नव-वर्ष
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संस्कृत भाषा में एक क्रियापद धातु (verb-root) है ईर् -- ईर्यते -जो प्रेरणा देने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसमें 'प्र' उपसर्ग जुड़ने पर बनता है 'प्रेरणा' अर्थात inspiration, वह स्थानसूचक पद जिसका एक पर्याय है इरा; - अर्थात् पृथ्वी।
ऐरावत (इंद्र का हाथी) और इरावती (नदी) इसी से बने अन्य शब्द हैं।
किंतु एक और शब्द है 'आर्य' जो हमें ज्ञात ही है।
और पहले यह ध्यान देना ज़रूरी है कि संस्कृत भाषा में भी 'आर्य' शब्द और इसका अर्थ किसी नस्ल या जाति का सूचक नहीं बल्कि 'श्रेष्ठ' / 'उदात्त' का सूचक होता है। यह श्रेष्ठता नस्ल या जाति, यहाँ तक कि कुल, वंश अथवा 'वर्ण' तक की भी नहीं, बल्कि मनुष्यमात्र में पाए जा सकनेवाले मानवीय गुणों की होती है। इसी प्रकार 'अनार्य' शब्द मनुष्य में ऐसे श्रेष्ठ गुणों के अभाव को या हीन / निकृष्ट गुणों की विद्यमानता को सूचित करता है।
[पिछली किसी पोस्ट में मैंने भवभूति रचित 'उत्तररामचरित' से प्रथम अंक का छोटा सा उद्धरण दिया था, जहाँ लक्ष्मण हनुमान को इंगित कर सीता से कहते हैं :
"अयमार्यो हनूमान् !"
और सीता जहाँ श्रीराम को अज्जउत्त (आर्यपुत्र) कहती है, वहीँ लक्ष्मण को 'वत्स' से संबोधित करती है।]
'आर्य' का अर्थ है : 'प्रेरक'- 'प्रेरित करनेवाला' /motivator, श्रेष्ठ उदाहरण ।]
यही स्थानवाचक 'इरा' अंग्रेज़ी भाषा में कालवाचक 'Era' / 'Year' का उद्गम है।
जर्मन भाषा में यही Yahr और Erde अर्थात् वर्ष और पृथ्वी (Earth) के लिए प्रयुक्त होता है।
इसी प्रकार 'वर्ष' शब्द काल तथा भौगोलिक स्थान-विशेष के लिए भी प्रयुक्त होता है ; जैसे 'भारतवर्ष' में।
इस प्रकार नव-वर्ष का तात्पर्य हुआ नया स्थान, काल और 'समय'!
इस नए 'समय' के आगमन का उद्देश्य है नए 'धर्म' के स्वागत के लिए तैयार होना।
किसी किताब से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि उस प्रेरणा से प्रेरित होकर जो किताब को किताब तक महत्त्व देता है, किसी भी किताब का अपमान नहीं करता लेकिन किसी एक किताब को ही धर्म की एकमात्र प्रेरणा मानने से इंकार करता है।
आज अनेक 'धर्मों' की विद्यमानता से हम 'धर्म' क्या है इस बारे में बहुत भ्रांत हैं।
धर्म क्या है यह तय करना तो बहुत कठिन है किंतु किसी भी धर्म से कम से कम यह अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए कि वह 'व्यावहारिक' हो, सबको स्वीकार्य हो और मनुष्य-मनुष्य के बीच विद्वेष न पैदा करता हो। संक्षेप में, वह viable, feasible, और sustainable हो। और इसे अपने लिए हर मनुष्य को स्वयं ही तय करना होगा कि उसके लिए धर्म क्या है ! क्या उसका धर्म परंपरा इतिहास का ऐसा दोहराव भर है जो निरंतर युद्धों के लिए प्रेरित करता है? क्या उसका धर्म अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है? अर्थात् क्या वह ऐसा स्वाभाविक धर्म है जिसका प्रचार-प्रसार करने की ज़रूरत ही न होती हो ? जो किसी के 'विरुद्ध' न हो ? क्योंकि जैसे ही कोई परंपरा / इतिहास किसी के विरोध में होता है वह रक्षात्मक होने की मर्यादा तोड़कर आक्रामक हो जाता है। आक्रामकता आतंक से पैदा होती है और आतंक पैदा करती है। भयग्रस्त मनुष्य (और पशु भी) मूढ़तावश दुस्साहसी हो जाता है, और उस दुस्साहस को धर्म कहकर अपने-आपमें साहस का संचार करता है। ऐसा धर्म viable, feasible, और sustainable नहीं हो सकता।
इस दृष्टि से भी हम 'आर्य-धर्म' और 'अनार्य-धर्म' के बीच एक सीमा-रेखा खींच सकते हैं।
हो सकता है नए वर्ष में हम इस दृष्टि से सोच-समझकर आत्मावलोकन करें और नए वर्ष की नई पटकथा लिखें।
