Saturday, 18 November 2017

कराभ्याम् / वाम-दक्षिण


द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादवत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥
(मुण्डकोपनिषत् ३, १)
--
वैसे तो यह श्लोक आध्यात्मिक सत्य को रेखांकित करता है, किन्तु शायद इसे मस्तिष्क और हृदय से जोड़कर भी देखा जा सकता है। 
--
कराभ्याम्  
डार्विन के अनुसार मनुष्य किसी चार पैरों पर चलनेवाले मानवेतर प्राणी का विकसित प्रकार है ।
जब वह अपने पैरों पर खड़ा होने लगा तो उसने चलना, दौड़ना और खेलना, नृत्य, कुश्ती, और युद्ध आदि जैसी अनेक क्रियाओं का आविष्कार किया और ’लिखना’ तथा हाथों से अनेक कार्य करना सीखा / सिखाया ।
’विकास’ के इसी क्रम में उसे कुछ ऐसे कार्य करने पड़े जिसे केवल एक हाथ से किया जाना कभी-कभी मज़बूरी तो कभी-कभी सुविधाजनक होता था । इसका मतलब यह हुआ कि उसका दूसरा हाथ उस समय कोई और कार्य करता था या उसके पास कार्य  नहीं होता था । कुछ कार्य ऐसे भी हैं जिनमें दोनों हाथों का समान उपयोग होता है, जैसे पैदल चलना, तैरना या दौड़ना ।
’यन्त्र-युग’ आने पर मशीनें भी ऐसी बनी जिनमें दोनों हाथों की गतिविधि का बेहतर तालमेल सुनिश्चित किया गया । जैसे बाइसिकल चलाना या टाइप करना ।
एक हाथ से कार्य करने के अपने-गुण-दोष हैं, और दोनों हाथों से काम करने के भी अपने गुण-दोष हैं । यह कार्य के प्रकार पर भी निर्भर है । तैरना या साइकिल चलाना जैसे कार्यों में मस्तिष्क को अतिरिक्त कार्य नहीं करना पड़ता जबकि टाइप करने या तबला या बाँसुरी बजाने के कार्य में ’ध्यान’ का विभाजन हो जाता है । शायद मनुष्य के मानसिक-विखंडन, द्वन्द्वप्रधान होने का एक कारण यह भी हो । मनुष्य एक द्वन्द्व / अन्तर्द्वन्द्व है ।
कुछ लोगों के लिए बाँया हाथ प्रमुख होता है, दाहिना सहायक, तो कुछ लोगों की स्थिति में इसका विपरीत होता है ।
इसका मनुष्य की मानसिकता से भी किसी हद तक संबंध अवश्य है । यह भी सच है कि मस्तिष्क स्वयं भी दो भागों में विभाजित है और स्नायु-तन्त्र (नाड़ियाँ) के माध्यम से शरीर के बाँए अंग मस्तिष्क के दाँए हिस्से से तथा दाहिने अंग बाँए हिस्से से संचालित होते हैं । इस प्रकार मनुष्य के कार्य की विविधता और मस्तिष्क के कार्य करने के विभिन्न प्रकार असंख्य संभावनाओं को जन्म देते हैं ।
इससे ही जुड़ा है एक और विषय । कुछ लिपियाँ दाँए से बाँई ओर लिखी जाती हैं जबकि कुछ दाहिने से बाँई ओर । क्या इन लिपि-समूह से ’वर्गीकृत’ मनुष्यों के सोचने-विचारने के तरीकों और जीवन की मूल-प्रेरणाओं  में कोई विशेष अंतर होता है?
--   
संस्कृत में सामि का अर्थ है ’आधा’, जिससे अंग्रेज़ी में बना ’सेमी’ (semi) जो अंग्रेज़ी में उपसर्ग / प्रिफ़िक्स की तरह प्रयुक्त होता है । (सं > सम् > समान > अर्थात् आधा) दूसरी ओर सेमिटिक Semitic तथा नॉन-सेमिटिक non-Semitic ये दो विभाजन भी मानव-सभ्यता में हैं ही । इस मूल विभाजन के बाद ही पैगन Pagan संस्कृति जो पहले विश्व-व्यापी तथा समन्वयात्मक थी, टूटती चली गई ....  । यदि हम नाम से किसी समूह-विशेष की संस्कृति ’तय’ करने और उनमें श्रेष्ठ या हीन होने के विचार से परिचालित हुए बिना इस पूरे प्रश्न को देखें तो शायद मनुष्य जाति पुनः उस समन्वय और परस्पर प्रीति का आविष्कार कर सकती है जिसे हमने पिछले पाँच हज़ार वर्षों के इतिहास में लगभग नष्ट कर दिया है ।
--
सं > com > संयुञ्ज > commune > community > क़ौम > कंम्यूनिस्ट  भी दृष्टव्य हैं।
--


No comments:

Post a Comment