संस्कार और योगी-चरित्र
--
चेतना से संवेदन, संवेदन से विचार, विचार से भावना, भावना से अनुभूति, अनुभूति से स्मृति, स्मृति से संस्कार, तथा पुनः संस्कार से स्मृति, स्मृति से अनुभूति, अनुभूति से भावना, भावना से विचार, विचार से संवेदन और संवेदन से चेतना तक जाकर चक्र पूर्ण हो जाता है।
(इसी ब्लॉग में लिखे 'आब्रह्मभुवनाल्लोका' पोस्ट से)
क्या अज्ञान अनादि है?
इस प्रश्न में दो प्रश्न अन्तर्निहित हैं :
1. अनादि का तात्पर्य क्या यह है कि इसका आरंभ नहीं ?
2. 'जिसे' अज्ञान है क्या उसका आरंभ नहीं ?
पुनः किसी भी वस्तु का आरंभ और अंत, क्या काल नामक सत्ता की अवधारणा पर ही आश्रित नहीं है?
क्या काल नामक सत्ता का आरंभ और अंत है?
काल की सत्ता वस्तुतः केवल वर्त्तमान तक सीमित नहीं है?
अतीत या भविष्य की सत्ता क्या केवल इसी वर्त्तमान में धारणात्मक या विचारगत रूप में ही नहीं होती?
तात्पर्य यह कि स्मृति और कल्पना से जिसे अतीत या भविष्य कहा जाता है क्या उसकी सत्ता वर्त्तमान पर ही आश्रित नहीं होती? इस प्रकार अतीत और भविष्य का स्वतंत्र अस्तित्व, वर्त्तमान के अभाव में, वर्त्तमान का आधार न होने पर संभव है?
इस प्रकार वास्तव में अतीत और भविष्य को हम जानते ही नहीं बल्कि (अभी न विद्यमान होने से) जिसका अस्तित्व ही नहीं उस तथाकथित अतीत और भविष्य की स्मृति और कल्पना को सत्यता देकर उसे एक घटना के रूप में व्यावहारिक तल पर ग्रहण करते हैं। शुद्धतः भौतिक व्यावहारिक जगत में इसका सीमित उपयोग और प्रयोजन हो सकता है, किंतु वह व्यवहार नित्य सत्य नहीं है यह तो हर किसी को स्पष्ट है। और उसके नित्य सत्य न होने से ही स्मृति-आधारित मनःसृजित कल्पना से ही, कोई घटना जो कभी हुई उसे अतीत, और वह जो कभी पुनः संभव है उसे हम भविष्य का नाम देते हैं। चूँकि अतीत स्मृति में (उसी भाषा में, जिसमें हम विचार करते हैं) लगभग यथावत् संगृहीत है इसलिए हमें पत्थर की लकीर जैसा अटल प्रतीत होता है। और जिसे हम भविष्य कहते हैं वह चूँकि असंख्य संभावनाओं की अंतहीन बहुत बड़ी भीड़, इसलिए हम भविष्य का अनुमान लगाते हैं जो कभी कभी सत्य भी सिद्ध हो जाता है। वह भी केवल शुद्धतः भौतिक सन्दर्भ में ही पूर्ण सटीकता से और त्रुटिरहित कहा जा सकता है। संपूर्ण भौतिक-विज्ञान इसी परिकल्पना पर आधारित है और उसकी संकल्पनाएँ ही 'प्रयोग' से सिद्ध होकर वैज्ञानिक सिद्धांत का रूप लेती हैं। यद्यपि इसमें गणित का भी आश्रय लिया जाना अनिवार्य ही होता है। स्थूल विषयों पर यह प्रणाली बखूबी कार्य करती है, लेकिन जैसे जैसे हम सूक्ष्म विषयों की ओर आगे जाते हैं, भौतिक विज्ञान अंततः अनिश्चितता से बच नहीं पाता।
Heisenberg का Uncertainty Principle हो या Einstein का सापेक्षता का सिद्धांत / Theory of Relativity, -अनिश्चितता से छुटकारा नहीं। यहाँ तक कि 'प्रकाश' / Energy है या Particle, इस बारे में भी अनिश्चयग्रस्तता वैज्ञानिक पर हावी रहती है। यह अनिश्चितता / Uncertainty क्यों? क्या इसीलिए नहीं कि वैज्ञानिक सिद्धांत के माध्यम से उस सत्य को जानना समझना चाहता है जिसे 'भविष्य' में भी उसी तरह अकाट्य और अटल पाया जा सके जिसमें विकार अशुद्धि न हो, जिसे विकृत (distort) न किया जा सके।
इस प्रकार वैज्ञानिक द्रव्य / matter, ऊर्जा / Energy, स्थान (दूरी) / Space (Distance), काल / Time और चेतना / consciousness इन पाँच के प्रपञ्च से परे नहीं जा पाता।
