राक्षस-राज्य :
सनातन धर्म की दृष्टि में जो राज्य सनातन धर्म की शिक्षाओं पर आचरण नहीं करता, वह किसी ईश्वर / आत्मा
के अस्तित्व और अनश्वरता के बारे में चाहे जो भी मान्यताएँ रखता हो, वर्णाश्रम-धर्म और सनातन धर्म की रक्षा तक नहीं कर सकता, उनका संरक्षण और संवृद्धि करना तो दूर की बात है । वर्णाश्रम धर्म का अर्थ है यह स्वीकार करना कि प्रत्येक प्राणी और विशेष रूप से मनुष्य कुछ विशेष जातिगत संस्कारों को लेकर जन्म लेता है । अर्थात् ’जाति’ का प्रथम महत्व है । किन्तु केवल मनुष्य के लिए ही यह स्वतंत्रता है कि वह अर्थात् उसकी प्रवृत्ति / मन / बुद्धि / उन जन्म से प्राप्त संस्कारों से परिचालित होता हुआ भी परिस्थितियों से सीखता हुआ नए (शुभ-अशुभ) संस्कार प्राप्त करे और चार वर्णों में से कोई एक या उनका मिला-जुला वर्ण उसमें सक्रिय हो उठे । गीता अध्याय 7, श्लोक 27 के अनुसार :
अध्याय 7, श्लोक 27,
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
--
(इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहम् सर्गे यान्ति परन्तप ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! संसार में अपने जन्म ही से, संसार में सम्पूर्ण प्राणी, इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न हो रहे सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से विभ्रम को प्राप्त हो रहे हैं ।
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इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ण मनुष्य को संस्कारों से प्राप्त होते हैं न कि जाति-विशेष में जन्म लेने से । किसी भी जाति में जन्म लेने से ही मनुष्य को कोई वर्ण-विशेष नहीं प्राप्त हो जाता । जो वेद को मानते हैं उनके लिए तो यही नियम है :
जन्मना शूद्राः सर्वे संस्कारेण हि द्विजाः ...।
गीता अध्याय 4, श्लोक 13 में इसी पर बल देते हुए कहा गया है कि वर्ण और आश्रम का चुनाव मनुष्य अपने गुण-कर्म (और वे जिनसे प्रेरित होते हैं उन संस्कारों) से करता है -
अध्याय 4, श्लोक 13,
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम् ॥
--
(चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारं अपि माम् विद्धि अकर्तारम्-अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
गुण तथा कर्म के विभाजन के अनुसार चार प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का समूह (वर्ण्य), जिनसे समस्त भूत अनायास परिचालित होते हैं, मेरे ही द्वारा रचा गया है । उस समूह का रचनाकार (स्वरूपतः) अकर्ता तथा अव्यय मुझको ही जानो ।
आज की शिक्षा और सामाजिक इतिहास ने हममें एक भ्रम यह उत्पन्न किया है कि वेद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ’जातियों’ में भेदभाव करते हैं, जबकि गीता का आग्रह है कि अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए प्रत्येक परम श्रेयस् (जीवन के अर्थ और प्रयोजन) की सिद्धि कर सकता है, यहाँ तक कि जो वर्ण-आश्रम व्यवस्था से बाहर हैं, वे भी (-गीता अध्याय 18, श्लोक 45, 46, 47, 48) -
अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
--
(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 46,
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
--
(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
--
भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,) जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
--
अध्याय 18, श्लोक 48,
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥
--
(सहजम् कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भाः हि दोषेण धूमेन अग्निः इव आवृताः ॥)
--
भावार्थ : स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुए शास्त्रविहित कर्म उनमें विद्यमान किसी दोष के होने के भय से त्यागना उचित नहीं है, क्योंकि जैसे अग्नि धुएँ से युक्त होती है, वैसे ही सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होते हैं ।
टिप्पणी :
इस अध्याय 18 के श्लोक क्रमांक 7, 8 तथा 9 के सन्दर्भ में इस श्लोक का भावार्थ अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है ।
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राक्षस-राज्य वह है जो गौ-ब्राह्मण को सुरक्षा नहीं दे सकता । क्योंकि ब्राह्मण और गौ अपने योग-क्षेम, जीवन को ठीक से सुखपूर्वक जीने के लिए पूरी तरह ईश्वर-आश्रित होते हैं । ब्राह्मण का वर्ण उससे यह अपेक्षा रखता है कि वह वेदाध्ययन करे, वेद-धर्म को पुष्ट करे, या कम से कम उसके विपरीत तो न ही चले । इस प्रकार ब्राह्मण का उत्तरदायित्व और अधिकार और कर्तव्य का निर्वाह कर पाना तथा उस हेतु पात्रता अर्जित करना भी दूसरे वर्णों से अधिक कष्टसाध्य है जबकि भौतिक स्तर पर उससे इसे कोई ऐसा लाभ नहीं प्राप्त होता जो अन्य वर्णों को उनके अपने वर्णाश्रम-धर्म पर चलने से प्राप्त हो जाता है ।
जो राज्य गौ-ब्राह्मण को सुरक्षा नहीं दे सकता, वह केवल अधर्म का परिपालन और परिपोषण करता है और अन्ततः स्वयं तथा पूरे जगत् के ही विनाश का कारण बन जाता है ।
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सनातन धर्म की दृष्टि में जो राज्य सनातन धर्म की शिक्षाओं पर आचरण नहीं करता, वह किसी ईश्वर / आत्मा
