चेतना, विचार और दर्शन
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किसी वस्तु का, अर्थात् विषय-मात्र का विचार ही उससे विभाजन है ।
विचार वह दीवार है जिसके एक ओर विचारकर्ता और दूसरी ओर वह वस्तु अर्थात् विषय होता है जिसके विचार का सामना विचारकर्ता करता है ।
दर्शन ही दूरी है । किसी वस्तु का, अर्थात् विषय-मात्र का दर्शन ही उससे दूरी है ।
दर्शन वह पारदर्शक दीवार है जिसके एक ओर देखनेवाला और दूसरी ओर वह वस्तु अर्थात् विषय होता है जिसकी आकृति का सामना दर्शक करता है ।
इसलिए विचार असंख्य प्रकार का और दर्शन भी असंख्य प्रकार का होता है ।
संस्कृत ’चर्’ धातु से बने ’विचरण’, ’विचारण’, और ’विचारणा’ का अर्थ हुआ किसी दिशा में गतिशील होना । यह दिशा दूरी है जो कम या अधिक हो सकती है किंतु शून्य नहीं हो सकती । तब विचार का अस्तित्व ही नहीं रहता । ’अर्थ’ का अर्थ है एक विचार का दूसरे विचार में रूपांतरण होना ।
इस प्रकार समस्त विचारपरक-ज्ञान केवल अपरिचय ही है । एक वस्तु अर्थात् विषय का ’वैचारिक-ज्ञान’ विशिष्ट प्रकार का अपरिचय मात्र है ।
संस्कृत ’दृ’ > (आ)द्रियते का अर्थ है आदर करना,
संस्कृत ’दृ’ > दृणाति, दारयति का अर्थ है फाड़ना (विस्फारयति), तोड़ना,
संस्कृत ’दृश्’ > पश्यति / दर्शयति का अर्थ है देखना, दिखलाना ।
ये सभी क्रियाएँ विचार की जानेवाली वस्तु अर्थात् विषय से विचारकर्ता का विभाजन और देखी-दिखलाई जानेवाली वस्तु से दर्शक की दूरी उत्पन्न करती हैं ।
यह विभाजन और दूरी आभासी और कृत्रिम है और इसकी आभासी प्रकृति पर ध्यान जाते ही समस्त आभासी और कृत्रिम ज्ञान की परिसमाप्ति हो जाती है ।
यह तो हुआ ’विचार और दर्शन’ प्रकरण का सैद्धान्तिक पक्ष ।
अब इसी प्रकरण के व्यावहारिक पक्ष की विवेचना इस प्रकार की जा सकती है :
जब ’विचार’ का प्रयोग किसी लक्षित ध्येय की प्राप्ति के साधन के रूप में किया जाता है तो वह एक बौद्धिक यत्न होता है, क्योंकि किसी लक्षित ध्येय (की प्राप्ति) का विचार सदा ही किसी कल्पित भविष्य के सन्दर्भ में ही हो सकता है । और यह कल्पित भविष्य / लक्षित ध्येय सदा ही पूर्वस्मृति पर अवलंबित होता है । यह पूर्वस्मृति या तो अनुभव के रूप में होती है या अनुभव के किसी वैचारिक या परिकल्पनात्मक अर्थात् मूर्त या अमूर्त चिन्तन के रूप में होती है । यह मूर्त या अमूर्त चिन्तन भी विचार का ही एक प्रकार है और जिस (वस्तु, विषय अर्थात् अनुभव) का चिन्तन किया जाता है वह मूलतः केवल एक घटनाक्रम होता है जिससे ’अतीत’ का कृत्रिम सृजन कर उस पर निरंतरता आरोपित की जाती है । घटनाक्रम की जैसी कल्पना की जाती है उसे उस पर निरंतरता के इसी आरोपण के कारण घटनाक्रम के रूप में ग्रहण और स्मृति में सुरक्षित रखा जाता है । यह आरोपण भी केवल कल्पना है, वस्तुतः ऐसा कोई घटनाक्रम सतत व्यतीत होता रहता है ।
’व्यतीत’ > वि अति इतः, अर्थात् वह जो यूँ तो जा चुका है किन्तु अति इतः अर्थात् अतीत के रूप में जिसे स्मरण किया जाता है । इस प्रकार से स्मृति में स्थित संपूर्ण अतीत वस्तुतः घटनाक्रम का चिन्तन में घटित रूपांतरण मात्र है, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व या सत्ता कदापि नहीं हो सकती । इसे बुद्धि का भ्रम भी कहा जा सकता है ।