जैसे द्रव्य / matter और ऊर्जा / Energy एक ही तथ्य / Fact के दो पहलू हैं, वैसे ही स्थान / Space और दूरी / Distance, तथा काल / Time भी वर्त्तमान / Present और अतीत-भविष्य रूपी समय के विस्तार (फैलाव) / extension of the present in terms of 'Past' and 'Future', - के दो पहलू हैं।
यद्यपि ये सभी तत्व (elements) जड (inert and insentient) हैं, इन सबका आधार, आश्रय और प्रमाण अपेक्षाकृत कोई चेतन / conscious (sentient) सत्ता / entity है यह एक निर्विवाद तथ्य है । किसी तर्क, प्रयोग, या अनुभव से इसे असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। और यह स्वयंसिद्ध (self-evident) ही है।
अब हमारे सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि चेतना / consciousness अर्थात् sentience का उद्भव जैव-प्रणाली के उद्भव के बाद हुआ, या चेतना / consciousness अर्थात् sentience एक ऐसा तत्व है जो पहले से विद्यमान था और जिसके अंतर्गत समस्त जीवन ने व्यक्त रूप ग्रहण किया ?
अगर मान लें कि जैव-प्रणाली के उद्भव के बाद ही चेतना का प्रस्फुटन / आगमन हुआ, तो भी यह तो मानना ही होगा कि किसी ऐसी प्रज्ञा (Intelligence) के रूप में चेतना / consciousness अर्थात् sentience बीज-रूप में इस जैव-प्रणाली में निहित कूटित कार्य-प्रणाली (encoded program) के रूप में इस प्रज्ञा (Intelligence) की तरह विद्यमान थी। क्योंकि विज्ञान अपने खोज और अनुसंधान में जितना आगे बढ़ता है, यह तथ्य उतना ही प्रखरतः स्पष्ट होता है कि पूरे सृष्टि-क्रम में गहरा सामञ्जस्य (well-arranged pattern) है, और सृष्टि-क्रम आकस्मिक संयोगमात्र (accidental coincidental) नहीं है ।
क्या कोई ऐसा तत्व ही जगत का स्वाभाविक प्रमाण नहीं है? क्योंकि जगत दृश्य या इन्द्रियग्राह्य है, पुनः इस चेतना में ही वह बुद्धिग्राह्य है। तत्पश्चात यह बुद्धि स्वयं भी चेतना का ही विषय है। इस प्रकार मनुष्य में बुद्धि भी जगत और इन्द्रियों की तरह एक विषय है जिसका प्रमाण चेतना है। यदि चेतना नहीं तो अन्य किसी के बारे में कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन चेतना की विद्यमानता से ही जगत के पदार्थों, इन्द्रियों (senses), बुद्धि (Intellect), भावना (emotion and sentiments), अनुभव (feelings and experience) और अंततः 'प्राण' का अस्तित्व प्रमाणित हो सकता है। यहाँ तक कि अत्यंत दुर्बल हो जाने पर, जब 'प्राण' भी अवरुद्ध हो जाते हैं अपने अस्तित्व की चेतना समाप्त नहीं हो जाती, और प्राण की शक्ति जागृत होने पर कहा जाता है कि तब मेरी स्मृति और होश नहीं थे।
प्रश्न यह भी है कि क्या चेतना / consciousness, sentience नामक यह आधारभूत तत्व वैयक्तिक है, या द्रव्य / matter, ऊर्जा / energy, काल / Time, स्थान / Space जैसा निर्वैयक्तिक है? क्योंकि इस प्रश्न का उत्तर जान लिए जाने पर हमें स्पष्ट होगा कि हमारी वैयक्तिकता की, अपने एक स्वतंत्र व्यक्ति होने की भावना का भी उद्भव उसी मूल चेतना से ही है, जो स्वरूपतः निर्वैयक्तिक है।
केवल संस्कार से ही हमारी वह चेतना 'व्यक्ति'-भावना' बनती है और संस्कार सम्मिलित रूप से वह सब है जिससे यह लेख प्रारंभ हुआ था।
क्या प्रत्येक मनुष्य में वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक इस प्रकार की दो चेतनाएँ होती हैं?
