'विचार' का स्वरूप और ध्यान
"मैं सोचता हूँ" बुनियादी रूप से एक भ्रामक धारणा / संकल्प है। 'विचार' चूँकि आते-जाते रहते हैं, उनका आगमन और प्रस्थान होता रहता है, इसलिए उनसे भिन्न कोई ऐसा सत्ता है ही नहीं जो उन्हें क्रियान्वित करती हो।हाँ, उन्हें बोध में जाननेवाली एक चेतन सत्ता अवश्य होती है जो विचार कदापि नहीं है। "मैं सोचता हूँ" इस कथन में यह पहले से ही मान लिया गया है कि वही सत्ता जो उन्हें क्रियान्वित करती है, 'मैं' नामक सत्ता है। 'मैं' दृष्टा हूँ" इस विचार से उनके आने-जाने को बाधित नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'मैं' दृष्टा हूँ" भी पुनः एक विचार है और वह भी किसी अज्ञात स्रोत से आता और जाता है। फिर भी यह विचार उस चेतन सत्ता की ओर एक संकेतक तो हो ही सकता है जो चेतना की तरह विचार के आने-जाने की स्थिर भूमि है।
किंतु विचारों के आने-जाने का एक प्रमुख कारण होता है उस विषय और संदर्भ में हमारी दिलचस्पी होना जिससे जुड़े विचार हमें आकर्षित करते हैं।
'राम', 'दिल्ली', 'मिठाई', 'धर्म', 'प्रेम', 'पाखंड', 'शोषण', 'पैसा', 'कविता', 'राजनीति', 'नौकरी', 'बच्चा', 'विद्वान' 'शत्रु', 'प्यार, धोखा, 'नैतिकता' जैसे असंख्य शब्दों में से केवल कोई एक शब्द भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में और एक ही व्यक्ति में भी भिन्न भिन्न समय पर भिन्न भिन्न भावनाएँ जगाता है। और इस भावना से ही जुडी होती है उस शब्द से हमारी उत्सुकता, हमारा आकर्षण, विकर्षण आदि। किंतु चूँकि हमारी रुचि प्रायः अनेक विषयों से जुडी होती है, और मनुष्य जितना अधिक लिखा-पढ़ा होता है उसकी रुचि उतने ही विविध रूप लेती है, इसलिए हमें लगता है कि विचारों की भीड़ हो गयी है।
स्पष्ट है कि इस छोटी या बहुत बड़ी भीड़ में भी हमारे अपने अस्तित्व का भान ही उन्हें एक सूत्र में पिरोता है और यह निःशब्द भान ही हममें उनके स्वामी होने की भावना जगाता है। इस प्रकार भान का भावना में रूपांतरण शब्दों के सहारे क्रमशः 'मैं' की आधारभूत मान्यता बन जाता है। विचारों और शब्दों के सातत्य / निरंतरता में हमारा ध्यान इस सरल तथ्य से हट जाता है कि यद्यपि अस्तित्व ही भान है और भान ही अस्तित्व का प्रमाण भी, 'मैं' नामक शाब्दिक पहचान अनायास विचारों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में 'विचारकर्ता' के रूप में विभिन्न विचारों के स्वामी की तरह स्वीकृत हो जाती है।
किंतु विभिन्न विषयों के प्रति हमारी जो दिलचस्पी होती है, उस पर ध्यान देकर विचारों का आवागमन धीरे धीरे कम किया जा सकता है। यहाँ तक कि तब मन इतना शान्त भी हो सकता है कि केवल वही विचार हमारे मन में आएँ जिनसे हमें प्रयोजन हो। आजकल 'मनोरंजन' और 'बौद्धिकता' के नाम पर अनेक व्यर्थ और हानिकारक विषय तक अखबार, मीडिया, टीवी आदि हमें परोसते रहते हैं और तब हमें परेशानी होती है कि मन बहुत चंचल क्यों है और इसे शान्त और