सनातन धर्म में नारी
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सोचता हूँ कि इसे लिख ही डालूँ , पता नहीं बाद में लिखना याद रहे न रहे !
सनातन धर्म एक स्वाभाविक जीवन-शैली है जिसमें बहुत कठोर नियम और अनुशासन नहीं हैं जिन्हें पालन करना किसी किसी के लिए ही संभव हो।
एक प्रकार से यह सहज विवेक से पैदा हुई समझ है जो परंपरा से, कुल से, वंश से प्राप्त होती है न कि समाज से।
आज की शिक्षा जो मुख्यतः किताबी है, इस धारणा पर आधारित है कि ज्ञान लिखने-पढ़ने से प्राप्त होता है।
भाषा-ज्ञान अवश्य लिखने-पढ़ने से और बातचीत से संबंधित है किंतु जीवन क्या है इसका ज्ञान तो प्रकृति के सान्निध्य में ही होता है। प्रकृति न सिर्फ बाह्य (outer / objective) बल्कि आंतरिक (inner / subjective) इन दो रूपों में है इसे जान लेने के बाद ही इन दोनों का सामञ्जस्य जीवन का वास्तविक ज्ञान है।
आज की शिक्षा में जहाँ co-education या सह-शिक्षा शिक्षा का एक प्रचलित प्रकार है, मनुष्य की प्रकृति के इन दो व्यावहारिक तथ्यों पर शायद ही कभी कोई ध्यान दिया जाता हो, पता नहीं कि किसी ने शायद ही इस आधार पर शिक्षा के बारे में विचार किया होगा।
स्पष्ट है कि मनुष्य होने के नाते और फिर स्त्री या पुरुष होने के नाते हर स्त्री या पुरुष की अन्तःप्रकृति और बाह्यप्रकृति भी किसी दूसरे से भिन्न होती है। इसलिए 'सीखना' / शिक्षा पाना, स्त्रियों के लिए और पुरुषों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से होनेवाली गतिविधि है। जीवन इतना विविधतापूर्ण, विराट, व्यापक, विशाल है कि यद्यपि हर मनुष्य अपने आपमें अनूठा (unique) होता है और मोटे तौर पर स्त्री और पुरुष का वर्गीकरण करना उपयोगी और आवश्यक भी है, किंतु वैसा वर्गीकरण सतही ही होता है। इसलिए शिक्षा का प्रकार न सिर्फ किन्हीं भी दो व्यक्तियों के लिए बहुत अलग-अलग हो सकता है बल्कि दो पुरुषों या दो स्त्रियों में भी यह बहुत भिन्न हो सकता है।
किसे किसी विशेष कार्य (work) / कौशल (skill) की शिक्षा लेना चाहिए यह उसे स्वयं ही खोजना और तय करना चाहिए लेकिन कोई न्यूनतम मौलिक शिक्षा तो सभी के लिए आवश्यक है, ताकि वह जीवन और समाज से सामञ्जस्य के साथ आगे बढ़ सके।
सनातन धर्म में वास्तव में सभी को वही शिक्षा दी जाती थी / है, जिसका उसे निरंतर उपयोग हो।
इसलिए ऐसी शिक्षा का आधार नारी-प्रकृति और पुरुष-स्वभाव की भिन्नता ही हो सकता है।
नारी प्रकृति है इसलिए वह अंतःप्रेरणा से परिचालित होती है, उसकी प्रेरणा उसे स्वयं ही से मिलती है और परिवेश या परिस्थितियों से वह प्रेरणा प्रभावित होकर नारी को जीवन का ज्ञान सिखाती है। दूसरी ओर, पुरुष किसी बाह्य चुनौती से प्रेरणा पाता है और उस चुनौती से निर्देशित अपने स्वभाव के अनुसार सीखता है।
यह बुनियादी भेद दोनों के बीच होता है।
आज की शिक्षा में सभी को स्पर्धा करने के लिए प्रेरित किया जाता है। स्पर्धा पुरुष-मानसिकता के लिए उपयोगी हो सकती है जबकि स्त्री के लिए उसके स्वाभाविक विकास में अवरोध भी हो सकती है। दीर्घकाल में इसका परिणाम यह होता है कि दुनिया में यद्यपि कोई सफलता के झंडे गाड़ सकता है, किंतु अन्ततः उसे यह अनुभव होता है कि जीवन में कुछ छूट गया जिससे जीवन में सार्थकता और संतोष मिलता।
