Friday, 31 May 2019

श्री प्रतापचन्द्र सारंगी

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।
(गीता अध्याय 18 श्लोक 48)
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श्री प्रतापचन्द्र सारंगी को देश के नए मंत्रिमंडल में मंत्री पद की शपथ लेते देखना सुखद आश्चर्य है।
ज़ी-चैनल से बातचीत करते हुए उन्होंने उपरोक्त श्लोक का उल्लेख किया।
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गीता के तीन अन्य श्लोक इस सन्दर्भ में विचारणीय हैं।  एक का उल्लेख कल ही किया था जो इस प्रकार है :
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।
(गीता अध्याय 4, श्लोक 17)  
अनपेक्षः शुचिर्दक्षः उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
(गीता अध्याय 12, श्लोक 16)
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।
(गीता अध्याय 14, श्लोक 25)
किंतु दो दूसरे श्लोक जो यहाँ उल्लेख्य हैं इस प्रकार हैं :
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।
(गीता अध्याय 4, श्लोक 19)
और,
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।
(गीता अध्याय 3, श्लोक 5)
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इस प्रकार ज्ञानी न तो कर्म से भागता है, न कर्म करने का आग्रह ही उसमें होता है।  वह सहज प्राप्त हुए कर्म को अनासक्त भाव से होने देता है और 'मैं कर्ता हूँ' इस भावना से भी रहित होता है।  उसकी दृष्टि में सभी कर्म, गुणों के गुणों का व्यवहार (बर्ताव) होता है। दूसरी दृष्टि से वह सभी कर्मों को ईश्वरार्पित कर देता है। और यद्यपि दूसरों को उसके द्वारा जो कर्म होते दिखाई भी देते हैं, उनके फल / परिणाम से वह न तो दुःखी और न ही सुखी होता है।
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Thursday, 30 May 2019

सत्य-धर्म / सत्यधर्मा

क्या धर्म / सत्य अज्ञेय है?
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ईशावास्योपनिषद् मन्त्र 15 :
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
"हे पूषन् ! सत्य का मुख स्वर्णिम आवरण में छिपा हुआ है।  उस सत्य (के वास्तविक तत्त्व और धर्म) पर पड़े हुए इस आवरण को तुम हटा दो, ताकि हमें सत्य (अर्थात् धर्म) का दर्शन हो सके।"
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संसार जो भी है, यत्किञ्चित् इन्द्रियग्राह्य / इन्द्रियगम्य है।
इन्द्रियाँ जो भी हैं,यत्किञ्चित् मनोग्राह्य / मनोगम्य हैं।
मन जो भी है, यत्किञ्चित् बुद्धिग्राह्य / बुद्धिगम्य है।
बुद्धि जो भी है, यत्किञ्चित् अनुमानग्राह्य / अनुमानगम्य है।
अनुमान जो भी है, यत्किञ्चित् वृत्तिग्राह्य / वृत्तिगम्य है।
वृत्ति जो भी है, यत्किञ्चित् बोधग्राह्य / बोधगम्य है।
बोध जो भी है, स्वयं और स्वतः स्वयं के लिए अवग्राह्य / अवगम्य है,
क्योंकि जैसे संसार को इन्द्रियों से, इन्द्रियों को मन से, मन को बुद्धि से, बुद्धि को अनुमान से, अनुमान को वृत्ति से, और वृत्ति को बोध से जाना जाता है, उस बोध को, उस प्रकार किसी और माध्यम से नहीं बल्कि अनायास और सदा ही जाना जाता है जिसमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञात तीनों बोधमात्र हैं।
किन्तु फिर भी इस बोध को भी धर्म से ही जाना जाता है, न कि धर्म से बोध को।
धर्म में जिनकी प्रतिष्ठा है, उनके लिए यह बोध नित्यप्राप्त है।
और इसलिए धर्म (की आँख) से ही सब कुछ उसके सत्य-स्वरूप में जैसा है, वैसा यथावत् देखा जाता है।
इसलिए सब कुछ धर्मग्राह्य / धर्मगम्य है, जबकि धर्म / सत्य को संसार, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अनुमान, और वृत्ति आदि से नहीं जाना जा सकता।
Q E D
(क्वात् ईरात् द्विमान् स्तरीयतम्)
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Tuesday, 28 May 2019

