Sunday, 25 November 2018

स्मृति से परे

कलाकार की संगीत-साधना 
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1. राग 
मंच पर वह कलाकार सचमुच बहुत श्रम और कौशल से अपनी संगीत-रचना प्रस्तुत कर रहा था। सारंगी एक ही स्वर में निरंतर बजती जान पड़ती थी।  कलाकार अपने वाद्य-यंत्र पर धीरे-धीरे एक एक स्वर उठा रहा था।  बहुत देर तक भिन्न-भिन्न स्वरों का संधान करने के पीछे कला-प्रदर्शन का भाव बिलकुल नहीं था। फिर उसने एक टुकड़ा उठाया और पाँच स्वरों का एक राग मूल स्वरूप में बजाने लगा।  स्वर अब भी मंद-गति से एक के बाद एक क्रम से बज रहे थे जिनके बीच कब एक स्वर से दूसरा प्रकट होता था इसका आभास तक न होता था।  कोई भी स्वर कच्चा न था।  सभी मँजे हुए स्वर उसी प्रकार से निरंतर दुहराए जा रहे थे जैसे पिछली बार बजे थे।  इस प्रकार एक क्रम और एक समय, कल्पना में सृजित हुआ। सारंगी बहुत सामञ्जस्य से हर अगले स्वर के संवादी स्वर को उठा रही थी।  इस प्रकार सब कुछ अत्यंत सुचारु रूप से परस्पर संयोजित था।  Perfectly well-synchronized. तबला जो अपेक्षाकृत मंद स्वर में बज रहा था सारंगी और उस वाद्य-यंत्र के वादन को ताल के माध्यम से निश्चित समयावधि में बजनेवाले समय के लिए आधार प्रदान कर रहा था।  सब कुछ एक मोहक जादू की सृष्टि कर रहा था। धीरे-धीरे राग के स्वर भिन्न भिन्न उतार चढ़ाव लेते हुए भी उन्हीं पाँच स्वरों की मर्यादा, विस्तार और विकास थे जिनसे राग की पहचान होती है।  श्रोता यद्यपि मंत्र-मुग्ध थे लेकिन हर श्रोता समान रूप से कला का आस्वाद ले रहा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता था।  हर श्रोता सामान रूप से एकाग्र और दत्तचित्त रहा हो यह नहीं कहा जा सकता था।  क्योंकि हर श्रोता के चित्त का वाद्य-यंत्र उसकी स्मृति में बजनेवाले उन स्वरों को पूरी तरह चुप न करा पाया था जो इस आस्वाद में बाधा डालते थे।  वे स्वर भी उसे कम या अधिक और निरंतर सुनाई दे रहे थे, यद्यपि उनमें से शायद ही किसी को इसका आभास रहा हो।
फिर भी राग के आरोह-अवरोह के सुदीर्घ, सरल किंतु बंकिम पथ पर कभी धीमे कभी तेज़ क़दमों से मंदगति से चलते, ठिठकते या दौड़ते-भागते वे स्वर कितने काल तक गतिमान हुए या स्तब्ध से बजते रहे शायद ही किसी को पता चला हो।
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2. ताली और ख़ाली 
उसे मैं बरसों से जानता था।  लगभग मेरे बचपन ही से।  उसने संगीत सीखने के लिए किसी का आश्रय कभी नहीं लिया था।  उसे यह मालूम था कि संगीत साधना है, व्यवसाय या आजीविका का साधन नहीं।  और मैं ही क्या, उसके हम सभी मित्र, परिचित-अपरिचित उसके 'अभ्यास' को उसकी सनक समझते थे, और उस पर हँसते थे ।  किन्तु वह एक ही वाद्य-यंत्र पर बरसों श्रम करता रहता था, जब तक कि स्वर 'सिद्ध' न हो जाता था। इसके बाद ही उसने स्वरों के संयोजन की दिशा में अभ्यास प्रारंभ किया।  बहुत बाद में उसने सुना कि इन्हें 'राग' कहते हैं।  संपूर्ण, औडव, षाडव, संवादी, विवादी इस प्रकार के स्वर तथा राग, घरानों की शैली, टुकड़ा, दादरा, ठुमरी, टप्पा, मुरकी, गत, आदि शब्द तो उसे धीरे-धीरे मालूम हो चुके थे लेकिन  इसके बाद ही उसका ध्यान ताली और ख़ाली पर गया। ताली का अर्थ होता है आघात-प्रत्याघात जो हमेशा न्यूनतम स्वर-विस्तार होता था, जिसमें 'स्वर' नाममात्र के लिए अंश के रूप में जुड़ा होता था।  किंतु ताली के प्रयोग के दौरान उसे ख़ाली का महत्त्व और प्रयोजन स्पष्ट हुआ।  तुरंत ही उसका ध्यान इस ओर गया कि जैसे शून्य और एक, दोनों यूँ तो गणितीय अवधारणाएँ / संकल्पनाएँ हैं, और उनके संयोग से कोई संख्या कल्पित की जाती है, फिर भी शून्य के चरित्र पर सोचते हुए वह अचंभित होकर रह जाता था।  किसी वाद्य-यंत्र पर चाहे वह राग के लिए प्रयोग में लाया जाता हो, या ताल के लिए, ताली का प्रयोग ख़ाली पर ही निर्भर और ख़ाली से ही परिभाषित होता था।  कहना होगा कि शून्य प्रथम, मध्य और अंतिम भी था।  ताली, ख़ाली से ही उमगती थी, एक जादू पैदा होता था, श्रोता मंत्रमुग्ध होकर तालियों की गड़गड़ाहट से प्रसन्नता व्यक्त करते थे, किंतु ख़ाली फिर भी किसी अदृश्य सत्ता की तरह नेपथ्य में उपस्थित रहती थी। वर्चस्व उसका ही होता था।  बिना कोई आक्रमण किए।
उसे बहुत प्रशंसा मिलने लगी थी, किंतु उसे पूरा ध्यान था कि यह प्रशंसा, यह क्षणिक आत्म-मुग्धता उसे भ्रमित ही करती है।  उस विभ्रम से वह कभी भ्रमित या विचलित तक नहीं हुआ।  अपनी वीणा के स्वरों से असंख्य गन्धर्व-लोकों को प्रकट और विलुप्त करता हुआ वह सतत उस झील सा शान्त रहा जिस पर चंचल हवा के झोंकों से अनेक लहरें उठती-गिरती और विलीन होती रहती हैं, और हवा के शान्त होते ही जो पुनः दर्पण की तरह अपने चतुर्दिक फैले सौंदर्य को प्रतिबिंबित करने लगता है।
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