इस सार्थकता और संतोष का एक पड़ाव है वह आयु जब व्यक्ति अपना परिवार बनाता है। यदि परिवार नहीं तो जीवन में सार्थकता और संतोष नहीं हो सकता क्योंकि परिवार ही तो सृष्टि की बुनियादी इकाई है। और परिवार का आधार है विवाह। सनातन-धर्म में विवाह की अवधारणा में काम-तुष्टि का स्थान अत्यंत गौण है जबकि वंश और कुल (अर्थात् वर्ण) को शुद्ध रखना प्रमुख है।
स्त्री परिवार का केंद्र है और परिवार में ही सुरक्षित हो सकती है।
संभवतः स्त्री साध्वी और वैराग्यसंपन्न हो तो भी परिवार में ही उसे सुरक्षा मिल सकती है। इस प्रकार परिवार की इकाई से बना समाज भी सबके लिए सुख का आधार हो सकता है।
किंतु यदि स्त्री को पैसा कमाना पड़े तो वह सबका दुर्भाग्य है। इसलिए स्त्री को बाज़ार से दूर रहना चाहिए (न कि रखा जाना चाहिए) गीता के प्रथम अध्याय में ही अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से प्रश्न करते हैं कि यदि युद्ध होगा तो अनेक पुरुष मारे जाएँगे और कुलधर्म भी विनष्ट हो जाएगा। तब उनकी स्त्रियाँ प्रदूषित हो जाएँगी (क्योंकि स्त्री प्रकृति होने से पुरुष से दुर्बल है और पुरुष स्वभाव से ही आक्रामक स्वभाव का है, इसलिए स्त्रियाँ आततायी पुरुषों से अपनी रक्षा न कर सकेंगीं। तब वर्णों की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाने से पूरा समाज ही विश्रंखलित हो जाएगा।)
सिद्धांततः तो अर्जुन का तर्क वज़नदार है लेकिन हर मनुष्य का आचरण उसकी प्रकृति या स्वभाव से प्रेरित होता है इसलिए महाभारत का युद्ध अवश्यम्भावी था। इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य के द्वारा किए जानेवाले मनुष्य से होने वाले कर्मों के क्रमशः पाँच कारण अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टाएँ तथा दैव होते हैं इसलिए अपने-आपको ही एकमात्र कर्ता मान लेना भूल है। गीता के अध्याय 18 के श्लोक 59 में 'प्रकृतिः त्वां नियोक्ष्यति' तथा श्लोक 60 में
'स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।'
के द्वारा यही दर्शाया गया है कि मनुष्य अपनी प्रकृति / स्वभाव को जानकर विहित कर्म को ही करने का यत्न करे और निषिद्ध कर्म करने से बचे। इसका सीधा अर्थ यह है कि अपने विवेक से ही मनुष्य (स्त्री हो या पुरुष) इस प्रकार अपने स्वाभाविक धर्म का पालन करे।
स्त्रियों के लिए स्वाभाविक धर्म है पतिव्रता होना। यह स्त्रियों के लिए वेदों द्वारा दी गयी यह न्यूनतम आवश्यक शिक्षा है। वहीँ किसी परंपरा या दैववश उसके एक से अधिक पति हों (जैसे द्रौपदी के थे) तो भी उसका धर्म नष्ट नहीं होता। इसी प्रकार पुरुष यद्यपि एक से अधिक विवाह कर सकता है तो भी यदि वह भोग-बुद्धि से प्रेरित होने से नहीं बल्कि केवल वंश को बढ़ाने के लिए ऐसा करता है तो यह अधर्म नहीं है। पुरुष के लिए एक से अधिक विवाह करना क्षत्रिय