सूर्य, सविता और संज्ञा

सूर्यो आत्मा जगतस्थश्च ...
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समष्टि-चिन्तन :
सूयते स सूर्यो ।
सूयते स सविता ।
सूर्यो वै सविता ।
सविता सा संज्ञा ।
संज्ञैव सविता ।
इस प्रकार सूर्य जो जगत् की आत्मा है सविता और संज्ञा है ।
सूर्य, सविता और संज्ञा पुनः समष्टि के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक स्वरूप हैं ।
समष्टि अर्थात् सं + अश् + ति, जहाँ ’सं’ उपसर्ग, ’ति’ ’अश्’ - अश्नोति धातुपद और तिङन्त प्रत्यय है ।
व्याकरण, व्याकरण के नियमों की संहिता होता है किंतु वे नियम जिन आधारभूत सिद्धान्तों पर अस्तित्व ग्रहण करते हैं, भारद्वाज-व्याकरण उन सिद्धान्तों का संक्षेप है । कोई विद्वान् अवश्य ही उन सिद्धान्तों की रूपरेखा स्पष्ट कर सकता है, किंतु यहाँ ऐसा करना उद्देश्य नहीं है । यहाँ केवल समष्टि अर्थात् ब्रह्म की विवेचना ही एकमात्र उद्देश्य है ।
सभी व्याकरण-ग्रन्थों में परोक्ष या अपरोक्ष रीति से ’संज्ञा-प्रकरण’ तो होता ही है । शास्त्र के प्रारंभ में भी यह दृष्टिगत हो सकता है ।
इसी क्रम में कतिपय शब्दों का सामान्य अर्थ परिभाषित किया जा रहा है :
वर्गीकरण : ’वृ - वृणोति’ से व्युत्पन्न ’वर्ग’ संज्ञा का क्रियारूप है : वर्गीकरण ।
विभाजन : ’भज् -भजति / भजते’ के साथ ’ल्युट्’ प्रत्यय से व्युत्पन्न ’भाजनं’ का ’वि’ उपसर्ग सहित रूप है : विभाजन ।
इस प्रकार वर्गीकरण और विभाजन तत्वतः एक ही कार्य हैं ।
’भिद्- भिनत्ति / भिद्यते’ से व्युत्पन्न भेदं (संज्ञा) विभेदसूचक विशेषण है ।
इस प्रकार ’ब्रह्म’ अर्थात् समष्टि की विवेचना करने में उस तत्व का वर्गीकरण और विभाजन तो करना ही होगा जो सजातीय, विजातीय तथा स्वगत इन तीनों भेदों से रहित है । सजातीय, विजातीय तथा स्वगत आदि भेद भी पुनः वर्गीकरण और विभाजन की दृष्टि से व्यावहारिक और आभासी हैं ।
ऐसा ही एक वर्गीकरण और विभाजन ’इति’ तथा ’न-इति’ के रूप में भी है ।
वर्गीकरण, विभाजन और उनका परस्पर अविरोध ही ब्रह्म में इष्ट है ।
ब्रह्म-सूत्र के चार अध्याय समन्वय, अविरोध, साधना तथा फल इसी प्रकार की विवेचना है ।
माण्डूक्य-उपनिषद् में भी इसी प्रकार ब्रह्म के वर्गीकरण, विभाजन, अविरोध तथा समन्वय से ब्रह्म के समष्टि-स्वरूप की सिद्धि की गई है ।
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ऐसा ही एक वर्गीकरण या विभाजन है आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आधि-आत्मिक या आध्यात्मिक ।
ब्रह्म को और इसकी सभी अन्तर्वस्तुओं को भी इसी प्रकार उपरोक्त तीन दृष्टियों से देखा जा सकता है :
जैसे ’ध्वनि’ अर्थात् ’शब्द’ को स्वरूपतः देखें तो इसका वर्गीकरण कहा गया / उत्पन्न किया गया शब्द, और सुना गया शब्द इन दोनों प्रकारों से ग्रहण किया जा सकता है । ’वाक्’ अर्थात् वाणी कहा जानेवाला शब्द है, जबकि नाद अर्थात् शब्द के रूप में व्याप्त होनेवाला ब्रह्म, सुना जानेवाला शब्द है । कहने या सुननेवाला तत्व देवता है ’दिव्’ - दीव्यते, या ’द्युत्’ - द्योतते, जिससे ’देवता’ व्युत्पन्न होता है ।
’रूप’ अर्थात् दृश्य को स्वरूपतः देखें तो इसका वर्गीकरण दिखाई देनेवाला तत्व और देखनेवाले ’नेत्र’ नीयते नेत्रः / नेतृ, की तरह् प्राप्त होता है और ’चक्षुर्वै दृष्टिः’ के अनुसार नेत्र ही दृष्टि तथा दृष्टि (अर्थात् दृश्य भी) ही नेत्र है । इस प्रकार दृष्टि या नेत्र ही देखने / दिखलानेवाला ’देवता’ है ।
’रस’ (आपो रसो) इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त जल-तत्व है जो जीवन ही है क्योंकि जल के अभाव में जीवन नहीं हो सकता और जीवन नहीं तो जल के होने - न होने का प्रश्न ही कहाँ है? ’रस’ अर्थात् आप का देवता सोम है ।
’गन्ध’ पृथ्वी भूमि का गुण है और इसे नासा (नाक) से ग्रहण किया जाता है । नाक से श्वास-उच्छ्वास होता है और प्राणों के साथ वायु का ग्रहण या उत्सर्जन किया जाता है । प्रमुखतः प्राण, फिर वायु और फिर भूमि इस प्रकार तीनों देवता श्वास में संयुक्त हैं ।
’स्पर्श’ ही वायु का गुण और लक्षण भी है ।
इसी प्रकार केवल स्पर्श से ही वायुदेवता का अंश अञ्जना के गर्भ में केसरी के ओज से संयुक्त होने से अञ्जनिपुत्र का जन्म हुआ ।
इस प्रकार पञ्च तन्मात्राएँ (शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श) आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक स्वरूप से युक्त हैं ।
जीवन अर्थात् चेतना ’संज्ञा’ है जबकि सूर्य जीवन का आधार और अधिष्ठान ।
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Sunday, 26 May 2019

