Monday, 17 December 2018

वसुधैव कुटुम्बकं

क्यों / कितना ज़रूरी है सनातन धर्म ? 
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सनातन धर्म का आधार-सूत्र है वसुधैव कुटुम्बकं।
आज यदि मूल धर्मग्रंथों में पाई जानेवाली सनातन धर्म की सर्वाधिक स्पष्ट परिभाषा है तो उनमें से एक मनुस्मृति में है और दूसरी धम्मपद में है।
किसी कारण से उपरोक्त लिंक कनेक्ट नहीं हो पा रही, अतः उसे नीचे कॉपी-पेस्ट कर रहा हूँ। 
धम्मपदम्
पालि [1.5] यमक
न हि वेरेण वेराणि
सम्मन्तीध कुदाचनम् ।
अवेरेण च सम्मन्ति
एस धम्मो सनन्तनो ॥
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पटना 253 [14.5] खान्ति
न हि वेरेण वेराणि
शामन्तीह कदाचनम् ।
अवेरेण तु शामंति
एस धंमो सनातनो ॥
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paṭanā 253 [14.5] khānti
na hi vereṇa verāṇi
śāmantīha kadācanam |
avereṇa tu śāmanti
esa dhaṃmo sanātano ||
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उदानवर्ग 14.11 द्रोह
न हि वैरेण वैराणि
शाम्यतीह कदा चन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति
एष धर्मः सनातनः ॥
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मूलसर्वास्तिवादिविनय
(गिल्गित .184)
न हि वैरेण वैराणि
शाम्यन्तीह कदाचन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति
एष धर्मः सनातनः ॥
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मनुस्मृति:
अध्याय 4, श्लोक 138,
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥138॥
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manusmṛtiḥ
adhyāya 4, śloka 138,
satyaṃ brūyāt priyaṃ brūyānna brūyāt satyamapriyam |
priyaṃ ca nānṛtaṃ brūyādeṣa dharmaḥ sanātanaḥ ||
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Revered Dr. Bhimarao R. Ambedkar (BabaSaheb) While accepting Bauddha-dharma declared He was relinquishing Hindu-dharma. Evidently, He didn't relinquish sanātana dharma.
We can say sanātana dharma is the true identity of the 'religion' of India.
And if He decided to leave Hindu-dharma and opted for Bauddha-dharma, this further questions if we should follow / insist to be 'Hindu'.
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मनुस्मृति वेद-पुराण पर आधारित 'स्मृति' कहा जानेवाला धर्मग्रन्थ है, तो धम्मपद भगवान् बुद्ध की शिक्षाओं का संग्रह अर्थात् एक 'स्मृति' ही है।
मनुस्मृति में अध्याय 4 में प्रस्तुत श्लोक 138 तो प्रसिद्ध है ही :
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं।
प्रियं च नानृतं  ब्रूयात् एष धर्म सनातनः।।
तात्पर्य यह कि सनातन धर्म वह धर्म है जो उस प्रकार के आचरण की शिक्षा देता है, -जिससे पूरे समाज को दृष्टि में रखते हुए सबके लिए जिस प्रकार से श्रेय की प्राप्ति हो सकती है । वैसे तो वैदिक आधार पर वर्णाश्रम-धर्म सभी के लिए अनुकूल है ही, किंतु किन्हीं कारणों से महाभारत-काल के बाद भगवान् बुद्ध के अवतार होने के बाद वेद-धर्म का लोप होने लगा अतः स्वाभाविक था कि मनुष्य की सामूहिक स्मृति से वर्ण-आश्रम-धर्म का भी विस्मरण होने लगा और भगवान् बुद्ध द्वारा निर्देशित 'धम्म' / धर्म की परंपरा समाज में प्रचलित हो गई। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि भगवान् तीर्थंकर महावीर (जो बुद्ध के समकालीन थे) का श्रमण-धर्म भी इसी के साथ अधिक प्रचलित हुआ किंतु वाल्मीकि रामायण में इन दोनों परंपराओं के वर्णन से स्पष्ट है कि ये दोनों परंपराएँ भी समाज में 'सनातन-धर्म' की ही तरह प्राचीन काल से मान्य रही हैं। वाल्मीकि रामायण में जाबालि ऋषि द्वारा श्रीराम को वन में न जाने के लिए आग्रह करना और ऋषि के वचनों की श्रीराम द्वारा भर्त्सना करते समय उन्हें 'तथागत' 'बुद्ध' और 'नास्तिक' कहा जाना यही सिद्ध करता है कि चार्वाकदर्शन से मंडित वेदविरोधी धारा भी सनातन काल से ही प्रचलित है। वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 108 में ब्राह्मणोत्तम ऋषि जाबालि ने जिस प्रकार का नास्तिक-मत-सम्मत तर्क श्रीराम के सामने रखा है और श्रीराम ने सर्ग 109 में उसका रोषपूर्ण शब्दों से खंडन किया है उससे यही सिद्ध होता है कि आत्म-ज्ञान (निर्वाण) की प्राप्ति के कारण सनातन धर्म का वैदिक रूप यद्यपि भगवान् बुद्ध को विष्णु के अवतार की तरह मान्य तो करता है किंतु उनकी नास्तिक परंपरा को वेदविरोधी मानता है।  सर्ग 109 में श्रीराम (जो स्वयं भी भगवान् विष्णु के ही अवतार हैं), अपने ही आगामी बुद्ध अवतार के स्वरूप की निंदा इन शब्दों से करते हैं :
