वेताल-कथा -2
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विक्रमार्क ने हठ न छोड़ा ।
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जब वह उस निर्जनप्राय एकान्त श्मशान में पहुँचा तो एकमात्र जलती चिता की राख भी ठंडी हो चुकी थी ।
चूँकि गुरु की आज्ञा थी अतः वह शान्तिपूर्वक जल चुके शव की अस्थियाँ टटोलने लगा । अस्थियाँ तो प्रायः भस्म हो चुकी थीं किंतु खर्पर (खोपड़ी) अर्थात् कपाल और कपोलास्थियाँ, जबड़े की अस्थियाँ शेष थीं । उसने उस मुंड को प्रणाम किया और उठाया । बहुत भारी था वह मुंड । जब उसे कंधे पर रखकर कुछ दूर चला ही था कि उस नरमुंड में प्रविष्ट वेताल बोला :
"राजन! मनुष्य का सिर उसके जीते-जी भी इतना भारी होता है कि यदि उसे तैरना न आता हो तो वह मनुष्य के पानी में डूब जाने का कारण बन जाता है । इसी प्रकार ज्ञान का बोझ भी मनुष्य को जीते जी मनुष्य को गहरे से गहरे अंधकार में खींच ले जाता है । कोरा शास्त्र-ज्ञान ऐसा ही बोझ होता है । मेरे भारी सिर से तुम अनुमान कर सकते हो कि जीते-जी मैं कितना बड़ा पंडित रहा हूँगा । किंतु मेरा सबसे बड़ा एकमात्र दुर्गुण / दोष यही रहा कि मैं तर्कशास्त्र-प्रवीण था और शास्त्रार्थों में बड़े-बड़े विद्वानों को तर्क-कुतर्क से पराजित कर फूला न समाता था । इसी का परिणाम था कि जब मेरी मृत्यु हुई तो मेरा दाह-संस्कार होने के बाद मेरी किसी संतान ने मेरी कपाल-क्रिया न की और मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था क्योंकि मेरी मुक्ति तुम्हारे माध्यम से ही होनी है । तुम्हारे बुद्धि-विलास और मनोरंजन के लिए मैं एक प्रश्न पूछता हूँ । मेरा प्रश्न यह है कि शास्त्र-ज्ञान कब सार्थक होता है और कब निरर्थक और निष्फल? क्या मुक्ति का शास्त्र-ज्ञान से कोई संबंध है? यदि तुम जानते हुए भी उसका उत्तर न दोगे तो तुम्हारा सिर खण्ड-खण्ड हो जाएगा ।"
विक्रमार्क ने कुछ क्षण मौन-चिन्तन करने के बाद कहा :
"आचार्य! यह सत्य है कि आप शास्त्र-निष्णात तर्क-कुशल, ऊहापोह-विचक्षण विद्वान थे । किंतु किसी कारणवश आपने कभी इस ओर ध्यान न दिया कि शास्त्र के चार अर्थ होते हैं और वे पात्र को ही प्राप्त होते हैं । पहला है कोरा शब्दार्थ जो शब्दार्णव है । दूसरा है भावार्थ जो विवेचना का एक प्रकार-मात्र होता है । यह अनेक सरिताओं सा अनेक दिशाओं में भटकता हुआ शब्दार्णव में निःशेष हो जाता है । तीसरा है गूढार्थ जो शास्त्र में गहरी डुबकी लगानेवाले को मोती सा प्राप्त होता है किंतु सागर तो मोतियों का आगार है । चौथा और एकमात्र प्रयोजनपरक है तत्वार्थ जो सागर या सरिता में जल की तरह सर्वत्र एक सा व्याप्त होता है ।"
विक्रमार्क का मौन भंग होते ही अकस्मात् एक विस्फोट उस खोपड़ी में हुआ और उसके सहस्र टुकड़े आकाश में विलुप्त हो गये ।
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विक्रमार्क ने हठ न छोड़ा ।
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जब वह उस निर्जनप्राय एकान्त श्मशान में पहुँचा तो एकमात्र जलती चिता की राख भी ठंडी हो चुकी थी ।
चूँकि गुरु की आज्ञा थी अतः वह शान्तिपूर्वक जल चुके शव की अस्थियाँ टटोलने लगा । अस्थियाँ तो प्रायः भस्म हो चुकी थीं किंतु खर्पर (खोपड़ी) अर्थात् कपाल और कपोलास्थियाँ, जबड़े की अस्थियाँ शेष थीं । उसने उस मुंड को प्रणाम किया और उठाया । बहुत भारी था वह मुंड । जब उसे कंधे पर रखकर कुछ दूर चला ही था कि उस नरमुंड में प्रविष्ट वेताल बोला :
"राजन! मनुष्य का सिर उसके जीते-जी भी इतना भारी होता है कि यदि उसे तैरना न आता हो तो वह मनुष्य के पानी में डूब जाने का कारण बन जाता है । इसी प्रकार ज्ञान का बोझ भी मनुष्य को जीते जी मनुष्य को गहरे से गहरे अंधकार में खींच ले जाता है । कोरा शास्त्र-ज्ञान ऐसा ही बोझ होता है । मेरे भारी सिर से तुम अनुमान कर सकते हो कि जीते-जी मैं कितना बड़ा पंडित रहा हूँगा । किंतु मेरा सबसे बड़ा एकमात्र दुर्गुण / दोष यही रहा कि मैं तर्कशास्त्र-प्रवीण था और शास्त्रार्थों में बड़े-बड़े विद्वानों को तर्क-कुतर्क से पराजित कर फूला न समाता था । इसी का परिणाम था कि जब मेरी मृत्यु हुई तो मेरा दाह-संस्कार होने के बाद मेरी किसी संतान ने मेरी कपाल-क्रिया न की और मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था क्योंकि मेरी मुक्ति तुम्हारे माध्यम से ही होनी है । तुम्हारे बुद्धि-विलास और मनोरंजन के लिए मैं एक प्रश्न पूछता हूँ । मेरा प्रश्न यह है कि शास्त्र-ज्ञान कब सार्थक होता है और कब निरर्थक और निष्फल? क्या मुक्ति का शास्त्र-ज्ञान से कोई संबंध है? यदि तुम जानते हुए भी उसका उत्तर न दोगे तो तुम्हारा सिर खण्ड-खण्ड हो जाएगा ।"
विक्रमार्क ने कुछ क्षण मौन-चिन्तन करने के बाद कहा :
"आचार्य! यह सत्य है कि आप शास्त्र-निष्णात तर्क-कुशल, ऊहापोह-विचक्षण विद्वान थे । किंतु किसी कारणवश आपने कभी इस ओर ध्यान न दिया कि शास्त्र के चार अर्थ होते हैं और वे पात्र को ही प्राप्त होते हैं । पहला है कोरा शब्दार्थ जो शब्दार्णव है । दूसरा है भावार्थ जो विवेचना का एक प्रकार-मात्र होता है । यह अनेक सरिताओं सा अनेक दिशाओं में भटकता हुआ शब्दार्णव में निःशेष हो जाता है । तीसरा है गूढार्थ जो शास्त्र में गहरी डुबकी लगानेवाले को मोती सा प्राप्त होता है किंतु सागर तो मोतियों का आगार है । चौथा और एकमात्र प्रयोजनपरक है तत्वार्थ जो सागर या सरिता में जल की तरह सर्वत्र एक सा व्याप्त होता है ।"
विक्रमार्क का मौन भंग होते ही अकस्मात् एक विस्फोट उस खोपड़ी में हुआ और उसके सहस्र टुकड़े आकाश में विलुप्त हो गये ।
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