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासात्

गीता, उपनिषद् और पञ्चदशी 
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श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।
(गीता 12/12)
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रुणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।
(गीता 18/36)
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।
(गीता 18/37)
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।
(गीता 18/38)
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।
(गीता 18/39)
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जैसा कि सुना और पढ़ा भी है, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी अर्थात् समूह में रहनेवाला जीव है। मछलियाँ, मृग, पक्षी, भेड़-बकरियाँ, कुत्ते, भेड़िए, वानर आदि भी ऐसे ही हैं।
लेकिन समूह में रहने से ही मनुष्य के मन में भाषा नामक वह यंत्र पैदा और विकसित हो जाता है, जो दूसरे जीवों में शायद इतना या इस प्रकार से विकसित नहीं हो पाता। क्योंकि मनुष्य भाषा का प्रयोग करते हुए 'समय' नामक कल्पना को अतिरंजना की सीमा तक ले जाकर 'अतीत' और 'भविष्य' नामक कालखण्डों को व्यावहारिक धरातल पर उस प्रकार काम में लाने की कोशिश करता है जैसा कि वह अन्य भौतिक वस्तुओं के संबंध में करता है। और इस प्रकार से काल की अतीत, वर्तमान तथा भविष्य की स्थिति का पूर्वानुमान कर उन्हें एक ठोस तथ्य मान बैठता है।  मनुष्य  उसके 'अतीत' या 'वर्तमान' में तो फेरबदल कर ही नहीं सकता, 'अपने' भविष्य में भी ऐसा कर पाना उसके लिए नामुमकिन है क्योंकि 'भविष्य' के असंख्य चित्रों में से कुछ ही उसकी कल्पना में हो सकते हैं और चूँकि शुद्धतः भौतिक अर्थों में 'समय' का जैसा प्रयोग वह करता है, उसके अतिरिक्त किसी भी अन्य प्रकार के 'समय' से वह नितांत अनभिज्ञ होता है, इसलिए भी यह संभव नहीं है। इसकी तुलना में शेयर-मार्केट या एग्जिट-पोल की सही सही भविष्यवाणी करना शायद उसके लिए अधिक आसान हो सकता है।
काल और भविष्य के इस अनुमान के आधार पर वह प्रयोग अर्थात् आचरण के किसी प्रकार का अभ्यास करता है जो केवल कौतूहलवश या जिज्ञासा या बाध्यतावश भी हो सकता है।
प्रयोग से उसे वस्तुओं और प्रकृति आदि की जानकारी प्राप्त होती है जिसे वह और अनुसंधान के द्वारा अत्यंत सटीक और सम्प्रेषणगम्य रीति (भाषा) से दूसरों को प्रदान भी कर सकता है। इस प्रकार वह अपने उन भोगों और अनुभवों को भी बहुत समृद्ध और विकसित कर सकता है जिन्हें विवेक के अभाव में वह 'सुख' समझता है।  चूँकि ऐसे समस्त 'सुख' परस्पर विसंगत और अस्थायी भी होते हैं इसलिए वस्तुतः वे सुख प्रतीत होते हुए भी सुख के सात्विक, राजसिक और तामसिक प्रकार मात्र होते हैं।
इस प्रकार ज्ञान के दो प्रकार हुए :
एक - जानकारी के रूप में वैचारिक;
दूसरा - 'विवेक' के रूप में सैद्धान्तिक।
