अद्वैत
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बचपन में हम एक खेल खेलते थे ।
इसे अकेले भी खेल सकते हैं, या औरों के साथ भी ।
हममें से किसी एक की आँखों पर पट्टी बाँध दी जाती थी ।
फिर वह औरों के सामने बैठ जाता था । उसकी मध्यमा उंगली को उसी हथेली की तर्जनी पर इस तरह हल्के से कस कर चढ़ा दिया जाता कि दोनों उंगलियों के सिरों के बीच अधिकतम दूरी हो । कोई कहीं से बेर के बराबर एक बेडौल कंकड़ (या सिक्का) लाकर उसकी दूसरी हथेली पर रख देता । फिर उससे पूछा जाता कि तर्जनी और मध्यमा से एक साथ टटोलकर बताओ कि तुम्हारे हाथ में कितने कंकड़ हैं, दो या ज्यादा? कभी-कभी वह कहता : ’एक ही है’, फिर उसे शक़ होता, फिर कहता ’दो हैं,’ फिर कहता, : हाँ दो हैं ।’ फिर उसकी आँख की पट्टी खोल दी जाती तो सभी हँसने लगते थे ।
इसी तरह का एक छोटा सा खेल था जिसमें किसी से पूछा जाता : ’आसमान को एक उंगली से कैसे छू सकते हो?’ और जब वह जवाब न दे पाता, तो उससे कहा जाता : ’इस तरह अपनी आँखें बंद कर लो और एक उंगली उठाकर आसमान को छू लो!’
एक तीसरा खेल वह भी था जिसमें पूछा जाता ’एक को दो कैसे करोगे?’
और इसका उत्तर था : अपनी आँखों के सामने अंगूठे के पासवाली उंगली उठाओ और बाकी मुट्ठी बंद रखकर थोड़ी दूर की किसी चीज़ और अपने बीच इस उठी हुई उंगली को रखकर दोनों को देखो, वह चीज़ ’दो’ दिखाई देगी ।
(पुनश्च : इसे ’पोस्ट’ किया और थोड़ी देर बाद खयाल आया कि वास्तव में वह चीज़ नहीं बल्कि उंगली ही ’दो’ प्रतीत होती है । इसी तरह का ’फ़ोक़स ऑफ़ विज़न’ का एक दोष होता है, जिसमें व्यक्ति को दो वस्तुओं के क्रम में आगेवाली वस्तु ’दो’ दिखाई देती है ! यह ऑप्टिकल-इल्युज़न का ही एक प्रकार है यदि दृष्टि का ’फ़ोक़स’ ठीक कर लिया जाए तो यह दृष्टि-दोष तुरंत ही दूर हो जाता है ।)
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’नोट्स टू सेल्फ़’ को देखकर एकाएक यह सब याद आया और मन में (’मन’ एक होता है या अनेक?) यह प्रश्न उठा कि जहाँ एक और अनेक नहीं है (जैसे हमारी गहरी नींद में हमारा अनुभव), वहीं नींद से जागने पर पहले तो यह ’मन’ सक्रिय हो उठता है और स्वयं को ’दो’ (संसार और ’मैं’) में बाँट लेता है । स्पष्ट है कि यह साज़िश ’मन’ की नहीं, ’विचार’ की होती है । शायद आपने ध्यान दिया हो कि बचपन में कई बार जागने के बाद भी कई-कई मिनट तक ’मन’ शान्त और विचाररहित स्थिति (में) होता था । उम्र बढ़ने के बाद हम प्रकृति-प्रदत्त अनायास-प्राप्त इस सहज आनंद को भूल बैठते हैं, जिसके लिए हमने कोई यत्न नहीं किया होता । फिर हम इस आनंद की तलाश में इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, साहित्य, योग, दर्शन,जीवन के लक्ष्य, आदर्श आदि विवंचनाओं में पड़कर, लोभग्रस्त, सफलता-विफलता से घबरा जाते हैं, या झूठे ग़रूर / अभिमान में और अधिक असंवेदनशील हो जाते हैं ।
