“What is Freedom?”
She asked.
“Do we want an answer or need really, seriously this to know, to understand. What the existential meaning of ‘Freedom’? With deep earnestness, prevailed by equally deep sense of urgency? Just like a drowning one seeks to be rescued and needs help and not a discussion?”
“Well, please elaborate…”
“If that is the urge really there in the mind or the one who asks this question, before asking this, will he not first ask :
‘When, in what circumstances does one ask this question for oneself?’
Isn’t that only after having a sense of bondage, being somehow thwarted, restricted or obstructed that is difficult to bear with, this question comes out as a consequence only?”
“ …”
“Because the real question is :
Exactly who / what is that is in the grip of this problem at the existential level and has no ‘real time’ to deal with it intellectually, -in terms of the intellect, so as to find release?
Only when there is an immense sense of being in captivity, the idea / urgency of being / becoming free is there. … Then you don’t ask :
“What is Freedom?”
Then you seek to break-down the shackles that have caught you unawares captured you in the first place.
--
मुक्ति क्या है?
--
"मुक्ति क्या है?"
उसने प्रश्न किया ।
"हम इसका केवल कोई सतही, बौद्धिक, कोई सैद्धान्तिक उत्तर चाहते हैं, या सचमुच गंभीरता से इसे पूछ रहे हैं, और समझना चाहते हैं?" ’मुक्ति’ या ’स्वतंत्रता’ का अस्तित्व से संबंधित तात्पर्य, -मुक्ति या ’स्वातन्त्र्य’; हमारे जीवन से जुड़े एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न की तरह? गहरी उत्कंठा के साथ, जिससे उतनी ही गहरी आसन्न आवश्यकता भी उसमें हो? जैसे पानी में डूब रहा कोई मनुष्य डूबने से बचने के लिए किसी की सहायता खोजता है, और उसके पास इस बारे में चर्चा के लिए समय नहीं होता । "
"ठीक है, आप बताइये...!"
"यदि मन में ’मुक्ति क्या है?’ इसे जानने के लिए उत्कंठा, आकुलता है, तो इस प्रश्न को किए जाने से पहले क्या हमें इससे अधिक महत्वपूर्ण यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि किन स्थितियों में, किस परिस्थिति में यह प्रश्न मन में उठता है? किसी बंधन में अवरुद्ध अनुभव होने के बाद ही, अर्थात् किसी ऐसी असह्य स्थिति के, जिसे बर्दाश्त करना बहुत कठिन हो गया हो, उस स्थिति के पैदा होने के बाद ही; क्या यह प्रश्न उससे छूटने की बेचैनी के कारण स्वाभाविक और प्रासंगिक नहीं हो जाता?"
" ..."
"किसी भी प्रकार से कुंठित और बाधित होना महसूस हो जाने के बाद ही, उसे और अधिक न झेल सकने पर ही क्या उसका अंत हो, ऐसा आग्रह नहीं पैदा होता? अर्थात् उस अवरोध का अंत हो जाना ही पर्याप्त और वास्तविक चीज़ है, न कि ’मुक्ति’ नामक कोई दूसरी और एक नई चीज़ पा लेना जिसे संजो कर रख सकें ।
व्यावहारिक अर्थ में ’मुक्ति’ यही है कि उस अवरोध का अंत हो जाए ।"
" ..."
"क्योंकि मूलतः प्रश्न यह है कि ठीक-ठीक ’वह’ क्या / कौन है, जिसके लिए ’मुक्ति’, न कि ’मुक्ति क्या है?’ यह प्रश्न एक अस्तित्वगत, जीवन-मरण से जुड़ा प्रश्न है? चूँकि इस प्रश्न का कोई भी बौद्धिक उत्तर, शास्त्रीय, सैद्धान्तिक उत्तर हमारे ध्यान को मूल प्रश्न से हटाकर उससे दूर ले जाता है, इसलिए वह समस्या का संतोषप्रद समाधान नहीं हो सकता ।
केवल तभी जब अपने आपको किसी प्रकार से क़ैद में पाया जाता है, मुक्ति की, क़ैद से छूटने की कल्पना और तीव्र अकुलाहट पैदा होती है । तब आप :
’मुक्ति क्या है?’
यह नहीं पूछते ।
तब आप अपनी सारी शक्ति उन श्रंखलाओं को, उन दीवारों को तोड़ने में लगा देते हैं, जिन्होंने आपको आपकी दुर्बलता, असतर्कता और असावधानी, या लापरवाही के कारण क़ैद किया होता है ।
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She asked.