इसी दूसरे ज्ञान का उल्लेख गीता के उपरोक्त श्लोक (12/12) में किया गया है, जिसमे कहा गया है कि ऐसा ज्ञान अर्थात् विवेक अभ्यास से श्रेष्ठ होता है। क्योंकि बिना इस विवेक के ही मनुष्य गलत अभ्यास के फलस्वरूप आदतों का शिकार (addict) हो जाता है जिन्हें दूर कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। किन्तु 'विवेक' तो एक अमूर्त तत्व है, निराकार, अदृश्यप्राय।  उसका बुद्धिगत जानकारी-रूपी ज्ञान की तरह आदान-प्रदान नहीं हो सकता। इसलिए बुद्धिगत संकेत के रूप में 'नित्य'- 'अनित्य' के अभ्यास का सुझाव दिया जाता है क्योंकि ऐसा अभ्यास बुद्धिगत जानकारी-रूपी ज्ञान की तरह एक-दूसरे को दिया जा सकता है। यह अभ्यास ही 'ध्यान' है जिसे बार बार किए जाने पर अंततः यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतना ही, जो चित्त का स्रोत और आधार है नित्य सत् तत्व है और जो कुछ भी विषय की तरह इस चेतना में ग्रहण किया जाता है वह अनित्य और इसलिए असत् भी  है। किन्तु इस क्रम से भी पूर्व एक व्यावहारिक उपाय यह भी है कि समस्त कर्मफल (की इच्छा) को ही त्याग दिया जाए।  और यह तभी संभव है जब इच्छा की निरर्थकता और इच्छा ही बंधन है इसे विवेकपूर्वक समझ लिया जाए।  इस त्याग का परिणाम है मन की स्थायी शान्ति जो आत्मज्ञान और ईश्वर-साक्षात्कार का ही दूसरा नाम है।
भोगों में दिखाई पड़नेवाला वह सुख भी तीन प्रकार का हो सकता है, जिसका उल्लेख अध्याय 18 अगले श्लोकों 37, 38 तथा 39 में किया गया है।
संक्षेप में :
जो प्रारम्भ में विष जैसा कटु या कठोर जान पड़ता है किन्तु परिणाम में अमृत सिद्ध होता है, -जैसे कोई औषधि होती है, इस प्रकार से प्राप्त होनेवाले सुख को सात्विक सुख कहा जाता है।
इन्द्रियों का विषयों से संग होने पर जो अमृत जैसा मधुर प्रतीत होता है, लेकिन परिणाम में विनाशकारी सिद्ध होता है वह सुख राजस सुख कहा जाता है।
और निद्रा, आलस्य तथा प्रमाद से उत्पन्न (प्रतीत) होनेवाला जो सुख प्रारम्भ में, और उसके भोग के समय भी मन को मोहित किए रहता है उस सुख को तामसिक सुख कहा जाता है।
प्रमाद का अर्थ है : विवेक का अभाव - उन्माद, मद, नशा या विस्मरण।
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अध्याय 18 श्लोक 36 में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं :
अब तुम मुझसे उन सुखों के तीन प्रकार सुनो, जिनमें मनुष्य अभ्यासवश रमने लगता है और अपने अज्ञानरूपी विद्यमान सतत दुःख को कुछ समय के लिए भूल जाता है और उन्हें सुख समझता है।
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तैत्तिरीय उपनिषद् में प्रथम शीक्षा-वल्ली के बाद, द्वितीय 'ब्रह्मानंद'- वल्ली में इसी सुख के बारे में कहा गया है।
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पञ्चदशी ग्रन्थ में अध्याय 11 से अध्याय 15 तक इसी सुख / आनन्द  का 'ब्रह्मानन्द' के अंतर्गत 'योगानन्द', 'आत्मानन्द', 'अद्वैतानन्द', 'विद्यानन्द और 'विषयानन्द' प्रकरणों  में ५ प्रकार से वर्गीकरण प्राप्त होता है। -----     