हर मनुष्य निरपवाद रूप से अपने-आपको 'एक' की ही तरह अनुभव तथा व्यक्त करता है और इसमें उसे कभी संशय नहीं होता। किंतु संसार में उसके जैसे असंख्य मनुष्यों में रहते हुए उसके इस स्वाभाविक बोध / भान पर अपने कोई विशेष होने का भाव इस तरह हावी हो जाता है कि अपने 'एक' होने का सरल तथ्य विस्मृतप्राय हो जाता है। यहाँ एक समस्या यह भी है कि दूसरे के अभाव में यह 'एक' होने की भावना भी लुप्त हो जाती है इसलिए भी उसका स्मरण किए जाने की संभावना नहीं रह जाती।
एक के होने के बाद ही दूसरा होता है। दूसरे के अभाव में एक, - एक भी कहाँ रह जाता है?
'दूसरा' विकल्प है।
एक की पहचान वितर्क है।
सविकल्प और सवितर्क में यही भेद है।
--
पुनः सविकल्प और सवितर्क की ही विवेचना, समाधान के रूप में क्रमशः सविकल्प समाधि तथा सवितर्क समाधि के रूप में भी की जा सकती है। जब विषयी किसी विषय से पूरी तरह तदाकार (identified) होता है तो उस तदाकारिता में, -पूर्ण तादात्म्य में सविकल्प समाधि घटित होती है। जब विषयी किसी तर्क से पूरी तरह तदाकार (identified) होता है तो उस तदाकारिता में, -पूर्ण तादात्म्य में सवितर्क समाधि घटित होती है। यह विषय 'अहं-वृत्ति' या 'ब्रह्माकार-वृत्ति' भी हो सकता है। यह विषय कोई संकल्प या निश्चय, संदेह या विश्वास हो सकता है जो प्रारंभ में भले ही एक वैचारिक अभ्यास रहा हो, संस्कार बन जाता है, और इस रूप में सर्वाधिक शक्तिशाली हो जाता है।
केवल सही अवधान (प्रमादशून्यता) से और विवेक के माध्यम से ही निर्विकल्प और निर्वितर्क हुआ जाता है।--
--
चेतना से संवेदन, संवेदन से विचार, विचार से भावना, भावना से अनुभूति, अनुभूति से स्मृति, स्मृति से संस्कार, तथा पुनः संस्कार से स्मृति, स्मृति से अनुभूति, अनुभूति से भावना, भावना से विचार, विचार से संवेदन और संवेदन से चेतना तक जाकर चक्र पूर्ण हो जाता है।
(इसी ब्लॉग में लिखे 'आब्रह्मभुवनाल्लोका' पोस्ट से)
क्या अज्ञान अनादि है?
इस प्रश्न में दो प्रश्न अन्तर्निहित हैं :
1. अनादि का तात्पर्य क्या यह है कि इसका आरंभ नहीं ?
2. 'जिसे' अज्ञान है क्या उसका आरंभ नहीं ?
पुनः किसी भी वस्तु का आरंभ और अंत, क्या काल नामक सत्ता की अवधारणा पर ही आश्रित नहीं है?
क्या काल नामक सत्ता का आरंभ और अंत है?
काल की सत्ता वस्तुतः केवल वर्त्तमान तक सीमित नहीं है?
अतीत या भविष्य की सत्ता क्या केवल इसी वर्त्तमान में धारणात्मक या विचारगत रूप में ही नहीं होती?
तात्पर्य यह कि स्मृति और कल्पना से जिसे अतीत या भविष्य कहा जाता है क्या उसकी सत्ता वर्त्तमान पर ही आश्रित नहीं होती? इस प्रकार अतीत और भविष्य का स्वतंत्र अस्तित्व, वर्त्तमान के अभाव में, वर्त्तमान का आधार न होने पर संभव है?