के लिए स्वाभाविक है क्योंकि उसे युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। युद्ध केवल दूसरों पर आक्रमण करने के लिए ही ज़रूरी नहीं होते बल्कि अपने राज्य और प्रजा की शत्रुओं से रक्षा करने के लिए भी ज़रूरी होते हैं। यदि क्षत्रिय युद्ध न करें तो भी आखेट के द्वारा वे युद्धाभ्यास तो कर ही सकते हैं, किंतु ऐसा करने के लिए वे बाध्य हैं यह समझना गलत होगा। इस प्रकार की अपने-अपने वर्ण-आश्रम द्वारा 'प्राप्त' गुण-कर्म के निर्वाह से समस्त चातुर्वर्ण समान रूप से जीवन के परम श्रेयस् को अनायास ही पा लेता है।
यह है 'शिक्षा।
गीता अध्याय 18 में श्लोक 42 से 46 तक इसे ही स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य के गुण तथा कर्म से ही उसका 'वर्ण' निर्धारित होता है, (न कि वर्ण से 'जाति' और व्यवसाय), 'जाति' तो उसके जन्म से उसे 'प्राप्त' होती है और वह उसके गुण-कर्म का प्राथमिक संकेतक है। तात्पर्य यह कि किसी भी मनुष्य का वर्ण उसके गुणों तथा कर्मों से, उसकी प्रकृति या स्वभाव से तय होता है।
इसलिए सनातन धर्म में औपचारिक शिक्षा (लिखना-पढ़ना) ब्राह्मणों के लिए ही आवश्यक था / है।
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यह हमारी पाश्चात्य शिक्षा का ही कमाल है कि 'प्रगतिशीलता' और 'स्त्री-पुरुष समानता' / 'स्त्री-स्वातंत्र्य' के नाम पर हम अनजाने ही उन मूल्यों महत्वपूर्ण समझ बैठे हैं जो हमारे सम्पूर्ण समाज को निरंतर नष्ट कर रहे हैं।
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सोचता हूँ कि इसे लिख ही डालूँ , पता नहीं बाद में लिखना याद रहे न रहे !
सनातन धर्म एक स्वाभाविक जीवन-शैली है जिसमें बहुत कठोर नियम और अनुशासन नहीं हैं जिन्हें पालन करना किसी किसी के लिए ही संभव हो।
एक प्रकार से यह सहज विवेक से पैदा हुई समझ है जो परंपरा से, कुल से, वंश से प्राप्त होती है न कि समाज से।
आज की शिक्षा जो मुख्यतः किताबी है, इस धारणा पर आधारित है कि ज्ञान लिखने-पढ़ने से प्राप्त होता है।
भाषा-ज्ञान अवश्य लिखने-पढ़ने से और बातचीत से संबंधित है किंतु जीवन क्या है इसका ज्ञान तो प्रकृति के सान्निध्य में ही होता है। प्रकृति न सिर्फ बाह्य (outer / objective) बल्कि आंतरिक (inner / subjective) इन दो रूपों में है इसे जान लेने के बाद ही इन दोनों का सामञ्जस्य जीवन का वास्तविक ज्ञान है।
आज की शिक्षा में जहाँ co-education या सह-शिक्षा शिक्षा का एक प्रचलित प्रकार है, मनुष्य की प्रकृति के इन दो व्यावहारिक तथ्यों पर शायद ही कभी कोई ध्यान दिया जाता हो, पता नहीं कि किसी ने शायद ही इस आधार पर शिक्षा के बारे में विचार किया होगा।
