Thursday, 13 December 2018

तीन ग्रन्थ : तीन रचयिता

रामायण, रघुवंशं और उत्तररामचरितं
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महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण का एक बार अवलोकन इस वर्ष के प्रारम्भ में किया था।
महाकवि कालिदास प्रणीत 'रघुवंशं' के प्रथम चार सर्ग अभी छः महीने पहले पढ़े थे। 
महाकवि भवभूति-प्रणीत 'उत्तररामचरितं' का अध्ययन वर्त्तमान में कर रहा हूँ।
पहले रामायण को पढ़ने का उत्साह हुआ किंतु पूरा पढ़ सकूँगा या नहीं इसका अनिश्चय था। फिर साहस कर पढ़ना शुरू किया तो आद्योपांत एक बार पाठ हो गया।
फिर जिज्ञासा हुई रघुवंशं को पढ़ने की तो उसे पढ़ना शुरू किया किंतु चार सर्ग पढ़ने के बाद कुछ शब्दों में हुई मुद्रण की या मेरे अपने संस्कृत भाषा के ज्ञान की कमज़ोरी की वजह से आगे पढ़ना कठिन लगने लगा। मुद्रण की कुछ भूलें मैंने अपनी बुद्धि से सुधार लीं, लेकिन भाषा की भूलों के बारे में इस अनिश्चय ने मुझे आगे पढ़ने से रोक दिया, कि यह मुद्रण की भूल है या मैं ही नहीं समझ पा रहा।
इन ग्रंथों को ध्यानपूर्वक पढ़ने से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि भगवान् श्रीराम के जिस चरित्र का वर्णन तीनों  महाकवियों ने किया है, उसमें कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं की गई है। न तो अपनी कल्पना से किसी घटना को अनावश्यक तरीके से अतिरंजित रीति से रूपायित किया गया है और न ही अलंकृत किया गया है। महर्षि वाल्मीकि चूँकि आदिकवि होने के साथ साथ महान् ऋषि भी थे इसलिए स्वाभाविक रूप से उन्होंने भगवान् श्रीराम के चरित्र का वर्णन आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक, इन तीनों तलों पर तथा ऐतिहासिक तल पर भी एक साथ घटित घटनाओं के तारतम्य में किया है।  दूसरी ओर, जिन विभिन्न पौराणिक कथाओं का समावेश इसमें किया गया है वे स्वतंत्र रूप से भी इसी प्रकार के इन तीनों तलों पर एक साथ ही समझी जा सकती है। आजकल 'वेद-पुराणों' के विज्ञानसम्मत होने न-होने का प्रश्न उठाना बुद्धिजीवियों का प्रिय अस्त्र हो गया है। केवल रामायण को ही ध्यानपूर्वक पढ़ने से मुझे प्रतीत हुआ कि तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टि केवल 'आधिभौतिक' इन्द्रियग्राह्य और तर्क-बुद्धि से प्रेरित वैचारिक सम्भावनात्मक निष्कर्षों के संकीर्ण दायरे में बद्ध है। यह बुद्धि स्वयं भी इन्द्रियज्ञान पर निर्भर जिन प्रेरणाओं से जागृत और सक्रिय होती है उनकी त्रुटिशून्यता संदिग्ध ही है। इस भौतिक विज्ञान को जितने परीक्षणों से गुज़रना होता है वह देवी सीता की अग्नि-परीक्षा की तरह कठोर है। इस बुद्धि के नियंता और संचालनकर्ता देवता को आधिदैविक रूप में गणेश कहा गया है। स्पष्ट है कि बुद्धि के चरित्र और स्वरूप के बारे में आज का बहुत विकसित विज्ञान अभी अँधेरे में ही टटोल रहा है। फिर आधिदैविक और आध्यात्मिक के बारे में, -जो बुद्धि के उद्गम का स्रोत और अधिष्ठान भी है, विज्ञान निश्चयपूर्वक क्या कह सकता है और क्या जान सकता है?
