Saturday, 24 November 2018

ब्रह्म, -ध्यान का विषय ?

'विषय और विषयी' के बाद उस क्रम में कुछ और महत्वपूर्ण लिख पाया हूँ।
कुछ पोस्ट्स क्रम से 'ध्यान' के स्वरूप से संबंधित हैं और ध्यान पर सर्वथा नए ढंग से प्रकाश डालते हैं किंतु उन से पहले दो-तीन अन्य पोस्ट्स प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो ध्यान की नई भूमिका को समझने के लिए सहायक होंगे।
'ब्रह्म' पर ध्यान :
क्या ब्रह्म ध्यान का विषय हो सकता है?
 ब्रह्म के बारे में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ब्रह्म सजातीय, विजातीय तथा स्वगत इन तीनों प्रकार के भेदों से रहित है इसलिए वस्तुतः विषय-विषयी का विभाजन ही मूलतः ब्रह्म पर आरोपित नहीं होता। किंतु जब तक अपने आपको संसार में लेकिन संसार से भिन्न और पृथक एक जीव-सत्ता के रूप में ग्रहण किया जाता है तब तक जीव विषयी के रूप में ब्रह्म को विषय की तरह मानकर उसका ध्यान करने के विचार से, उस दृष्टि से कल्पना करता है।
जहाँ तक भेद-बुद्धि है, विषय-विषयी का विभाजन तो होगा ही। किसी भी विषय से एकाकार होने पर होनेवाला अनुभव अल्पकालिक अनुभव होता है, क्योंकि निर्विषय विषयी किसी एक ही विषय पर बहुत समय तक स्थिर / संलग्न नहीं रह सकता। और, कोई भी अनुभव होने के लिए वृत्ति ही माध्यम होता है। वृत्ति के ही माध्यम से विषय-विषयी का क्षणिक तादात्म्य प्रतीत होता है। संस्कारों के कारण चित्त विभिन्न विषयों से पुनः पुनः जुड़ता और अलग होता रहता है और किसी विशेष अवसर पर यदि निर्विषय हो भी जाता है तो निद्रा या मूर्च्छा जैसा अनुभव होता है जो पुनः वृत्ति के ही प्रकार हैं। विषय से तादात्म्य की इस प्रतीति को ही स्मृति के आधार से अनुभव कहा जाता है, जो आकर चला गया लेकिन उसे पुनः स्मरण किया जाता है ।
ब्रह्म से तादात्म्य का अर्थ हुआ विषयी का विषय से तादात्म्य (एकत्व) होना। किंतु ब्रह्म में विषय का विषयी से एकाकार होने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है? विषयी स्वयं ही सजातीय, विजातीय तथा स्वागत भेदों से रहित निर्विषय ब्रह्म है। 
सजातीय का तात्पर्य है एक ही जाति के अंतर्गत भेद जैसे वृक्षों में कोई नीम है, तो कोई आम इत्यादि।
विजातीय का उदाहरण है वृक्ष और पशु-पक्षियों में भिन्नता।
स्वगत का भेद है अपने एक ही शरीर में भिन्न भिन्न अंगों में भेद।
इसलिए ब्रह्म सीधे ही ध्यान का विषय तो नहीं हो सकता किंतु ब्रह्म का 'साक्षात्कार' अवश्य संभव है और यह आत्म-साक्षात्कार का ही एक रूप है।  जब अपने-आपके यथार्थ स्वरूप का इन तीनों भेदों से रहित सत्य की तरह बोध हो जाता है तो ब्रह्म का अर्थात् आत्मा का प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। इन्द्रिय, बुद्धि, मनोगम्य समस्त विषयों का निरसन हो जाने पर चित्त जिस निर्विषय चेतना को अपने स्वरुप के रूप में जानता है वही ब्रह्म का अर्थात् आत्मा का साक्षात्कार भी है। 
यह कोई 'अनुभव' नहीं बल्कि  नित्य निज बोध का आविष्कार मात्र है, जिसे इन्द्रिय, बुद्धि, मनोगम्य विषयों से आवरित रहने तक अपरिचित और नया समझा जाता है। और इसी मान्यता के कारण ब्रह्म को भी कोई विषय मान लिया जा सकता है, और उस पर ध्यान हो सकता है या नहीं यह प्रश्न उठता है। 
आत्म-साक्षात्कार अर्थात् ब्रह्म का साक्षात् भान होते ही भेद-बुद्धि विलीन हो जाती है किंतु इससे विषयों का इन्द्रिय, बुद्धि, मनोगम्य ज्ञान समाप्त नहीं हो जाता।  तब समस्त भेद 'प्रतीति-मात्र' हैं और काल्पनिक हैं यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।
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