Sunday, 17 July 2016

’धर्म’ : अर्थ, प्रयोजन और आवश्यकता

’धर्म’ : अर्थ, प्रयोजन और आवश्यकता
एक कहानी अन्तहीन
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जैसा कि किसी भी शब्द के साथ होता है, ’धर्म’ एक ऐसा शब्द है जिसका तात्पर्य प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने तरीके से ग्रहण करता है । और समस्या तब होती है जब ’धर्म’ के बारे में परस्पर चर्चा में विरोधाभास पैदा होते हैं । किंतु इस बारे में सब राजी हो सकते हैं कि मनुष्य की बुद्धि ही उसका वास्तविक धर्म है क्योंकि अपनी बुद्धि की सूक्ष्मता या स्थूलता, शुद्धता या अशुद्धि, स्थिरता या अस्थिरता, संशयग्रस्तता या निश्चयपूर्णता, पूर्वाग्रह या बिना किसी पूर्वाग्रह से बँधे होने से ही उसके कार्य और व्यवहार तय होते हैं । इस बुद्धि के साथ भय, लोभ, काम (इच्छा) ईर्ष्या, द्वेष, मोह (तथ्य को यथावत् न देखकर अपनी कल्पना के अनुसार उसे विशिष्ट रंग-रूप में देखना), राग या विराग आदि भावनाएँ तो जुड़ी होती ही हैं । मनुष्य मात्र की बुद्धि अपने परिवेश के प्रभाव से भी बहुत अधिक प्रभावित होती है । किंतु मनुष्य-मात्र अपनी बुद्धि से ही परिचालित होता है इससे इनक़ार नहीं किया जा सकता । मान्यताएँ और विश्वास भी इन सबके जोड़ का शाब्दिक रूप भर होती है ।
इसलिए इस अर्थ में प्रत्येक मनुष्य का स्वाभाविक धर्म दूसरे से बहुत भिन्न प्रकार का हो सकता है ।
फिर भी इस तरह से एक तो हुआ व्यक्तिगत धर्म, जिसके बारे में हर कोई स्वयं ही जानता है, और दूसरी तरफ़ हुआ सामाजिक धर्म, जो परिवार, समुदाय-विशेष की परंपराओं का क्रम होता है । मान्यताएँ, विश्वास आदि जिसकी रीढ़ होती है ।
सामाजिक धर्म को वैचारिक आधार दिये जाते ही वह राजनैतिक स्वरूप ग्रहण कर लेता है और तब ऐसी परस्पर भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के बीच संघर्ष या मतभेद पैदा होते हैं । ये शीघ्र ही सत्ता और शक्ति पर अधिकार पाने के प्रयास बन जाते हैं और मनुष्यता अपने-आप ही से एक अंतहीन युद्ध में संलग्न हो जाती है ।
इसलिए धर्म की परिकल्पना, उसके वास्तविक स्वरूप, उसके औपचारिक / व्यावहारिक अर्थ / अन्तर्निहित तात्पर्य / समूची मनुष्यता पर उसके संभावित परिणाम पर ध्यान दिया जाना बहुत आवश्यक है ।
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