ईश्वर : आस्था, तर्क या निष्ठा ?
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उस कलाकृति को समझना मेरे लिए वैसे ही मुश्किल था जैसे श्रेष्ठ कही जानेवाली उन साहित्यिक रचनाओं को समझ सकना जिन्हें बहुत सम्मान दिया जाता है और मुझ जैसे अज्ञानी जिन्हें बस दाँतों तले उंगली दबाए देखते रहते हैं । इतने बड़े-बड़े लोग सम्मान करते हैं तो मुझे भी करना चाहिए । बचपन में एक दिन शिव-मंदिर में मैं यह सोच रहा था कि शायद स्वामी दयानन्द सरस्वती का तर्क सही है । लेकिन मेरी बुद्धि ने कहा "ठीक है, वह दयानन्दजी का तर्क है और उनका तर्क केवल उनके इस ’अनुभव’ से उनके मन में इसलिए उपजा था कि उन्होंने रात्रि में चूहे को शिवलिंग पर धमा-चौकड़ी करते और प्रसाद में चढ़ाई गई वस्तु को उठा ले जाते देखा था ।"
"क्या ईश्वर निराकार नहीं है?"
दूसरे दिन ’पंडितजी’ के आते ही मैंने उन पर सवाल दाग दिया था ।
उस समय वहाँ मेरे अलावा और कोई नहीं था ।
वैसे भी उस ’परिक्रमा-पथ’ पर इतने शिव-मन्दिर हैं कि उनमें से अधिकांश लगभग सूने-सूने रहते हैं ।
मेरे इस धृष्ट प्रश्न पर वे बस मुस्कुरा दिये ।
उन्होंने मन्दिर की सफ़ाई करना शुरु किया और मैं इसमें उनकी सहायता करने लगा ।
जल्दी ही पूरा मन्दिर पानी से धुल गया, ’पंडितजी’ ने ’रुद्रपाठ’ किया और मैं सुनता रहा ।
’तुम क्या सोचते हो? ईश्वर निराकार है तो उसकी पूजा कौन कर सकता है? क्या तब सब उसमें और वह सबमें नहीं है?’
’लेकिन वह किसी मूर्ति तक सीमित भी नहीं है ।’
’तो पूजा की ज़रूरत ही क्या है?’
’जिसे ज़रूरत महसूस होती हो वह कैसे करे?’
’ ... ...’
’यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
’क्या ईश्वर है ही नहीं?’
’पहले मेरे इस प्रश्न का जवाब दो कि यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
’यह तो अपनी-अपनी आस्था है ।’
’आस्था तो बदलती रहती है, इससे ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं? इस सबका क्या संबंध है?’
’तो क्या मूर्ति-पूजा सही है?’
’तो क्या मूर्ति-पूजा गलत है?’
’ईश्वर निराकार है तो मूर्ति-पूजा साकार की पूजा होने से गलत ही है ।’
’तुम क्या सोचते हो? ईश्वर निराकार है तो उसकी पूजा कौन कर सकता है? क्या तब सब उसमें और वह सबमें नहीं है? लेकिन पहले मेरे इस प्रश्न का जवाब दो : यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
’यही तो !’
वे अब भी मुस्कुराते रहे ।
और तब मुझे समझ में आया कि शायद उनके पास मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है, लेकिन इससे यह तो नहीं सिद्ध हो जाता कि वे गलत हैं ।
क्या सबसे पहले यही जानना ज़रूरी नहीं है कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?
