Wednesday, 7 November 2018

विषय और विषयी

चेतना और चैतन्य
विषय और विषयी के संदर्भ में "ध्यान क्या है?" इस प्रश्न पर गौर करें तो सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि अस्तित्व-मात्र को मोटे तौर पर जड और चेतन में बाँटा जा सकता है।  समस्त इन्द्रियगम्य अनुभव किसी चेतन-तत्व में ही हो सकते हैं।  इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि 'मैं' अपरिहार्यतः नित्य चेतन हूँ। इसी  'मैं' को जब अपने को किसी शरीर-विशेष तक सीमित रखते हुए 'हूँ' के रूप में कहा जाता है तो इस शरीर-विशेष में स्थित, इससे जुड़ा यह 'मैं' इस चेतन की तरह 'विषयी' कहा जाता है, जबकि इसके अनुभव में आनेवाले तमाम तत्व इसके अनुभव का 'विषय' कहलाते हैं।  पुनः यह, या कोई भी शरीर-विशेष शेष सभी चेतनतायुक्त शरीरों के अनुभव का 'विषय' होता है।  अब हमें एक और शब्द मिला - 'चेतनता' ।  इसी आधार पर समस्त चेतन पिंडों (शरीरों) में 'चेतनता' नामक तत्व व्याप्त होता है और किन्हीं किन्हीं शरीरों में यही 'चेतनता' 'विषयी' कही जाती है।  जिसमें यह पहले थी किंतु अब नहीं अनुभव होती और न इसके पुनः प्रकट होने की संभावना जान पड़ती है, उन्हें 'मृत' समझा जाता है अर्थात् उस पिंड में जीवन के लक्षण नहीं दिखाई देते और वह जड की श्रेणी में रखा जाता है। चेतन जड पर नियंत्रण कर सकता है लेकिन जड में ऐसा कोई सामर्थ्य या स्वतन्त्रता होती हो ऐसा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
विषयों से विषयी-चेतना का संपर्क विषय का 'ध्यान' कहा जाता है। सामान्यतः भी हम ध्यान शब्द का प्रयोग सचेत होने के अर्थ में करते हैं। इस प्रकार ध्यान का पहला अर्थ है सचेत होना।  स्पष्ट है कि यह सचेत होना अर्थात् 'सचेतनता' किसी विषयी की किसी विषय के ही प्रति होती है।
जहाँ तक स्थूल भौतिक वस्तुओं का प्रश्न है, यह सचेतनता वैसे तो शुद्ध इन्द्रिय-अनुभवों अर्थात् देखना, सुनना, छूना, सूंघना और चखना इन पाँच रूपों में होती है किंतु जब विषयी में इन अनुभवों की स्मृति संचित होने लगती है तो उन अनुभवों का 'प्रिय' तथा 'अप्रिय' में वर्गीकरण होने लगता है। अनुभवों में वृद्धि होने के साथ-साथ इस वर्गीकरण में विस्तार और विश्लेषणात्मक दृष्टि से विभाजन तथा जटिलता होने लगती है।  अनुभव तब 'मिश्रित' की तरह देखे जाते हैं। यह सब प्रायः उन सभी प्राणियों में होता है जिनमें 'भाषा' अभी अधिक विकसित नहीं हुई होती।  जब ध्वनि-संकेतों का विकास सुचारु रूप से होने लगता है तो विभिन्न ध्वनियों का न सिर्फ भावनात्मक बल्कि प्रतिमापरक (abstract) तात्पर्य (notion) भी स्थापित कर लिया जाता है अर्थात् ध्वनि-विशेष से किसी वस्तु-विशेष को जोड़ दिया जाता है और एक समूह उन तात्पर्यों का संकेतों का आदान-प्रदान और अर्थ-ग्रहण करने लगता है।  मनुष्य में ही भाषा का तत्व इतना अधिक विकसित हुआ है कि भिन्न-भिन्न समुदायों ने अपनी अपनी अलग अलग शाब्दिक भाषा निर्मित कर ली, और ऐसी असंख्य भाषाएँ अतीत में बनीं होंगीं और बनती -मिटती रहेंगीं। भाषा के उद्भव के बाद भाव और विचार के प्रभाव से भाषा जटिल और संश्लिष्ट तो हुई और केवल मूर्त ही नहीं, अमूर्त (abstract) तत्व भी भाव और विचार के माध्यम से अनायास भाषा से जुड़ गए।  इसलिए मनुष्य इतर प्राणियों की तुलना में कहीं बहुत अधिक उलझ गया।  जैसे 'मैं' का भाव / भावना, विचार, संकल्प और धारणा।  जब किसी भौतिक वस्तु के बारे में सोचा / कहा जाता है तो 'विषय' और 'विषयी' का भेद स्पष्ट होता है किंतु जब किसी भावना, अनुभूति, विचार, संकल्प, 'समय'   जैसे अमूर्त (abstract) तत्व को भाषा के माध्यम से व्यक्त किया जाता है, तो यह भेद अदृश्य हो जाता है। इस प्रकार जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे विषय तथा विषयी को परस्पर मिला दिया जाता है।
यह तो हुई 'भूमिका'.....