स्थिर, एकाग्र कैसे करें ! और फिर यह नया विचार / प्रश्न भी तमाम विचारों की भीड़ में दबकर कहीं गुम हो जाता है। जैसा कि अभी दो-चार दिन पहले ही कहीं पढ़ा था, एक अध्ययन के अनुसार आज के मनुष्य का ध्यान एक विषय पर सोलह सेकंड से अधिक समय तक सतत नहीं टिका रह पाता। इसका एक कारण तो वही है कि हमारी दिलचस्पी के विषय इतने ज़्यादा हैं कि उनमें से कुछ के प्रति हमारी रुचि बाकी की तुलना में अधिक होती है। इसलिए ध्यान एक से अधिक विषयों की और दौड़ता रहता है।
अपने बचपन में मैंने अनुभव किया था कि कक्षा में जब शिक्षक किसी छात्र से पूछते थे 'तुम्हारा ध्यान किधर है?' तो वास्तव में उसका ध्यान कहीं भी नहीं होने के कारण वह स्तब्ध सा खड़ा रहता था। दूसरी ओर ऐसे भी छात्र थे जिनका ध्यान एक से दूसरे विषय की ओर भागता रहता था और उन्हें 'हाज़िर-ज़वाब' समझा जाता था। लेकिन दोनों ही स्थितियाँ ध्यान की स्वाभाविक स्थिति नहीं होतीं। प्रायः बहुत से बच्चों को मनोरंजन की ज़रूरत ही नहीं होती लेकिन अभिभावक उन्हें अनेक रोचक सामग्रियों, खिलौनों आदि से खेलने की आदत डाल देते हैं। इसका यह मतलब नहीं की उनका विकास ही होता हो। सच तो यह भी हो सकता है कि उनका मन 'अभ्यस्त' / occupied हो जाता है। वे जीवन में कितना ही आगे बढ़ जाएँ इस अभ्यस्तता की ग्रंथि (obsession with the occupied state of mind) से कभी मुक्त नहीं हो पाते। वे बचपन की उस निर्दोष सरलता को भी खो बैठते हैं जब उनका बाल-मन प्रकृति के बहुत समीप था और वे जीवन के प्रत्यक्ष संपर्क में होते थे। यदि उनका विकास उनकी स्वाभाविक गति से होने दिया जाता और उसे किसी विशिष्ट दिशा में बलपूर्वक आगे बढ़ने के लिए 'प्रोत्साहित' न किया जाता तो शायद उन्हें जीवन में स्वयं ही खोज करने की प्रेरणा भीतर से ही प्राप्त होती।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो 'विचार' एक त्रि-आयामी राशि (tensor-quantity) है। 'क्व' / 'किं' से बना क्विंट / quint, quanta, quantum, quintal, दृष्टव्य हैं। विचार पदार्थ की क्वांटम स्टेट (quantum-state) अर्थात् मूल अवस्था है। इसमें द्रव्यमान (mass) ऊर्जा / energy और गति के साथ साथ एक 'चेतन' अवयव भी जुड़ा होता है। इनका संयुक्त (composite) / संपोषित रूप विचार नामक तरंग जिसका विस्तार 'समय' के विस्तार में भी है। अर्थात् किसी विचार में न्यूनतम अंश समय की सूक्ष्म इकाई का भी होता है। किसी विचार के बीतने में एक सुनिश्चित समय व्यतीत होता है। अन्य स्थिर भौतिक राशियों (scaler quantities) में समय का यह आयाम शून्य होता है। इसी प्रकार गतिशील राशियों vector quantities में गति का आयाम भी होता है जबकि विचार के साथ एक चेतन तत्व भी अनिवार्यतः जुड़ा होता है। अन्यथा विचार बस एक मृत वस्तु (dead thing) भर है। छपा हुआ विचार किसी के द्वारा पढ़े जाने पर ही जीवित और जीवन्त तथ्य होता है।
