Friday, 16 November 2018

भर्तृहरि कथा,

शतकत्रयं 
--
राजा भर्तृहरि के माता-पिता ने जब राजपाट उन्हें सौंप दिया और वानप्रस्थ के लिए गृहत्याग कर वन को चले गए तो राजा अभी युवा ही थे। तब वे गुरु के मार्गदर्शन और मंत्रियों के परामर्श से धर्मपूर्वक राज्य का संचालन करते, और समय समय पर अवसर के अनुकूल प्राप्त हुए कर्तव्य का पालन उत्साह से करते थे।
ऐसे ही एक दिन उनके एक मित्र राजा ने युद्ध में उनसे सहायता करने का अनुरोध उनसे किया। 
राजा ने तुरंत ही मंत्रियों से चर्चा की और सेनापति को पर्याप्त सेना के साथ रण पर जाने का आदेश दिया।
शत्रु को पराजित कर सेना के लौटने के कुछ समय बाद उस मित्र राजा ने उन्हें एक अत्यंत मूल्यवान हार उपहार में भेंट किया।  राजा तब "नीति-शतक" की रचना कर रहे थे। उन्होंने बिना अधिक विचार किये वह हार अपनी प्रिय रानी को उपहार में दे दिया। अपनी रानी से अत्यधिक प्रेम में पड़े राजा ने फिर शृंगारशतक लिखना प्रारंभ किया। दोनों ग्रंथ लिखे जा चुके थे और एक रात्रि में, जब दरबार में एक प्रसिद्ध नर्तकी का नृत्य चल रहा था, उनकी दृष्टि उस नर्तकी के गले में पड़े वैसे ही एक हार पर पड़ी।  उनके मन में प्रश्न उठा, - क्या उनकी रानी ने ही वह हार उस नर्तकी को दिया होगा?
बहुत समय तक वे इस प्रश्न पर संशयग्रस्त रहे किंतु अपनी रानी से इस बारे में पूछना उन्हें उचित प्रतीत नहीं हुआ। इस बीच उनके राज्याभिषेक की वर्षगाँठ के अवसर पर उनके मन में इसके स्मरण हेतु एक नई मुद्रा प्रचलित करने का संकल्प उठा।  इस मुद्रा पर क्या मुद्रित किया जाए यह जानने के लिए वे गुरु की सम्मति प्राप्त करने के लिए उनसे मिलने गए।
नमस्कार और कुशल-क्षेम जानने के बाद उन्होंने गुरु से इस विषय में योग्य आदेश देने के लिए अनुरोध किया। गुरु ने उनसे कहा :
"इस मुद्रा पर तुम्हारा राज्य चिह्न और तुम्हारे कुल का वंशनाम तथा वर्ष आदि तो होगा ही किन्तु इसके एक ओर इंद्र तथा दूसरी ओर यमराज का सूचक चिह्न रखो।"
"जो आज्ञा !"
राजा महल लौट आए और मंत्रियों तथा कोषाध्यक्ष को इसकी उचित व्यवस्था करने का आदेश दिया।
राजा की समृद्ध-संपन्न प्रजा के बीच नई मुद्रा बहुत लोकप्रिय हुई। बिरला ही कोई इस मुद्रा पर अंकित जानकारी तथा चिन्हों पर विशेष ध्यान देकर विचार करता था।  वास्तव में वह मुद्रा कला का एक बेजोड़ नमूना भी था।  उस स्वर्ण-मुद्रा का मूल्य वैसे तो उसमें लगे स्वर्ण के लागत-मूल्य से इतना ही अधिक था कि न तो कोई उसे गलाकर स्वर्ण प्राप्त करने की सोचता और न स्वर्ण से उस मुद्रा का निर्माण करने का। 
बहुत दिनों बाद एक दिन राजा ने अनुभव किया कि उसके द्वारा प्रचलित की गयी नई मुद्रा राज्य में दुर्लभ हो रही है।  उसने इस बारे में गुप्तचरों से जानकारी एकत्र करने के लिए कहा तो उन्होंने बताया कि लोग इसे संग्रह कर रखना चाहते हैं, और इसीलिए यह दुर्लभ हो रही है। 
राजा ने जब उनसे यह पता लगाने के लिए कहा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, तो उत्तर मिला कि इंद्र का चिह्न मुद्रित होने के कारण यह उन्हें विशेष प्रिय है।
तब राजा एक दिन पुनः अपने गुरु के दर्शनों के लिए उपस्थित हुए और उनसे प्रसंगवश जिज्ञासा की, कि अब इस स्थिति में क्या किया जाए?
गुरु ने राजा से कहा :
"मुझे नहीं पता था कि तुम्हारे राज्य की प्रजा इस मुद्रा में दिए गए संकेत को समझने में भूल करेगी।  इंद्र का तात्पर्य है स्वर्ग, और यमराज का तात्पर्य है स्वर्ग या नरक। कुल अभिप्राय यह है कि इस मुद्रा का प्रयोग केवल लेन-देन के व्यवहार में ही अधिक से अधिक किया जाना चाहिए, क्योंकि स्वर्ग भी पुण्य का फल समाप्त होने पर हाथ से चला जाता है और स्वर्ग के लोभ से ही यमराज का सामना भी होता है। अतः इसे संग्रह करना व्यर्थ है। "
तब राजा ने इस शिक्षा को प्रजा को प्रदान करने के लिए घोषित किए जाने की व्यवस्था करने के लिए अपने मंत्रियों से  कहा।
बहुत दिनों बाद एक दिन सेवकों से उसे एक हार प्राप्त हुआ और यह सूचना भी मिली कि उस नर्तकी की मृत्यु हो गई है और मृत्यु से पूर्व उसकी अंतिम इच्छा थी, कि उसका यह हार, जो राजा के एक मंत्री ने उसे उपहार में दिया था, उसे राजा को समर्पित कर दिया जाए।
यह वही हार था जो राजा को मित्र से उपहार में मिला था और जिसे उसने अपनी प्रिय रानी को भेंट किया था,
... ...
हार को देखते ही राजा को अपना संशय स्मरण हुआ और फिर उन्होंने "वैराग्य-शतक" की रचना की।
--           
    
        


नीतिशतक, शृङ्गारशतक, वैराग्यशतक  

No comments:

Post a Comment