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध
स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां
स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्।।34
अर्थ : जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धमतावलंबी) भी दण्डनीय है।  तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए।  इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के सामान दंड दिलाया ही जाए; परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो -- उससे वार्तालाप तक न करे।
इससे अगले श्लोक 35 में श्रेष्ठ ब्राह्मणों के आचरण की प्रशंसा करते हुए श्रीराम कहते हैं :
त्वत्तो जनाः पूर्वतरे द्विजाश्च
शुभानि कर्माणि बहूनि चक्रुः।
छित्त्वा सदेमं च परं  च लोकं
तस्माद् द्विजाः स्वस्ति कृतं हुतं च ।।35
अर्थ : आपके सिवा पहले के श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने इहलोक और परलोक की फल-कामना का परित्याग करके वेदोक्त धर्म समझकर सदा ही बहुत से शुभ कर्मों का अनुष्ठान किया है। अतः जो भी ब्राह्मण हैं, वे वेदों को ही प्रमाण मानकर स्वस्ति (अहिंसा और सत्य आदि) , कृत (तप, दान और परोपकार आदि) तथा हुत (यज्ञ-याग आदि) कर्मों का सम्पादन करते हैं।
इसका सार गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में अत्यंत सुन्दर रीति से इस प्रकार व्यक्त किया गया है :
ॐ तत्सदिति निर्देशों ब्रह्मणस्त्रिविधा स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता पुरा।।
बौद्धमतावलंबी नास्तिक के बारे में भी गीता अध्याय 16 का श्लोक २३ दृष्टव्य है :
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारकः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।
(इस प्रकार यदि वैराग्य नास्तिक और चार्वाक तथा बौद्ध मत का आधार न हो तो) शास्त्रविहित को छोड़कर स्वेच्छाचार-पूर्वक पालन किया जानेवाला ऐसे धर्म से न तो सुख, न श्रेष्ठ गति (मोक्ष या निर्वाण) और न सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
इसी स्वस्ति अर्थात् स्वस्ति को जैन मत में भी अत्यंत पूज्य माना जाता है।  किसी तीर्थंकर के वक्ष पर इसे अंकित भी देखा जाता है, जो 'कौस्तुभ' के या 'श्रीवत्स' के ही तुल्य है।
जैन मत अर्थात् श्रमण-धर्म का भी उल्लेख वाल्मीकि रामायण में अरण्यकाण्ड सर्ग 70 से 73 तक किया गया है। शबरी (संस्कृत में शर्वरी / शर्वाणि / शर्वाणी ) का अर्थ है रात्रि एवं, पार्वती।
[उल्लेखनीय है कि फारसी से उर्दू में आया 'शब' इसी शर्व का सज्ञाति / cognate है।]  
 सर्ग 73 के श्लोक 26 में शबरी का वर्णन कुछ यूँ है :
कबन्ध श्रीराम से मतङ्ग ऋषि के आश्रम के वर्णन के बाद शबरी के आश्रम का वर्णन इस प्रकार करता है :
तेषां गतानामद्यापि दृश्यते परिचारिणी।
श्रमणी शबरी नाम काकुत्स्थ चिरजीविनी।।26
त्वां तु धर्मे स्थिता नित्यं सर्वभूत नमस्कृतम्।
आश्रमस्थानमतुलं गुह्यं काकुत्स्थ पश्यसि।।27
इस तथा अगले सर्ग को पढ़ने से जैन धर्म के पांच णमोकार मन्त्र एकाएक स्मरण हो उठते हैं :
ॐ णमो अरिहंताणं।
ॐ णमो सिद्धाणं।
ॐ णमो आइरियाणं।
ॐ णमो उवज्झायाणं।
ॐ णमो सव्व साहूणं।
क्योंकि इस सर्ग में सभी के संकेत-सूत्र पाए जाते हैं।
अगले सर्ग 74 में पुनः श्लोक 5, 6 तथा 7 के अनुसार :
तौ तमाश्रममासाद्य द्रुमैर्बहुभिरावृतम्।
सुरम्यभिवीक्षन्तौ शबरीमभ्युपेयतुः।।5
तौ दृष्ट्वा तु तदा सिद्धा समुत्थाय कृताञ्जलिः।
पादौ जग्राह रामस्य लक्ष्मणस्य धीमतः।।6
पाद्यमाचमनीयं च सर्वं प्रादाद् यथाविधिः।
तामुवाच ततो रामः श्रमणीं धर्मसंस्थिताम्।।7
इसी सर्ग में शबरी श्री राम से कहती है :
एवमुक्ता महाभागैस्तदाहं पुरुषर्षभ।
मया तु संचितं वन्यं विविधं पुरुषर्षभ।।17
तवार्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायास्तीरसंभवम्।
एवमुक्तः स धर्मात्मा शबर्या शबरीमिदम्।।18
राघवः प्राह विज्ञाने तां नित्यमबहिष्कृताम्।
दनोः सकाशात् तत्वेन प्रभावं ते महात्मनाम्।।19
विज्ञाने तां नित्यमबहिष्कृताम् -- उसकी विज्ञान (अध्यात्मविद्या) में नित्य अवस्थिति अर्थात् उसका नित्य  अबहिष्कृत होना।
दनोः सकाशात् -- दानव कबन्ध से
संभव है इस विवेचना में मुझसे कोई भूल हुई हो तो क्षमा चाहूँगा।
किंतु यह तो स्पष्ट है की जैन धर्म भी वैदिक धर्म की तरह प्राचीन और सनातन है।
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टिप्पणी : वाल्मीकि रामायण के सभी अंश गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित इस ग्रन्थ के हिंदी अनुवाद से लिए गए हैं।
(क्रमशः)
सनातन धर्म में स्त्री का स्थान
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