Saturday, 25 November 2017

’राष्ट्र’, ’देश’, ’राज्य’, ’पृथिवी’ / ’पृथ्वी’

’आर्य’ और ’आर्येतर’
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वैदिक आधार पर ’राष्ट्र’ का अर्थ ’देश’ या ’राज्य’ न होकर संपूर्ण ’पृथिवी’ / ’पृथ्वी’ है । वाल्मीकि रामायण में विभिन्न ’जातियों’ का उल्लेख है जो पूरी ’पृथिवी’ पर भिन्न-भिन्न ’देशों’ पर जनमीं और उनकी अपनी ’सभ्यता’ विकसित हुई । ’आर्य’ और ’आर्येतर’  इसलिए ’आर्य’ जो ’जाति’ नहीं है पूरी पृथिवी पर सर्वत्र हैं । ’राष्ट्र’ का वैदिक अभिप्राय यह पूरी पृथिवी है ।
ऋग्वेद में (परम-सत्ता रूपिणी) ’देवी’ कहती हैं :
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनामं चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ...
(ऋग्वेद मंडल १०- १२५, १०- ८)
’पृथिवी’ नाम भी पृथ्वी को तब प्राप्त हुआ जब राजा वेन ने भूमि पर कृषि के द्वारा ’राज्य’ की स्थापना की ।
राजा वेन की ही संतान वैन्य था जिसे शिव ने उपदेश दिया (विरूपाक्ष पञ्चाशिका)।
राजा वेन के ही दक्षिण ’कर’ से वैन्य का जन्म हुआ ।
’क्षत्रिय’ वर्ण का जन्म ’राज्य’ के आधार पर ’धर्म’ के अनुसार समस्त पृथ्वी पर ’शासन’ के लिए है ।
इसलिए ’राष्ट्र-रक्षा’ ’धर्म के राज्य’ के शासन और रक्षा के लिए क्षत्रिय का एकमात्र ’धर्म’ है ।
इस सन्दर्भ में श्रीमद्भग्वद्गीता अवश्य ही स्पष्ट निर्देश देती है ।
’क्षात्र-धर्म’ का पालन न केवल ’अर्जुन’ बल्कि समस्त क्षत्रियों का परम कर्तव्य और सबके कल्याण के लिए है ।
यहाँ संक्षेप में ... विस्तार के लिए मेरे ब्लॉग्स देख सकते हैं, विशेषकर ’स्वाध्याय’ के अतर्गत ।
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