के अस्तित्व और अनश्वरता के बारे में चाहे जो भी मान्यताएँ रखता हो, वर्णाश्रम-धर्म और सनातन धर्म की रक्षा तक नहीं कर सकता, उनका संरक्षण और संवृद्धि करना तो दूर की बात है । वर्णाश्रम धर्म का अर्थ है यह स्वीकार करना कि प्रत्येक प्राणी और विशेष रूप से मनुष्य कुछ विशेष जातिगत संस्कारों को लेकर जन्म लेता है । अर्थात् ’जाति’ का प्रथम महत्व है । किन्तु केवल मनुष्य के लिए ही यह स्वतंत्रता है कि वह अर्थात् उसकी प्रवृत्ति / मन / बुद्धि / उन जन्म से प्राप्त संस्कारों से परिचालित होता हुआ भी परिस्थितियों से सीखता हुआ नए (शुभ-अशुभ) संस्कार प्राप्त करे और चार वर्णों में से कोई एक या उनका मिला-जुला वर्ण उसमें सक्रिय हो उठे । गीता अध्याय 7, श्लोक 27 के अनुसार :
अध्याय 7, श्लोक 27,
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
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(इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहम् सर्गे यान्ति परन्तप ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! संसार में अपने जन्म ही से, संसार में सम्पूर्ण प्राणी, इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न हो रहे सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से विभ्रम को प्राप्त हो रहे हैं ।
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इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ण मनुष्य को संस्कारों से प्राप्त होते हैं न कि जाति-विशेष में जन्म लेने से । किसी भी जाति में जन्म लेने से ही मनुष्य को कोई वर्ण-विशेष नहीं प्राप्त हो जाता । जो वेद को मानते हैं उनके लिए तो यही नियम है :
जन्मना शूद्राः सर्वे संस्कारेण हि द्विजाः ...।
गीता अध्याय 4, श्लोक 13 में इसी पर बल देते हुए कहा गया है कि वर्ण और आश्रम का चुनाव मनुष्य अपने गुण-कर्म (और वे जिनसे प्रेरित होते हैं उन संस्कारों) से करता है -
अध्याय 4, श्लोक 13,
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम् ॥
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(चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारं अपि माम् विद्धि अकर्तारम्-अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
गुण तथा कर्म के विभाजन के अनुसार चार प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का समूह (वर्ण्य), जिनसे समस्त भूत अनायास परिचालित होते हैं, मेरे ही द्वारा रचा गया है । उस समूह का रचनाकार (स्वरूपतः) अकर्ता तथा अव्यय मुझको ही जानो ।
आज की शिक्षा और सामाजिक इतिहास ने हममें एक भ्रम यह उत्पन्न किया है कि वेद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ’जातियों’ में भेदभाव करते हैं, जबकि गीता का आग्रह है कि अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए प्रत्येक परम श्रेयस् (जीवन के अर्थ और प्रयोजन) की सिद्धि कर सकता है, यहाँ तक कि जो वर्ण-आश्रम व्यवस्था से बाहर हैं, वे भी (-गीता अध्याय 18, श्लोक 45, 46, 47, 48) -
अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
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अध्याय 18, श्लोक 46,
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
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(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
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भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,) जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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अध्याय 18, श्लोक 48,
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥
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(सहजम् कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भाः हि दोषेण धूमेन अग्निः इव आवृताः ॥)
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भावार्थ : स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुए शास्त्रविहित कर्म उनमें विद्यमान किसी दोष के होने के भय से त्यागना उचित नहीं है, क्योंकि जैसे अग्नि धुएँ से युक्त होती है, वैसे ही सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होते हैं ।
टिप्पणी :
इस अध्याय 18 के श्लोक क्रमांक 7, 8 तथा 9 के सन्दर्भ में इस श्लोक का भावार्थ अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है ।
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राक्षस-राज्य वह है जो गौ-ब्राह्मण को सुरक्षा नहीं दे सकता । क्योंकि ब्राह्मण और गौ अपने योग-क्षेम, जीवन को ठीक से सुखपूर्वक जीने के लिए पूरी तरह ईश्वर-आश्रित होते हैं । ब्राह्मण का वर्ण उससे यह अपेक्षा रखता है कि वह वेदाध्ययन करे, वेद-धर्म को पुष्ट करे, या कम से कम उसके विपरीत तो न ही चले । इस प्रकार ब्राह्मण का उत्तरदायित्व और अधिकार और कर्तव्य का निर्वाह कर पाना तथा उस हेतु पात्रता अर्जित करना भी दूसरे वर्णों से अधिक कष्टसाध्य है जबकि भौतिक स्तर पर उससे इसे कोई ऐसा लाभ नहीं प्राप्त होता जो अन्य वर्णों को उनके अपने वर्णाश्रम-धर्म पर चलने से प्राप्त हो जाता है ।
जो राज्य गौ-ब्राह्मण को सुरक्षा नहीं दे सकता, वह केवल अधर्म का परिपालन और परिपोषण करता है और अन्ततः स्वयं तथा पूरे जगत् के ही विनाश का कारण बन जाता है ।
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