Sunday, 31 July 2016

कालस्थानौ / kālasthānau

कालस्थानौ
अक्षरात् सञ्जायते कालो
काले वेगो प्रतीयते ।
चिति यस्यां प्रतीयेते
काले नावलम्बिता सा ॥
तस्मात् कथं हि भेदो स्यात्
कालो मन्दो वा तीव्रो
लोको हि आश्रितः काले,
न वर्तते स्वतन्त्रया ॥
व्यक्तेपुरुषस्य मत्याम्
जायते एतत्संभ्रमम् ।
अव्यक्ते सनातने पुरुषे
कालस्थानौ न वर्तेते ॥
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अर्थ :
काल तथा स्थान की प्रतीति / उद्भव, अक्षर / अविनाशी परमात्मा से होता है । और फिर काल धीमा या तीव्र अनुभव किया जाता । किन्तु जिस चैतन्य में इन दोनों की प्रतीति पाई जाती है वह चैतन्य काल पर आश्रित नहीं । अतः काल धीमा या तीव्र है यह भेद उत्पन्न ही नहीं होता । काल-स्थानगत जगत तथा उसे देखनेवाले व्यक्ति-विशेष  स्वतंत्र सत्ता ही नहीं  सकती । किन्तु लोक में स्थित व्यक्त मनुष्य के मन में ऐसा संभ्रम उत्पन्न  होता है ।
इनके अधिष्ठान अव्यक्त सनातन पुरुष (परमात्मा) के लिए तो काल तथा स्थान अस्तित्व ही नहीं रखते ॥
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kālasthānau
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akṣarāt sañjāyate kālo
kāle vego pratīyate |
citi yasyāṃ pratīyete
kāle nāvalambitā sā ||
tasmāt kathaṃ hi bhedo syāt
kālo mando vā tīvro
loko hi āśritaḥ kāle,
na vartate svatantrayā ||
vyaktepuruṣasya matyām
jāyate etatsaṃbhramam |
avyakte sanātane puruṣe
kālasthānau na vartete ||
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Meaning :
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From Immanent, Imperishable 'Sat' Supreme, apparent 'time' looks to emerge out. And one says 'time' is slow or fast. But That Immanent, Imperishable 'Sat' Supreme, does not depend upon 'time' and space'.
Because of this, how the distinction of 'time' as slow or fast could be true?
Though for man of world and the world appear to take place in 'time' and 'space', The One Immanent Imperishable 'Sat' Supreme 'time' and 'space' just don't exist !
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