Thursday, 16 November 2017

असंगत और असंभव प्रश्न

The Impossible Question
असंगत और असंभव प्रश्न
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जे. कृष्णमूर्ति ’असंभव’ प्रश्न करते हैं ।
यह विचारणीय अवश्य है । ’असंभव’ अर्थात् ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर उनसे संवाद करनेवाले के लिए, उसके ’ज्ञात’ के दायरे में नहीं होता । और यदि वह उन्हें केवल सुनता भी है और वे क्या कहते हैं उसे समझने भर का प्रयास करता है तो उस प्रश्न का सामना ’ज्ञात’ के दायरे को तोड़कर बिलकुल नए सिरे से करता है ।  जे. कृष्णमूर्ति के साहित्य में ऐसे प्रश्न का उल्लेख ’असंभव’ प्रश्न (impossible question) की तरह किया गया है ।
संवाद की सार्थकता के लिए यह तो आवश्यक है ही कि प्रस्तुत किए जानेवाले प्रश्न अपने-आप में विसंगतिपूर्ण न हों । सामान्यतः कोई प्रश्न सुसंगत, विसंगतिपूर्ण, असंगतिपूर्ण, असंबद्ध अथवा अतिप्रश्न हो सकता है जिसका आगमन प्रश्नकर्ता के मन में उसके ’ज्ञात’ से होता है । ऐसे प्रश्न का औचित्य प्रतीत होने पर ही उचित संदर्भ में उत्तर दिया जा सकता है । किंतु प्रश्नकर्ता के लिए भी यदि यह स्पष्ट हो कि उसका प्रश्न कोरा बौद्धिक प्रलाप न होकर औचित्यपूर्ण अर्थात् सुसंगत है और व्यावहारिक रूप से उसकी जिज्ञासा भी है, तो संवाद सुचारु और सार्थक हो जाता है ।
सामान्यतः मनुष्य के मन में उठनेवाले सभी प्रश्न ’ज्ञात’ के ही दायरे में सीमित होते हैं इसलिए उस स्तर पर उनके ’उत्तर’ भी उसी दायरे के अन्तर्गत हो सकते हैं । गणित या भौतिक-शास्त्र के सभी ’संभव’ प्रश्न ’ज्ञात’ कहे जानेवाली ’जानकारी’ के आधार पर पैदा होते हैं और उनके बौद्धिक सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर भी अवश्य ही उसी दायरे और संदर्भ में हो सकते हैं । यह हुआ ’विषय-ज्ञान’, जिसका आदान-प्रदान अवश्य ही किसी ’भाषा’ में संभव है, और व्यावहारिक उपयोग भी है ही । ’विषयात्मक’ ज्ञान प्रतीति, इन्द्रिय संवेदन, और संवेदनकर्ता के मन में उत्पन्न उस प्रतीति की प्रतिक्रिया के रूप में होता है । इसे संक्षेप में ’अनुभव’ कहा जा सकता है । 
दूसरी ओर अस्तित्वगत प्रश्न ’अस्ति’ से संबंधित प्रश्न जिनका संबंध अस्तित्व के अपेक्षाकृत गहनतर पक्षों से है, ’मन’ नामक वस्तु जिसका सबके द्वारा स्वीकार किया जानेवाला सर्वाधिक प्रकट रूप है । इस प्रकार ’मन’ की सत्ता से किसी भी तार्किक, व्यावहारिक या निष्कर्षात्मक स्तर पर इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा इनकार स्वयं ही इस ’सत्ता’ के अस्तित्व की पुनः पुष्टि ही करता है ।
यह ’मन’ वैसे तो हमेशा ’स्वपरक’, लेकिन व्यवहार के स्तर पर ’विषयात्मक’ है । अर्थात् एक ओर तो ’मन’ को ’स्व’ के रूप में ग्रहण और स्वीकार कर लिया जाता है तो दूसरी ओर उसका उल्लेख किसी ’विषय’ (object) की तरह से भी किया जाता है । इसलिए विभाजन की एक प्रक्रिया जन्म लेती है जिसमें ’मेरा मन’ के रूप में ’मन’ नामक इस सत्ता को ’मेरे’ और ’जो मेरा नहीं है’ के रूप में बाँट दिया जाता है ।
हृदय और मस्तिष्क की स्वाभाविक या प्रतिक्रियात्मक गतिविधियों को भी ’मन’ के अन्तर्गत  ’मेरा’ से संबद्ध मान लिया जाता है । किंतु हृदय तथा मस्तिष्क के अलावा शरीर के दूसरे अंगों में होनेवाली गतिविधियाँ भी हैं जो अपने स्वाभाविक रूप में उनके अपने ढंग से संचालित होती हैं और उनकी ओर हमारा ध्यान (attention) तभी जाता है जब उनकी स्वाभाविक गतिविधि में कोई व्यवधान होता है । इस प्रकार ’मन’ का कार्य चेतन और अचेतन इन दो स्तरों पर होता है ।