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संस्कृत भाषा में एक क्रियापद धातु (verb-root) है ईर् -- ईर्यते -जो प्रेरणा देने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसमें 'प्र' उपसर्ग जुड़ने पर बनता है 'प्रेरणा' अर्थात inspiration, वह स्थानसूचक पद जिसका एक पर्याय है इरा; - अर्थात् पृथ्वी।
ऐरावत (इंद्र का हाथी) और इरावती (नदी) इसी से बने अन्य शब्द हैं।
किंतु एक और शब्द है 'आर्य' जो हमें ज्ञात ही है।
और पहले यह ध्यान देना ज़रूरी है कि संस्कृत भाषा में भी 'आर्य' शब्द और इसका अर्थ किसी नस्ल या जाति का सूचक नहीं बल्कि 'श्रेष्ठ' / 'उदात्त' का सूचक होता है। यह श्रेष्ठता नस्ल या जाति, यहाँ तक कि कुल, वंश अथवा 'वर्ण' तक की भी नहीं, बल्कि मनुष्यमात्र में पाए जा सकनेवाले मानवीय गुणों की होती है। इसी प्रकार 'अनार्य' शब्द मनुष्य में ऐसे श्रेष्ठ गुणों के अभाव को या हीन / निकृष्ट गुणों की विद्यमानता को सूचित करता है।
[पिछली किसी पोस्ट में मैंने भवभूति रचित 'उत्तररामचरित' से प्रथम अंक का छोटा सा उद्धरण दिया था, जहाँ लक्ष्मण हनुमान को इंगित कर सीता से कहते हैं :
"अयमार्यो हनूमान् !"
और सीता जहाँ श्रीराम को अज्जउत्त (आर्यपुत्र) कहती है, वहीँ लक्ष्मण को 'वत्स' से संबोधित करती है।]
'आर्य' का अर्थ है : 'प्रेरक'- 'प्रेरित करनेवाला' /motivator, श्रेष्ठ उदाहरण ।]
यही स्थानवाचक 'इरा' अंग्रेज़ी भाषा में कालवाचक 'Era' / 'Year' का उद्गम है।
जर्मन भाषा में यही Yahr और Erde अर्थात् वर्ष और पृथ्वी (Earth) के लिए प्रयुक्त होता है।
इसी प्रकार 'वर्ष' शब्द काल तथा भौगोलिक स्थान-विशेष के लिए भी प्रयुक्त होता है ; जैसे 'भारतवर्ष' में।
इस प्रकार नव-वर्ष का तात्पर्य हुआ नया स्थान, काल और 'समय'!
इस नए 'समय' के आगमन का उद्देश्य है नए 'धर्म' के स्वागत के लिए तैयार होना।
किसी किताब से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि उस प्रेरणा से प्रेरित होकर जो किताब को किताब तक महत्त्व देता है, किसी भी किताब का अपमान नहीं करता लेकिन किसी एक किताब को ही धर्म की एकमात्र प्रेरणा मानने से इंकार करता है।
आज अनेक 'धर्मों' की विद्यमानता से हम 'धर्म' क्या है इस बारे में बहुत भ्रांत हैं।
धर्म क्या है यह तय करना तो बहुत कठिन है किंतु किसी भी धर्म से कम से कम यह अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए कि वह 'व्यावहारिक' हो, सबको स्वीकार्य हो और मनुष्य-मनुष्य के बीच विद्वेष न पैदा करता हो। संक्षेप में, वह viable, feasible, और sustainable हो। और इसे अपने लिए हर मनुष्य को स्वयं ही तय करना होगा कि उसके लिए धर्म क्या है ! क्या उसका धर्म परंपरा इतिहास का ऐसा दोहराव भर है जो निरंतर युद्धों के लिए प्रेरित करता है? क्या उसका धर्म अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है? अर्थात् क्या वह ऐसा स्वाभाविक धर्म है जिसका प्रचार-प्रसार करने की ज़रूरत ही न होती हो ? जो किसी के 'विरुद्ध' न हो ? क्योंकि जैसे ही कोई परंपरा / इतिहास किसी के विरोध में होता है वह रक्षात्मक होने की मर्यादा तोड़कर आक्रामक हो जाता है। आक्रामकता आतंक से पैदा होती है और आतंक पैदा करती है। भयग्रस्त मनुष्य (और पशु भी) मूढ़तावश दुस्साहसी हो जाता है, और उस दुस्साहस को धर्म कहकर अपने-आपमें साहस का संचार करता है। ऐसा धर्म viable, feasible, और sustainable नहीं हो सकता।
इस दृष्टि से भी हम 'आर्य-धर्म' और 'अनार्य-धर्म' के बीच एक सीमा-रेखा खींच सकते हैं।
हो सकता है नए वर्ष में हम इस दृष्टि से सोच-समझकर आत्मावलोकन करें और नए वर्ष की नई पटकथा लिखें।
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