“Do we want an answer or need really, seriously this to know, to understand. What the existential meaning of ‘Freedom’? With deep earnestness, prevailed by equally deep sense of urgency? Just like a drowning one seeks to be rescued and needs help and not a discussion?”
“Well, please elaborate…”
“If that is the urge really there in the mind or the one who asks this question, before asking this, will he not first ask :
‘When, in what circumstances does one ask this question for oneself?’
Isn’t that only after having a sense of bondage, being somehow thwarted, restricted or obstructed that is difficult to bear with, this question comes out as a consequence only?”
“ …”
“Because the real question is :
Exactly who / what is that is in the grip of this problem at the existential level and has no ‘real time’ to deal with it intellectually, -in terms of the intellect, so as to find release?
Only when there is an immense sense of being in captivity, the idea / urgency of being / becoming free is there. … Then you don’t ask :
“What is Freedom?”
Then you seek to break-down the shackles that have caught you unawares captured you in the first place.
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मुक्ति क्या है?
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"मुक्ति क्या है?"
उसने प्रश्न किया ।
"हम इसका केवल कोई सतही, बौद्धिक, कोई सैद्धान्तिक उत्तर चाहते हैं, या सचमुच गंभीरता से इसे पूछ रहे हैं, और समझना चाहते हैं?" ’मुक्ति’ या ’स्वतंत्रता’ का अस्तित्व से संबंधित तात्पर्य, -मुक्ति या ’स्वातन्त्र्य’; हमारे जीवन से जुड़े एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न की तरह? गहरी उत्कंठा के साथ, जिससे उतनी ही गहरी आसन्न आवश्यकता भी उसमें हो? जैसे पानी में डूब रहा कोई मनुष्य डूबने से बचने के लिए किसी की सहायता खोजता है, और उसके पास इस बारे में चर्चा के लिए समय नहीं होता । "
"ठीक है, आप बताइये...!"
"यदि मन में ’मुक्ति क्या है?’ इसे जानने के लिए उत्कंठा, आकुलता है, तो इस प्रश्न को किए जाने से पहले क्या हमें इससे अधिक महत्वपूर्ण यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि किन स्थितियों में, किस परिस्थिति में यह प्रश्न मन में उठता है? किसी बंधन में अवरुद्ध अनुभव होने के बाद ही, अर्थात् किसी ऐसी असह्य स्थिति के, जिसे बर्दाश्त करना बहुत कठिन हो गया हो, उस स्थिति के पैदा होने के बाद ही; क्या यह प्रश्न उससे छूटने की बेचैनी के कारण स्वाभाविक और प्रासंगिक नहीं हो जाता?"
" ..."
"किसी भी प्रकार से कुंठित और बाधित होना महसूस हो जाने के बाद ही, उसे और अधिक न झेल सकने पर ही क्या उसका अंत हो, ऐसा आग्रह नहीं पैदा होता? अर्थात् उस अवरोध का अंत हो जाना ही पर्याप्त और वास्तविक चीज़ है, न कि ’मुक्ति’ नामक कोई दूसरी और एक नई चीज़ पा लेना जिसे संजो कर रख सकें ।
व्यावहारिक अर्थ में ’मुक्ति’ यही है कि उस अवरोध का अंत हो जाए ।"
" ..."
"क्योंकि मूलतः प्रश्न यह है कि ठीक-ठीक ’वह’ क्या / कौन है, जिसके लिए ’मुक्ति’, न कि ’मुक्ति क्या है?’ यह प्रश्न एक अस्तित्वगत, जीवन-मरण से जुड़ा प्रश्न है? चूँकि इस प्रश्न का कोई भी बौद्धिक उत्तर, शास्त्रीय, सैद्धान्तिक उत्तर हमारे ध्यान को मूल प्रश्न से हटाकर उससे दूर ले जाता है, इसलिए वह समस्या का संतोषप्रद समाधान नहीं हो सकता ।
केवल तभी जब अपने आपको किसी प्रकार से क़ैद में पाया जाता है, मुक्ति की, क़ैद से छूटने की कल्पना और तीव्र अकुलाहट पैदा होती है । तब आप :
’मुक्ति क्या है?’
यह नहीं पूछते ।
तब आप अपनी सारी शक्ति उन श्रंखलाओं को, उन दीवारों को तोड़ने में लगा देते हैं, जिन्होंने आपको आपकी दुर्बलता, असतर्कता और असावधानी, या लापरवाही के कारण क़ैद किया होता है ।
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