Sunday, 18 November 2018

संसार : सत्यता और सातत्य

विच्छिन्नता और प्रच्छन्नता 
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कितने आश्चर्य की बात है कि संसार का सातत्य (सतत अस्तित्वमान होना) कल्पित है, जबकि संसार की सत्यता असंदिग्ध, निर्विवाद और अकाट्य तथ्य है।  और इन्हीं दो के बीच भेद न देख पाना मूल विभ्रम है।
एक छोटा बच्चा भी संसार को सत्य समझता है और एक बड़ी उम्र का मनुष्य भी इसे सत्य समझता है किंतु बच्चे के लिए संसार तभी तक सत्य होता है जब तक वह जागृत अवस्था में होता है और सोकर पुनः जागने पर उसका संसार उसके लिए पुनः नए सिरे से सत्य होता है।  जैसे जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है वैसे वैसे स्मृतियों के जमा होने से उन स्मृतियों की प्रतिमाएँ एक पर एक चढ़कर संसार के सातत्य (सतत अस्तित्वमान होने) का भ्रम पैदा करती हैं और इस बीच अपनी स्वयं की सत्यता भी संसार के इस सातत्य के अनुरूप किसी प्रतिमा की तरह संसार के सातत्य (सतत अस्तित्वमान होने) का एक हिस्सा बन जाती है।  इस प्रक्रिया में निद्रा का वह अंश पूरी तरह भुला दिया जाता है जहाँ अपनी या संसार की कोई प्रतिमा नहीं होती किन्तु अपना और संसार का अस्तित्व इससे बाधित नहीं होता। अपना और संसार का वही अस्तित्व जाग जाने के बाद भी वैसा ही होता है लेकिन संसार की और उसके तारतम्य में कल्पित स्मृतियों का सातत्य (सतत अस्तित्वमान होना) इस सच्चाई से हमारा ध्यान हटा देता है।  इसलिए यह आवश्यक है कि संसार को न तो असत्य समझा जाए और न अपने से भिन्न या पृथक ही समझा जाए। तात्पर्य यह है कि अतीत स्मृतियों के माध्यम से संसार को न देखा जाए।  क्योंकि संसार जैसा प्रतीत होता है वह नित्य नया होता है जबकि स्मृति सदा पुरानी, इस वर्त्तमान से नितांत भिन्न और विच्छिन्न होती है। स्मृति को सत्य की तरह ग्रहण करना किसी सीमा तक ज़रूरी और ठीक भी हो सकता है किंतु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उसके माध्यम से जिस संसार को ग्रहण किया जा रहा है वह 'हमेशा' वैसा होता है। इसी भूल से प्रायः हर कोई 'अपना' एक व्यक्तिगत संसार निर्मित कर लेता है जो उसकी कल्पना से भिन्न नहीं होता और इससे संसार का यथार्थ बिलकुल प्रभावित नहीं होता।  वही यथार्थ संसार की, और अपनी भी सत्यता है लेकिन उसे संसार के दूसरे 'अनुभवों' की तरह 'अनुभव' नहीं किया जा सकता।  हाँ, उसकी ओर ध्यान अवश्य दिया जा सकता है जिससे संसार की और अपनी हमेशा रहनेवाली सत्यता का बोध जागृत होता है।
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Isolation and The Underlying Reality.
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It is a wonder that the continuity of the world is imaginary, while the Reality of the world is a doubtless, indubitable, and irrefutable truth. The inability to see the difference between the two is the basic confusion / conflict. A kid treats the world as true and a grown up too takes it as true, but the kid takes the world as true only during its waking moments, and after waking up again after sleep, the world becomes true for it anew, afresh with a totally new beginning.As the kid grows up, the memories of the world that it had during waking state get accumulated in assorted order and the images made of those memories cause a delusion and confusion, conflict of the kind about the form and truth of the perceived and experienced world. Again the memory of oneself in contrast with this apparent world also in a way 'defines' an image of oneself and the memory of this image becomes a part of the memory about the world. While this happens, the fact that during sleep there is no image at all of the said world or me, is just forgotten, though the Reality is in no way affected by this whole process. The same Reality holds and abides even when one is asleep or woken up. But the continuity of the memories cover up this Truth and one just feels oneself in a world where world and the one are two different entities juxtaposed together. It is important to see that the world should neither be treated as Unreal, nor different, distinct and other than oneself (me). Because The world as it is seen every moment has ever so a new form and appearance, while this simple truth is obscured and obstructed by the memories. Because the memory is / the memories always old and dead, quite unconnected and unrelated to the present moment. Of course the memory is recognition and recognition is memory and is quite much useful in living the daily life of the individual, but at the same time the obsession with the memory gives an assumed continuity to the false, -the things non-existent. Because of this assumed and imposed sense of continuity that is the result of memory, one projects one's own imaginary world that is but living in utopia. And the Real world is in no way affected by this personal world. And That Realty is the core truth, and the very essence of the Reality, though this Reality couldn't be 'experienced' in the way one experiences the worldly things. Yet, understanding this whole thing  helps greatly in breaking the shell of the 'person' one is enclosed within.  One may become 'aware' of this Reality and leave away aside, - the personal world, that is but all sorrow and misery only.
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