चर्पटपञ्जरिका-स्तोत्रम्
/ carpaṭapañjarikā-stotram
Thus spake शङ्कराचार्य / śaṅkarācārya !
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अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ।
बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥
भज गोविन्दम् मूढमते...!
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agre vahniḥ pṛṣṭhe bhānū rātrau cibukasamarpitajānuḥ |
karatalabhikṣā tarutalavāsastadapi na muñcatyāśāpāśaḥ |
bālastāvatkrīḍāsaktastaruṇastāvattaruṇīraktaḥ |
vṛddhastāvaccintāmagnaḥ pāre brahmaṇi ko:'pi na lagnaḥ ||
bhaja govindam mūḍhamate...!
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अर्थ :
शीत से ठिठुरता तपस्वी / संन्यासी जो दिन भर सामने अग्नि और पीठ पीछे सूर्य की धूप का सेवन करता, और रात्रि में घुटनों को ठुड्डी से जोड़कर काटता है, हाथ फैलाकर भिक्षान्न ग्रहण करता है, और वृक्षतले निवास करता है, न जाने किस आशा से, यह भी उसे नहीं पता होता ! आशापाश उसे नहीं छोड़ता !
जब तक मनुष्य बालक होता है, खेल में मग्न रहता है, जब तक युवा रहता है स्त्री में आसक्त रहता है, जब तक वृद्ध हो जाता / रहता है, (अर्थात् मृत्यु तक) तब तक चिन्ता में डूबा रहता है इस संसार से परे, इससे अछूते किन्तु इसके अधिष्ठान 'ब्रह्म' में न तो किसी की रुचि होती है, न जिज्ञासा ।
हे मूढमति गोविन्द को भज !
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Meaning :
To face the severe cold, a mendicant keeps fire before him, the sun on the back, and passes the nights with knees joined to chin, Asks for the alms upon the extended palms, lives under a tree, but does not get rid of hope! What a wonder!
So long as one is child is lost in play, So long as one is young, one is fascinated by and indulges in woman, So long as one is old enough that he is no more young, one keeps worrying, but no one is after finding out Brahman / Self, What a wonder!
O stupid ! Worship Govinda, The Lord Supreme who is the only shelter, here in the world and after this life as well!
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/ carpaṭapañjarikā-stotram
Thus spake शङ्कराचार्य / śaṅkarācārya !
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अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ।
बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥
भज गोविन्दम् मूढमते...!
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agre vahniḥ pṛṣṭhe bhānū rātrau cibukasamarpitajānuḥ |
karatalabhikṣā tarutalavāsastadapi na muñcatyāśāpāśaḥ |
bālastāvatkrīḍāsaktastaruṇastāvattaruṇīraktaḥ |
vṛddhastāvaccintāmagnaḥ pāre brahmaṇi ko:'pi na lagnaḥ ||
bhaja govindam mūḍhamate...!
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अर्थ :
शीत से ठिठुरता तपस्वी / संन्यासी जो दिन भर सामने अग्नि और पीठ पीछे सूर्य की धूप का सेवन करता, और रात्रि में घुटनों को ठुड्डी से जोड़कर काटता है, हाथ फैलाकर भिक्षान्न ग्रहण करता है, और वृक्षतले निवास करता है, न जाने किस आशा से, यह भी उसे नहीं पता होता ! आशापाश उसे नहीं छोड़ता !
जब तक मनुष्य बालक होता है, खेल में मग्न रहता है, जब तक युवा रहता है स्त्री में आसक्त रहता है, जब तक वृद्ध हो जाता / रहता है, (अर्थात् मृत्यु तक) तब तक चिन्ता में डूबा रहता है इस संसार से परे, इससे अछूते किन्तु इसके अधिष्ठान 'ब्रह्म' में न तो किसी की रुचि होती है, न जिज्ञासा ।
हे मूढमति गोविन्द को भज !
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Meaning :
To face the severe cold, a mendicant keeps fire before him, the sun on the back, and passes the nights with knees joined to chin, Asks for the alms upon the extended palms, lives under a tree, but does not get rid of hope! What a wonder!
So long as one is child is lost in play, So long as one is young, one is fascinated by and indulges in woman, So long as one is old enough that he is no more young, one keeps worrying, but no one is after finding out Brahman / Self, What a wonder!
O stupid ! Worship Govinda, The Lord Supreme who is the only shelter, here in the world and after this life as well!
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