंत्रमुग्ध होकर तालियों की गड़गड़ाहट से प्रसन्नता व्यक्त करते थे, किंतु ख़ाली फिर भी किसी अदृश्य सत्ता की तरह नेपथ्य में उपस्थित रहती थी। वर्चस्व उसका ही होता था।  बिना कोई आक्रमण किए।
उसे बहुत प्रशंसा मिलने लगी थी, किंतु उसे पूरा ध्यान था कि यह प्रशंसा, यह क्षणिक आत्म-मुग्धता उसे भ्रमित ही करती है।  उस विभ्रम से वह कभी भ्रमित या विचलित तक नहीं हुआ।  अपनी वीणा के स्वरों से असंख्य गन्धर्व-लोकों को प्रकट और विलुप्त करता हुआ वह सतत उस झील सा शान्त रहा जिस पर चंचल हवा के झोंकों से अनेक लहरें उठती-गिरती और विलीन होती रहती हैं, और हवा के शान्त होते ही जो पुनः दर्पण की तरह अपने चतुर्दिक फैले सौंदर्य को प्रतिबिंबित करने लगता है।
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Saturday, 24 November 2018

'विचार' और ध्यान

'विचार' का स्वरूप और ध्यान 
"मैं सोचता हूँ" बुनियादी रूप से एक भ्रामक धारणा / संकल्प है।  'विचार' चूँकि आते-जाते रहते हैं, उनका आगमन और प्रस्थान होता रहता है, इसलिए उनसे भिन्न कोई ऐसा सत्ता है ही नहीं जो उन्हें क्रियान्वित करती हो।हाँ, उन्हें बोध में जाननेवाली एक चेतन सत्ता अवश्य होती है जो विचार कदापि नहीं है।  "मैं सोचता हूँ" इस कथन में यह पहले से ही मान लिया गया है कि वही सत्ता जो उन्हें क्रियान्वित करती है, 'मैं' नामक सत्ता है। 'मैं' दृष्टा हूँ" इस विचार से उनके आने-जाने को बाधित नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'मैं' दृष्टा हूँ" भी पुनः एक विचार है और वह भी किसी अज्ञात स्रोत से आता और जाता है।  फिर भी यह विचार उस चेतन सत्ता की ओर एक संकेतक तो हो ही सकता है जो चेतना की तरह विचार के आने-जाने की स्थिर भूमि है।
किंतु विचारों के आने-जाने का एक प्रमुख कारण होता है उस विषय और संदर्भ में हमारी दिलचस्पी होना जिससे जुड़े विचार हमें आकर्षित करते हैं।
 'राम', 'दिल्ली', 'मिठाई', 'धर्म', 'प्रेम', 'पाखंड', 'शोषण', 'पैसा', 'कविता', 'राजनीति', 'नौकरी', 'बच्चा', 'विद्वान' 'शत्रु', 'प्यार, धोखा, 'नैतिकता' जैसे असंख्य शब्दों में से केवल कोई एक शब्द भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में और एक ही व्यक्ति में भी भिन्न भिन्न समय पर भिन्न भिन्न भावनाएँ जगाता है। और इस भावना से ही जुडी होती है उस शब्द से हमारी उत्सुकता, हमारा आकर्षण, विकर्षण आदि। किंतु चूँकि हमारी रुचि प्रायः अनेक विषयों से जुडी होती है, और मनुष्य जितना अधिक लिखा-पढ़ा होता है उसकी रुचि उतने ही विविध रूप लेती है, इसलिए हमें लगता है कि विचारों की भीड़ हो गयी है।
स्पष्ट है कि इस छोटी या बहुत बड़ी भीड़ में भी हमारे अपने अस्तित्व का भान ही उन्हें एक सूत्र में पिरोता है और यह निःशब्द भान ही हममें उनके स्वामी होने की भावना जगाता है।  इस प्रकार भान का भावना में रूपांतरण शब्दों के सहारे क्रमशः 'मैं' की आधारभूत मान्यता बन जाता है।  विचारों और शब्दों के सातत्य / निरंतरता में हमारा ध्यान इस सरल तथ्य से हट जाता है कि यद्यपि अस्तित्व ही भान है और भान ही अस्तित्व का प्रमाण भी, 'मैं' नामक शाब्दिक पहचान अनायास विचारों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में 'विचारकर्ता' के रूप में विभिन्न विचारों के स्वामी की तरह स्वीकृत हो जाती है।