इस प्रकार वास्तव में अतीत और भविष्य को हम जानते ही नहीं बल्कि (अभी न विद्यमान होने से) जिसका अस्तित्व ही नहीं उस तथाकथित अतीत और भविष्य की स्मृति और कल्पना को सत्यता देकर उसे एक घटना के रूप में व्यावहारिक तल पर ग्रहण करते हैं। शुद्धतः भौतिक व्यावहारिक जगत में इसका सीमित उपयोग और प्रयोजन हो सकता है, किंतु वह व्यवहार नित्य सत्य नहीं है यह तो हर किसी को स्पष्ट है। और उसके नित्य सत्य न होने से ही स्मृति-आधारित मनःसृजित कल्पना से ही, कोई घटना जो कभी हुई उसे अतीत, और वह जो कभी पुनः संभव है उसे हम भविष्य का नाम देते हैं। चूँकि अतीत स्मृति में (उसी भाषा में, जिसमें हम विचार करते हैं) लगभग यथावत् संगृहीत है इसलिए हमें पत्थर की लकीर जैसा अटल प्रतीत होता है। और जिसे हम भविष्य कहते हैं वह चूँकि असंख्य संभावनाओं की अंतहीन बहुत बड़ी भीड़, इसलिए हम भविष्य का अनुमान लगाते हैं जो कभी कभी सत्य भी सिद्ध हो जाता है। वह भी केवल शुद्धतः भौतिक सन्दर्भ में ही पूर्ण सटीकता से और त्रुटिरहित कहा जा सकता है। संपूर्ण भौतिक-विज्ञान इसी परिकल्पना पर आधारित है और उसकी संकल्पनाएँ ही 'प्रयोग' से सिद्ध होकर वैज्ञानिक सिद्धांत का रूप लेती हैं। यद्यपि इसमें गणित का भी आश्रय लिया जाना अनिवार्य ही होता है। स्थूल विषयों पर यह प्रणाली बखूबी कार्य करती है, लेकिन जैसे जैसे हम सूक्ष्म विषयों की ओर आगे जाते हैं, भौतिक विज्ञान अंततः अनिश्चितता से बच नहीं पाता।
Heisenberg का Uncertainty Principle हो या Einstein का सापेक्षता का सिद्धांत / Theory of Relativity, -अनिश्चितता से छुटकारा नहीं। यहाँ तक कि 'प्रकाश' / Energy है या Particle, इस बारे में भी अनिश्चयग्रस्तता वैज्ञानिक पर हावी रहती है। यह अनिश्चितता / Uncertainty क्यों? क्या इसीलिए नहीं कि वैज्ञानिक सिद्धांत के माध्यम से उस सत्य को जानना समझना चाहता है जिसे 'भविष्य' में भी उसी तरह अकाट्य और अटल पाया जा सके जिसमें विकार अशुद्धि न हो, जिसे विकृत (distort) न किया जा सके।
इस प्रकार वैज्ञानिक द्रव्य / matter, ऊर्जा / Energy, स्थान (दूरी) / Space (Distance), काल / Time और चेतना / consciousness इन पाँच के प्रपञ्च से परे नहीं जा पाता।
जैसे द्रव्य / matter और ऊर्जा / Energy एक ही तथ्य / Fact के दो पहलू हैं, वैसे ही स्थान / Space और दूरी / Distance, तथा काल / Time भी वर्त्तमान / Present और अतीत-भविष्य रूपी समय के विस्तार (फैलाव) / extension of the present in terms of 'Past' and 'Future', - के दो पहलू हैं।
यद्यपि ये सभी तत्व (elements) जड (inert and insentient) हैं, इन सबका आधार, आश्रय और प्रमाण अपेक्षाकृत कोई चेतन / conscious (sentient) सत्ता / entity है यह एक निर्विवाद तथ्य है । किसी तर्क, प्रयोग, या अनुभव से इसे असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। और यह स्वयंसिद्ध (self-evident) ही है।
अब हमारे सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि चेतना / consciousness अर्थात् sentience का उद्भव जैव-प्रणाली के उद्भव के बाद हुआ, या चेतना / consciousness अर्थात् sentience एक ऐसा तत्व है जो पहले से विद्यमान था और जिसके अंतर्गत समस्त जीवन ने व्यक्त रूप ग्रहण किया ?