मस्तिष्क की ही तरह हृदय का कार्य भी शारीरिक और मानसिक इन दो प्रकारों में होता है । मानसिक रूप से, जैसे मस्तिष्क ’विचार’ और ’बुद्धि’, ’स्मृति’ और यंत्रचालित अभ्यास (आदत) से कार्य करता है, वैसे ही हृदय भावनामात्र से संचालित होता है । भावना ही हृदय का एकमात्र प्रकट मानसिक रूप है, जबकि मस्तिष्क ’विचार’ और ’बुद्धि’ ’स्मृति’ और यंत्रचालित अभ्यास (आदत) के अनेक रूपों में प्रकट ’तथ्य’ है ।  हृदय भावनात्मक ’तथ्य’ है जबकि मस्तिष्क ’विचार’ और ’बुद्धि’ ’स्मृति’ और यंत्रचालित अभ्यास (आदत) का सम्मिलित प्रकट रूप ।
’मन’ की सत्ता का विचार यद्यपि ’स्मृति’ के माध्यम से कल्पित अतीत और कल्पित भविष्य के संबंध में ही संभव है, किंतु चित्त के रूप में ’मन’ को मस्तिष्क और हृदय की संयुक्त और सतत गतिविधि के रूप में पहचाना जाता है । अर्थात् चित्त को ही व्यवहार में ’मन’ कहा-समझा जाता है ।
इस सारे ’घटना-क्रम’ में संवेदनकर्ता कौन / क्या है?
यह हुआ असंभव प्रश्न । और ’अस्ति’ (व्हॉट इज़ ?/ what Is?) के रूप में यह हुआ ’आत्म-जिज्ञासा’ ।
जे.कृष्णमूर्ति के साहित्य के संदर्भ में यह शायद ’असंभव’ प्रश्न होगा ।
क्योंकि ’ज्ञात’ के दायरे में इसका उत्तर संभव नहीं है ।
ठीक इस प्रकार वेदान्त भी ब्रह्म-जिज्ञासा या आत्म-जिज्ञासा के माध्यम से हमारे समक्ष ’असंभव प्रश्न’ रखता है, जो हमारे लिए औचित्यपूर्ण, सुसंगत, विसंगतिपूर्ण, असंगतिपूर्ण, असंबद्ध अथवा अतिप्रश्न हो सकते हैं ।
कोई कह सकता है यह भी कोई पूछने की बात है? ’मैं मैं हूँ!’ उसके लिए इस प्रश्न का कोई अर्थ और महत्व है ही नहीं ।
कोई कह सकता है ’मैं फलाँ-फलाँ हूँ’ और अपना ’परिचय’ देगा, जो व्यावहारिक रूप से असत्य भी नहीं है ।
कोई और इसे ’वैचारिक’ प्रश्न मानकर इस पर उस ढंग से बौद्धिक विवेचना किए जाने / सुनने की अपेक्षा करेगा ।
जैसा कि दर्शन-शास्त्र के प्रारंभ से ही होता रहा है ।
किसी और के लिए यह एक विसंगत, नितांत उपेक्षणीय प्रश्न होगा, शायद व्यर्थ भी ।
किसी और के लिए यह समझ से परे का प्रश्न होगा इसलिए असंबद्ध भी ।
वेदान्त में इसका उत्तर पात्र के लिए चार महावाक्यों के रूप में उपलब्ध है ।
वेदान्त में ही अपात्र के द्वारा यह प्रश्न उठाया जाना अतिप्रश्न है, क्योंकि वह उसके द्वारा मर्यादा का उल्लंघन है ।
अनधिकारी द्वारा उठाया जानेवाला ऐसा प्रश्न (और उस पर वाद-विवाद) वितंडावाद होकर रह  जाता है ।
संवेदन / संवेदनकर्ता ही सत्ता (being / भविता) का अधिष्ठान है ।
प्रसंगवश :
अभी जे.कृष्णमूर्ति से जुड़े एक मित्र ने चर्चा करते हुए अपना मत प्रकट करते हुए कहा :
 … When the brain-cells realize …!?
क्या यह प्रश्न ब्रैन-सेल्स (brain-cells) द्वारा किया जा रहा है? ब्रैन-सेल्स (brain-cells) को जाननेवाला ’संवेदनकर्ता’ जो भी / जिस भी रूप में हो, क्या उस ’संवेदनकर्ता’ का अस्तित्व ही ब्रैन-सेल्स के जानने / न जानने का प्राथमिक और मूलभूत  (authentic) प्रमाण नहीं है?
Brain-cells is secondary, a conclusion and inference, confined within the ‘known’. 
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