अष्टावक्र-गीता और पातञ्जल योग-सूत्र
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विषय-विषयी चेतना और निर्विषय चेतना
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उपरोक्त दोनों ग्रंथों में आरंभ में ही ग्रन्थ की विषय-वस्तु क्या है इसे स्पष्ट कर दिया गया है।
अष्टावक्र-गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में :
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयातोष सत्यं पियूषवद्भज।।1
"हे तात ! यदि तुम्हें मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विष की तरह त्याग दो।
क्षमा, आर्जव (ऋजुता / सरलता), दया, संतोष एवं सत्य का सेवन उन्हें अमृत समझकर करो।
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तथा पातञ्जल योग-सूत्र के प्रथम अध्याय में :
अथ योगअनुशासनम्।। 1
"अब योग की प्रणाली का वर्णन किया जाता है।"
योगश्चित्तवृत्ति निरोधः।।2
"योग है चित्त की वृत्ति का निरोध।
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अष्टावक्र-गीता के उपरोक्त श्लोक में विषयों का त्याग करने के लिए कहा गया है।
यह त्याग दो प्रकार से होता है :
पहला है; केवल विषयों को इन्द्रियों से दूर रखना, जो बाध्यतावश या हठपूर्वक किया जाता है।
जैसे परिस्थितियों के कारण या मन को बहला-फुसलाकर किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लोभ से या भय से संयम में रखना।
दूसरा है विषयों से राग-विराग से भिन्न वैराग्य-बुद्धि उत्पन्न हो जाने से मन का उनकी ओर आकर्षण न होना।
पहली स्थिति के बारे में गीता अध्याय 3 श्लोक ६ में कहा गया है :
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।
दूसरी स्थिति तब हो सकती है जब इन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले भोगों में रस अनुभव न होने से उन भोगों से सुख-प्राप्ति की आशा ही मन में पैदा नहीं होने से मन उनसे निवृत्त हो जाता है।
इस स्थिति के बारे में गीता अध्याय 2 श्लोक 59 में कहा गया है :
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
किन्तु इन दोनों के बीच एक स्थिति वह होती है जब विषय-भोगों की व्यर्थता और उनके विषस्वरूप होने का अनुमान हो जाने के बाद भी परतत्व / परब्रह्म को न देख पाने से विषय-भोगों के आकर्षण से बच पाना कठिन होता है।
ऐसी स्थिति में केवल विवेकपूर्वक ही मनुष्य को इन्द्रियों को संयमित करने का अभ्यास करना होता है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 60 में कहा गया है :
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।
"इस प्रकार मोक्ष का साधन करते हुए विवेकी मनुष्य के मन को भी इन्द्रियाँ विषयों के आकर्षण में बाँध कर हठपूर्वक हर लेती हैं," ... इसलिए :
इसी अध्याय 2 के अगले श्लोक 61 में कहा गया है :
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
"जो मुझमें / मेरे परायण हुआ उन सब इन्द्रियों को नियंत्रण में रखता है उसकी प्रज्ञा सुस्थिर हो जाती है।"
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विषय-मात्र जड है, जबकि विषयों का या भोगों का भोग या त्याग करनेवाला चेतन है और स्वयं भोग अथवा त्याग यहाँ तक कि भोग या त्याग का अनुभव जड या चेतन से विलक्षण केवल मिथ्या की कोटि की वस्तु है।
जिसका नाम है लेकिन जिस वस्तु का नाम है उसका रूप नहीं है। इसलिए वह मिथ्या / आभास मात्र है।
विषय जड और विषयी चेतन है जिसमें सभी आने-जानेवाले विषय प्रतीत होते हैं। इस प्रकार चेतन जो उनका आश्रय है वस्तुतः अविकारी (परिवर्तनरहित) आधार है, जबकि विषय सतत परिवर्तनशील अर्थात् विकारशील / विकारी हैं।