शेष दो महाकवियों कालिदास और भवभूति ने रामायण के ही आधार पर अपनी कृतियाँ रचीं।  जैसा कि दोनों ग्रंथों को देखने से पता चलता है, पहले कालिदास ने, बाद में भवभूति ने।  इसका केवल एक प्रमाण यह उल्लेख है कि कालिदास के कहने पर भवभूति ने 'एव' के स्थान पर 'एवं' (या 'एवं' के स्थान पर 'एव') को अपनी रचना में स्थान दिया।
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस उनके काल से ही भगवान् श्रीराम के जीवनचरित्र का सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रचलित ग्रन्थ रहा है लेकिन इसमें वाल्मीकि रामायण के अनेक प्रसंगों को या तो घटा-बढ़ा कर वर्णित किया गया है या स्वरूपतः ही बदल दिया गया है।
इसलिए आज हम श्रीरामचरितमानस के माध्यम से भगवान् श्रीराम के विषय में जो कुछ पढ़ते-सुनते हैं उनसे हमारे मन में अनेक प्रश्न उठते हैं और 'प्रगतिशील' बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ भी तुलसीदास की निंदा आलोचना करने में न सिर्फ गौरव और अभिमान अनुभव करते हैं, इस बहाने 'ब्राह्मण-धर्म' को भी लगे हाथ गालियाँ देने से पीछे नहीं हटते।
दो प्रसिद्ध उदाहरण हैं :
 पहला है :
"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।"
बहुत से तुलसीदासजी के और रामायण-प्रेमी भी इस चौपाई का अर्थ करने से घबराते या असहज महसूस करते हैं किंतु वाल्मीकि रामायण में वर्णित शम्बूक-वध के प्रसंग से इस चौपाई का वास्तविक तात्पर्य क्या है इसे अनायास समझा जा सकता है।
इसके लिए पहले हमें गीता के अध्याय 4 के श्लोक 13, अध्याय 18 के श्लोक 44 एवं इसी अध्याय के श्लोक 45 का अवलोकन करना होगा :
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अध्याय 18, श्लोक 45,

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए  उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
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संक्षेप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र मूलतः जाति न होकर गुणों और कर्मों में जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है उसके अनुसार उसके वर्ण होते हैं। जाति और वंश के अनुसार ही उसके संस्कार अर्थात् प्रवृत्ति हो यह ज़रूरी नहीं फिर भी किसी हद तक माता-पिता के वंशानुगत गुणों का स्थान तो उसकी प्रवृत्ति में हो सकता है, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।  दूसरी ओर गीता और रामायण धर्म और अध्यात्म के सनातन-मूल्यों पर आधारित सनातन धर्म की शिक्षा देते हैं जिसमें मौलिक दृष्टि यह है कि धर्म और अध्यात्म का प्रचार नहीं केवल रक्षा की जा सकती है। वाल्मीकि रामायण में तो संसार में फैले हुए विभिन्न मानव-वंशों की उत्पत्ति का भी वर्णन इस प्रकार से किया गया है जिसे आज भी 'प्रमाणित' पाया जाता है।  विस्तार से जानने के लिए वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच हुए युद्ध के प्रसंग (बालकाण्ड सर्ग 52 से 77 तक) का अवलोकन कर सकते हैं। यह जानना भी आश्चर्यजनक है कि इसी प्रसंग में ज्योतिष (Astronomy) के कुछ तथ्य भी दृष्टिगत होते हैं, जिन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में भी वैज्ञानिक आधार पर जांचा-परखा जा सकता है। इस बारे में मेरे इस ब्लॉग में पहले भी मैंने काफी-कुछ लिखा है। यदि वाल्मीकि रामायण में इन तथ्यों का इतना यथार्थतः सटीक और सत्य वर्णन है तो यह संदेह करने का क्या आधार है कि अन्य प्रसंगों के वर्णन जो हमारी वैज्ञानिक दृष्टि से हमें कपोल-कल्पना प्रतीत होते हैं, 'मिथ' हैं ?
अब बात करें
"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।"
के बारे में।
गोस्वामीजी ने 'अधिकारी' शब्द के प्रयोग से यही कहा है कि ढोल गँवार शूद्र पशु नारी ताड़ना पाने के अधिकारी हैं अर्थात् यदि चाहें तो ताड़ना से बचना या न बचना उनका अधिकार है।  जहाँ 'अधिकार' होता है वहाँ उस अधिकार का प्रयोग करने के लिए 'अधिकारी' स्वतंत्र होता है।  और ताड़न का अर्थ है आघात या डाँट-डपट।
ढोल तो बेचारा बनाया ही इसलिए जाता है कि ज़रुरत होने पर उसे पीटकर बजाया जाए। गँवार का तात्पर्य है असभ्य, अविकसित या सभ्य तौर-तरीकों से अनभिज्ञ। यदि वह इन तौर-तरीकों की अवहेलना करता है तो उसे चाहिए कि या तो ऐसे समाज से दूर रहे या उनके तौर-तरीके सीखे। ऐसा न करने पर वह स्वयं ही उनके द्वारा  उपहास किए जाने या डाँट-डपट खाने का, तिरस्कृत होने का पात्र / अधिकारी हो जाता है।
