स्मृति, संस्कार, परिस्थिति और कर्म के अनुसार व्यक्ति में संकल्प उठता है।
संकल्प से प्रेरित चेतना ही मनुष्य को पुनः किसी विशिष्ट कर्म में संलग्न कर देती है।
गीता :
अध्याय 6 श्लोक 24,
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।
--
अध्याय 12 श्लोक 16,
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
--
अध्याय 14, श्लोक 25,
मानापमानयोस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।
--
अध्याय 2, श्लोक 62,
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
--
संकल्प का उठना तीन स्तरों पर होता है।
पहला है चेतना का प्रसुप्त स्तर,
दूसरा है चेतना का अनभिव्यक्त स्तर,
तीसरा है चेतना का अभिव्यक्त स्तर।
चेतना के प्रसुप्त स्तर पर अनेक स्मृतियाँ, भावनाएँ, विचार और अतृप्त कामनाएँ होती हैं। उनमे से कुछ विशेष ही परिस्थितियों के अनुसार अनभिव्यक्त स्तर और अभिव्यक्ति के स्तर के बीच प्रस्फुटन के लिए उद्यत रहती हैं और उनमें से भी प्रायः कोई एक जो सर्वाधिक प्रबल होती है, अभिव्यक्ति तक पहुँचती है।
उपरोक्त चार श्लोकों में यद्यपि उस भूमिका का वर्णन किया गया है जिसमें अवस्थित चेतना अर्थात् मनुष्य संकल्पमात्र से अप्रभावित और अछूता होता है। ये उस स्थिति के 'लक्षण' हैं जिनके लिए अभ्यास नहीं किया जा सकता। हाँ, इस पूरे क्रम पर ध्यान देने से संभवतः उस स्थिति का अनुमान किया जा सकता है।
सामान्यतः 'संकल्प' को 'निश्चय' समझा जाता है जबकि 'संकल्प', 'निश्चय' की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ रखता है।
उपरोक्त तीन स्तरों में से 'वैचारिक' संकल्प वह है जो अभिव्यक्त रूप में प्रकट होता है। इसमें प्रायः कोई इच्छा कामना अथवा निश्चय होता है जो आवश्यकता की तरह भी अनुभव हो सकता है। इस पूरी अभिव्यक्ति में ये चारों लक्षण कम-अधिक परिमाण में जुड़े होते हैं। सामान्यतः मनुष्य इस प्रकार उठे संकल्प से कार्य करता है या करने के लिए उद्यत हो उठता है।
इसे शब्दों में व्यक्त किया जाता है और प्रायः इसका तात्पर्य यथावत ग्रहण किया जाता है।
इसे स्थूल या प्रत्यक्ष संकल्प भी कह सकते हैं।
संकल्प का अपेक्षाकृत गहरा स्तर वह होता है जो अनभिव्यक्त और अभिव्यक्त की सीमा-रेखा पर अवस्थित होता है। जिसे भावना, भाव कहा जा सकता है, जो अनुभवगम्य तो होता है किंतु सूक्ष्मतर होने से उसे शब्दों में कह पाना कभी-कभी संभव होता है, तो कभी-कभी नहीं हो पाता।
यह प्रश्न पूछना उपयोगी है कि ये सभी संकल्प मनुष्य में कहाँ से आते हैं ?
अंतिम श्लोक में एक संकेत दिया गया है कि विषयों पर ध्यान देने से उनसे चित्त का संसर्ग और संग होता है। पुनः स्मृति, संस्कार, परिस्थिति और कर्म (चेष्टा तथा अनुभव, भोग आदि) के अनुसार ही विषय सुखद, दुःखद या सुख-दुःख से अछूते जान पड़ते हैं। और तब उनके प्रति राग-द्वेष की भावना मन में पैदा होती है।
इसी कामना के अनुभवगम्य रूप हैं चिंता, क्रोध, आशा, निराशा, भय, लोभ, ईर्ष्या, आकर्षण, विकर्षण, या बस उनसे निरपेक्षता या उदासीनता। इस प्रकार चिंता, क्रोध, आशा, निराशा, भय, लोभ, ईर्ष्या, आकर्षण, विकर्षण, या उनसे निरपेक्षता या उदासीनता मूलतः सूक्ष्म-संकल्प के ही विभिन्न प्रकार हैं।
अभिव्यक्त स्तर के संकल्पों को तो स्पष्टतः जाना-समझा-कहा-सुना जा सकता है किंतु सूक्ष्म-संकल्पों को न तो कहा या समझाया जा सकता है और न उन पर नियंत्रण किया जा सकता है। वे बस अचानक 'आवेश' की तरह व्यक्त हो उठते हैं और स्मृति, संस्कार, परिस्थिति और कर्म (चेष्टा तथा अनुभव, भोग आदि) के अनुसार ही उनके प्रभाव से एकाएक विलीन भी हो सकते हैं।
कोई विशिष्ट या साधारण सी घटना भी हममें एकाएक क्षोभ, शोक, ख़ुशी और चिंता, क्रोध, आशा, निराशा, भय, लोभ, ईर्ष्या, आकर्षण, विकर्षण, या उनसे निरपेक्षता या उदासीनता जगा देती है और हम वर्तमान 'यथार्थ' से विच्छिन्न हो उठते हैं।
यदि हम संकल्प के अपेक्षाकृत गहराई पर स्थित इस सत्य को समझ सकें तो हमारे लिए यह समझना शायद संभव होगा कि संकल्परहित कैसे हुआ जा सकता है।
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संकल्प से प्रेरित चेतना ही मनुष्य को पुनः किसी विशिष्ट कर्म में संलग्न कर देती है।