यह चेतन आधार मूलतः निर्विषय होने से ही विभिन्न विषय उसमें आते जाते रहते हैं चाहे वे स्थूल जैसे भौतिक पदार्थ हों, या सूक्ष्म जैसे बुद्धि, भावना, विचार, स्मृति, आवेग आदि हों. इन्हें एक सूत्र में में बाँधनेवाला यदि कुछ / कोई है तो वह एकमात्र वस्तु है विषयी। इस प्रकार विषयी एक दृष्टि से तो केवल अविकारी चेतन है, दूसरी ओर एक सूक्ष्म अभिमानी विचार जो 'मैं' शब्द से जुड़कर उन से भिन्न प्रतीत होनेवाला अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित कर लेता है। अन्य विचारों की भाँति यह विचार भी अस्थायी स्थिति है किन्तु स्मृति-सातत्य से इसे स्थायी समझ लिया जाता है। इस प्रकार विषयी जो अविकारी चेतन है इस 'मैं' के रूप में व्यक्ति-भाव ग्रहण कर लेता है। अध्याय 2 के श्लोक 61 में 'मत्परः' का तात्पर्य ध्यानपूर्वक समझना आवश्यक है।
'परः' का अर्थ है 'परायण', 'मत्' का संबंध 'मत्य' से है, 'मत्' पुनः 'अस्मत्' वाचक सर्वनाम 'मैं / हम दोनों / हम' - अहं -आवाम्- वयम्' है, जो अंग्रेज़ी में I -एकवचन तथा we बहुवचन का जनक है ।
'अस्' और 'मत्' शुद्ध चेतना के लक्षण अर्थात् द्योतक हैं। 'अस्मि' इसी का व्यावहारिक रूप में प्रयोग में लाया जानेवाला शाब्दिक रूप है। यही अंग्रेज़ी में 'I am' का जनक है। इसी प्रकार 'युज्' और 'मत्' मिलकर 'युष्मत्' (त्वं you) वाचक सर्वनाम है जो 'you' का जनक है, जबकि त्वं 'Thou' और 'Thy' का जनक है।
तत् इसी प्रकार 'that' का जनक है। यह सब समझना इतना सरल है लेकिन आज के 'स्थापित' भाषाविदों ने संस्कृत के अध्ययन और शोध के बहाने इन तथ्यों को इतना विरूपित कर दिया कि इस स्वाभाविक सज्ञता (cognizance) की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। वैसे यहाँ भाषाशास्त्र के बारे में कोई अध्ययन प्रस्तुत करना अप्रासंगिक जान पड़ता है।
अब हम 'मत्पर', संबंधवाची 'युज्पर' तथा अन्य-पुरुषवाची 'तत्पर' के तीन तात्पर्यों के माध्यम से क्रमशः उत्तम पुरुषवाची एकवचन सर्वनाम 'अहं' से 'अध्यात्म' अर्थात् 'विषयी', युष्मत् (तुम) अर्थात् मध्यम पुरुषवाची एकवचन सर्वनाम 'त्वं' से 'विषयों' से 'विषयी' को संबंधित करनेवाले संवेदनों (perceptions) का, तथा 'तद्' / 'तत्य' - अर्थात अन्य पुरुषवाची एकवचन सर्वनाम से जड विषयों का तात्पर्य ग्रहण करें तो 'विषयी का स्वरुप क्या हो सकता है यह अनायास स्पष्ट हो जाता है। यद्यपि विषयी को 'मैं' से व्यक्त किया जाना व्यावहारिक बाध्यता है किंतु वस्तुतः 'विषयी' न तो किसी नाम या रूप से युक्त है और न इन्द्रियों, मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, अनुभव आदि से अवगम्य / अवगत की जा सकने वाली कोई सत्ता है, जबकि यही 'तुम' तथा 'वह' का एकमात्र उनसे स्वतंत्र अधिष्ठान भी है। इस प्रकार 'मत्परः' का तात्पर्य हुआ 'विषयों' से या 'विषयों' के इन्द्रियों, मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, अनुभव आदि से प्रतीत होनेवाले समस्त तत्वों से तदाकारिता (identification) का अंत होकर 'मैं'(के संकल्प) से रहित चेतन-मात्र में सुस्थिर होना।
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तद्युष्मदोः अस्मदि संप्रतिष्ठा
तस्मिन् विनष्टे अस्मदि मूलबोधात्।
तद्युष्मदस्मिन्मति वर्जितैका
स्थितिर्ज्वलन्ती सहजात्मनः स्यात्।।
(सद्दर्शनं श्लोक 16)
The notions 'He' and 'Thou' are bound with 'I',
But in the Realized root of 'I' vanishes the 'I',
Thus The inborn luminous state of Self, the Real 'I',
Is free of the notions 'He', 'Thou' and 'I'.