                         
              

     
          

Saturday, 25 May 2019

गहना कर्मणो गतिः

कर्म तथा धर्म का प्रश्न  
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कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय ४, श्लोक १७)
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अर्थ : चूँकि कर्म (की गति) गूढ है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह ’कर्म’ (की गति) क्या है, ’विकर्म’ (की गति) क्या है तथा ’अकर्म’ (की गति) क्या है इसे ठीक से समझ ले क्योंकि कोई भी क्षणमात्र भी स्वरूप से कर्म को त्याग नहीं सकता ।
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क्या मनुष्य कर्म करने या न करने के लिए स्वतन्त्र है?
लगता तो यही है, किन्तु थोड़ा ध्यानपूर्वक देखें तो यह दिखाई पड़ता है कि मनुष्य प्रायः कर्म के हो जाने के बाद ही समझ पाता है कि उसे उस कर्म को करने या न करने की प्रेरणा कहीं से प्राप्त हुई थी । वह ’कहीं’, - चाहे उसका संकल्प, संस्कार या आदत, परिस्थितिजन्य भय, आवेश (मोह), प्रमाद / लापरवाही, लोभ, कर्तव्य की भावना रही हो, या अनायास उससे हुआ कोई विवेकहीन अमर्यादित कृत्य हो जिसके फलस्वरूप उसे बाद में थोड़ी देर की  प्रसन्नता, या पछतावा और शोक करना पड़ा हो । यद्यपि ऐसा दिखाई पड़ता है कि जिन कृत्यों / कर्मों / कामों के फल से हम सुखी होते हैं, उनके लिए कभी-कभी हमें लगातार बहुत यत्न और संघर्ष तक करना पड़ता है, और हम खुशी-खुशी या महिमामंडित त्याग कहकर उन कर्मों तथा उनके फल के भागी भी होते हैं, तो भी उस फल की भी समाप्ति हो जाती है इसलिए अन्ततः वह ’अनित्य’ ही सिद्ध होता है ।
फिर भी,
हम ’कर्म’ के यन्त्र क्यों बने रहते हैं?
इसके संभवतः दो मुख्य कारण हो सकते हैं :
पहला कारण इस बारे में हमारा यह अज्ञान कि किसी निश्चित कर्म को करने से हमें कोई तय परिणाम ही मिलेगा, जबकि वैसे भी हम जानते हैं कि कोई परिणाम बहुत से दूसरे कारणों पर भी निर्भर होता है, फिर भी फल के आकर्षण और लोभ से हम इस सामान्य विवेक को भी भूल जाते हैं, दरक़िनार कर देते हैं ।
दूसरा कारण यह कि हम (या हमारे मन) कर्म किए बिना शान्तिपूर्वक स्थिर नहीं रह सकते । यदि हमारे पास करने के लिए कोई कार्य नहीं हो तो या तो हमें नींद आने लगती है या हम (या हमारे मन) किसी ऐसे कार्य में व्यस्त होने का प्रयास करने लगते हैं जिसमें हम अधिकतम मग्न हो सकें या डूब सकें या जिससे हमें कोई ’लाभ’ प्राप्त हो । हमें लगता है कि यह ’लाभ’ किसी ’आदर्श’ की प्राप्ति के रूप में भी तो हो सकता है ! किन्तु स्पष्ट है कि किसी भावी ’लाभ’ को प्राप्त करने का विचार स्वयं ही हमारी वर्तमान स्थिति है और वह ’भावी’ केवल हमारी कल्पना में ही है । और यद्यपि यह कल्पना स्वप्न से बदलकर साकार भी हो सकती है लेकिन जब उसकी ऐसी प्राप्ति हो भी जाती है, तो भी हम (या हमारे मन) पुनः उसी बिन्दु पर लौट आते हैं जहाँ वह कर्म किए बिना शान्तिपूर्वक स्थिर नहीं रह सकते । 
