Sunday, 9 December 2018

ध्यायतो विषयान्पुंसः

स्मृति-विभाजन, तादात्म्य और सातत्य

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संसार की सत्यता एक असंदिग्ध सत्य है जबकि संसार की स्मृतियों का सातत्य (निरंतरता) आभासी संसार की प्रतीति को सत्यता प्रदान करता है।  इस प्रकार स्मृतियों के सातत्य से बना संसार का चित्र (इमेज) और उसके सामञ्जस्य में उसके साथ-साथ बननेवाला 'स्व' का चित्र दोनों स्मृति-विभाजन के परिणाम हैं। इस प्रकार स्व-प्रतिमा तथा संसार की प्रतिमा एक ही वस्तु के दो अवयव हैं और दोनों परस्पर आश्रित और एकमेव होने पर भी दो भिन्न सत्यताओं जैसे समझ लिए जाते हैं।  गहरी निद्रा के समय में और जागृति के समय में भी स्मृति-सातत्य से प्रतीत होनेवाली ये दो सत्ताएँ परस्पर अभिन्न और अपृथक होती हैं।  सुषुप्ति के समय जो संसार सत्य होता है और 'जिसके लिए' वह संसार होता है, वही संसार 'उसके ही लिए' उसकी जागृति के समय भी वैसा ही सत्य होता है। किंतु जागृति के समय स्मृति-विभाजन के सहारे संसार और 'स्व' की दो प्रतिमाएँ स्मृति-सातत्य के आधार पर कल्पित कर ली जाती हैं।  यह प्रक्रिया भी स्वयमेव होती है, उसे कोई 'करता' हो ऐसा पृथक 'कोई और' कहीं नहीं होता।

स्मृति का निर्माण (उत्पत्ति) और संग्रह मस्तिष्क की स्वाभाविक गतिविधि है और चाहते-न-चाहते हुए भी कुछ स्मृतियों को मस्तिष्क सुरक्षित (save) कर लेता  है और किन्हीं अन्य को निरस्त (delete) कर देता है।

स्मृति-विभाजन के बाद कुछ स्मृतियाँ 'स्व' के खाते में और शेष 'स्व' से पृथक आभासी 'संसार' के खाते में जमा कर दी जाती हैं।

क्या यह संभव है कि एक ही मनुष्य में 'दो 'स्व' होते हों ?

यद्यपि एकमेव निर्वैयक्तिक चेतना सर्वत्र और सबमें व्याप्त है और उसी एकमेव चेतना में सब, लेकिन स्व-प्रतिमा बनने के बाद यही निर्वैयक्तिक चेतना स्मृति के अंतर्गत केवल त्रुटि से, और प्रमादवश व्यक्ति-विशेष की चेतना के रूप में ग्रहण कर ली जाती है। अर्थात् स्व-प्रतिमा से तदाकारिता (identification) हो जाती है।  यह इसलिए भी हो जाती है कि व्यावहारिक तल पर शरीर को ही 'स्व' अर्थात् 'मैं' कहा-समझा जाता है।

