सपने : दूसरों के या अपने?
अपने सपनों में, जो हमें हमारी नींद में आते हैं, यूँ तो हम अपने आपसे विस्मृत होकर न जाने किन-किन लोकों में भटकते रहते हैं, और प्रायः हम जागते हुए भी एकाएक उनमें डूबकर अपनी दुनिया को भूल बैठते हैं, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम अपने सपने में मिले किसी दूसरे व्यक्ति के सपने में प्रविष्ट होकर अपने आपको वही व्यक्ति समझकर उसके स्वप्न के लोक में भी चले जाते हैं।
मुण्डकोपनिषत् 3/2/23 तथा कठोपनिषत् 1/1/23 में कहा गया है :
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वयं।।
जैसा कि गीता के अध्याय 2 में कहा गया है :
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।17
चूँकि एक ही अविनाशी आत्मा है जो सबमें व्याप्त और अभिव्यक्त है तथा जिसमें सब व्याप्त और अभिव्यक्त है इसलिए दूसरों के हों या अपने, सभी स्वप्न आत्मा के अर्थात् अपने ही होते हैं और उनमें दिखाई देनेवाले लोग भी अपनी ही एकमेव अविनाशी आत्मा के भिन्न भिन्न प्रकार होते हैं।
किंतु एक बार यही आत्मा किसी देह में स्वयं की तरह स्वयं को सीमित कर एक स्वप्नलोक रच लेती है तो खेल या नाटक के लिए ही सही सपनों की अनवरत श्रंखला शुरू हो जाती है।
फिर यही आत्मा अपने-आपमें अनेक को देखकर कभी उत्सुकतावश, कभी भय से, कभी आकर्षण या विकर्षण से, मोहितबुद्धि होकर इन सपनों को अपने या दूसरे के सपनों की तरह देखती है। मेरा जन्म हुआ या मृत्यु होगी ऐसी कल्पना से ग्रस्त हो जाती है।
हर बुद्धि इसी प्रकार मोहित होकर यह सारा प्रपञ्च रचती है और अंततः (!) इस प्रपञ्च को खुद ही समेट लेती है। वही बुद्धि जो मोहित होती है, मोहवश इस विराट सृष्टि को अपने से पृथक और भिन्न की तरह ग्रहण करती है, रूपांतरित होते ही मोह को मिटाकर अपनी सहज स्थित में प्रतिष्ठित होकर उस शान्ति और सौंदर्य को एक नवीनतः प्राप्त हुई वस्तु समझकर पुलकित होती है।
सुबह उठते ही जैसे ही मोबाईल चालू होता है, अखबार आता है, टीवी शुरू होता है, खबरें हर दिशा से आक्रमण करती हैं तो यह समझा जा सकता है कि हमारे पास वही लौटकर बार बार आता है जो हम अपने आपको देते रहते हैं। किसी भी वस्तु का, किताब का, धर्म का, सिद्धांत का हम जैसा उपयोग, सदुपयोग या दुरुपयोग करते हैं, वैसा ही वे हमें प्रत्युत्तर देते हैं। वे हमारा वैसा ही उपयोग, सदुपयोग या दुरुपयोग करते हैं।
केवल मोहवश ही भ्रमित होने से हम अपनी अखंड आत्मा को विभाजित कर काल्पनिक दुःखों, क्लेशों में निरंतर त्रस्त हैं।
"आतंक का कोई धर्म नहीं होता" यह भले ही सत्य हो या न हो, ऐसी किसी भी वस्तु का, किताब का, धर्म या सिद्धांत का आतंक हम स्वयं ही तो पैदा करते हैं !
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टिप्पणी : कृपया टाइपिंग की त्रुटि के लिए क्षमा करें !
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुतेतनुं स्वाम्।।
(edited after 11 hours at 06:55 p.m. today, 28/12/2018)
अपने सपनों में, जो हमें हमारी नींद में आते हैं, यूँ तो हम अपने आपसे विस्मृत होकर न जाने किन-किन लोकों में भटकते रहते हैं, और प्रायः हम जागते हुए भी एकाएक उनमें डूबकर अपनी दुनिया को भूल बैठते हैं, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम अपने सपने में मिले किसी दूसरे व्यक्ति के सपने में प्रविष्ट होकर अपने आपको वही व्यक्ति समझकर उसके स्वप्न के लोक में भी चले जाते हैं।
मुण्डकोपनिषत् 3/2/23 तथा कठोपनिषत् 1/1/23 में कहा गया है :
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वयं।।
जैसा कि गीता के अध्याय 2 में कहा गया है :
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।17
चूँकि एक ही अविनाशी आत्मा है जो सबमें व्याप्त और अभिव्यक्त है तथा जिसमें सब व्याप्त और अभिव्यक्त है इसलिए दूसरों के हों या अपने, सभी स्वप्न आत्मा के अर्थात् अपने ही होते हैं और उनमें दिखाई देनेवाले लोग भी अपनी ही एकमेव अविनाशी आत्मा के भिन्न भिन्न प्रकार होते हैं।
किंतु एक बार यही आत्मा किसी देह में स्वयं की तरह स्वयं को सीमित कर एक स्वप्नलोक रच लेती है तो खेल या नाटक के लिए ही सही सपनों की अनवरत श्रंखला शुरू हो जाती है।
फिर यही आत्मा अपने-आपमें अनेक को देखकर कभी उत्सुकतावश, कभी भय से, कभी आकर्षण या विकर्षण से, मोहितबुद्धि होकर इन सपनों को अपने या दूसरे के सपनों की तरह देखती है। मेरा जन्म हुआ या मृत्यु होगी ऐसी कल्पना से ग्रस्त हो जाती है।
हर बुद्धि इसी प्रकार मोहित होकर यह सारा प्रपञ्च रचती है और अंततः (!) इस प्रपञ्च को खुद ही समेट लेती है। वही बुद्धि जो मोहित होती है, मोहवश इस विराट सृष्टि को अपने से पृथक और भिन्न की तरह ग्रहण करती है, रूपांतरित होते ही मोह को मिटाकर अपनी सहज स्थित में प्रतिष्ठित होकर उस शान्ति और सौंदर्य को एक नवीनतः प्राप्त हुई वस्तु समझकर पुलकित होती है।
सुबह उठते ही जैसे ही मोबाईल चालू होता है, अखबार आता है, टीवी शुरू होता है, खबरें हर दिशा से आक्रमण करती हैं तो यह समझा जा सकता है कि हमारे पास वही लौटकर बार बार आता है जो हम अपने आपको देते रहते हैं। किसी भी वस्तु का, किताब का, धर्म का, सिद्धांत का हम जैसा उपयोग, सदुपयोग या दुरुपयोग करते हैं, वैसा ही वे हमें प्रत्युत्तर देते हैं। वे हमारा वैसा ही उपयोग, सदुपयोग या दुरुपयोग करते हैं।
केवल मोहवश ही भ्रमित होने से हम अपनी अखंड आत्मा को विभाजित कर काल्पनिक दुःखों, क्लेशों में निरंतर त्रस्त हैं।
"आतंक का कोई धर्म नहीं होता" यह भले ही सत्य हो या न हो, ऐसी किसी भी वस्तु का, किताब का, धर्म या सिद्धांत का आतंक हम स्वयं ही तो पैदा करते हैं !
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टिप्पणी : कृपया टाइपिंग की त्रुटि के लिए क्षमा करें !
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुतेतनुं स्वाम्।।
(edited after 11 hours at 06:55 p.m. today, 28/12/2018)
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