कर्म को व्यक्त रूप में व्यक्ति और समष्टि के बीच के पारस्परिक व्यवहार की तरह समझा जा सकता है ।
इसी प्रकार धर्म को भी, व्यक्त रूप में व्यक्ति और समष्टि के बीच के पारस्परिक व्यवहार की तरह समझा जा सकता है ।
व्यक्ति और समष्टि जहाँ अस्तित्व के परस्पर सहपूरक (counter-part) हैं वहीं हर व्यक्ति अर्थात् व्यक्त इकाई जो मनुष्य या कोई जीव, जड या चेतन ’पिन्ड’, वस्तु -प्राणी, वनस्पति, जलचर, नभचर आदि भी हो सकता है, अपने से संबंधित समष्टि से जिस प्रकार का व्यवहार करता है वह उसका धर्म है । मनुष्य के अलावा शेष ’व्यक्ति’ स्वाभाविक रूप में इस धर्म का आचरण करते हैं और तथाकथित ’जड’-पिन्ड भी इतनी दृढ़ता से इसका आचरण करते हैं कि उनके धर्म को वैज्ञानिक बुद्धि की कसौटी पर अत्यंत सूक्ष्मता और सटीकता से नियमबद्ध भी किया जा सकता है और किया भी जाता है, जिसे ’द्रव्य के गुणधर्म / (Properties of Matter)’ के अन्तर्गत Physics में पढ़ा-पढ़ाया भी जाता है । इसी प्रकार खगोलीय-पिन्ड भी खगोलशास्त्र Astronomy के अन्तर्गत अध्ययन और अनुसन्धान का विषय होते हैं । ’काल’ तथा ’स्थान’ भी ऐसे ही पिन्ड हैं, जिन्हें भूल से ’जड’ मान लिया गया है क्योंकि हम केवल मनुष्य को ही ’चेतन’ मानते हैं, यद्यपि ’चेतना’ (का स्वरूप) क्या है इस बारे में अभी हम किसी स्पष्ट वैज्ञानिक, सुनिश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं ।
पर अभी तो व्यक्ति के धर्म की बात ।
मनुष्य के रूप में भी शरीर-रूपी पिन्ड के धर्म के आधार पर स्त्री-धर्म और पुरुष-धर्म स्पष्टतः परस्पर अत्यन्त भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक समग्र धर्म की दो शाखाओं की तरह हैं । अपने आपको शरीर मान लेते ही हम स्वयं को स्त्री अथवा पुरुष की तरह स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन वह चेतना (consciousness) जिसके अन्तर्गत बुद्धि कार्य करती है अवश्य ही शरीर से संयुक्त शरीर का वह स्वामी है, जो बुद्धि के कार्य प्रारंभ करने के बाद ही ’अपना’ तादात्म्य शरीर से करती है । इस प्रकार हम एक दृष्टि से स्त्री या पुरुष, लेकिन दूसरी दृष्टि से ’मैं’-बुद्धि से भी रहित वह चेतना भी हैं, जिसमें बुद्धि कभी कार्य करती है और कभी कभी कार्य से अवकाश ग्रहण कर लेती है । यह चेतना भी पुनः जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं से क्रमिक रूप से गुज़रती रहती है, और उन अवस्थाओं में भी बुद्धि अपने तरीके से कार्यरत रहती है । इसका प्रमाण स्मृति है जो हमारी जागृत अवस्था में भी स्वप्न तथा सुषुप्ति में हमारे अस्तित्व के अबाध, सतत अविच्छिन्न रहने को हमारे लिए प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट करती है ।