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"मैं सोचता हूँ" बुनियादी रूप से एक भ्रामक धारणा / संकल्प है। 'विचार' चूँकि आते-जाते रहते हैं, उनका आगमन और प्रस्थान होता रहता है, इसलिए उनसे भिन्न कोई ऐसा सत्ता है ही नहीं जो उन्हें क्रियान्वित करती हो।हाँ, उन्हें बोध में जाननेवाली एक चेतन सत्ता अवश्य होती है जो विचार कदापि नहीं है। "मैं सोचता हूँ" इस कथन में यह पहले से ही मान लिया गया है कि वही सत्ता जो उन्हें क्रियान्वित करती है, 'मैं' नामक सत्ता है। 'मैं' दृष्टा हूँ" इस विचार से उनके आने-जाने को बाधित नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'मैं' दृष्टा हूँ" भी पुनः एक विचार है और वह भी किसी अज्ञात स्रोत से आता और जाता है। फिर भी यह विचार उस चेतन सत्ता की ओर एक संकेतक तो हो ही सकता है जो चेतना की तरह विचार के आने-जाने की स्थिर भूमि है।
किंतु विचारों के आने-जाने का एक प्रमुख कारण होता है उस विषय और संदर्भ में हमारी दिलचस्पी होना जिससे जुड़े विचार हमें आकर्षित करते हैं।
'राम', 'दिल्ली', 'मिठाई', 'धर्म', 'प्रेम', 'पाखंड', 'शोषण', 'पैसा', 'कविता', 'राजनीति', 'नौकरी', 'बच्चा', 'विद्वान' 'शत्रु', 'प्यार, धोखा, 'नैतिकता' जैसे असंख्य शब्दों में से केवल कोई एक शब्द भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में और एक ही व्यक्ति में भी भिन्न भिन्न समय पर भिन्न भिन्न भावनाएँ जगाता है। और इस भावना से ही जुडी होती है उस शब्द से हमारी उत्सुकता, हमारा आकर्षण, विकर्षण आदि। किंतु चूँकि हमारी रुचि प्रायः अनेक विषयों से जुडी होती है, और मनुष्य जितना अधिक लिखा-पढ़ा होता है उसकी रुचि उतने ही विविध रूप लेती है, इसलिए हमें लगता है कि विचारों की भीड़ हो गयी है।
स्पष्ट है कि इस छोटी या बहुत बड़ी भीड़ में भी हमारे अपने अस्तित्व का भान ही उन्हें एक सूत्र में पिरोता है और यह निःशब्द भान ही हममें उनके स्वामी होने की भावना जगाता है। इस प्रकार भान का भावना में रूपांतरण शब्दों के सहारे क्रमशः 'मैं' की आधारभूत मान्यता बन जाता है। विचारों और शब्दों के सातत्य / निरंतरता में हमारा ध्यान इस सरल तथ्य से हट जाता है कि यद्यपि अस्तित्व ही भान है और भान ही अस्तित्व का प्रमाण भी, 'मैं' नामक शाब्दिक पहचान अनायास विचारों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में 'विचारकर्ता' के रूप में विभिन्न विचारों के स्वामी की तरह स्वीकृत हो जाती है।
किंतु विभिन्न विषयों के प्रति हमारी जो दिलचस्पी होती है, उस पर ध्यान देकर विचारों का आवागमन धीरे धीरे कम किया जा सकता है। यहाँ तक कि तब मन इतना शान्त भी हो सकता है कि केवल वही विचार हमारे मन में आएँ जिनसे हमें प्रयोजन हो। आजकल 'मनोरंजन' और 'बौद्धिकता' के नाम पर अनेक व्यर्थ और हानिकारक विषय तक अखबार, मीडिया, टीवी आदि हमें परोसते रहते हैं और तब हमें परेशानी होती है कि मन बहुत चंचल क्यों है और इसे शान्त और स्थिर, एकाग्र