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बचपन में हम एक खेल खेलते थे ।
इसे अकेले भी खेल सकते हैं, या औरों के साथ भी ।
हममें से किसी एक की आँखों पर पट्टी बाँध दी जाती थी ।
फिर वह औरों के सामने बैठ जाता था । उसकी मध्यमा उंगली को उसी हथेली की तर्जनी पर इस तरह हल्के से कस कर चढ़ा दिया जाता कि दोनों उंगलियों के सिरों के बीच अधिकतम दूरी हो । कोई कहीं से बेर के बराबर एक बेडौल कंकड़ (या सिक्का) लाकर उसकी दूसरी हथेली पर रख देता । फिर उससे पूछा जाता कि तर्जनी और मध्यमा से एक साथ टटोलकर बताओ कि तुम्हारे हाथ में कितने कंकड़ हैं, दो या ज्यादा? कभी-कभी वह कहता : ’एक ही है’, फिर उसे शक़ होता, फिर कहता ’दो हैं,’ फिर कहता, : हाँ दो हैं ।’ फिर उसकी आँख की पट्टी खोल दी जाती तो सभी हँसने लगते थे ।
इसी तरह का एक छोटा सा खेल था जिसमें किसी से पूछा जाता : ’आसमान को एक उंगली से कैसे छू सकते हो?’ और जब वह जवाब न दे पाता, तो उससे कहा जाता : ’इस तरह अपनी आँखें बंद कर लो और एक उंगली उठाकर आसमान को छू लो!’
एक तीसरा खेल वह भी था जिसमें पूछा जाता ’एक को दो कैसे करोगे?’
और इसका उत्तर था : अपनी आँखों के सामने अंगूठे के पासवाली उंगली उठाओ और बाकी मुट्ठी बंद रखकर थोड़ी दूर की किसी चीज़ और अपने बीच इस उठी हुई उंगली को रखकर दोनों को देखो, वह चीज़ ’दो’ दिखाई देगी ।
(पुनश्च : इसे ’पोस्ट’ किया और थोड़ी देर बाद खयाल आया कि वास्तव में वह चीज़ नहीं बल्कि उंगली ही ’दो’ प्रतीत होती है । इसी तरह का ’फ़ोक़स ऑफ़ विज़न’ का एक दोष होता है, जिसमें व्यक्ति को दो वस्तुओं के क्रम में आगेवाली वस्तु ’दो’ दिखाई देती है ! यह ऑप्टिकल-इल्युज़न का ही एक प्रकार है यदि दृष्टि का ’फ़ोक़स’ ठीक कर लिया जाए तो यह दृष्टि-दोष तुरंत ही दूर हो जाता है ।)
’नोट्स टू सेल्फ़’ को देखकर एकाएक यह सब याद आया और मन में (’मन’ एक होता है या अनेक?) यह प्रश्न उठा कि जहाँ एक और अनेक नहीं है (जैसे हमारी गहरी नींद में हमारा अनुभव), वहीं नींद से जागने पर पहले तो यह ’मन’ सक्रिय हो उठता है और स्वयं को ’दो’ (संसार और ’मैं’) में बाँट लेता है । स्पष्ट है कि यह साज़िश ’मन’ की नहीं, ’विचार’ की होती है । शायद आपने ध्यान दिया हो कि बचपन में कई बार जागने के बाद भी कई-कई मिनट तक ’मन’ शान्त और विचाररहित स्थिति (में) होता था । उम्र बढ़ने के बाद हम प्रकृति-प्रदत्त अनायास-प्राप्त इस सहज आनंद को भूल बैठते हैं, जिसके लिए हमने कोई यत्न नहीं किया होता । फिर हम इस आनंद की तलाश में इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, साहित्य, योग, दर्शन,जीवन के लक्ष्य, आदर्श आदि विवंचनाओं में पड़कर, लोभग्रस्त, सफलता-विफलता से घबरा जाते हैं, या झूठे ग़रूर / अभिमान में और अधिक असंवेदनशील हो जाते हैं ।
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