Sunday, 19 November 2017

अनवधानता / प्रमाद - ignorance of the 'Self' / 'Reality'.

अनवधानता / प्रमाद
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जब मैं कहता हूँ :
’मेरा मन शून्य / मौन / रिक्त  खाली है’,
वस्तुतः वह क्या / कौन है जो कि ’मेरा मन शून्य / मौन / रिक्त  खाली है’, ऐसा कहता है?
या, जब यह शून्य / मौन / रिक्त  खाली होता है, क्या तब यह कुछ भी कह सकता है?
केवल क्षण भर बाद ही जब ’मेरा मन शून्य / मौन / रिक्त  खाली है’, -यह विचार आता है, ठीक उसी समय वह ’मन’ अस्तित्व में है यह प्रतीत होता है ।
’विचार’ किस प्रकार अपना ताना-बाना बुनता, फैलाता है यह देखना रोचक है ।
और यह देखना भी कम रोचक नहीं कि ’विचार’ किस प्रकार कल्पना से ही ’विचारकर्ता’ / ’मन’ को भी अस्तित्व प्रदान कर देता है, जिसे ’मैं’ के रूप में भी जाना जाता है ।
इस प्रकार से ही ’विचार’ तथा ’विचारकर्ता’ में कल्पित दूरी ’विचार’ द्वारा ही पैदा की जाती है, जिसे विचार कभी नहीं पाट सकता ।
यह सारा घटनाक्रम केवल प्रमाद / अनवधानता से ही घटित होता है ।
इसी अनवधानता / प्रमाद में मैं अपने-आपको जानता हूँ / नहीं जानता का विचार पैदा होता और पनपता है ।
ऐसे किसी ’विचारकर्ता’ के स्वतन्त्र अस्तित्व को उसके अस्तित्व की सत्यता की परीक्षा किए बिना स्वीकार कर लेना और उसे ’मैं’ मान बैठना मनुष्य का मूल अंधविश्वास है ।
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Inattention .
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When I say :
"My mind is blank",
Exactly who / what knows that it is blank?
Or, when it is blank, could it possibly say so?
Only a moment later when the thought
"My mind is blank"
emerges, the mind that says so along-with the notion of 'a mind' appears to exist so. This is really interesting to see how thought itself spins out its cobweb and gives rise to the notion of a 'thinker' / 'mind' in this, the very same thought, and the imaginary distance between the thinker and thought is also created / assumed by it at the same time.
Without due and careful examination giving reality to such an independent 'thinker' and assuming this 'thinker' as 'I' / 'me' is the blind faith only.
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