कैसे करें ! और फिर यह नया विचार / प्रश्न भी तमाम विचारों की भीड़ में दबकर कहीं गुम हो जाता है। जैसा कि अभी दो-चार दिन पहले ही कहीं पढ़ा था, एक अध्ययन के अनुसार आज के मनुष्य का ध्यान एक विषय पर सोलह सेकंड से अधिक समय तक सतत नहीं टिका रह पाता। इसका एक कारण तो वही है कि हमारी दिलचस्पी के विषय इतने ज़्यादा हैं कि उनमें से कुछ के प्रति हमारी रुचि बाकी की तुलना में अधिक होती है। इसलिए ध्यान एक से अधिक विषयों की और दौड़ता रहता है।
अपने बचपन में मैंने अनुभव किया था कि कक्षा में जब शिक्षक किसी छात्र से पूछते थे 'तुम्हारा ध्यान किधर है?' तो वास्तव में उसका ध्यान कहीं भी नहीं होने के कारण वह स्तब्ध सा खड़ा रहता था। दूसरी ओर ऐसे भी छात्र थे जिनका ध्यान एक से दूसरे विषय की ओर भागता रहता था और उन्हें 'हाज़िर-ज़वाब' समझा जाता था। लेकिन दोनों ही स्थितियाँ ध्यान की स्वाभाविक स्थिति नहीं होतीं। प्रायः बहुत से बच्चों को मनोरंजन की ज़रूरत ही नहीं होती लेकिन अभिभावक उन्हें अनेक रोचक सामग्रियों, खिलौनों आदि से खेलने की आदत डाल देते हैं। इसका यह मतलब नहीं की उनका विकास ही होता हो। सच तो यह भी हो सकता है कि उनका मन 'अभ्यस्त' / occupied हो जाता है। वे जीवन में कितना ही आगे बढ़ जाएँ इस अभ्यस्तता की ग्रंथि (obsession with the occupied state of mind) से कभी मुक्त नहीं हो पाते। वे बचपन की उस निर्दोष सरलता को भी खो बैठते हैं जब उनका बाल-मन प्रकृति के बहुत समीप था और वे जीवन के प्रत्यक्ष संपर्क में होते थे। यदि उनका विकास उनकी स्वाभाविक गति से होने दिया जाता और उसे किसी विशिष्ट दिशा में बलपूर्वक आगे बढ़ने के लिए 'प्रोत्साहित' न किया जाता तो शायद उन्हें जीवन में स्वयं ही खोज करने की प्रेरणा भीतर से ही प्राप्त होती।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो 'विचार' एक त्रि-आयामी राशि (tensor-quantity) है। 'क्व' / 'किं' से बना क्विंट / quint, quanta, quantum, quintal, दृष्टव्य हैं। विचार पदार्थ की क्वांटम स्टेट (quantum-state) अर्थात् मूल अवस्था है। इसमें द्रव्यमान (mass) ऊर्जा / energy और गति के साथ साथ एक 'चेतन' अवयव भी जुड़ा होता है। इनका संयुक्त (composite) / संपोषित रूप विचार नामक तरंग जिसका विस्तार 'समय' के विस्तार में भी है। अर्थात् किसी विचार में न्यूनतम अंश समय की सूक्ष्म इकाई का भी होता है। किसी विचार के बीतने में एक सुनिश्चित समय व्यतीत होता है। अन्य स्थिर भौतिक राशियों (scaler quantities) में समय का यह आयाम शून्य होता है। इसी प्रकार गतिशील राशियों vector quantities में गति का आयाम भी होता है जबकि विचार के साथ एक चेतन तत्व भी अनिवार्यतः जुड़ा होता है। अन्यथा विचार बस एक मृत वस्तु (dead thing) भर है। छपा हुआ विचार किसी के द्वारा पढ़े जाने पर ही जीवित और जीवन्त तथ्य होता है।
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