इसलिए एक ’ईश्वर’ तो वह है (या ’नहीं’ है), जिसे हम पर परंपरा द्वारा थोपा जाता है, फिर वह परंपरा किसी भी रूप में हो, और उस ’ईश्वर’ के होने (या न होने) की हमारी कल्पना ही हममें उस प्रकार की मान्यता पैदा कर देती है । दूसरी ओर ’ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’ जब यह प्रश्न हमारे लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है तो संभवतः हम शान्तिपूर्वक इस प्रश्न को समझने का प्रयास करते हैं । और चूँकि किसी वैध प्रश्न का उत्तर प्रश्न में ही निहित होता है, इसलिए अन्ततः या तो हम इस प्रश्न को असंगत समझकर इससे छुटकारा पा जाते हैं, या हमें इसका सुनिश्चित उत्तर अर्थात् समाधान प्राप्त हो जाता है कि ईश्वर का यथार्थ स्वरूप क्या है।’
’तुम ’ईश्वर’ के बारे में तर्क से किसी निश्चय पर पहुँचना चाह रहे हो जैसा कि सभी तथाकथित बुद्धिवादी प्रायः ही करते हैं । और तर्क एक से दूसरे विचार पर दौड़ता हुआ स्वयं ही सदा अनिश्चित रहता है । पहले तो ’ईश्वर’ की कल्पना की जाती है और फिर उस ’ईश्वर’ की खोज की जाती है जो कल्पना के सूत्र से ही बँधी होती है । ऐसे किसी ’ईश्वर’ की कल्पित प्रतिमा की पूजा भी क्या मूर्ति-पूजा का ही एक प्रकार नहीं हुआ?’
’ ... ... ’
’क्या किसी तात्कालिक उपयोग की दृष्टि से, किसी कामचलाऊ रूप में किसी ईश्वर की मान्यता से प्रारंभ कर हम अंत में इसकी परीक्षा करते हुए इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि हमारी वह मान्यता ही मूलतः त्रुटिपूर्ण थी? जैसे गणित में संख्या 2 के वर्गमूल को एक पूर्ण भिन्न (rational) के रूप में सत्य मानकर हम अन्ततः जब गणितीय रूप से किसी मूलतः त्रुटिपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचते हैं और तब यह सिद्ध हो जाता है कि हमारी यह कामचलाऊ कल्पना ही कि संख्या 2 के वर्गमूल को एक पूर्ण भिन्न के रूप में व्यक्त किया जा सकता है मूलतः त्रुटिपूर्ण है?’
’यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
वे अपने उसी पुराने प्रश्न पर लौट आए ।
’किसी न किसी ने अवश्य जाना होगा इसीलिए तो ’ईश्वर’ चिन्तन का विषय बन पाया ।’
’और ऐसा कई लोगों ने जाना और फिर ’अनुभव’ भी किया होगा ।’
वे किञ्चित् उपहास और व्यंग्य से बोले ।
मैं उनके भाव को समझ गया ।
’तो क्या आप ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं?’
’मुझे ईश्वर के न होने पर भी संदेह नहीं है।’
’मतलब?’
’यही कि ईश्वर के होने या न होने को किसी ने तो या जाना होगा, या इस बारे में कोई कल्पना उसने की होगी ।’
’शायद यहाँ से हम आगे बढ़ सकते हैं ।’
’लेकिन वह ’कोई’ मनुष्य ही रहा होगा यह तो मानना ही होगा ।’
’हाँ, अपनी खोज के दायरे को हम यहाँ तक सीमित कर सकते हैं ।’
’क्या ’ईश्वर’ बुद्धि का विषय है?’
’मतलब?’
’क्या ’ईश्वर’ बुद्धिगम्य है?’
’...’
’जिसे ’ईश्वर’ कहा जाता है वह या तो कल्पना है, या विचार या निष्कर्ष है, क्योंकि उसे किसी इन्द्रियगम्य वस्तु की तरह से तो नहीं जाना जा रहा है यह तो स्पष्ट ही है।’
’...’
’क्या निष्कर्ष के रूप में भी वह अग्राह्य (untenable) है?’
’निष्कर्ष या तो अनुभव होता है या फिर अनुमान ।’
’या सिद्धान्त?’
