Tuesday, 14 November 2017

सर्वत्र विभाषा गोः

--
सर्वत्र विभाषा गोः
(लघुसिद्धान्त कौमुदी ४४)
अष्टाध्यायी ६/१/१२२
लोके वेदे चैङन्तस्य गोरति वा प्रकृतिभावः पदान्ते ...
लोके वेदे च एङन्त गोः अति वा प्रकृतिभावः पदान्ते ।
लोक और वेद में एङन्त गो शब्द (गोशब्दावयव ओकार) को अत् - ह्रस्व अकार-परे रहने पर पदान्त में विकल्प से प्रकृतिभाव होता है ।
संस्कृत भाषा के दो रूप हैं  :
१ लौकिक, २ वैदिक,
लौकिक भाषा लोक में प्रयुक्त होती है, काव्यों में प्रयुक्त भाषा लौकिक ही है । पाणिनि और कात्यायन ने इस लौकिक भाषा के लिए केवल ’भाषा’ शब्द का भी प्रयोग किया है । यथा --- ’प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम्, प्रत्यये भाष्याम् नित्यम्’ ।
वैदिक भाषा वह है जो वेदों में प्रयुक्त हुई है ।
वैदिक भाषा के कुछ विशेष नियम हैं । वे यहाँ ’पृथक्’ कहे गए हैं । इस सूत्र (सर्वत्र विभाषा गोः) का कार्य ’सर्वत्र’ कहा गया है, अर्थात् लौकिक भाषा में भी और वैदिक भाषा में भी ।
--

No comments:

Post a Comment