मनुष्य इस संबंध में विशिष्ट है कि जहाँ दूसरे जीव भाषा के अधिक विकसित न हो पाने केवल व्यवहार तक ही 'स्व' को शेष विश्व से भिन्न और पृथक समझते हैं और अपनी विशिष्टता को विचार-प्रक्रिया के माध्यम से सुदृढ़ता नहीं प्रदान करते, वहीँ मनुष्य भाषा के प्रयोग का असावधानी से विचार-प्रक्रिया के लिए सहारा लेता है और स्मृतियों को वैचारिक विन्यास प्रदान कर देता है। इसलिए मनुष्य 'स्व' का भी मूल्यांकन, निंदा, प्रशंसा, गर्व, युक्तिकरण (justification) व्याख्या आदि करता है।  यह विचार के साधन का दुरुपयोग है क्योंकि यह स्मृति-विभाजन के फलस्वरूप पैदा हुई स्व-प्रतिमा को दृढ़ता देता है।  यह स्मृति-विभाजन कृत्रिम / बनावटी और अस्वाभाविक होने से अस्थायी, अ-सतत, अनित्य होता है। इसलिए इस स्मृति-विभाजन के पूर्व की चेतना वह स्वाभाविक स्थिति है जिसमें निर्वैयक्तिक चेतना उसी प्रकार से अपना कार्य करती है जैसे शरीर का निर्माण करनेवाले मूल भौतिक द्रव्य अपनी भूमिका का स्वाभाविक निर्वाह करते हैं। जैसे उन द्रव्यों के जटिल रासायनिक रूप डी. एन. ए., क्रोमोसोम, जीन, हार्मोन, आदि सक्रिय और निष्क्रिय होते हैं और इसलिए समय आने पर वे शरीर को नष्ट भी करने लगते हैं। इसलिए किसी रोग का आक्रमण होने पर जहाँ रोग-प्रतिरोधक क्षमता अपनी सीमा तक उनका मुकाबला करती है, वहीँ वे ही द्रव्य शरीर में विभिन्न रोग उत्पन्न करते हैं या रोगों का प्रतिरोध करने में असमर्थ हो जाते हैं।  इतना ही नहीं वे स्वयं ही विभिन्न रोगों के लिए सहायक भी सिद्ध होते हैं।  यह तो 'स्व' ही है जो स्मृति-विभाजन से प्रेरित होकर इस प्राकृतिक गतिविधि को नियंत्रित करना चाहता है। इस दृष्टि से 'स्व' को 'अहं' / ego, जीव, आत्मा आदि के रूप में उसकी प्रतिमा बनाकर संसार से विच्छिन्न कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व समझ लिया जाता है।  संसार की सत्ता से भिन्न, श्रेष्ठतर या निकृष्टतर सत्ता की तरह ग्रहण की हुई यह 'स्व' की स्मृति और पुनः उसी स्मृति के आधार पर 'स्व' के स्वरुप का निर्धारण हास्यास्पद भूल है।

इसे इस सन्दर्भ से भी देखा जा सकता है :
सद्दर्शनं 

Verse 35.

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न वेद्म्यहं मामुत वेद्म्यहं मा-

मिति प्रवादो मनुजस्य हास्यः ।

दृग्दृश्यभेदात्किमयं द्विधात्मा

स्वात्मैकतायां हि धियां न भेदा ॥

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Verse 38.

सोऽहं विचारो वपुरात्मभावे

साहाय्यकारी परमार्गणस्य ।

स्वात्मैक्यसिद्धौ स पुनर्निरर्थो

यथा नरत्वप्रमितिर्नरस्य ॥

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स्व-प्रतिमा के सृजन के बाद, संसार और स्वयं के सहवर्ती (simultaneous occurrence) को स्वीकार करने के बाद, इस समूचे द्वैत-प्रपंच का नियंता कोई है यह भी एक स्वाभाविक निष्कर्ष होता है, जिसे 'ईश्वर' कहा जाता है,  जो न तो स्व जैसी चेतन लेकिन क्षुद्र वस्तु है न संसार जैसी जड (स्व-चेतनारहित) किंतु उन दोनों से बहुत श्रेष्ठ और जीव से बहुत अधिक चेतन सत्ता की तरह संसार की स्वामी और नियंता है।  जीव की बुद्धि यद्यपि चेतना की शक्ति से ही उत्पन्न होती है किंतु उससे प्राप्त होनेवाला 'ज्ञान' अत्यंत अल्पप्राय होता है और समस्त जीवों की समूची बुद्धि भी अंततः जीव-जगत के द्वैत के कारण को समझ नहीं पाती।  इसका सीधा और सरल, स्वाभाविक कारण तो यही है की वही सत्ता जिसे 'ईश्वर' कहा गया उस निर्वैयक्तिक चेतना के रूप में समस्त जीवों और जगत का एकमात्र आदि-कारण है। उपरोक्त श्लोक में उसी परम सत्ता को 'सः' अर्थात् 'वह' के सर्वनाम से इंगित किया गया है शास्त्रों के अनुसार "सोऽहं" 'अहं' और 'सः' की अनन्यता को जान लिए जाने पर अर्थात् वही एक असंख्य जीवों में 'मैं' की तरह प्रस्फुटित है इसे जान लेने से यह आभासी द्वैत-प्रपंच विलीन हो जाता है और जैसे जाली हुई रस्सी जलने के बाद यद्यपि राख के रूप में रस्सी जैसी दिखाई देती है लेकिन बांधने के लिए काम में नहीं आ सकती उसी प्रकार व्यवहार के रूप में यद्यपि द्वैत सत्य दिखाई देता है लेकिन वह मनुष्य के लिए बंधन नहीं होता।