’सिद्धान्त भी पुनः या तो प्रत्यक्ष (अपरोक्ष immediate) होता है, या अप्रत्यक्ष (mediate) परोक्ष, जिसमें किसी माध्यम से ज्ञाता, ज्ञेय और उनका परस्पर संबंध अर्थात् ज्ञान या अनुभव होता है ।’
’मतलब?’
’मतलब जब उसे व्यवहार में प्रयोग किया जाता है तो वह प्रत्यक्षतः सत्य प्रतीत होता है, किंतु जब उसे किसी शाब्दिक सूत्र में सूत्रबद्ध किया जाता है तो वह केवल एक विचार भर होता है ।’
’तो ईश्वर को जान पाना ही असंभव है ।’
’हाँ, क्योंकि ईश्वर ही माध्यम से रहित ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान एक साथ है ।’
’तो यह भी तो एक सिद्धान्त ही हुआ!’
’हाँ,जब उसे व्यवहार में प्रयोग किया जाता है तो वह प्रत्यक्षतः सत्य होता है, किंतु जब उसे किसी शाब्दिक सूत्र में सूत्रबद्ध किया जाता है तो वह केवल एक विचार भर होता है ।’
’क्या उसे हम वह अपरिवर्तनशील (अविकारी), आधारभूत तत्व कह सकते हैं जिसकी तुलना में जगत् निरंतर परिवर्तनशील प्रतीत होता है ?’
’उसकी तुलना जिससे की जा सके, क्या ऐसा उससे भिन्न कोई दूसरा तत्व है?’
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मुझे स्वीकार करते हुए संकोच नहीं है कि मैं उनसे तर्क तो ठीक, चर्चा या संवाद तक नहीं कर पा रहा था ।
मेरा एक छात्र मुझसे कैल्क्युलस (calculus) पढ़ने मेरे घर पर आता था ।
’सर, ये कैल्क्युलस (calculus) क्या होता है?’
कुछ दिनों तक मुझसे पढ़ते रहने के बाद उसने पूछा था ।
मुझे ख़याल था कि वह ऐसा कोई प्रश्न मुझसे अवश्य पूछेगा, इसलिए मैं पहले ही से तैयार था ।
मैंने बड़े आत्मविश्वास से उससे कहा :
’कैल्क्युलस (calculus) को सीधे ढंग से कहें तो इसे परिवर्तनशीलता का गणित (mathematics of change) कह सकते हैं । इसमें दो परिवर्तनशील राशियाँ (variables) होती हैं, जिसमें एक को स्वतंत्र ( independent ) माना जाता है, जबकि दूसरी को पहली राशि पर निर्भर (dependent) माना जाता है ।’
’दूसरी राशि का पहली पर निर्भर (dependent) होना तो समझ में आ रहा है, लेकिन पहली राशि स्वतंत्र ( independent ) और परिवर्तनशील भी हो यह कैसे हो सकता है? यदि वह स्वतंत्र है तो परिवर्तनशील नहीं होगी, और यदि परिवर्तनशील है तो स्वतंत्र नहीं होगी ।’
’मतलब?’
’मतलब यह कि वह किसी न किसी नियम के आधीन होगी ।’
’और वह नियम?’
’नियम या सिद्धान्त को बुद्धि से न तो समझा जा सकता है न ग्रहण किया जा सकता है ।’
’क्यों?’
’क्योंकि बुद्धि स्वयं सतत परिवर्तनशील वस्तु है किंतु वह किस तत्व की अभिव्यक्ति है, उसका अपरिवर्तनशील उद्गम स्वरूपतः क्या और कैसा है इसे बुद्धि या तर्क, अनुभव से भी नहीं समझा जा सकता । हाँ, उसके अस्तित्व पर संदेह भी नहीं किया जा सकता ।’
’तो यूँ समझो, गणित की मान्यताओं के आधार पर हम दो परिवर्तनशील राशियों में से एक को स्वतंत्र (independent ) / निरपेक्ष और दूसरी को उसके सापेक्ष उस पर निर्भर (dependent) कहेंगे ।’
’जैसे समय और गति ...’
