चार समान्तर
--
समान्तर 1.
आध्यैतिहासिक / प्रागैतिहासिक
--
ईक्षोदृशः / ईक्षद्दृशः / ईक्ष् अव दृष् / ईक्ष् अव दुष्
--
Exodus 3.
एक्सोडस 3 की कथा
1.मोज़ेस और जलती झाड़ी
अब जब मोज़ेस अपने श्वसुर मिडियन (माध्यन् > माध्यन्दिन) के पुरोहित जेथ्रो (ज्येष्ठो) के समुदाय / समूह की देखभाल कर रहा था और वह उसे सुदूर निर्जन अरण्य-प्रान्तर की दिशा में ले जा रहा था, कि मार्ग में होरेव (होरा-इव) नामक दिव्य पर्वत दिखलाई पड़ा ।
2.जहाँ एक झाड़ी में आलोकित हो रही अग्निशिखाओं *(सप्त यह्वी) के मध्य यह्व / ईश्वर / प्रभु / अग्निदेव का दूत (पार्षद) / फ़रिश्तः उसके समक्ष प्रकट हुआ । मोज़ेस ने देखा और उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यद्यपि झाड़ी में अग्नि प्रज्वलित थी, किंतु वह झाड़ी को यत्किञ्चित् भी नहीं जला रही थी ।
3.अतः मोज़ेस ने विचार किया :
"मैं वहाँ समीप जाकर इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखूँगा कि झाड़ी क्यों नहीं जल रही है?"
4.जब प्रभु ने देखा कि वह (मोज़ेस) उस दृश्य को देखने उस झाड़ी के समीप आ रहा है, तो प्रभु ने झाड़ी में आलोकित अग्निशिखाओं के मध्य से वाणी (आकाशवाणी) के माध्यम से उसे पुकारा :
"मोज़ेस! मोज़ेस!!
और मोज़ेस ने कहा :
"यहाँ हूँ मैं ।"
5."और आगे मत बढ़ो,"
प्रभु ने (उसी वाणी के माध्यम से) उसे चेताया ।
"अपने जूते (संस्कृत > युक्ते > युज् > शूज़ / shoes, जोड़ना, जोड़ा > ) दूर ही उतार दो, क्योंकि जिस भूमि पर तुम खड़े हो, वह भूमि पवित्र भूमि है ।"
पुनः उसने (प्रभु ने, आकाशवाणी के माध्यम से) कहा :
"मैं तुम्हारे पिता का देवता / प्रभु / स्वामी हूँ, अब्रह्म / अवब्रह्म का, ईशाक् का, और जैक़ब ( यः को वा) का स्वामी हूँ ।"
तब मोज़ेस ने अपना मुख छिपा लिया क्योंकि प्रभु के मुख को देखने से उसे भय हुआ ।
--
*(सप्त यह्वी) >
ऋग्वेद, मण्डल 1, 071/07
अग्निं विश्वा अभि पृक्षः सचन्ते समुद्रं न स्रवतः सप्त यह्वीः ।
न जामिभिर्वे चिकिते वयो नो विदा देवेषु प्रमतिं चिकित्वान् ॥
--
ऋग्वेद, मण्डल 1, 072/08
स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन् ।
विदद्गव्यं सरमा दूळ्हमूर्वं येना नु कं मानुषी भोजते विट् ॥
--
समान्तर 2.
आधिभौतिक / मिथकीय
फ़िल्म : गाइड
संगीत : सचिन देव बर्मन
गायक : सचिन देव बर्मन
गीतकार : शैलेन्द्र
(अभिनेता : देवानन्द)
--
वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर, जायेगा कहाँ?
दम ले ले घड़ी भर, ये छैंया पायेगा कहाँ?
वहाँ कौन है तेरा, ...
बीत गये दिन, प्यार के पल-छिन, सपना बनी वो रातें,
भूल गये वो, तू भी भुला दे, प्यार की वो मुलाक़ातें -2,
सब दूर अंधेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ?
कोई भी तेरी, राह न देखे, नैन बिछाये न कोई,
दर्द से तेरे, कोई न तड़पा, आँख किसी की न रोई -2,
कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ?