'स्व' का भान सर्वप्रथम किसी देह में चेतनता व्यक्त होने पर ही प्रकट होता है, अर्थात् देह ही, 'मैं' की संसार-सहितप्रथम अभिव्यक्ति है, जो बाद में 'स्व' तथा 'संसार' में बँट जाती है।  इसी आधार पर शरीर को 'मैं' तथा शेष संसार को अपने से भिन्न समझा जाता है।  इस प्रकार 'मैं' विषयी (subject) और संसार विषय (object) है।  इन दोनों सत्ताओं के आभासी भेद का निराकरण ही अद्वैत-सत्य है।

चेतना का विषयी और विषय में विभाजन होने के बाद ही विषयी को ध्यान तथा विषय को ध्यान का दूसरा सिरा (ध्रुव) कहा जाता है।  इन्हीं का वर्गीकरण / वर्णन गीता अध्याय 13 में क्रमशः क्षेत्रज्ञ तथा क्षेत्र के नाम से किया गया है।                                           

  अध्याय 13, श्लोक 1,



श्रीभगवानुवाच :

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥

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(इदम् शरीरम् कौन्तेय क्षेत्रम् इति अभिधीयते ।

एतत् यः वेत्ति तम् प्राहुः क्षेत्रज्ञः इति तत्-विदः ॥)

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भावार्थ :

भगवान् श्रीकृष्ण बोले -

हे कौन्तेय (अर्जुन) ! इस पञ्चभौतिक शरीर को ’क्षेत्र’ कहा जाता है । और जो इस शरीर का जाननेवाला है, उसे तत्वविद् ’क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं ।

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पुनः इसी अध्याय के अगले श्लोक 2 में स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि प्रत्येक शरीर में उसे जाननवाला एक 'स्व' अर्थात् 'अहं' / 'मैं' होता है जबकि  इन समस्त 'स्व' को जाननेवाला उनका अधिष्ठान जो उन सबमें तथा जिसमें सब अंतर्भूत हैं वह 'मैं' परमात्मा हूँ :

अध्याय 13, श्लोक 2,



क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥

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(क्षेत्रज्ञम् च अपि माम् विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः ज्ञानम् यत् तत् ज्ञानम् मतं मम ॥)

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भावार्थ :

हे भारत (हे अर्जुन)! इन देहरूपी समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी तुम मुझको ही  जानो ।  इस प्रकार का क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, मेरे मत में वही ज्ञान (साङ्ख्य में वर्णित, तथा अन्यत्र कहा जानेवाला आत्म-ज्ञान और परम ज्ञान भी) है ।

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इस प्रकार से क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है।

मनुष्य के सन्दर्भ में यद्यपि प्रत्येक शरीर में उसका अभिमानी देवता जो उस शरीर के अपने होने का दावा करता है, जीव है किंतु यह जीव सीमित क्षमता और ज्ञान से युक्त है।