मेरे स्टूडेंट ने मुझे सहारा दिया ।
’हाँ, संसार परिवर्तनशीलताओं की समष्टि ( totality of changes) है । इनमें से किन्हीं भी दो परस्पर संबंधित राशियों में से एक की तुलना में दूसरे की परिवर्तनशीलता की गणना (गणित) को हम कैल्क्युलस (calculus) कह सकते हैं ।
’लेकिन थोड़ी देर के लिए गणित की मान्यताओं और मान्यताओं पर आधारित गणित को भूलकर अगर यह देख लिया जाए कि ’परिवर्तनशीलता’ का विचार केवल बुद्धि का एक भ्रम है तो क्या यह भ्रम स्वयं ही ध्वस्त नहीं हो जाता?’
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कुछ दिनों बाद मन्दिर जाना हुआ तो पंडित जी बोले :
’बहुत दिनों बाद आए! कहीं बाहर गए थे क्या?’
’जी नहीं, कुछ व्यस्त था ।’
’अच्छा, वो पुरानी मालाएँ और फूल उतारकर बाहर तुलसी के बाजू में रख दो और बाल्टी में पानी भरकर ले आओ ।’
मैंने उदासीन भाव से उनकी आज्ञा का पालन किया ।
’आज सफ़ाई में हाथ नहीं बँटाओगे?’
उन्होंने कुछ संशय के साथ पूछा ।
’मैं ..., आजकल घर पर ही मेरा सफ़ाई-कार्य हो जाता है ...।’
’तो मन्दिर किसलिए आए?’
’बस दर्शन करने, वैसे आपकी आज्ञा में अब भी हूँ ।’
इसके बाद भी बहुत दिनों तक, जब तक उस स्थान पर रहा, उस मन्दिर में लगभग प्रतिदिन जाता रहा । लेकिन अब मैं किसी से ईश्वर के बारे में चर्चा, विवाद नहीं करता ।
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(कल्पित)
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उस कलाकृति को समझना मेरे लिए वैसे ही मुश्किल था जैसे श्रेष्ठ कही जानेवाली उन साहित्यिक रचनाओं को समझ सकना जिन्हें बहुत सम्मान दिया जाता है और मुझ जैसे अज्ञानी जिन्हें बस दाँतों तले उंगली दबाए देखते रहते हैं । इतने बड़े-बड़े लोग सम्मान करते हैं तो मुझे भी करना चाहिए । बचपन में एक दिन शिव-मंदिर में मैं यह सोच रहा था कि शायद स्वामी दयानन्द सरस्वती का तर्क सही है । लेकिन मेरी बुद्धि ने कहा "ठीक है, वह दयानन्दजी का तर्क है और उनका तर्क केवल उनके इस ’अनुभव’ से उनके मन में इसलिए उपजा था कि उन्होंने रात्रि में चूहे को शिवलिंग पर धमा-चौकड़ी करते और प्रसाद में चढ़ाई गई वस्तु को उठा ले जाते देखा था ।"
"क्या ईश्वर निराकार नहीं है?"
दूसरे दिन ’पंडितजी’ के आते ही मैंने उन पर सवाल दाग दिया था ।
उस समय वहाँ मेरे अलावा और कोई नहीं था ।
वैसे भी उस ’परिक्रमा-पथ’ पर इतने शिव-मन्दिर हैं कि उनमें से अधिकांश लगभग सूने-सूने रहते हैं ।
मेरे इस धृष्ट प्रश्न पर वे बस मुस्कुरा दिये ।
उन्होंने मन्दिर की सफ़ाई करना शुरु किया और मैं इसमें उनकी सहायता करने लगा ।
जल्दी ही पूरा मन्दिर पानी से धुल गया, ’पंडितजी’ ने ’रुद्रपाठ’ किया और मैं सुनता रहा ।
’तुम क्या सोचते हो? ईश्वर निराकार है तो उसकी पूजा कौन कर सकता है? क्या तब सब उसमें और वह सबमें नहीं है?’