किंतु विभिन्न विषयों के प्रति हमारी जो दिलचस्पी होती है, उस पर ध्यान देकर विचारों का आवागमन धीरे धीरे कम किया जा सकता है। यहाँ तक कि तब मन इतना शान्त भी हो सकता है कि केवल वही विचार हमारे मन में आएँ जिनसे हमें प्रयोजन हो। आजकल 'मनोरंजन' और 'बौद्धिकता' के नाम पर अनेक व्यर्थ और हानिकारक विषय तक अखबार, मीडिया, टीवी आदि हमें  परोसते रहते हैं और तब हमें परेशानी होती है कि मन बहुत चंचल क्यों है और इसे शान्त और स्थिर, एकाग्र कैसे करें ! और फिर यह नया विचार / प्रश्न भी तमाम विचारों की भीड़ में दबकर कहीं गुम हो जाता है। जैसा कि अभी दो-चार दिन पहले ही कहीं पढ़ा था, एक अध्ययन के अनुसार आज के मनुष्य का ध्यान एक विषय पर सोलह सेकंड से अधिक समय तक सतत नहीं टिका रह पाता। इसका एक कारण तो वही है कि हमारी दिलचस्पी के विषय इतने ज़्यादा हैं कि उनमें से कुछ के प्रति हमारी रुचि बाकी की तुलना में अधिक होती है।  इसलिए ध्यान एक से अधिक विषयों की और दौड़ता रहता है। 
अपने बचपन में मैंने अनुभव किया था कि कक्षा में जब शिक्षक किसी छात्र से पूछते थे 'तुम्हारा ध्यान किधर है?' तो वास्तव में उसका ध्यान कहीं भी नहीं होने के कारण वह स्तब्ध सा खड़ा रहता था। दूसरी ओर ऐसे भी छात्र थे जिनका ध्यान एक से दूसरे विषय की ओर भागता रहता था और उन्हें 'हाज़िर-ज़वाब' समझा जाता था।  लेकिन दोनों ही स्थितियाँ ध्यान की स्वाभाविक स्थिति नहीं होतीं। प्रायः बहुत से बच्चों को मनोरंजन की ज़रूरत ही नहीं होती लेकिन अभिभावक उन्हें अनेक रोचक सामग्रियों, खिलौनों आदि से खेलने की आदत डाल देते हैं।  इसका यह मतलब नहीं की उनका विकास ही होता हो।  सच तो यह भी हो सकता है कि उनका मन 'अभ्यस्त' / occupied हो जाता है।  वे जीवन में कितना ही आगे बढ़ जाएँ इस अभ्यस्तता की ग्रंथि (obsession with the occupied state of mind) से कभी मुक्त नहीं हो पाते।  वे बचपन की उस निर्दोष सरलता को भी खो बैठते हैं जब उनका बाल-मन प्रकृति के बहुत समीप था और वे जीवन के प्रत्यक्ष संपर्क में होते थे। यदि उनका विकास उनकी स्वाभाविक गति से होने दिया जाता और उसे किसी विशिष्ट दिशा में बलपूर्वक आगे बढ़ने के लिए 'प्रोत्साहित' न किया जाता तो शायद उन्हें जीवन में स्वयं ही खोज करने की प्रेरणा भीतर से ही प्राप्त होती।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो 'विचार' एक त्रि-आयामी राशि  (tensor-quantity) है।  'क्व' / 'किं' से बना क्विंट / quint, quanta, quantum, quintal, दृष्टव्य हैं।   विचार पदार्थ की क्वांटम स्टेट (quantum-state) अर्थात् मूल अवस्था है। इसमें द्रव्यमान (mass) ऊर्जा / energy और गति के साथ साथ एक 'चेतन' अवयव भी जुड़ा होता है।  इनका संयुक्त (composite) / संपोषित रूप विचार नामक तरंग जिसका विस्तार 'समय' के विस्तार में भी है।  अर्थात् किसी विचार में न्यूनतम अंश समय की सूक्ष्म इकाई का भी होता है। किसी विचार के बीतने में एक सुनिश्चित समय व्यतीत होता है। अन्य स्थिर भौतिक राशियों (scaler quantities)  में समय का यह आयाम शून्य होता है। इसी प्रकार गतिशील राशियों vector quantities में गति का आयाम भी होता है जबकि विचार के साथ एक चेतन तत्व भी अनिवार्यतः जुड़ा होता है।  अन्यथा विचार बस एक मृत वस्तु  (dead thing) भर है।  छपा हुआ विचार किसी के द्वारा पढ़े जाने पर ही जीवित और जीवन्त तथ्य होता है।
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ब्रह्म, -ध्यान का विषय ?