इसे ही ध्यान के सन्दर्भ में कहें तो चेतना अवधान है जिसका विभाजन विषयी-विषय में ध्यान के रूप में व्यक्त होता है।

इस तरह चेतना का एक अर्थ है अवधान तथा दूसरा है ध्यान।  व्यावहारिक रूप में दोनों को ही चेतना कहा जाता है। ध्यान के किसी शरीर में व्यक्त-रूप लेने तथा इन्द्रियों से उसका संपर्क विषयों से होने पर विषयी का विषय से वैसा ही तादात्म्य प्रतीत होता है जैसे किसी पुष्प पर स्फटिक रखने पर स्फटिक पुष्प के रंग का प्रतीत होता है।  इस प्रकार इस तादात्म्य का अस्तित्व अनित्य है किन्तु बुद्धि में इसे स्मृति के माध्यम से नित्य समझ लिया जाता है। इसलिए शुद्ध चेतना को पहले 'अहं' तथा बाद में 'अहं' तथा 'इदं' इन रूपों में ग्रहण कर लिया जाता है। जीव-दृष्टि से यद्यपि असंख्य जीव हैं किंतु व्यक्ति की दृष्टि से प्रत्येक का अपना 'अहं' उसके शरीर तथा शरीर से जुड़ी संवेदनाओं, अनुभूतियों, ज्ञान, स्मृति आदि से संबद्ध होने से वह क्षेत्रज्ञ भी है। पुनः यही क्षेत्रज्ञ सबमें विद्यमान सर्वनिष्ठ परमात्मा भी है। संसार विषय (object) है और 'मैं' विषयी (subject) इसलिए 'ध्यान'  में विभाजन और विषय से तादात्म्य होना स्वाभाविक है।  किन्तु विषयों की अनेकता और विषयी का एकमेव होना यही सिद्ध करता है कि चेतना / अवधान नित्य एकरस है।

विषय-विषयी का यह विभाजन कृत्रिम है और निद्रा में विलुप्त हो जाता है।  पुनः जागृति में यह तब विलीन हो जाता है जब किसी वृत्ति या विकल्प / विचार आदि से तादात्म्य हो जाता है या कर लिया जाता है।  जैसे किसी गीत को सुनते हुए उसमें पूरी तरह इस प्रकार डूब जाना की अन्य बातों की और से ध्यान हट जाए।

इस प्रकार का तादात्म्य तात्कालिक रूप से सुखप्रद प्रतीत होता हो, स्थायी न होने से कुछ समय बाद स्वयं ही भंग भी हो ही जाता है।  तब किसी नए विषय, विकल्प या वृत्ति की ओर ध्यान आकर्षित होता है और स्वेच्छया या बाध्यता से उस पर एकाग्र होकर कुछ समय बाद उसे भी त्याग देता है।

यह तादात्म्य स्वाभाविक भी हो सकता है या स्मृति-सातत्य से पैदा हुई रूचि के कारण भी उत्पन्न हो जाता है।  जैसे निद्रा आने के समय निद्रा-वृत्ति से तादात्म्य होना, आकस्मिक संकट आने पर भय की भावना से तादात्म्य हो जाना, किसी सुखद विषय के सामने आने पर उस विषय का आकर्षण होना, किसी अप्रिय वस्तु के सामने होने पर उससे घृणा, द्वेष आदि की भावना उठना आदि।

सभी स्थितियाँ स्मृति-सातत्य से जुडी होने पर समस्या बन जाती हैं।  किन्तु स्मृति को न तो मिटाना ज़रूरी है और न उसे सत्यता दिया जाना।  यदि स्मृति से उत्पन्न सातत्य को संसार के यथार्थ सत्य से विचलन की तरह देखा जा सके तो स्मृतियों का सर्वाधिक बेहतर उपयोग भी किया जा सकता है।

स्मृति-विभाजन और संसार का सातत्य परस्पर एक-दूसरे के कारण और कार्य हैं।

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ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
गीता : अध्याय 2 श्लोक 62
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