तूने तो सबको राह बतायी, तू अपनी मंज़िल क्यों भूला,
सुलझा के राजा, औरों की उलझन, क्यूँ कच्चे धागों में झूला -2,
क्यूँ नाचे सपेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ?
कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फ़ानी, पानी पे लिखी-लिखायी,
है सबकी देखी, है सबकी जानी, हाथ किसीके न आयी -2
कुछ तेरा न मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ?
दम ले ले घड़ी भर, ये छैंया पायेगा कहाँ?
--
गाईड / Guide > मार्गदर्शक,
सचिन देव > शचीन्द्र > शची + इंद्र
शैलेन्द्र > शैल-इंद्र > पर्वत-शिखर
देवानन्द > ईश्वरीय आनन्द
--
समान्तर 3.
आधिदैविक
--
गणपति का वाहन मूषक चञ्चल प्रवृत्ति का होने से गणपति (गणाधिपति) ने उसे उपदेश किया कि तू मुझे छोड़कर मुझसे दूर कहीं नहीं जा सकता । तुझे यहीं रहना है ।
--
समान्तर 4.
आध्यात्मिक
--
मन की सभी वृत्तियाँ उसे बहिर्मुख चञ्चल और व्याकुल बनाती हैं । इन सबका मूल ’मैं’-वृत्ति है जो एक अद्भुत् वस्तु है । यह ’मैं’-वृत्ति किसी न किसी अन्य वृत्ति के माध्यम से ही व्यक्त होती है जबकि अन्य सभी (और हर-एक वृत्ति ही) इस ’मैं’-वृत्ति के अभाव में नहीं उठ सकती । यह जान लेने पर कि इस ’मैं’-वृत्ति की अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं है और यह दूसरी वृत्तियों का आभासी प्रतिफल भर है, इस तथा सभी वृत्तियों के उद्गम-स्थान चेतनता / चेतना को अपनी निज नित्य विशुद्ध अविकारी सत्ता की तरह जान लिया जाता है, किंतु तब ’मैंने जाना’ ऐसा दावा करनेवाला कोई विद्यमान नहीं रह जाता । केवल परम-सत्ता ही अपने चिद्-विलास में, सत्-चित् के भान में सदा अवस्थित रहती है ।
--
--
समान्तर 1.
आध्यैतिहासिक / प्रागैतिहासिक
--
ईक्षोदृशः / ईक्षद्दृशः / ईक्ष् अव दृष् / ईक्ष् अव दुष्
--
Exodus 3.
एक्सोडस 3 की कथा
1.मोज़ेस और जलती झाड़ी
अब जब मोज़ेस अपने श्वसुर मिडियन (माध्यन् > माध्यन्दिन) के पुरोहित जेथ्रो (ज्येष्ठो) के समुदाय / समूह की देखभाल कर रहा था और वह उसे सुदूर निर्जन अरण्य-प्रान्तर की दिशा में ले जा रहा था, कि मार्ग में होरेव (होरा-इव) नामक दिव्य पर्वत दिखलाई पड़ा ।
2.जहाँ एक झाड़ी में आलोकित हो रही अग्निशिखाओं *(सप्त यह्वी) के मध्य यह्व / ईश्वर / प्रभु / अग्निदेव का दूत (पार्षद) / फ़रिश्तः उसके समक्ष प्रकट हुआ । मोज़ेस ने देखा और उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यद्यपि झाड़ी में अग्नि प्रज्वलित थी, किंतु वह झाड़ी को यत्किञ्चित् भी नहीं जला रही थी ।
3.अतः मोज़ेस ने विचार किया :
"मैं वहाँ समीप जाकर इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखूँगा कि झाड़ी क्यों नहीं जल रही है?"
4.जब प्रभु ने देखा कि वह (मोज़ेस) उस दृश्य को देखने उस झाड़ी के समीप आ रहा है, तो प्रभु ने झाड़ी में आलोकित अग्निशिखाओं के मध्य से वाणी (आकाशवाणी) के माध्यम से उसे पुकारा :
"मोज़ेस! मोज़ेस!!