अब प्रश्न :
ध्यान क्या है?
अतीत तथा भविष्य 'विषय' हैं, ध्यान विषयी और विषयी के मध्य संपर्क, -interface है।  इस प्रकार ध्यान का एक शीर्ष विषय, तो दूसरा विषयी है।
ध्यान स्वरूपतः तो निर्विषय चेतना है, जो भान-स्वरूप / स्वरूप-भान है।
ध्यान या तो चित्त को प्रमाद (inattention) के कारण विषयों के संग मिल जाने के कारण से विषयी के विशिष्ट प्रकार में अनुभव किया जाता है, और तब भी विषयों के प्रति आकर्षण या विकर्षण, अर्थात् उनसे सुख या दुःख प्राप्ति का अनुमान होने से, आसक्ति / राग या द्वेष बन जाता है, अथवा उनसे उपरत (detached) कर सकता है।  इसी अनुभव के फलस्वरूप विषयों से वितृष्णा तक हो जाती है, जो विराग है।  जबकि वैराग्य राग तथा विराग दोनों से भिन्न है।
इन्द्रियों के स्थूल और सूक्ष्म विषय तो हम जानते ही हैं।
रूप,रस, गंध, स्पर्श, और श्रवण (सुनना) ये पाँच 'तन्मात्राएँ' इन्द्रियों से ध्यान / चित्त के जुड़ने के बाद ही अनुभव की जाती हैं।  स्थूल रूप में ये पाँचों क्रमशः नेत्रों, जिह्वा / जीभ, नासा (नाक), त्वचा, और कानों से ग्रहण किए जानेवाले 'विषय' हैं।
सूक्ष्म रूप से ये पाँचों कल्पना, आस्वाद, मोह, विषय-विषयी के संपर्क तथा ध्वनि, -इन्हें ग्रहण करने का कार्य हैं। इन पाँचों स्थूल और सूक्ष्म विषयों के अतिरिक्त 'अतीत', 'भविष्य', 'वर्तमान' तथा 'कर्म' (संचित / मूल प्रवृत्ति, क्रियमाण/ प्रारब्ध जो कर्म के शुरू हो जाने का नाम है, और आगामी / भावी, -जो अज्ञात होने से अनिश्चित भी है ही किन्तु अनुमेय अवश्य हो सकता है),  जैसे तत्व केवल 'स्मृति' के आधार पर विषयी द्वारा उनके चिंतन से वर्त्तमान में सत्यता दिए जाने से ही उसे आक्रान्त करते हैं, और इस तरह इन्द्रियग्राह्य किंतु अगोचर जैसे विरोधाभासी स्वरूप में उन्हें स्वीकार किया जाता है। 
इस प्रकार से, अतीत वस्तुतः कभी घटित ही नहीं हुआ लेकिन उसे घटित की तरह सत्य समझ लिया जाता है और न भविष्य ही कभी घटित होगा किंतु उसकी भवितव्यता का विचार कर लिया जाता है। 
केवल वर्त्तमान जो 'विषयी' है और अतीत तथा भविष्य से अछूता है, नित्य, सनातन और शाश्वत आधारभूत सत्य है। 
इसलिए ध्यान किए जाने का, या "ध्यान कैसे करें?" यह प्रश्न ही एक भ्रांतिजनक प्रश्न है।  किंतु 'ध्यान में कैसे अवस्थित हों?' यह प्रश्न अपेक्षाकृत सही जिज्ञासा है क्योंकि तब ध्यान क्या है, यह जानकर विषयों से उपरत (withdrawn) हो जाना तथा अनायास निर्विषय-चेतना से एकीभूत होकर उसका उदघाटन कर लेना संभव है।
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