’लेकिन वह किसी मूर्ति तक सीमित भी नहीं है ।’
’तो पूजा की ज़रूरत ही क्या है?’
’जिसे ज़रूरत महसूस होती हो वह कैसे करे?’
’ ... ...’
’यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
’क्या ईश्वर है ही नहीं?’
’पहले मेरे इस प्रश्न का जवाब दो कि यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
’यह तो अपनी-अपनी आस्था है ।’
’आस्था तो बदलती रहती है, इससे ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं? इस सबका क्या संबंध है?’
’तो क्या मूर्ति-पूजा सही है?’
’तो क्या मूर्ति-पूजा गलत है?’
’ईश्वर निराकार है तो मूर्ति-पूजा साकार की पूजा होने से गलत ही है ।’
’तुम क्या सोचते हो? ईश्वर निराकार है तो उसकी पूजा कौन कर सकता है? क्या तब सब उसमें और वह सबमें नहीं है? लेकिन पहले मेरे इस प्रश्न का जवाब दो : यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
’यही तो !’
वे अब भी मुस्कुराते रहे ।
और तब मुझे समझ में आया कि शायद उनके पास मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है, लेकिन इससे यह तो नहीं सिद्ध हो जाता कि वे गलत हैं ।
क्या सबसे पहले यही जानना ज़रूरी नहीं है कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?
इसलिए एक ’ईश्वर’ तो वह है (या ’नहीं’ है), जिसे हम पर परंपरा द्वारा थोपा जाता है, फिर वह परंपरा किसी भी रूप में हो, और उस ’ईश्वर’ के होने (या न होने) की हमारी कल्पना ही हममें उस प्रकार की मान्यता पैदा कर देती है । दूसरी ओर ’ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’ जब यह प्रश्न हमारे लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है तो संभवतः हम शान्तिपूर्वक इस प्रश्न को समझने का प्रयास करते हैं । और चूँकि किसी वैध प्रश्न का उत्तर प्रश्न में ही निहित होता है, इसलिए अन्ततः या तो हम इस प्रश्न को असंगत समझकर इससे छुटकारा पा जाते हैं, या हमें इसका सुनिश्चित उत्तर अर्थात् समाधान प्राप्त हो जाता है कि ईश्वर का यथार्थ स्वरूप क्या है।’
’तुम ’ईश्वर’ के बारे में तर्क से किसी निश्चय पर पहुँचना चाह रहे हो जैसा कि सभी तथाकथित बुद्धिवादी प्रायः ही करते हैं । और तर्क एक से दूसरे विचार पर दौड़ता हुआ स्वयं ही सदा अनिश्चित रहता है । पहले तो ’ईश्वर’ की कल्पना की जाती है और फिर उस ’ईश्वर’ की खोज की जाती है जो कल्पना के सूत्र से ही बँधी होती है । ऐसे किसी ’ईश्वर’ की कल्पित प्रतिमा की पूजा भी क्या मूर्ति-पूजा का ही एक प्रकार नहीं हुआ?’
’ ... ... ’
’क्या किसी तात्कालिक उपयोग की दृष्टि से, किसी कामचलाऊ रूप में किसी ईश्वर की मान्यता से प्रारंभ कर हम अंत में इसकी परीक्षा करते हुए इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि हमारी वह मान्यता ही मूलतः त्रुटिपूर्ण थी? जैसे गणित में संख्या 2 के वर्गमूल को एक पूर्ण भिन्न (rational) के रूप में सत्य मानकर हम अन्ततः जब गणितीय रूप से किसी मूलतः त्रुटिपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचते हैं और तब यह सिद्ध हो जाता है कि हमारी यह कामचलाऊ कल्पना ही कि संख्या 2 के वर्गमूल को एक पूर्ण भिन्न के रूप में व्यक्त किया जा सकता है मूलतः त्रुटिपूर्ण है?’
’यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
वे अपने उसी पुराने प्रश्न पर लौट आए ।
’किसी न किसी ने अवश्य जाना होगा इसीलिए तो ’ईश्वर’ चिन्तन का विषय बन पाया ।’
’और ऐसा कई लोगों ने जाना और फिर ’अनुभव’ भी किया होगा ।’
वे किञ्चित् उपहास और व्यंग्य से बोले ।
मैं उनके भाव को समझ गया ।
’तो क्या आप ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं?’
’मुझे ईश्वर के न होने पर भी संदेह नहीं है।’
’मतलब?’
’यही कि ईश्वर के होने या न होने को किसी ने तो या जाना होगा, या इस बारे में कोई कल्पना उसने की होगी ।’
’शायद यहाँ से हम आगे बढ़ सकते हैं ।’
’लेकिन वह ’कोई’ मनुष्य ही रहा होगा यह तो मानना ही होगा ।’
’हाँ, अपनी खोज के दायरे को हम यहाँ तक सीमित कर सकते हैं ।’
’क्या ’ईश्वर’ बुद्धि का विषय है?’
’मतलब?’
’क्या ’ईश्वर’ बुद्धिगम्य है?’
’...’
’जिसे ’ईश्वर’ कहा जाता है वह या तो कल्पना है, या विचार या निष्कर्ष है, क्योंकि उसे किसी इन्द्रियगम्य वस्तु की तरह से तो नहीं जाना जा रहा है यह तो स्पष्ट ही है।’
’...’
’क्या निष्कर्ष के रूप में भी वह अग्राह्य (untenable) है?’
’निष्कर्ष या तो अनुभव होता है या फिर अनुमान ।’
’या सिद्धान्त?’
’सिद्धान्त भी पुनः या तो प्रत्यक्ष (अपरोक्ष immediate) होता है, या अप्रत्यक्ष (mediate) परोक्ष, जिसमें किसी माध्यम से ज्ञाता, ज्ञेय और उनका परस्पर संबंध अर्थात् ज्ञान या अनुभव होता है ।’
’मतलब?’
’मतलब जब उसे व्यवहार में प्रयोग किया जाता है तो वह प्रत्यक्षतः सत्य प्रतीत होता है, किंतु जब उसे किसी शाब्दिक सूत्र में सूत्रबद्ध किया जाता है तो वह केवल एक विचार भर होता है ।’
’तो ईश्वर को जान पाना ही असंभव है ।’
’हाँ, क्योंकि ईश्वर ही माध्यम से रहित ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान एक साथ है ।’
’तो यह भी तो एक सिद्धान्त ही हुआ!’
’हाँ,जब उसे व्यवहार में प्रयोग किया जाता है तो वह प्रत्यक्षतः सत्य होता है, किंतु जब उसे किसी शाब्दिक सूत्र में सूत्रबद्ध किया जाता है तो वह केवल एक विचार भर होता है ।’
’क्या उसे हम वह अपरिवर्तनशील (अविकारी), आधारभूत तत्व कह सकते हैं जिसकी तुलना में जगत् निरंतर परिवर्तनशील प्रतीत होता है ?’
’उसकी तुलना जिससे की जा सके, क्या ऐसा उससे भिन्न कोई दूसरा तत्व है?’
--
मुझे स्वीकार करते हुए संकोच नहीं है कि मैं उनसे तर्क तो ठीक, चर्चा या संवाद तक नहीं कर पा रहा था ।
मेरा एक छात्र मुझसे कैल्क्युलस (calculus) पढ़ने मेरे घर पर आता था ।
’सर, ये कैल्क्युलस (calculus) क्या होता है?’