और मोज़ेस ने कहा :
"यहाँ हूँ मैं ।"
5."और आगे मत बढ़ो,"
प्रभु ने (उसी वाणी के माध्यम से) उसे चेताया ।
"अपने जूते (संस्कृत > युक्ते > युज् > शूज़ / shoes, जोड़ना, जोड़ा > ) दूर ही उतार दो, क्योंकि जिस भूमि पर तुम खड़े हो, वह भूमि पवित्र भूमि है ।"
पुनः उसने (प्रभु ने, आकाशवाणी के माध्यम से) कहा :
"मैं तुम्हारे पिता का देवता / प्रभु / स्वामी हूँ, अब्रह्म / अवब्रह्म का, ईशाक् का, और जैक़ब ( यः को वा) का स्वामी हूँ ।"
तब मोज़ेस ने अपना मुख छिपा लिया क्योंकि प्रभु के मुख को देखने से उसे भय हुआ ।
--
*(सप्त यह्वी) >
ऋग्वेद, मण्डल 1, 071/07
अग्निं विश्वा अभि पृक्षः सचन्ते समुद्रं न स्रवतः सप्त यह्वीः ।
न जामिभिर्वे चिकिते वयो नो विदा देवेषु प्रमतिं चिकित्वान् ॥
--
ऋग्वेद, मण्डल 1, 072/08
स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन् ।
विदद्गव्यं सरमा दूळ्हमूर्वं येना नु कं मानुषी भोजते विट् ॥
--
समान्तर 2.
आधिभौतिक / मिथकीय
फ़िल्म : गाइड
संगीत : सचिन देव बर्मन
गायक : सचिन देव बर्मन
गीतकार : शैलेन्द्र
(अभिनेता : देवानन्द)
--
वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर, जायेगा कहाँ?
दम ले ले घड़ी भर, ये छैंया पायेगा कहाँ?
वहाँ कौन है तेरा, ...
बीत गये दिन, प्यार के पल-छिन, सपना बनी वो रातें,
भूल गये वो, तू भी भुला दे, प्यार की वो मुलाक़ातें -2,
सब दूर अंधेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ?
कोई भी तेरी, राह न देखे, नैन बिछाये न कोई,
दर्द से तेरे, कोई न तड़पा, आँख किसी की न रोई -2,
कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ?
तूने तो सबको राह बतायी, तू अपनी मंज़िल क्यों भूला,
सुलझा के राजा, औरों की उलझन, क्यूँ कच्चे धागों में झूला -2,
क्यूँ नाचे सपेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ?
कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फ़ानी, पानी पे लिखी-लिखायी,
है सबकी देखी, है सबकी जानी, हाथ किसीके न आयी -2
कुछ तेरा न मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ?
दम ले ले घड़ी भर, ये छैंया पायेगा कहाँ?
--
गाईड / Guide > मार्गदर्शक,
सचिन देव > शचीन्द्र > शची + इंद्र
शैलेन्द्र > शैल-इंद्र > पर्वत-शिखर
देवानन्द > ईश्वरीय आनन्द
--
समान्तर 3.
आधिदैविक
--
गणपति का वाहन मूषक चञ्चल प्रवृत्ति का होने से गणपति (गणाधिपति) ने उसे उपदेश किया कि तू मुझे छोड़कर मुझसे दूर कहीं नहीं जा सकता । तुझे यहीं रहना है ।
--
समान्तर 4.
आध्यात्मिक
--
मन की सभी वृत्तियाँ उसे बहिर्मुख चञ्चल और व्याकुल बनाती हैं । इन सबका मूल ’मैं’-वृत्ति है जो एक अद्भुत् वस्तु है । यह ’मैं’-वृत्ति किसी न किसी अन्य वृत्ति के माध्यम से ही व्यक्त होती है जबकि अन्य सभी (और हर-एक वृत्ति ही) इस ’मैं’-वृत्ति के अभाव में नहीं उठ सकती । यह जान लेने पर कि इस ’मैं’-वृत्ति की अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं है और यह दूसरी वृत्तियों का आभासी प्रतिफल भर है, इस तथा सभी वृत्तियों के उद्गम-स्थान चेतनता / चेतना को अपनी निज नित्य विशुद्ध अविकारी सत्ता की तरह जान लिया जाता है, किंतु तब ’मैंने जाना’ ऐसा दावा करनेवाला कोई विद्यमान नहीं रह जाता । केवल परम-सत्ता ही अपने चिद्-विलास में, सत्-चित् के भान में सदा अवस्थित रहती है ।
--
No comments:
Post a Comment