Sunday, 4 November 2018

सहज-समाधि

संतों का जीवन-चरित्र
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यह बालक बिना किसी को साथ लिए, अपने ही बल-बूते पर मित्रहीन और अर्थाभाव होते हुए भी किस प्रकार से अकेला ही तिरुवण्णामलै पहुँचा, किस प्रकार अरुणाचल के शिव-मंदिर के विशाल प्राङ्गण में इसे रहने के लिए आश्रय मिला और जिस ईश्वरीय सत्ता ने उसे यहाँ तक आने के लिए प्रेरित किया, उस पर ही पूर्णतः आश्रित रहकर वह यहाँ कैसे रहा, किस प्रकार मंदिर के एक पुजारी ने भगवान शिव पर चढ़ाए जानेवाले दूध और फलों आदि का प्रसाद देकर इसके लिए भोजन जुटाया, और बहुत समय बाद कैसे उसे पाताललिंगम की उस गहरी अंधेरी गुहा जैसी स्थली से जहाँ वह उसकी देह को खाते चले जा रहे कृमि-कीटों के दंश तक से अविचलित रहते हुए, -देहभान तक खोकर, परमानंद में निमज्जित था, खोजकर बाहर निकाला गया, यह सब जानना और इस बारे में पता लगाना भी, संतों के जीवन-चरित्र लिखनेवालों के लिए शोध का विषय हो सकता है। ऐसा कहा जाता है कि जब उस बालक को उस खोहनुमा अंधकारपूर्ण स्थान से बाहर लाया गया तो देखा गया कि उसकी जंघाओं पर अनेक छोटे-बड़े घाव हो चुके थे क्योंकि चींटियों, मकड़ियों और अन्य कीड़ों-मकोड़ों ने उसके शरीर के उस  स्थान का मांस खाकर और रक्त चूसकर अपनी क्षुधा शांत की थी, जबकि वह बालक अपनी देह के भान से रहित समाधि के परमानंद में डूबा हुआ था।
(वास्तव में उसने उस स्थान को इसलिए चुना था क्योंकि अन्यत्र उसकी ही आयु के कुछ बालक उसे ध्यानमग्न  अवस्था में देखकर कौतूहलवश उस पर कंकड़-पत्थर और मिट्टी के ढेले फेंककर उसके ध्यान में अनजाने ही बाधा डाल रहे थे, और एक दिन जब वे उस पर वहाँ पर होने पर भी ऐसा कर रहे थे तो किसी का ध्यान उस ओर गया, उसे यह जानने की उत्सुकता हुई कि वे बालक किस पर कंकड़-ढेले फ़ेंक रहे हैं, और तब उसे अंधेरी गुफा में एक आकृति दिखाई दी, जो उस बालक की ही थी।  तब उसने बालकों को दूर भगाया और गुफा में सावधानी से प्रवेश किया।  अंदर जाकर उसके आश्चर्य की तब सीमा न रही जब उसने देखा कि उन बालकों की ही उम्र का एक बालक संसार की सुध-बुध भूलकर समाधि जैसी अवस्था में उन बालकों के उपद्रव से अविचलित और अप्रभावित अपने ध्यान में डूबा है। यह किसी प्रकार की अभ्यासजनित एकाग्रता न थी, किसी भी प्रकार की अभ्यासजनित एकाग्रता इस प्रकार की सजीव मृत्यु का रूप नहीं ले सकती।  तब उसने दूसरों को उसके बारे में जानकारी दी, और उसे बाहर लाया गया।)
किंतु इस बारे में असामान्य-मनोविज्ञान (Abnormal-Psychology) को भी मौन हो जाना होगा, क्योंकि यह अवस्था किसी मनोरुग्णता का, या मानसिक रूप से अविकसित स्थिति का परिणाम भी नहीं था।  बल्कि इससे बहुत विपरीत, इस अवस्था में प्राप्त हुए बोध के फलस्वरूप उसके मन की शक्तियाँ और भी प्रखर और प्राणवान हो उठी थीं।  तत्वदर्शन की गूढ़ बारीकियों को श्रीरमण उस अनुभूति की व्याख्या की तरह समझ सकते थे, जिससे वे पहले ही गुज़र चुके थे।  उनकी मेधा एक ऐसा उपकरण बन चुकी थी जो अपने कार्य में दक्ष, शक्तिशाली और त्रुटिशून्य होता है।  यह  देखा जा सकता है कि वे विभिन्न भाषाओं को इतनी सरलतापूर्वक सीख सकते थे या जिस किसी विषय को दत्तचित्त होकर पढ़ते-सुनते थे उसे इस तरह भली-भाँति समझ लेते थे मानों उस पर उनका अधिकार हो जाता था ।  तिरुवण्णामलै आगमन के काल के उन सारे वर्षों में वे जिस असाधारण, -मन की समाधिमग्न दशा में अनायास रहा करते थे, उनकी उस अवस्था का किसी प्रकार के अनुशासन या अभ्यास आदि से दूर तक का भी कोई संबंध नहीं था।  कभी-कभी बिरले किसी अवसर पर अपने जीवन की किन्हीं बातों को वे जैसे अनायास बतलाते थे।  ऐसे ही एक बार उन्होंने कहा था :
"उन दिनों मैं बोलता भी नहीं था अतः लोग मुझे मौनी (जिसने मौनव्रत लिया है) कहा करते थे।  चूँकि मैं कुछ खाता भी नहीं था अतः वे कहते थे की मैंने निराहार रहने का व्रत लिया है। "
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सहज-समाधि    
..... निरंतर .........    

       

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