ईश्वरनिष्ठा अर्थात् आत्मनिष्ठा
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उन प्रारंभिक कुछ वर्षों में उनका तप अनायास विवृद्ध होता रहा और विशाल वटवृक्ष सा अरुणाचल के प्राङ्गण की दृढ़भूमि पर खड़ा रहा। बाद के वर्षों में माता की महासमाधि के बाद वे पहाड़ी पर स्थित 'स्कंदाश्रम' से उतरकर माता की समाधि 'मातृभूतेश्वर' के पास ही आकर रहने लगे। न्यूरो-सर्कोमा नामक कैंसर से १९५० में अपनी महासमाधि तक वे अरुणाचल को छोड़कर कहीं नहीं गए। यह उनका आध्यात्मिक 'घर' था। अरुणाचल की पवित्र पहाड़ी से सटे अपने आश्रम में वे जीवनपर्यन्त रहे जहाँ हजारों दर्शनार्थी उनके दर्शन करने के लिए आते रहते थे। यद्यपि ऐसा कहा जा सकता है कि उनके बारे में प्रत्येक का अपना अपना मत था और उनमें से कुछ को वह न प्राप्त हो सका हो जिसके लिए वह उनके सान्निध्य में आया था, शायद उसे अस्थायी या स्थायी समाधान भी न मिला हो, लेकिन अपनी मृत्यु के अंतिम क्षणों तक भी वे पूर्णतः सचेत थे, -हास्यबोध की स्वाभाविक प्रवृत्ति-सहित धीर, गंभीर और करुणापूर्ण। चाहे स्त्री हो, पुरुष या बालक, प्रत्येक आगंतुक के लिए उनके द्वार हमेशा खुले रहते थे। सांसारिक धन-दौलत, यश / ख्याति या सम्पन्नता के प्रति वैसी वितृष्णा या भौतिकता के प्रति वैसा द्वेष भी उनके मन में नहीं था, जैसा कि उन तथाकथित संतों में कभी-कभी पाया जाता है, जो पूर्ण परिपक्व नहीं हुए होते। किसी उच्च पदस्थ अधिकारी या प्रचुर संपत्ति के स्वामी का भी वैसा ही स्वागत वहाँ होता था जैसा सहज स्मितपूर्वक स्वागत वे किसी निम्नवर्ग के कहे जानेवाले निर्धनप्राय व अकिंचन प्रतीत होनेवाले व्यक्ति का करते थे। और महर्षि किसी वैभवसम्पन्न मनुष्य को तुच्छता की दृष्टि से उसका अवहेलना या तिरस्कार कर उपेक्षा से देखते हों, ऐसा भी नहीं था।
बाह्य स्तर पर जिया जानेवाला उनका जीवन एक लीला या नाटक, अभिनय-मात्र था, जबकि गहराई में वहां शान्ति और आनंद था। सांसारिक उत्तेजनाओं के धरातल पर उनका जीवन अत्यंत साधारणप्राय था, लगभग कोई विशिष्ट या महत्वपूर्ण बात उसमें खोजना कठिन था। लौकिक उत्तेजनाओं और उपभोगों से अभिभूत होनेवाले शायद ही कल्पना कर सकेंगे कि आत्मनिष्ठा का जीवन कितना स्वतंत्र और भरा-पूरा हो सकता है। सचमुच उनके पास कुछ भी न था। उनके सान्निध्य में आश्रम बना, विकसित हुआ और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनसे जुड़े लोग उन्हें छोड़ने के लिए राज़ी न थे। ऐसे ही कुछ लोगों ने शुरू में उनके समीप अपने आवास के लिए मिट्टी आदि से कुछ झोंपड़ियाँ, कुटियाएँ बनाईं, और धीरे धीरे पूरा स्थान आश्रम में रूपांतरित हो गया। किंतु वे इस सबसे मात्र उदासीन थे ऐसा भी नहीं था, इस सबके बीच भी वे प्रसन्नता और निर्लिप्तता से ही रहते थे। "तीव्र वैराग्य की प्रबल भावना" जिसे कहें, ऐसी विरोधाभासी स्थिति थी यह। जीवन-निर्वाह की कठिनतम परिस्थितियों में एक तपस्वी का जो जीवन वे सरलतापूर्वक अनायास जी रहे थे, वह वास्तव में वैसा कठिन नहीं था जैसा कि किसी गर्म जलवायु वाले स्थान में होने की कल्पना हम करते हैं। किंतु इसके बावजूद सुख-सुविधाओं के प्रति उनके मन में तिरस्कार की वैसी भावना भी नहीं थी, जो किसी साधारण तपस्वी में न होना कठिन ही होता है । नैतिक आग्रहों और मूल्यों पर उनका विशेष ध्यान हो ऐसा भी न था। मानवीय दुर्बलताओं के प्रति उनमें सहिष्णुता और धैर्य था। यद्यपि इस दृष्टि से उनका चिंतन स्पिनोज़ा / Spinoza के चिंतन जैसा था, लेकिन उनकी दृष्टि में इससे भी बढ़कर यदि कुछ था तो वह था, - ईश्वरीय-सत्ता में अधिष्ठित रहना, जो वस्तुतः तो हमारा मौलिक और जन्मसिद्ध अधिकार ही है, लेकिन हमारा आधा-अधूरा चिंतन ही हमें जिससे वंचित कर देता है, और ऐसा 'अपूर्ण चिंतन' ही सारी बुराइयों की जड़ और जननी है। वे स्वयं स्वतःस्फूर्त ऐसा जीवन जीते थे जिसमें ईश्वरनिष्ठा ही आत्मनिष्ठा थी।
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...... निरंतर ........