यह लक्षित ध्येय केवल वैचारिक भी हो सकता है जैसे किसी गणितीय या वैज्ञानिक प्रश्न का उत्तर पाने का यत्न, या इसमें कल्पना का अंश भी हो सकता है, जैसे किसी सामाजिक या अर्थिक प्रश्न पर चिन्तन करते समय होता है । अतीत के ज्ञान और उससे जुड़ी विशिष्ट वैयक्तिक स्मृति पर अवलंबित होने के कारण इस चिन्तन से उस लक्षित ध्येय की प्राप्ति होती हुई अवश्य ही दिखाई भी देती है ।
किन्तु एक प्रश्न यह तो बना ही रहता है कि इस ध्येय की प्राप्ति ’किसे’ हुई या होती है? क्या वह ’कोई’ समाज है व्यक्ति है? क्या समाज या व्यक्ति भी पुनः विचारमात्र ही नहीं है? क्या विचार के न होने पर उनके होने या न होने का प्रश्न हो सकता है? क्या यह ’विचार’ ही नहीं है जिसके परिणाम में असंख्य काल्पनिक और आभासी प्रश्न पैदा होते हैं? किन्तु विचार के उद्भव को रोका भी नहीं जा सकता । क्योंकि विचार स्वयंभू है । ’मैं सोचता हूँ’ इस कल्पना / विचार से यद्यपि ’मैं’ सोचने के लिए स्वतंत्र हूँ यह भ्रांति उत्पन्न होती है, और अपने स्वतंत्र अस्तित्व के होने का विचार बुद्धि में अवश्य पैदा होता है, किंतु वह बुद्धि की स्वाभाविक गतिविधि है न कि ऐसे किसी स्वतंत्र ’मैं’ के होने का प्रमाण, जो ’विचार करता’ हो ।
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बुद्धि की बैसाखियाँ न हों तो विचार एक कदम भी नहीं चल सकता, और विवेक का संतुलन न हो तो इन बैसाखियों के होने-न-होने का कोई मतलब नहीं रह जाता ।
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किसी वस्तु का, अर्थात् विषय-मात्र का विचार ही उससे विभाजन है ।
विचार वह दीवार है जिसके एक ओर विचारकर्ता और दूसरी ओर वह वस्तु अर्थात् विषय होता है जिसके विचार का सामना विचारकर्ता करता है ।
दर्शन ही दूरी है । किसी वस्तु का, अर्थात् विषय-मात्र का दर्शन ही उससे दूरी है ।
दर्शन वह पारदर्शक दीवार है जिसके एक ओर देखनेवाला और दूसरी ओर वह वस्तु अर्थात् विषय होता है जिसकी आकृति का सामना दर्शक करता है ।
इसलिए विचार असंख्य प्रकार का और दर्शन भी असंख्य प्रकार का होता है ।
संस्कृत ’चर्’ धातु से बने ’विचरण’, ’विचारण’, और ’विचारणा’ का अर्थ हुआ किसी दिशा में गतिशील होना । यह दिशा दूरी है जो कम या अधिक हो सकती है किंतु शून्य नहीं हो सकती । तब विचार का अस्तित्व ही नहीं रहता । ’अर्थ’ का अर्थ है एक विचार का दूसरे विचार में रूपांतरण होना ।
इस प्रकार समस्त विचारपरक-ज्ञान केवल अपरिचय ही है । एक वस्तु अर्थात् विषय का ’वैचारिक-ज्ञान’ विशिष्ट प्रकार का अपरिचय मात्र है ।
संस्कृत ’दृ’ > (आ)द्रियते का अर्थ है आदर करना,
संस्कृत ’दृ’ > दृणाति, दारयति का अर्थ है फाड़ना (विस्फारयति), तोड़ना,
संस्कृत ’दृश्’ > पश्यति / दर्शयति का अर्थ है देखना, दिखलाना ।
ये सभी क्रियाएँ विचार की जानेवाली वस्तु अर्थात् विषय से विचारकर्ता का विभाजन और देखी-दिखलाई जानेवाली वस्तु से दर्शक की दूरी उत्पन्न करती हैं ।
यह विभाजन और दूरी आभासी और कृत्रिम है और इसकी आभासी प्रकृति पर ध्यान जाते ही समस्त आभासी और कृत्रिम ज्ञान की परिसमाप्ति हो जाती है ।