'विषय और विषयी' के बाद उस क्रम में कुछ और महत्वपूर्ण लिख पाया हूँ।
कुछ पोस्ट्स क्रम से 'ध्यान' के स्वरूप से संबंधित हैं और ध्यान पर सर्वथा नए ढंग से प्रकाश डालते हैं किंतु उन से पहले दो-तीन अन्य पोस्ट्स प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो ध्यान की नई भूमिका को समझने के लिए सहायक होंगे।
'ब्रह्म' पर ध्यान :
क्या ब्रह्म ध्यान का विषय हो सकता है?
 ब्रह्म के बारे में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ब्रह्म सजातीय, विजातीय तथा स्वगत इन तीनों प्रकार के भेदों से रहित है इसलिए वस्तुतः विषय-विषयी का विभाजन ही मूलतः ब्रह्म पर आरोपित नहीं होता। किंतु जब तक अपने आपको संसार में लेकिन संसार से भिन्न और पृथक एक जीव-सत्ता के रूप में ग्रहण किया जाता है तब तक जीव विषयी के रूप में ब्रह्म को विषय की तरह मानकर उसका ध्यान करने के विचार से, उस दृष्टि से कल्पना करता है।
जहाँ तक भेद-बुद्धि है, विषय-विषयी का विभाजन तो होगा ही। किसी भी विषय से एकाकार होने पर होनेवाला अनुभव अल्पकालिक अनुभव होता है, क्योंकि निर्विषय विषयी किसी एक ही विषय पर बहुत समय तक स्थिर / संलग्न नहीं रह सकता। और, कोई भी अनुभव होने के लिए वृत्ति ही माध्यम होता है। वृत्ति के ही माध्यम से विषय-विषयी का क्षणिक तादात्म्य प्रतीत होता है। संस्कारों के कारण चित्त विभिन्न विषयों से पुनः पुनः जुड़ता और अलग होता रहता है और किसी विशेष अवसर पर यदि निर्विषय हो भी जाता है तो निद्रा या मूर्च्छा जैसा अनुभव होता है जो पुनः वृत्ति के ही प्रकार हैं। विषय से तादात्म्य की इस प्रतीति को ही स्मृति के आधार से अनुभव कहा जाता है, जो आकर चला गया लेकिन उसे पुनः स्मरण किया जाता है ।
ब्रह्म से तादात्म्य का अर्थ हुआ विषयी का विषय से तादात्म्य (एकत्व) होना। किंतु ब्रह्म में विषय का विषयी से एकाकार होने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है? विषयी स्वयं ही सजातीय, विजातीय तथा स्वागत भेदों से रहित निर्विषय ब्रह्म है। 
सजातीय का तात्पर्य है एक ही जाति के अंतर्गत भेद जैसे वृक्षों में कोई नीम है, तो कोई आम इत्यादि।
विजातीय का उदाहरण है वृक्ष और पशु-पक्षियों में भिन्नता।
स्वगत का भेद है अपने एक ही शरीर में भिन्न भिन्न अंगों में भेद।
इसलिए ब्रह्म सीधे ही ध्यान का विषय तो नहीं हो सकता किंतु ब्रह्म का 'साक्षात्कार' अवश्य संभव है और यह आत्म-साक्षात्कार का ही एक रूप है।  जब अपने-आपके यथार्थ स्वरूप का इन तीनों भेदों से रहित सत्य की तरह बोध हो जाता है तो ब्रह्म का अर्थात् आत्मा का प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। इन्द्रिय, बुद्धि, मनोगम्य समस्त विषयों का निरसन हो जाने पर चित्त जिस निर्विषय चेतना को अपने स्वरुप के रूप में जानता है वही ब्रह्म का अर्थात् आत्मा का साक्षात्कार भी है। 
यह कोई 'अनुभव' नहीं बल्कि  नित्य निज बोध का आविष्कार मात्र है, जिसे इन्द्रिय, बुद्धि, मनोगम्य विषयों से आवरित रहने तक अपरिचित और नया समझा जाता है। और इसी मान्यता के कारण ब्रह्म को भी कोई विषय मान लिया जा सकता है, और उस पर ध्यान हो सकता है या नहीं यह प्रश्न उठता है। 
आत्म-साक्षात्कार अर्थात् ब्रह्म का साक्षात् भान होते ही भेद-बुद्धि विलीन हो जाती है किंतु इससे विषयों का इन्द्रिय, बुद्धि, मनोगम्य ज्ञान समाप्त नहीं हो जाता।  तब समस्त भेद 'प्रतीति-मात्र' हैं और काल्पनिक हैं यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।
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Thursday, 22 November 2018

तथ्य / Fact

तथ्य, सत्यता और सातत्य (?)
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कंप्यूटर i.c.u. में है।
यह तथ्य सत्यता है या सातत्य है?
पता नहीं अगली पोस्ट कब लिखूँगा !
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Computer is in i.c.u.
Fact or truth or continuity?
Don't know when the next post could be presented.
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Sunday, 18 November 2018