स्पष्ट है कि मनुष्य होने के नाते और फिर स्त्री या पुरुष होने के नाते हर स्त्री या पुरुष की अन्तःप्रकृति और बाह्यप्रकृति भी किसी दूसरे से भिन्न होती है। इसलिए 'सीखना' / शिक्षा पाना, स्त्रियों के लिए और पुरुषों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से होनेवाली गतिविधि है। जीवन इतना विविधतापूर्ण, विराट, व्यापक, विशाल है कि यद्यपि हर मनुष्य अपने आपमें अनूठा (unique) होता है और मोटे तौर पर स्त्री और पुरुष का वर्गीकरण करना उपयोगी और आवश्यक भी है, किंतु वैसा वर्गीकरण सतही ही होता है। इसलिए शिक्षा का प्रकार न सिर्फ किन्हीं भी दो व्यक्तियों के लिए बहुत अलग-अलग हो सकता है बल्कि दो पुरुषों या दो स्त्रियों में भी यह बहुत भिन्न हो सकता है।
किसे किसी विशेष कार्य (work) / कौशल (skill) की शिक्षा लेना चाहिए यह उसे स्वयं ही खोजना और तय करना चाहिए लेकिन कोई न्यूनतम मौलिक शिक्षा तो सभी के लिए आवश्यक है, ताकि वह जीवन और समाज से सामञ्जस्य के साथ आगे बढ़ सके।
सनातन धर्म में वास्तव में सभी को वही शिक्षा दी जाती थी / है, जिसका उसे निरंतर उपयोग हो।
इसलिए ऐसी शिक्षा का आधार नारी-प्रकृति और पुरुष-स्वभाव की भिन्नता ही हो सकता है।
नारी प्रकृति है इसलिए वह अंतःप्रेरणा से परिचालित होती है, उसकी प्रेरणा उसे स्वयं ही से मिलती है और परिवेश या परिस्थितियों से वह प्रेरणा प्रभावित होकर नारी को जीवन का ज्ञान सिखाती है। दूसरी ओर, पुरुष किसी बाह्य चुनौती से प्रेरणा पाता है और उस चुनौती से निर्देशित अपने स्वभाव के अनुसार सीखता है।
यह बुनियादी भेद दोनों के बीच होता है।
आज की शिक्षा में सभी को स्पर्धा करने के लिए प्रेरित किया जाता है। स्पर्धा पुरुष-मानसिकता के लिए उपयोगी हो सकती है जबकि स्त्री के लिए उसके स्वाभाविक विकास में अवरोध भी हो सकती है। दीर्घकाल में इसका परिणाम यह होता है कि दुनिया में यद्यपि कोई सफलता के झंडे गाड़ सकता है, किंतु अन्ततः उसे यह अनुभव होता है कि जीवन में कुछ छूट गया जिससे जीवन में सार्थकता और संतोष मिलता।
इस सार्थकता और संतोष का एक पड़ाव है वह आयु जब व्यक्ति अपना परिवार बनाता है। यदि परिवार नहीं तो जीवन में सार्थकता और संतोष नहीं हो सकता क्योंकि परिवार ही तो सृष्टि की बुनियादी इकाई है। और परिवार का आधार है विवाह। सनातन-धर्म में विवाह की अवधारणा में काम-तुष्टि का स्थान अत्यंत गौण है जबकि वंश और कुल (अर्थात् वर्ण) को शुद्ध रखना प्रमुख है।
स्त्री परिवार का केंद्र है और परिवार में ही सुरक्षित हो सकती है।
संभवतः स्त्री साध्वी और वैराग्यसंपन्न हो तो भी परिवार में ही उसे सुरक्षा मिल सकती है। इस प्रकार परिवार की इकाई से बना समाज भी सबके लिए सुख का आधार हो सकता है।
किंतु यदि स्त्री को पैसा कमाना पड़े तो वह सबका दुर्भाग्य है। इसलिए स्त्री को बाज़ार से दूर रहना चाहिए (न कि रखा जाना चाहिए) गीता के प्रथम अध्याय में ही अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से प्रश्न करते हैं कि यदि युद्ध होगा तो अनेक पुरुष मारे जाएँगे और कुलधर्म भी विनष्ट हो जाएगा। तब उनकी स्त्रियाँ प्रदूषित हो जाएँगी (क्योंकि स्त्री प्रकृति होने से पुरुष से दुर्बल है और पुरुष स्वभाव से ही आक्रामक स्वभाव का है, इसलिए स्त्रियाँ आततायी पुरुषों से अपनी रक्षा न कर सकेंगीं। तब वर्णों की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाने से पूरा समाज ही विश्रंखलित हो जाएगा।)