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उन प्रारंभिक कुछ वर्षों में उनका तप अनायास विवृद्ध होता रहा और विशाल वटवृक्ष सा अरुणाचल के प्राङ्गण की दृढ़भूमि पर खड़ा रहा। बाद के वर्षों में माता की महासमाधि के बाद वे पहाड़ी पर स्थित 'स्कंदाश्रम' से उतरकर माता की समाधि 'मातृभूतेश्वर' के पास ही आकर रहने लगे। न्यूरो-सर्कोमा नामक कैंसर से १९५० में अपनी महासमाधि तक वे अरुणाचल को छोड़कर कहीं नहीं गए। यह उनका आध्यात्मिक 'घर' था। अरुणाचल की पवित्र पहाड़ी से सटे अपने आश्रम में वे जीवनपर्यन्त रहे जहाँ हजारों दर्शनार्थी उनके दर्शन करने के लिए आते रहते थे। यद्यपि ऐसा कहा जा सकता है कि उनके बारे में प्रत्येक का अपना अपना मत था और उनमें से कुछ को वह न प्राप्त हो सका हो जिसके लिए वह उनके सान्निध्य में आया था, शायद उसे अस्थायी या स्थायी समाधान भी न मिला हो, लेकिन अपनी मृत्यु के अंतिम क्षणों तक भी वे पूर्णतः सचेत थे, -हास्यबोध की स्वाभाविक प्रवृत्ति-सहित धीर, गंभीर और करुणापूर्ण। चाहे स्त्री हो, पुरुष या बालक, प्रत्येक आगंतुक के लिए उनके द्वार हमेशा खुले रहते थे। सांसारिक धन-दौलत, यश / ख्याति या सम्पन्नता के प्रति वैसी वितृष्णा या भौतिकता के प्रति वैसा द्वेष भी उनके मन में नहीं था, जैसा कि उन तथाकथित संतों में कभी-कभी पाया जाता है, जो पूर्ण परिपक्व नहीं हुए होते। किसी उच्च पदस्थ अधिकारी या प्रचुर संपत्ति के स्वामी का भी वैसा ही स्वागत वहाँ होता था जैसा सहज स्मितपूर्वक स्वागत वे किसी निम्नवर्ग के कहे जानेवाले निर्धनप्राय व अकिंचन प्रतीत होनेवाले व्यक्ति का करते थे। और महर्षि किसी वैभवसम्पन्न मनुष्य को तुच्छता की दृष्टि से उसका अवहेलना या तिरस्कार कर उपेक्षा से देखते हों, ऐसा भी नहीं था।
बाह्य स्तर पर जिया जानेवाला उनका जीवन एक लीला या नाटक, अभिनय-मात्र था, जबकि गहराई में वहां शान्ति और आनंद था। सांसारिक उत्तेजनाओं के धरातल पर उनका जीवन अत्यंत साधारणप्राय था, लगभग कोई विशिष्ट या महत्वपूर्ण बात उसमें खोजना कठिन था। लौकिक उत्तेजनाओं और उपभोगों से अभिभूत होनेवाले शायद ही कल्पना कर सकेंगे कि आत्मनिष्ठा का जीवन कितना स्वतंत्र और भरा-पूरा हो सकता है। सचमुच उनके पास कुछ भी न था। उनके सान्निध्य में आश्रम बना, विकसित हुआ और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनसे जुड़े लोग उन्हें छोड़ने के लिए राज़ी न थे। ऐसे ही कुछ लोगों ने शुरू में उनके समीप अपने आवास के लिए मिट्टी आदि से कुछ झोंपड़ियाँ, कुटियाएँ बनाईं, और धीरे धीरे पूरा स्थान आश्रम में रूपांतरित हो गया। किंतु वे इस सबसे मात्र उदासीन थे ऐसा भी नहीं था, इस सबके बीच भी वे प्रसन्नता और निर्लिप्तता से ही रहते थे। "तीव्र वैराग्य की प्रबल भावना" जिसे कहें, ऐसी विरोधाभासी स्थिति थी यह। जीवन-निर्वाह की कठिनतम परिस्थितियों में एक तपस्वी का जो जीवन वे सरलतापूर्वक अनायास जी रहे थे, वह वास्तव में वैसा कठिन नहीं था जैसा कि किसी गर्म जलवायु वाले स्थान में होने की कल्पना हम करते हैं। किंतु इसके बावजूद सुख-सुविधाओं के प्रति उनके मन में तिरस्कार की वैसी भावना भी नहीं थी, जो किसी साधारण तपस्वी में न होना कठिन ही होता है । नैतिक आग्रहों और मूल्यों पर उनका विशेष ध्यान हो ऐसा भी न था। मानवीय दुर्बलताओं के प्रति उनमें सहिष्णुता और धैर्य था। यद्यपि इस दृष्टि से उनका चिंतन स्पिनोज़ा / Spinoza के चिंतन जैसा था, लेकिन उनकी दृष्टि में इससे भी बढ़कर यदि कुछ था तो वह था, - ईश्वरीय-सत्ता में अधिष्ठित रहना, जो वस्तुतः तो हमारा मौलिक और जन्मसिद्ध अधिकार ही है, लेकिन हमारा आधा-अधूरा चिंतन ही हमें जिससे वंचित कर देता है, और ऐसा 'अपूर्ण चिंतन' ही सारी बुराइयों की जड़ और जननी है। वे स्वयं स्वतःस्फूर्त ऐसा जीवन जीते थे जिसमें ईश्वरनिष्ठा ही आत्मनिष्ठा थी।
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