Friday, 28 December 2018

सांख्ययोगौ


गीता अध्याय 5, श्लोक 4 :
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।
अर्थ :
पंडित नहीं, केवल बाल-बुद्धि अर्थात् अविकसित बुद्धि वाले ही कहते हैं कि (कपिलमुनि द्वारा प्रतिपादित) सांख्य दर्शन और (पतञ्जलि मुनि द्वारा प्रतिपादित) योग दर्शन दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं।  (जबकि सत्य यह है कि) एक में भी सम्यक् रीति से स्थित हुआ दोनों के ही (एक ही) फल को प्राप्त कर लेता है।
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वर्तमान समय में 'योग' को अनेक प्रकार से परिभाषित और व्याख्यायित करने के प्रयास व्यापक हैं।
पतञ्जलि के योग दर्शन के प्राचीन प्रकारांतर गोरक्षनाथ कृत हठयोग-प्रदीपिका या घेरण्ड-संहिता में के रूप में तो पाए जाते ही हैं।
दर्शन का सीधा तात्पर्य है अपरोक्ष अनुभूति से प्राप्त ज्ञान (non-mediate knowledge)।
ज्ञाता जब तक किसी ज्ञान के माध्यम से किसी विषय को जानता है तो ऐसा ज्ञान परोक्ष-ज्ञान होता है और ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय की त्रिपुटी से युक्त होता है।  अपरोक्ष अनुभूति से प्राप्त ज्ञान के अनुभव में ऐसी त्रिपुटी नहीं होती। किंतु इस प्रकार की अपरोक्ष अनुभूति भी दो प्रकार की होती है।  एक वह, जब ज्ञाता ध्यान के सम्यक् प्रयोग से किसी विषय-विशेष से पूर्ण तादात्म्य कर लेता है और ऐसी सविकल्प समाधि के अनुभव के बाद पुनः उसी या किसी दूसरे विषय को अपने से भिन्न की तरह पाता है। दूसरी ओर जब ध्यानकर्ता अस्मिता (वृत्ति, प्रत्यय या संकल्प) अर्थात् 'अहं-ग्रंथि' को ही ध्यान के विषय के रूप में ग्रहण कर उससे पूर्ण तादात्म्य क्या है इस अनुभव को जान लेता है तो भी वह उस अनुभव के गुज़र जाने के बाद पुनः किसी अन्य विषय से संपर्क में आने से अपने को विषयी की तरह विषय से भिन्न पाता है। किंतु इसके पश्चात् जब ध्यानकर्ता चेतना को ही ध्यान के विषय के रूप में ग्रहण कर लेता है तो किसी भी त्रिपुटी से रहित 'प्रज्ञानं ब्रह्म' को जानकर जिस फल को पाता उसे ही उपरोक्त दो दर्शनों में 'फल' कहा गया है।
योग की किसी भी प्रकार की व्याख्या और प्रयोग का अपना महत्व तो है ही किंतु दर्शन और दर्शनशास्त्र में बुनियादी भेद यह है कि दर्शन प्रत्यभिज्ञा है जबकि दर्शनशास्त्र विचार की भेड़चाल तक बंधा रह जाता है।
हिंदी में प्रयुक्त 'भेड़' संस्कृत 'एड' का अपभ्रंश है जो अंग्रेज़ी में Aries के रूप में मेष राशि का द्योतक है। इससे ही बना 'एड़ी' जिसे घोड़े को 'एड़' लगाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है।
दूसरी ओर मृग नक्षत्र को Orien / Odean / Hunter के रूप में चित्रित किया जाता है, जो व्याध (शिकारी) Archer की तरह धनुष-बाण को किसी लक्ष्य पर संधान करने की चेष्टा कर रहा है।
J.Krishnamurti : "Observer is the observed"
का उल्लेख यहाँ उपयोगी होगा।
वेदान्त दर्शन में इसी बुनियादी सन्दर्भ में दृक्-दृश्य विवेक को महत्व दिया गया है।
'विचार' (Thought) के सक्रिय होते ही अस्तित्वमात्र दृक्-दृश्य में विभाजित हुआ प्रतीत होने लगता है और यह दृश्याभास अवश्य ही किसी चेतना में घटित होता है जिसमें दृक्-दृश्य एक ही समय में एक साथ उठते और विलीन होते हैं। इस विभाजन में ही कल्पित दृष्टा भी अस्तित्व ग्रहण कर लेता है और 'विचार' के माध्यम से दृक्-दृश्य के द्वैत को सत्यता दी जाती है। इस प्रकार से, 'विचार' के अभाव में ऐसे किसी द्वैत का अस्तित्व ही संदिग्ध है।  तात्पर्य यह कि एक ही सत्ता दृक्-दृश्य विभाजन में द्वैत की तरह बँटी हुई मान ली जाती है।
इसे ही "ज्ञान में ज्ञाता ही जाना जाता है" अर्थात् ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञाता का विभाजन दो स्तरों पर होता है :
प्रथम है परोक्ष-ज्ञान के रूप में जहाँ विषय, विषयी और ज्ञान तीन पृथक सत्ताएँ (entities / realities) हैं। 
दूसरा है अपरोक्ष-ज्ञान जहाँ ये तीनों एकमेव वास्तविकता (unique Reality) हैं। किंतु ज्ञान का अर्थ है चेतना / consciousness, जो एक जीवन्त तत्व (living-element) होने से अनिर्वचनीय स्वरूप का है, जबकि ज्ञेय (object) और ज्ञाता (subject) क्रमशः दृश्य और दृक् हैं। 'विचार ही वह आभासी शीशे की पारदर्शक दीवार है जो स्वयं अदृश्य होते हुए भी दृक्-दृश्य-दर्शन को संभव बनाती है।
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