सिद्धांततः तो अर्जुन का तर्क वज़नदार है लेकिन हर मनुष्य का आचरण उसकी प्रकृति या स्वभाव से प्रेरित होता है इसलिए महाभारत का युद्ध अवश्यम्भावी था। इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य के द्वारा किए जानेवाले मनुष्य से होने वाले कर्मों के क्रमशः पाँच कारण अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टाएँ तथा दैव होते हैं इसलिए अपने-आपको ही एकमात्र कर्ता मान लेना भूल है। गीता के अध्याय 18 के श्लोक 59 में 'प्रकृतिः त्वां नियोक्ष्यति' तथा श्लोक 60 में
'स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।'
के द्वारा यही दर्शाया गया है कि मनुष्य अपनी प्रकृति / स्वभाव को जानकर विहित कर्म को ही करने का यत्न करे और निषिद्ध कर्म करने से बचे। इसका सीधा अर्थ यह है कि अपने विवेक से ही मनुष्य (स्त्री हो या पुरुष) इस प्रकार अपने स्वाभाविक धर्म का पालन करे।
स्त्रियों के लिए स्वाभाविक धर्म है पतिव्रता होना। यह स्त्रियों के लिए वेदों द्वारा दी गयी यह न्यूनतम आवश्यक शिक्षा है। वहीँ किसी परंपरा या दैववश उसके एक से अधिक पति हों (जैसे द्रौपदी के थे) तो भी उसका धर्म नष्ट नहीं होता। इसी प्रकार पुरुष यद्यपि एक से अधिक विवाह कर सकता है तो भी यदि वह भोग-बुद्धि से प्रेरित होने से नहीं बल्कि केवल वंश को बढ़ाने के लिए ऐसा करता है तो यह अधर्म नहीं है। पुरुष के लिए एक से अधिक विवाह करना क्षत्रिय के लिए स्वाभाविक है क्योंकि उसे युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। युद्ध केवल दूसरों पर आक्रमण करने के लिए ही ज़रूरी नहीं होते बल्कि अपने राज्य और प्रजा की शत्रुओं से रक्षा करने के लिए भी ज़रूरी होते हैं। यदि क्षत्रिय युद्ध न करें तो भी आखेट के द्वारा वे युद्धाभ्यास तो कर ही सकते हैं, किंतु ऐसा करने के लिए वे बाध्य हैं यह समझना गलत होगा। इस प्रकार की अपने-अपने वर्ण-आश्रम द्वारा 'प्राप्त' गुण-कर्म के निर्वाह से समस्त चातुर्वर्ण समान रूप से जीवन के परम श्रेयस् को अनायास ही पा लेता है।
यह है 'शिक्षा।
गीता अध्याय 18 में श्लोक 42 से 46 तक इसे ही स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य के गुण तथा कर्म से ही उसका 'वर्ण' निर्धारित होता है, (न कि वर्ण से 'जाति' और व्यवसाय), 'जाति' तो उसके जन्म से उसे 'प्राप्त' होती है और वह उसके गुण-कर्म का प्राथमिक संकेतक है। तात्पर्य यह कि किसी भी मनुष्य का वर्ण उसके गुणों तथा कर्मों से, उसकी प्रकृति या स्वभाव से तय होता है।
इसलिए सनातन धर्म में औपचारिक शिक्षा (लिखना-पढ़ना) ब्राह्मणों के लिए ही आवश्यक था / है।
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यह हमारी पाश्चात्य शिक्षा का ही कमाल है कि 'प्रगतिशीलता' और 'स्त्री-पुरुष समानता' / 'स्त्री-स्वातंत्र्य' के नाम पर हम अनजाने ही उन मूल्यों महत्वपूर्ण समझ बैठे हैं जो हमारे सम्पूर्ण समाज को निरंतर नष्ट कर रहे हैं।
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