संसार : सत्यता और सातत्य

विच्छिन्नता और प्रच्छन्नता 
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कितने आश्चर्य की बात है कि संसार का सातत्य (सतत अस्तित्वमान होना) कल्पित है, जबकि संसार की सत्यता असंदिग्ध, निर्विवाद और अकाट्य तथ्य है।  और इन्हीं दो के बीच भेद न देख पाना मूल विभ्रम है।
एक छोटा बच्चा भी संसार को सत्य समझता है और एक बड़ी उम्र का मनुष्य भी इसे सत्य समझता है किंतु बच्चे के लिए संसार तभी तक सत्य होता है जब तक वह जागृत अवस्था में होता है और सोकर पुनः जागने पर उसका संसार उसके लिए पुनः नए सिरे से सत्य होता है।  जैसे जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है वैसे वैसे स्मृतियों के जमा होने से उन स्मृतियों की प्रतिमाएँ एक पर एक चढ़कर संसार के सातत्य (सतत अस्तित्वमान होने) का भ्रम पैदा करती हैं और इस बीच अपनी स्वयं की सत्यता भी संसार के इस सातत्य के अनुरूप किसी प्रतिमा की तरह संसार के सातत्य (सतत अस्तित्वमान होने) का एक हिस्सा बन जाती है।  इस प्रक्रिया में निद्रा का वह अंश पूरी तरह भुला दिया जाता है जहाँ अपनी या संसार की कोई प्रतिमा नहीं होती किन्तु अपना और संसार का अस्तित्व इससे बाधित नहीं होता। अपना और संसार का वही अस्तित्व जाग जाने के बाद भी वैसा ही होता है लेकिन संसार की और उसके तारतम्य में कल्पित स्मृतियों का सातत्य (सतत अस्तित्वमान होना) इस सच्चाई से हमारा ध्यान हटा देता है।  इसलिए यह आवश्यक है कि संसार को न तो असत्य समझा जाए और न अपने से भिन्न या पृथक ही समझा जाए। तात्पर्य यह है कि अतीत स्मृतियों के माध्यम से संसार को न देखा जाए।  क्योंकि संसार जैसा प्रतीत होता है वह नित्य नया होता है जबकि स्मृति सदा पुरानी, इस वर्त्तमान से नितांत भिन्न और विच्छिन्न होती है। स्मृति को सत्य की तरह ग्रहण करना किसी सीमा तक ज़रूरी और ठीक भी हो सकता है किंतु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उसके माध्यम से जिस संसार को ग्रहण किया जा रहा है वह 'हमेशा' वैसा होता है। इसी भूल से प्रायः हर कोई 'अपना' एक व्यक्तिगत संसार निर्मित कर लेता है जो उसकी कल्पना से भिन्न नहीं होता और इससे संसार का यथार्थ बिलकुल प्रभावित नहीं होता।  वही यथार्थ संसार की, और अपनी भी सत्यता है लेकिन उसे संसार के दूसरे 'अनुभवों' की तरह 'अनुभव' नहीं किया जा सकता।  हाँ, उसकी ओर ध्यान अवश्य दिया जा सकता है जिससे संसार की और अपनी हमेशा रहनेवाली सत्यता का बोध जागृत होता है।
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Isolation and The Underlying Reality.
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It is a wonder that the continuity of the world is imaginary, while the Reality of the world is a doubtless, indubitable, and irrefutable truth. The inability to see the difference between the two is the basic confusion / conflict. A kid treats the world as true and a grown up too takes it as true, but the kid takes the world as true only during its waking moments, and after waking up again after sleep, the world becomes true for it anew, afresh with a totally new beginning.As the kid grows up, the memories of the world that it had during waking state get accumulated in assorted order and the images made of those memories cause a delusion and confusion, conflict of the kind about the form and truth of the perceived and experienced world. Again the memory of oneself in contrast with this apparent world also in a way 'defines' an image of oneself and the memory of this image becomes a part of the memory about the world. While this happens, the fact that during sleep there is no image at all of the said world or me, is just forgotten, though the Reality is in no way affected by this whole process. The same Reality holds and abides even when one is asleep or woken up. But the continuity of the memories cover up this Truth and one just feels oneself in a world where world and the one are two different entities juxtaposed together. It is important to see that the world should neither be treated as Unreal, nor different, distinct and other than oneself (me). Because The world as it is seen every moment has ever so a new form and appearance, while this simple truth is obscured and obstructed by the memories. Because the memory is / the memories always old and dead, quite unconnected and unrelated to the present moment. Of course the memory is recognition and recognition is memory and is quite much useful in living the daily life of the individual, but at the same time the obsession with the memory gives an assumed continuity to the false, -the things non-existent. Because of this assumed and imposed sense of continuity that is the result of memory, one projects one's own imaginary world that is but living in utopia. And the Real world is in no way affected by this personal world. And That Realty is the core truth, and the very essence of the Reality, though this Reality couldn't be 'experienced' in the way one experiences the worldly things. Yet, understanding this whole thing  helps greatly in breaking the shell of the 'person' one is enclosed within.  One may become 'aware' of this Reality and leave away aside, - the personal world, that is but all sorrow and misery only.
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