कुछ दिनों तक मुझसे पढ़ते रहने के बाद उसने पूछा था ।
मुझे ख़याल था कि वह ऐसा कोई प्रश्न मुझसे अवश्य पूछेगा, इसलिए मैं पहले ही से तैयार था ।
मैंने बड़े आत्मविश्वास से उससे कहा :
’कैल्क्युलस (calculus) को सीधे ढंग से कहें तो इसे परिवर्तनशीलता का गणित (mathematics of change) कह सकते हैं । इसमें दो परिवर्तनशील राशियाँ (variables) होती हैं, जिसमें एक को स्वतंत्र ( independent ) माना जाता है, जबकि दूसरी को पहली राशि पर निर्भर (dependent) माना जाता है ।’
’दूसरी राशि का पहली पर निर्भर (dependent) होना तो समझ में आ रहा है, लेकिन पहली राशि स्वतंत्र ( independent ) और परिवर्तनशील भी हो यह कैसे हो सकता है? यदि वह स्वतंत्र है तो परिवर्तनशील नहीं होगी, और यदि परिवर्तनशील है तो स्वतंत्र नहीं होगी ।’
’मतलब?’
’मतलब यह कि वह किसी न किसी नियम के आधीन होगी ।’
’और वह नियम?’
’नियम या सिद्धान्त को बुद्धि से न तो समझा जा सकता है न ग्रहण किया जा सकता है ।’
’क्यों?’
’क्योंकि बुद्धि स्वयं सतत परिवर्तनशील वस्तु है किंतु वह किस तत्व की अभिव्यक्ति है, उसका अपरिवर्तनशील उद्गम स्वरूपतः क्या और कैसा है इसे बुद्धि या तर्क, अनुभव से भी नहीं समझा जा सकता । हाँ, उसके अस्तित्व पर संदेह भी नहीं किया जा सकता ।’
’तो यूँ समझो, गणित की मान्यताओं के आधार पर हम दो परिवर्तनशील राशियों में से एक को स्वतंत्र (independent ) / निरपेक्ष और दूसरी को उसके सापेक्ष उस पर निर्भर (dependent) कहेंगे ।’
’जैसे समय और गति ...’
मेरे स्टूडेंट ने मुझे सहारा दिया ।
’हाँ, संसार परिवर्तनशीलताओं की समष्टि ( totality of changes) है । इनमें से किन्हीं भी दो परस्पर संबंधित राशियों में से एक की तुलना में दूसरे की परिवर्तनशीलता की गणना (गणित) को हम कैल्क्युलस (calculus) कह सकते हैं ।
’लेकिन थोड़ी देर के लिए गणित की मान्यताओं और मान्यताओं पर आधारित गणित को भूलकर अगर यह देख लिया जाए कि ’परिवर्तनशीलता’ का विचार केवल बुद्धि का एक भ्रम है तो क्या यह भ्रम स्वयं ही ध्वस्त नहीं हो जाता?’
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कुछ दिनों बाद मन्दिर जाना हुआ तो पंडित जी बोले :
’बहुत दिनों बाद आए! कहीं बाहर गए थे क्या?’
’जी नहीं, कुछ व्यस्त था ।’
’अच्छा, वो पुरानी मालाएँ और फूल उतारकर बाहर तुलसी के बाजू में रख दो और बाल्टी में पानी भरकर ले आओ ।’
मैंने उदासीन भाव से उनकी आज्ञा का पालन किया ।
’आज सफ़ाई में हाथ नहीं बँटाओगे?’
उन्होंने कुछ संशय के साथ पूछा ।
’मैं ..., आजकल घर पर ही मेरा सफ़ाई-कार्य हो जाता है ...।’
’तो मन्दिर किसलिए आए?’
’बस दर्शन करने, वैसे आपकी आज्ञा में अब भी हूँ ।’
इसके बाद भी बहुत दिनों तक, जब तक उस स्थान पर रहा, उस मन्दिर में लगभग प्रतिदिन जाता रहा । लेकिन अब मैं किसी से ईश्वर के बारे में चर्चा, विवाद नहीं करता ।
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(कल्पित)
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