यह तो हुआ ’विचार और दर्शन’ प्रकरण का सैद्धान्तिक पक्ष ।
अब इसी प्रकरण के व्यावहारिक पक्ष की विवेचना इस प्रकार की जा सकती है :
जब ’विचार’ का प्रयोग किसी लक्षित ध्येय की प्राप्ति के साधन के रूप में किया जाता है तो वह एक बौद्धिक यत्न होता है, क्योंकि किसी लक्षित ध्येय (की प्राप्ति) का विचार सदा ही किसी कल्पित भविष्य के सन्दर्भ में ही हो सकता है । और यह कल्पित भविष्य / लक्षित ध्येय सदा ही पूर्वस्मृति पर अवलंबित होता है । यह पूर्वस्मृति या तो अनुभव के रूप में होती है या अनुभव के किसी वैचारिक या परिकल्पनात्मक अर्थात् मूर्त या अमूर्त चिन्तन के रूप में होती है । यह मूर्त या अमूर्त चिन्तन भी विचार का ही एक प्रकार है और जिस (वस्तु, विषय अर्थात् अनुभव) का चिन्तन किया जाता है वह मूलतः केवल एक घटनाक्रम होता है जिससे ’अतीत’ का कृत्रिम सृजन कर उस पर निरंतरता आरोपित की जाती है । घटनाक्रम की जैसी कल्पना की जाती है उसे उस पर निरंतरता के इसी आरोपण के कारण घटनाक्रम के रूप में ग्रहण और स्मृति में सुरक्षित रखा जाता है । यह आरोपण भी केवल कल्पना है, वस्तुतः ऐसा कोई घटनाक्रम सतत व्यतीत होता रहता है ।
’व्यतीत’ > वि अति इतः, अर्थात् वह जो यूँ तो जा चुका है किन्तु अति इतः अर्थात् अतीत के रूप में जिसे स्मरण किया जाता है । इस प्रकार से स्मृति में स्थित संपूर्ण अतीत वस्तुतः घटनाक्रम का चिन्तन में घटित रूपांतरण मात्र है, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व या सत्ता कदापि नहीं हो सकती । इसे बुद्धि का भ्रम भी कहा जा सकता है ।
यह लक्षित ध्येय केवल वैचारिक भी हो सकता है जैसे किसी गणितीय या वैज्ञानिक प्रश्न का उत्तर पाने का यत्न, या इसमें कल्पना का अंश भी हो सकता है, जैसे किसी सामाजिक या अर्थिक प्रश्न पर चिन्तन करते समय होता है । अतीत के ज्ञान और उससे जुड़ी विशिष्ट वैयक्तिक स्मृति पर अवलंबित होने के कारण इस चिन्तन से उस लक्षित ध्येय की प्राप्ति होती हुई अवश्य ही दिखाई भी देती है ।
किन्तु एक प्रश्न यह तो बना ही रहता है कि इस ध्येय की प्राप्ति ’किसे’ हुई या होती है? क्या वह ’कोई’ समाज है व्यक्ति है? क्या समाज या व्यक्ति भी पुनः विचारमात्र ही नहीं है? क्या विचार के न होने पर उनके होने या न होने का प्रश्न हो सकता है? क्या यह ’विचार’ ही नहीं है जिसके परिणाम में असंख्य काल्पनिक और आभासी प्रश्न पैदा होते हैं? किन्तु विचार के उद्भव को रोका भी नहीं जा सकता । क्योंकि विचार स्वयंभू है । ’मैं सोचता हूँ’ इस कल्पना / विचार से यद्यपि ’मैं’ सोचने के लिए स्वतंत्र हूँ यह भ्रांति उत्पन्न होती है, और अपने स्वतंत्र अस्तित्व के होने का विचार बुद्धि में अवश्य पैदा होता है, किंतु वह बुद्धि की स्वाभाविक गतिविधि है न कि ऐसे किसी स्वतंत्र ’मैं’ के होने का प्रमाण, जो ’विचार करता’ हो ।
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बुद्धि की बैसाखियाँ न हों तो विचार एक कदम भी नहीं चल सकता, और विवेक का संतुलन न हो तो इन बैसाखियों के होने-न-होने का कोई मतलब नहीं रह जाता ।
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