गीता :
अध्याय 6 श्लोक 24,
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।
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अध्याय 12 श्लोक 16,
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
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अध्याय 14, श्लोक 25,
मानापमानयोस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।
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अध्याय 2, श्लोक 62,
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
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संकल्प का उठना तीन स्तरों पर होता है।
पहला है चेतना का प्रसुप्त स्तर,
दूसरा है चेतना का अनभिव्यक्त स्तर,
तीसरा है चेतना का अभिव्यक्त स्तर।
चेतना के प्रसुप्त स्तर पर अनेक स्मृतियाँ, भावनाएँ, विचार और अतृप्त कामनाएँ होती हैं। उनमे से कुछ विशेष ही परिस्थितियों के अनुसार अनभिव्यक्त स्तर और अभिव्यक्ति के स्तर के बीच प्रस्फुटन के लिए उद्यत रहती हैं और उनमें से भी प्रायः कोई एक जो सर्वाधिक प्रबल होती है, अभिव्यक्ति तक पहुँचती है।
उपरोक्त चार श्लोकों में यद्यपि उस भूमिका का वर्णन किया गया है जिसमें अवस्थित चेतना अर्थात् मनुष्य संकल्पमात्र से अप्रभावित और अछूता होता है। ये उस स्थिति के 'लक्षण' हैं जिनके लिए अभ्यास नहीं किया जा सकता। हाँ, इस पूरे क्रम पर ध्यान देने से संभवतः उस स्थिति का अनुमान किया जा सकता है।
सामान्यतः 'संकल्प' को 'निश्चय' समझा जाता है जबकि 'संकल्प', 'निश्चय' की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ रखता है।
उपरोक्त तीन स्तरों में से 'वैचारिक' संकल्प वह है जो अभिव्यक्त रूप में प्रकट होता है। इसमें प्रायः कोई इच्छा कामना अथवा निश्चय होता है जो आवश्यकता की तरह भी अनुभव हो सकता है। इस पूरी अभिव्यक्ति में ये चारों लक्षण कम-अधिक परिमाण में जुड़े होते हैं। सामान्यतः मनुष्य इस प्रकार उठे संकल्प से कार्य करता है या करने के लिए उद्यत हो उठता है।
इसे शब्दों में व्यक्त किया जाता है और प्रायः इसका तात्पर्य यथावत ग्रहण किया जाता है।
इसे स्थूल या प्रत्यक्ष संकल्प भी कह सकते हैं।
संकल्प का अपेक्षाकृत गहरा स्तर वह होता है जो अनभिव्यक्त और अभिव्यक्त की सीमा-रेखा पर अवस्थित होता है। जिसे भावना, भाव कहा जा सकता है, जो अनुभवगम्य तो होता है किंतु सूक्ष्मतर होने से उसे शब्दों में कह पाना कभी-कभी संभव होता है, तो कभी-कभी नहीं हो पाता।
यह प्रश्न पूछना उपयोगी है कि ये सभी संकल्प मनुष्य में कहाँ से आते हैं ?
अंतिम श्लोक में एक संकेत दिया गया है कि विषयों पर ध्यान देने से उनसे चित्त का संसर्ग और संग होता है। पुनः स्मृति, संस्कार, परिस्थिति और कर्म (चेष्टा तथा अनुभव, भोग आदि) के अनुसार ही विषय सुखद, दुःखद या सुख-दुःख से अछूते जान पड़ते हैं। और तब उनके प्रति राग-द्वेष की भावना मन में पैदा होती है।
इसी कामना के अनुभवगम्य रूप हैं चिंता, क्रोध, आशा, निराशा, भय, लोभ, ईर्ष्या, आकर्षण, विकर्षण, या बस उनसे निरपेक्षता या उदासीनता। इस प्रकार चिंता, क्रोध, आशा, निराशा, भय, लोभ, ईर्ष्या, आकर्षण, विकर्षण, या उनसे निरपेक्षता या उदासीनता मूलतः सूक्ष्म-संकल्प के ही विभिन्न प्रकार हैं।
अभिव्यक्त स्तर के संकल्पों को तो स्पष्टतः जाना-समझा-कहा-सुना जा सकता है किंतु सूक्ष्म-संकल्पों को न तो कहा या समझाया जा सकता है और न उन पर नियंत्रण किया जा सकता है। वे बस अचानक 'आवेश' की तरह व्यक्त हो उठते हैं और स्मृति, संस्कार, परिस्थिति और कर्म (चेष्टा तथा अनुभव, भोग आदि) के अनुसार ही उनके प्रभाव से एकाएक विलीन भी हो सकते हैं।
कोई विशिष्ट या साधारण सी घटना भी हममें एकाएक क्षोभ, शोक, ख़ुशी और चिंता, क्रोध, आशा, निराशा, भय, लोभ, ईर्ष्या, आकर्षण, विकर्षण, या उनसे निरपेक्षता या उदासीनता जगा देती है और हम वर्तमान 'यथार्थ' से विच्छिन्न हो उठते हैं।
यदि हम संकल्प के अपेक्षाकृत गहराई पर स्थित इस सत्य को समझ सकें तो हमारे लिए यह समझना शायद संभव होगा कि संकल्परहित कैसे हुआ जा सकता है।
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