संबंध : नित्य-अनित्य
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संबंध वैसे तो एक मान्यता और कल्पना होता है, लेकिन अनित्य या नित्य हो सकता है।
अनित्य से संबंध तो अनित्य होता ही है, नित्य से संबंध अवश्य नित्य हो सकता है।
लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि किसी ऐसी नित्य वस्तु की पहचान हमें हो।
न बुद्धि नित्य है, न विचार, न धारणाएँ, न मान्यताएँ, न अनुमान, न आकलन, न निष्कर्ष या अनुभव, भावनाएँ आदि। यदि नित्य कुछ है, तो वह है चेतना। यहाँ तक कि चेतना में आने-जानेवाली 'मैं' की भावना तक अस्थायी और इसलिए अनित्य है। चेतना इसलिए 'मेरी चेतना' जैसी व्यक्तिगत स्वामित्व की कोई चीज़ नहीं है। चेतना निर्वैयक्तिक सत्य है जिसमें असंख्य व्यक्ति-चेतनाएँ वैयक्तिक रूप से प्रकट और विलीन होती रहती हैं।
चेतना किसी भी वस्तु का एकमात्र ठोस प्रमाण है किन्तु चेतना मूलतः तो स्वयं ही स्वयं का प्रमाण है, और यह सदा नित्य है क्योंकि यदि यह अनित्य होती तो इसकी अनित्यता का प्रमाण क्या होता?
इस प्रकार चेतना ही अद्वैत-सत्य भी है क्योंकि समस्त द्वैत अनित्य और मिथ्या हैं।
और यह भी सत्य है कि चेतना ही नित्य अविकारी (changeless / immutable) सत् है जबकि शेष सब कुछ सतत विकारग्रस्त (changeable) होने से अस्थायी और असत् (false) है।
इस प्रकार चेतना ही वह संकेत है जो स्वयं ही अपनी नित्यता का संकेत-चिह्न भी है।
इस नित्य सत्य चेतना में आने-जानेवाली हर वस्तु अनित्य और इसलिए मिथ्या है, क्योंकि वह न तो सत्य है न असत्य, किन्तु चेतना से संबंधित होने पर ही प्रतीति (appearance) की तरह अनुभव की जाती है।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, यहाँ तक कि 'मैं' की भावना तक अस्थायी और इसलिए अनित्य है।
'मैं' की भावना तक से रहित इस विशुद्ध चेतना में स्थिर रहना नित्य से संबंधित होना है।
इसलिए यह सनातन सत्य है, यही सनातन धर्म भी है।
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संबंध वैसे तो एक मान्यता और कल्पना होता है, लेकिन अनित्य या नित्य हो सकता है।
अनित्य से संबंध तो अनित्य होता ही है, नित्य से संबंध अवश्य नित्य हो सकता है।
लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि किसी ऐसी नित्य वस्तु की पहचान हमें हो।
न बुद्धि नित्य है, न विचार, न धारणाएँ, न मान्यताएँ, न अनुमान, न आकलन, न निष्कर्ष या अनुभव, भावनाएँ आदि। यदि नित्य कुछ है, तो वह है चेतना। यहाँ तक कि चेतना में आने-जानेवाली 'मैं' की भावना तक अस्थायी और इसलिए अनित्य है। चेतना इसलिए 'मेरी चेतना' जैसी व्यक्तिगत स्वामित्व की कोई चीज़ नहीं है। चेतना निर्वैयक्तिक सत्य है जिसमें असंख्य व्यक्ति-चेतनाएँ वैयक्तिक रूप से प्रकट और विलीन होती रहती हैं।
चेतना किसी भी वस्तु का एकमात्र ठोस प्रमाण है किन्तु चेतना मूलतः तो स्वयं ही स्वयं का प्रमाण है, और यह सदा नित्य है क्योंकि यदि यह अनित्य होती तो इसकी अनित्यता का प्रमाण क्या होता?
इस प्रकार चेतना ही अद्वैत-सत्य भी है क्योंकि समस्त द्वैत अनित्य और मिथ्या हैं।
और यह भी सत्य है कि चेतना ही नित्य अविकारी (changeless / immutable) सत् है जबकि शेष सब कुछ सतत विकारग्रस्त (changeable) होने से अस्थायी और असत् (false) है।
इस प्रकार चेतना ही वह संकेत है जो स्वयं ही अपनी नित्यता का संकेत-चिह्न भी है।
इस नित्य सत्य चेतना में आने-जानेवाली हर वस्तु अनित्य और इसलिए मिथ्या है, क्योंकि वह न तो सत्य है न असत्य, किन्तु चेतना से संबंधित होने पर ही प्रतीति (appearance) की तरह अनुभव की जाती है।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, यहाँ तक कि 'मैं' की भावना तक अस्थायी और इसलिए अनित्य है।
'मैं' की भावना तक से रहित इस विशुद्ध चेतना में स्थिर रहना नित्य से संबंधित होना है।
इसलिए यह सनातन सत्य है, यही सनातन धर्म भी है।
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