Monday, 5 November 2018

उपसंहार

The Quintessence of Wisdom  / उपदेश सार        
उन्होंने कुछ ही ग्रंथों की रचना की।  और वे सभी ग्रंथ अपनी अभिव्यक्ति में सशक्त, अर्थगर्भित और प्रत्यक्षतः उनकी आध्यात्मिक अनुभूति तथा उस अनुभूति तक पहुँचने के मार्ग का स्पष्ट वर्णन करते हैं, जिससे उनका तत्वदर्शन अनुप्राणित है।  न तो उन्होंने कभी किसी साहित्यिक रचना की तरह उस रूप में सुनियोजित ढंग से किसी कृति की रचना की और न उन्हें किसी विशिष्ट इकाई की तरह स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में लिखा।  मुख्यतः प्रारम्भ में उन्हें आंशिक रूप में रचा गया और बाद में ऐसे ही कई अंशों को एकीकृत कर भक्तों ने उन्हें किसी ग्रन्थ का स्वरूप प्रदान किया।  किंतु उनके विचार-दर्शन को समझने में वे ग्रन्थ प्रखरतः आवश्यक सिद्ध होते हैं। वैसे श्रीरमण एक स्वतंत्र तत्वज्ञ दार्शनिक भी थे। किन्तु सभी सच्चे तत्वदर्शियों की भाँति उनका तत्वदर्शन भी उनकी अपनी अनुभूति से ही उत्पन्न हुआ था। 
वे इस रूप में दूसरे संतों से भिन्न थे कि उन्होंने कभी चमत्कार नहीं किए, उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि  उनके पास अलौकिक शक्तियाँ या सिद्धियाँ थीं।  इस विषय में उन्होंने एक बार कहा था :
"एक अविभाजित मानव-भ्रूण से किसी दार्शनिक का या क्रिकेट के खिलाड़ी का विकसित हो जाना इतना बड़ा आश्चर्य है जो संतों के बड़े-बड़े सुप्रसिद्ध चमत्कारों से बढ़कर है।"
उनकी त्वरित टिप्पणियाँ बिजली की कौंध जैसी प्रखर होती थीं परन्तु उनसे कभी किसी को ठेस लगे, ऐसा कभी नहीं होता था।  वर्षों पहले एक बार मध्यरात्रि के समय कुछ दस्यु वन में स्थित उनके आश्रम में घुस आए थे, वे न सिर्फ अविचलित रहे बल्कि उन्होंने उन दस्युओं का स्वागत किया और कहा कि इस स्थान पर उन्हें जो भी मिल सकता है, वे ग्रहण करें।  किंतु अपनी आशा के विपरीत जब उन्हें आश्रम में ऐसा कुछ न मिल सका जो उनकी दृष्टि में किसी मूल्य का हो, -जब उन्हें कोई धन-संपत्ति, सोना या रुपए-पैसे आदि नहीं मिले तो उन्होंने आश्रमवासियों को मारपीट कर अपना क्रोध व्यक्त किया।  और स्वयं श्रीरमण को भी उन्होंने नहीं छोड़ा।  जब वे दस्यु वहाँ से जा चुके थे तो एक भक्त ने, जो इससे अनभिज्ञ था कि श्रीरमण पर भी प्रहार किया गया है, घबराकर उनसे पूछा : "भगवान आप कैसे हैं ?" तो उन्होंने उत्तर दिया "भगवान बिलकुल ठीक हैं, उनकी भी ठीक से पूजा हुई है । " (इसके व्यंग्यार्थ को अंग्रेज़ी में व्यक्त करना कठिन है किंतु संस्कृत भाषा में 'पूजा' का जो तात्पर्य होता है उसके विपरीत तमिल भाषा में .. एवं हिंदी में भी, ... व्यंग्यार्थ के रूप में इसे 'अच्छी तरह मारने-पीटने' के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है।  हिंदी पाठकों को इसका अर्थ बतलाया जाना अनावश्यक है। )
एक व्यक्ति ने शिकायत भरे उग्र स्वरों में उनसे पूछा कि उसके द्वारा की जानेवाली हृदयपूर्ण प्रार्थनाओं का प्रत्युत्तर ईश्वर क्यों नहीं देते, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा :
"क्योंकि यदि वे आपकी प्रार्थनाएं सुनने लगें और उन्हें पूरा करने लगें तो आप प्रार्थना करना बंद कर देंगे।"
थियोसोफी (Theosophy) के तात्विक सिद्धांत (Philosophy) से पूर्वाग्रहग्रस्त एक व्यक्ति ने उनसे प्रश्न किया :
"क्या  आपने कभी 'अदृश्य' संतों के दर्शन किए हैं?"
इस पर श्रीरमण ने उससे पूछा :
"यदि वे अदृश्य हैं तो उन्हें कैसे देखा जा सकता है?"
और वे हँसने लगे।
उनके उत्तर से अचंभित प्रश्नकर्ता ने प्रयासपूर्वक पुनः पूछा :
"चैतन्य के अंतर्गत ?"
सूर्य की प्रखर किरण की तरह उसे उत्तर मिला :
"चैतन्य के अंतर्गत 'दूसरा' नहीं होता।"
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........ समाप्त .......
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दीपावलि की हार्दिक शुभकामनाएँ  !
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