अगर मान लें कि जैव-प्रणाली के उद्भव के बाद ही चेतना का प्रस्फुटन / आगमन हुआ, तो भी यह तो मानना ही होगा कि किसी ऐसी प्रज्ञा (Intelligence) के रूप में चेतना / consciousness अर्थात् sentience बीज-रूप में इस जैव-प्रणाली में निहित कूटित कार्य-प्रणाली (encoded program) के रूप में इस प्रज्ञा (Intelligence) की तरह विद्यमान थी। क्योंकि विज्ञान अपने खोज और अनुसंधान में जितना आगे बढ़ता है, यह तथ्य उतना ही प्रखरतः स्पष्ट होता है कि पूरे सृष्टि-क्रम में गहरा सामञ्जस्य (well-arranged pattern) है, और सृष्टि-क्रम आकस्मिक संयोगमात्र (accidental coincidental) नहीं है ।
क्या कोई ऐसा तत्व ही जगत का स्वाभाविक प्रमाण नहीं है? क्योंकि जगत दृश्य या इन्द्रियग्राह्य है, पुनः इस चेतना में ही वह बुद्धिग्राह्य है। तत्पश्चात यह बुद्धि स्वयं भी चेतना का ही विषय है। इस प्रकार मनुष्य में बुद्धि भी जगत और इन्द्रियों की तरह एक विषय है जिसका प्रमाण चेतना है। यदि चेतना नहीं तो अन्य किसी के बारे में कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन चेतना की विद्यमानता से ही जगत के पदार्थों, इन्द्रियों (senses), बुद्धि (Intellect), भावना (emotion and sentiments), अनुभव (feelings and experience) और अंततः 'प्राण' का अस्तित्व प्रमाणित हो सकता है। यहाँ तक कि अत्यंत दुर्बल हो जाने पर, जब 'प्राण' भी अवरुद्ध हो जाते हैं अपने अस्तित्व की चेतना समाप्त नहीं हो जाती, और प्राण की शक्ति जागृत होने पर कहा जाता है कि तब मेरी स्मृति और होश नहीं थे।
प्रश्न यह भी है कि क्या चेतना / consciousness, sentience नामक यह आधारभूत तत्व वैयक्तिक है, या द्रव्य / matter, ऊर्जा / energy, काल / Time, स्थान / Space जैसा निर्वैयक्तिक है? क्योंकि इस प्रश्न का उत्तर जान लिए जाने पर हमें स्पष्ट होगा कि हमारी वैयक्तिकता की, अपने एक स्वतंत्र व्यक्ति होने की भावना का भी उद्भव उसी मूल चेतना से ही है, जो स्वरूपतः निर्वैयक्तिक है।
केवल संस्कार से ही हमारी वह चेतना 'व्यक्ति'-भावना' बनती है और संस्कार सम्मिलित रूप से वह सब है जिससे यह लेख प्रारंभ हुआ था।
क्या प्रत्येक मनुष्य में वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक इस प्रकार की दो चेतनाएँ होती हैं?
हर मनुष्य निरपवाद रूप से अपने-आपको 'एक' की ही तरह अनुभव तथा व्यक्त करता है और इसमें उसे कभी संशय नहीं होता। किंतु संसार में उसके जैसे असंख्य मनुष्यों में रहते हुए उसके इस स्वाभाविक बोध / भान पर अपने कोई विशेष होने का भाव इस तरह हावी हो जाता है कि अपने 'एक' होने का सरल तथ्य विस्मृतप्राय हो जाता है। यहाँ एक समस्या यह भी है कि दूसरे के अभाव में यह 'एक' होने की भावना भी लुप्त हो जाती है इसलिए भी उसका स्मरण किए जाने की संभावना नहीं रह जाती।
एक के होने के बाद ही दूसरा होता है। दूसरे के अभाव में एक, - एक भी कहाँ रह जाता है?
'दूसरा' विकल्प है।
एक की पहचान वितर्क है।
सविकल्प और सवितर्क में यही भेद है।
--
पुनः सविकल्प और सवितर्क की ही विवेचना, समाधान के रूप में क्रमशः सविकल्प समाधि तथा सवितर्क समाधि के रूप में भी की जा सकती है। जब विषयी किसी विषय से पूरी तरह तदाकार (identified) होता है तो उस तदाकारिता में, -पूर्ण तादात्म्य में सविकल्प समाधि घटित होती है। जब विषयी किसी तर्क से पूरी तरह तदाकार (identified) होता है तो उस तदाकारिता में, -पूर्ण तादात्म्य में सवितर्क समाधि घटित होती है। यह विषय 'अहं-वृत्ति' या 'ब्रह्माकार-वृत्ति' भी हो सकता है। यह विषय कोई संकल्प या निश्चय, संदेह या विश्वास हो सकता है जो प्रारंभ में भले ही एक वैचारिक अभ्यास रहा हो, संस्कार बन जाता है, और इस रूप में सर्वाधिक शक्तिशाली हो जाता है।
केवल सही अवधान (प्रमादशून्यता) से और विवेक के माध्यम से ही निर्विकल्प और निर्वितर्क हुआ जाता है।--
जय हो
ReplyDelete