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'वह' 'तुम' तथा 'मैं' की धारणा का आधार 'मैं' की कल्पना है।
इस 'मैं' की कल्पना के मूल के बोध से इस 'मैं' की कल्पना का निवारण हो जाता है।
इस प्रकार 'वह' 'तुम' तथा 'मैं' से मुक्त एकमेव आत्मा अपनी ज्वलंत स्थिति में सुप्रतिष्ठित हो जाती है ।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 2 में इसी विषयमात्र को क्षेत्र तथा विषयी को क्षेत्रज्ञ कहा गया है :
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तद्ज्ञानं मतं मम ।।
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विषय-विषयी चेतना और निर्विषय चेतना
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उपरोक्त दोनों ग्रंथों में आरंभ में ही ग्रन्थ की विषय-वस्तु क्या है इसे स्पष्ट कर दिया गया है।
अष्टावक्र-गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में :
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयातोष सत्यं पियूषवद्भज।।1
"हे तात ! यदि तुम्हें मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विष की तरह त्याग दो।
क्षमा, आर्जव (ऋजुता / सरलता), दया, संतोष एवं सत्य का सेवन उन्हें अमृत समझकर करो।
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तथा पातञ्जल योग-सूत्र के प्रथम अध्याय में :
अथ योगअनुशासनम्।। 1
"अब योग की प्रणाली का वर्णन किया जाता है।"
योगश्चित्तवृत्ति निरोधः।।2
"योग है चित्त की वृत्ति का निरोध।
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अष्टावक्र-गीता के उपरोक्त श्लोक में विषयों का त्याग करने के लिए कहा गया है।
यह त्याग दो प्रकार से होता है :
पहला है; केवल विषयों को इन्द्रियों से दूर रखना, जो बाध्यतावश या हठपूर्वक किया जाता है।
जैसे परिस्थितियों के कारण या मन को बहला-फुसलाकर किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लोभ से या भय से संयम में रखना।
दूसरा है विषयों से राग-विराग से भिन्न वैराग्य-बुद्धि उत्पन्न हो जाने से मन का उनकी ओर आकर्षण न होना।
पहली स्थिति के बारे में गीता अध्याय 3 श्लोक ६ में कहा गया है :
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।
दूसरी स्थिति तब हो सकती है जब इन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले भोगों में रस अनुभव न होने से उन भोगों से सुख-प्राप्ति की आशा ही मन में पैदा नहीं होने से मन उनसे निवृत्त हो जाता है।
इस स्थिति के बारे में गीता अध्याय 2 श्लोक 59 में कहा गया है :
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
किन्तु इन दोनों के बीच एक स्थिति वह होती है जब विषय-भोगों की व्यर्थता और उनके विषस्वरूप होने का अनुमान हो जाने के बाद भी परतत्व / परब्रह्म को न देख पाने से विषय-भोगों के आकर्षण से बच पाना कठिन होता है।
ऐसी स्थिति में केवल विवेकपूर्वक ही मनुष्य को इन्द्रियों को संयमित करने का अभ्यास करना होता है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 60 में कहा गया है :
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।
"इस प्रकार मोक्ष का साधन करते हुए विवेकी मनुष्य के मन को भी इन्द्रियाँ विषयों के आकर्षण में बाँध कर हठपूर्वक हर लेती हैं," ... इसलिए :
इसी अध्याय 2 के अगले श्लोक 61 में कहा गया है :
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
"जो मुझमें / मेरे परायण हुआ उन सब इन्द्रियों को नियंत्रण में रखता है उसकी प्रज्ञा सुस्थिर हो जाती है।"
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विषय-मात्र जड है, जबकि विषयों का या भोगों का भोग या त्याग करनेवाला चेतन है और स्वयं भोग अथवा त्याग यहाँ तक कि भोग या त्याग का अनुभव जड या चेतन से विलक्षण केवल मिथ्या की कोटि की वस्तु है।
जिसका नाम है लेकिन जिस वस्तु का नाम है उसका रूप नहीं है। इसलिए वह मिथ्या / आभास मात्र है।
विषय जड और विषयी चेतन है जिसमें सभी आने-जानेवाले विषय प्रतीत होते हैं। इस प्रकार चेतन जो उनका आश्रय है वस्तुतः अविकारी (परिवर्तनरहित) आधार है, जबकि विषय सतत परिवर्तनशील अर्थात् विकारशील / विकारी हैं।