शूद्र की जैसी विवेचना की गई उसके अनुसार शूद्र का कर्म है serve करना अर्थात् सेवा (service) करना।  इस दृष्टि से जो भी 'सेवक' हैं इस श्रेणी में आते हैं भले ही जन्म या जाति से अन्य तीन वर्णों में पैदा हुए हों।  यहाँ तक कि 'प्रधान-सेवक' भी।  वे 'राजा' नहीं हैं।  लोकतंत्र में राजा तो प्रजा ही है।
पशु से काम लेना या उससे अपनी रक्षा करने के लिए कभी-कभी उसे मारना भी ज़रूरी होता है किंतु यदि वह ऐसी हरकत न करे जिससे उसे मार खानी पड़े तो इसके लिए भी वह स्वतंत्र है ही।
अब रही नारी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी की रक्षा करना पुरुष का कर्तव्य है और सनातन धर्म इसी आधार पर स्त्री और पुरुष के भिन्न भिन्न अधिकारों का वर्गीकरण करता है। गँवार और शूद्र तो सभी पुरुषों पर भी लागू होता है, यदि वे अभद्र, असभ्य आदि हों, और नारी के लिए भिन्न कसौटी इसलिए है क्योंकि नारी प्रकृति से ही पुरुष पर निर्भर है और इसलिए उसका अधिकार है कि पुरुष उसे सुरक्षा प्रदान करे। लेकिन आज के 'स्त्री-मुक्ति' के विचारों के दावेदार और स्त्री-पुरुष समानता के समर्थक तब मौन साध लेते हैं जब सनातन धर्म से भिन्न तथाकथित 'धर्म' कही जानेवाली परंपराएँ इसके विरोध में होती हैं। सनातन धर्म न तो स्त्री को स्वतंत्र मानता है न पुरुष को।  दोनों ही धर्म तथा अधर्म की मर्यादा में बँधे हैं और वहीँ तक स्वतंत्र हो सकते हैं।  और सनातन धर्म किसी पर धर्म की अपनी कोई परिभाषा नहीं लादता; - वह तो बस धर्म क्या है और अधर्म क्या है तथा धर्म के आचरण का क्या फल / परिणाम है और अधर्म के आचरण का क्या फल / परिणाम है इसे स्पष्ट करता है और यह आप पर छोड़ देता है कि आप अपने विवेक से धर्म-अधर्म क्या है इसे तय कर अपना कल्याण चाहते हैं या विनाश ? इसलिए आप वर्ण-आश्रम के धर्म का पालन करें या इनसे भिन्न अपनी स्वतंत्र राह चुनें जैसा बुद्ध और महावीर ने किया यह करने के लिए मनुष्य मात्र स्वतंत्र है। उच्छ्रंखल आचरण को स्वतन्त्रता समझना खुद को ही धोखा देना है। बुद्ध और महावीर ने भी मर्यादा का पालन करते हुए सुपात्र को ही शिक्षा / उपदेश दिए।  और इसलिए बहुत कम लोग ही वास्तव में उनकी शिक्षाओं से लाभान्वित हो सके। दोनों परंपराओं में स्त्री का स्थान पुरुष से निम्नतर रखा गया क्योंकि 'संघ' में रहने पर स्त्री की स्वतंत्रता का हनन हो जाता है। और 'सुरक्षा' का भी होता हो तो आश्चर्य नहीं।  परिवार ही स्त्री को सुरक्षा दे सकता है। किन्हीं भी कारणों से जब तक समाज स्त्री को पूरी तरह से सुरक्षित रखने में असमर्थ है, तब तक उसे परिवार में ही रहना चाहिए। क्योंकि असुरक्षा में न तो भौतिक विकास और न आध्यात्मिक विकास हो सकता है।
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दूसरा उदाहरण है शम्बूक-वध का :
शम्बूक तपस्वी मुनि था और शूद्र वर्ण का होने से वैसे भी उसके लिए उस प्रकार का तप उचित नहीं था जैसा कि  वह हठपूर्वक कर रहा था। भगवान् श्रीराम के पास एक दिन एक ब्राह्मण अपने मृत पुत्र को लेकर आया और उसने कहा :
 "हे राजा ! आपके राज्य में यह मेरा पुत्र अकाल-मृत्यु को प्राप्त हुआ है इसका एकमात्र कारण है आपके राज्य में कहीं कोई कार्य अधर्म का हो रहा है।  मुझे इसके लिए न्याय चाहिए।"
भगवान् श्रीराम ने पता लगाया और तलवार लेकर वहाँ  पहुंचे जहाँ शम्बूक अनधिकृत तपस्या में हठपूर्वक संलग्न था।  इसका सुन्दर वर्णन तो उत्तररामचरितं में भवभूति ने किया ही है, लेकिन श्रीराम ने ग्लानिपूर्वक उसके वध का यह कार्य किया और उसे इस प्रकार मरकर भी ब्रह्मलोक प्राप्त हुआ।  मरकर वह दिव्यपुरुष का रूप धारण कर भगवान् श्रीराम के सम्मुख उपस्थित हुआ और बोला :
"हे राम ! पता नहीं यह मेरे तप का फल है या आपकी कृपा का फल कि आपके हाथों से मृत्यु पाकर मैं यमराज के बंधन से छूट गया।"
 तात्पर्य यह कि केवल कर्तव्य और करुणावश ही भगवान् श्रीराम को यह भीषण कार्य करना पड़ा। इसी के पश्चात् वह मृत बालक भी जीवित हो उठा। यहाँ एक संकेत यह भी है कि यदि उस मृत को जीवित न किया जाता तो शम्बूक को, और शायद भगवान् श्रीराम को भी ब्रह्म-ह्त्या का पाप प्राप्त होता। इस प्रकार बालक को पुनर्जीवित करने से भगवान् श्रीराम ने शम्बूक को इस पाप से तो बचाया ही, उसके लिए दिव्यलोक में जाने का मार्ग भी प्रशस्त किया।                                 
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