यह चेतन आधार मूलतः निर्विषय होने से ही विभिन्न विषय उसमें आते जाते रहते हैं चाहे वे स्थूल जैसे भौतिक पदार्थ हों, या सूक्ष्म जैसे बुद्धि, भावना, विचार, स्मृति, आवेग आदि हों. इन्हें एक सूत्र में में बाँधनेवाला यदि कुछ / कोई है तो वह एकमात्र वस्तु है विषयी। इस प्रकार विषयी एक दृष्टि से तो केवल अविकारी चेतन है, दूसरी ओर एक सूक्ष्म अभिमानी विचार जो 'मैं' शब्द से जुड़कर उन से भिन्न प्रतीत होनेवाला अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित कर लेता है। अन्य विचारों की भाँति यह विचार भी अस्थायी स्थिति है किन्तु स्मृति-सातत्य से इसे स्थायी समझ लिया जाता है। इस प्रकार विषयी जो अविकारी चेतन है इस 'मैं' के रूप में व्यक्ति-भाव ग्रहण कर लेता है। अध्याय 2 के श्लोक 61 में 'मत्परः' का तात्पर्य ध्यानपूर्वक समझना आवश्यक है।
'परः' का अर्थ है 'परायण', 'मत्' का संबंध 'मत्य' से है, 'मत्' पुनः 'अस्मत्' वाचक सर्वनाम 'मैं / हम दोनों / हम' - अहं -आवाम्- वयम्' है, जो अंग्रेज़ी में I -एकवचन तथा we बहुवचन का जनक है ।
'अस्' और 'मत्' शुद्ध चेतना के लक्षण अर्थात् द्योतक हैं। 'अस्मि' इसी का व्यावहारिक रूप में प्रयोग में लाया जानेवाला शाब्दिक रूप है। यही अंग्रेज़ी में 'I am' का जनक है। इसी प्रकार 'युज्' और 'मत्' मिलकर 'युष्मत्' (त्वं you) वाचक सर्वनाम है जो 'you' का जनक है, जबकि त्वं 'Thou' और 'Thy' का जनक है।
तत् इसी प्रकार 'that' का जनक है। यह सब समझना इतना सरल है लेकिन आज के 'स्थापित' भाषाविदों ने संस्कृत के अध्ययन और शोध के बहाने इन तथ्यों को इतना विरूपित कर दिया कि इस स्वाभाविक सज्ञता (cognizance) की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। वैसे यहाँ भाषाशास्त्र के बारे में कोई अध्ययन प्रस्तुत करना अप्रासंगिक जान पड़ता है।
अब हम 'मत्पर', संबंधवाची 'युज्पर' तथा अन्य-पुरुषवाची 'तत्पर' के तीन तात्पर्यों के माध्यम से क्रमशः उत्तम पुरुषवाची एकवचन सर्वनाम 'अहं' से 'अध्यात्म' अर्थात् 'विषयी', युष्मत् (तुम) अर्थात् मध्यम पुरुषवाची एकवचन सर्वनाम 'त्वं' से 'विषयों' से 'विषयी' को संबंधित करनेवाले संवेदनों (perceptions) का, तथा 'तद्' / 'तत्य' - अर्थात अन्य पुरुषवाची एकवचन सर्वनाम से जड विषयों का तात्पर्य ग्रहण करें तो 'विषयी का स्वरुप क्या हो सकता है यह अनायास स्पष्ट हो जाता है। यद्यपि विषयी को 'मैं' से व्यक्त किया जाना व्यावहारिक बाध्यता है किंतु वस्तुतः 'विषयी' न तो किसी नाम या रूप से युक्त है और न इन्द्रियों, मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, अनुभव आदि से अवगम्य / अवगत की जा सकने वाली कोई सत्ता है, जबकि यही 'तुम' तथा 'वह' का एकमात्र उनसे स्वतंत्र अधिष्ठान भी है। इस प्रकार 'मत्परः' का तात्पर्य हुआ 'विषयों' से या 'विषयों' के इन्द्रियों, मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, अनुभव आदि से प्रतीत होनेवाले समस्त तत्वों से तदाकारिता (identification) का अंत होकर 'मैं'(के संकल्प) से रहित चेतन-मात्र में सुस्थिर होना।
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तद्युष्मदोः अस्मदि संप्रतिष्ठा
तस्मिन् विनष्टे अस्मदि मूलबोधात्।
तद्युष्मदस्मिन्मति वर्जितैका
स्थितिर्ज्वलन्ती सहजात्मनः स्यात्।।
(सद्दर्शनं श्लोक 16)
The notions 'He' and 'Thou' are bound with 'I',
But in the Realized root of 'I' vanishes the 'I',
Thus The inborn luminous state of Self, the Real 'I',
Is free of the notions 'He', 'Thou' and 'I'.
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'वह' 'तुम' तथा 'मैं' की धारणा का आधार 'मैं' की कल्पना है।
इस 'मैं' की कल्पना के मूल के बोध से इस 'मैं' की कल्पना का निवारण हो जाता है।
इस प्रकार 'वह' 'तुम' तथा 'मैं' से मुक्त एकमेव आत्मा अपनी ज्वलंत स्थिति में सुप्रतिष्ठित हो जाती है ।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 2 में इसी विषयमात्र को क्षेत्र तथा विषयी को क्षेत्रज्ञ कहा गया है :
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तद्ज्ञानं मतं मम ।।
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