अब प्रश्न उठता है कि जागृत दशा में समष्टि अर्थात् हमारे संपर्क में आनेवाले ’संसार’ से हमारा व्यवहार कैसा है?
क्या इसे समझने के लिए किसी गुरु, मार्गदर्शक या किताब का आधार लेना हमारे लिए आवश्यक है?
और, क्या उस आधार से, - धर्म क्या है इसका कोई असंदिग्ध और विश्वसनीय सुनिश्चित प्रमाण पाया जा सकता है?
लेकिन हमारे संसार में प्रायः यही तरीका लगभग हर किसी ने अपना रखा है ।
लेकिन चूँकि किसी गुरु, मार्गदर्शक या किताब के वचनों और शिक्षाओं की अपनी-अपनी व्याख्या भी हर कोई अलग-अलग तरीके से करता है इसलिए आज के विश्व में तमाम धर्मों के बावज़ूद धर्म का संकट और अधिक बढ़ता ही जा रहा है ।
किसी ’धर्म’ की निन्दा, विरोध या झूठी-सच्ची प्रशंसा या आग्रह करना इस चुनौती का सम्यक् प्रत्युत्तर नहीं हो सकता, क्योंकि उसके परिणाम में विभिन्न धर्मों (और उनके मत-मतान्तरों) के बीच द्वेष ही बढ़ता है । वस्तुतः "मेरा धर्म क्या है?" इस प्रश्न का उत्तर, इस समस्या का समाधान, इस बारे में विवेचना अपने लिए जब तक कोई स्वयं ही नहीं करता, तब तक यह दुविधा बनी ही रहेगी । कुछ लोग किसी ’विश्वास’ को ही ’धर्म’ कहकर रुक जाते हैं जैसे महात्मा गाँधी । उनके तर्क से विरोध नहीं है, न उसे अंतिम कहा जा सकता है और चूँकि उस पर रुक जाना सामाजिक और तात्कालिक सुविधा भले ही हो, वह केवल प्रश्न / समस्या / चुनौती को विलंबित ही रखता है ।
यद्यपि कुछ लोग उससे सहमत भी हो सकते हैं, लेकिन वह भी अन्ततः वैसा ही एक सामाजिक धर्म होकर रह जाता है, जो इस बारे में हमें कोई दिशा नहीं दिखलाता कि हमारा ’धर्म’ क्या है ? जब तक मनुष्य के अपने ही भीतर ऐसी तीव्र जिज्ञासा, प्रखर उत्कंठा नहीं पैदा होती जो उसे स्वयं ही इस खोज में संलग्न कर दे कि "धर्म क्या है?" तब तक वह उस विशाल भवन के भीतर भटकता रहेगा जिसकी हर दीवार पर हूबहू दरवाजे की आकृति के अनेक ऐसे चित्र बने हैं जिनसे गुज़रने की कोशिश करते ही सिर दीवार से टकराने लगता है ।
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Friday, 24 May 2019

अखंड भारत : Narratives and Perspectives.

कथ्य और तथ्य
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मनुष्य इस दृष्टि से विशेष है कि वह ’सोच-विचार’ करना जानता है । ’सोच-विचार’ करने के लिए वह उन ध्वनि-संकेतों या ध्वनियों के विशिष्ट समूह का उपयोग करता है, जिनसे वह किसी वस्तु-विशेष को इंगित करता है । यह क्रम प्रायः उसकी शैशवावस्था से, और उसके अनायास, -बिना अतिरिक्त प्रयास किए ही प्रारंभ हो जाता है । भाषा के इस प्रकार के उपयोग के बाद ही वह विभिन्न शब्दों के व्यावहारिक वस्तुवाचक तात्पर्य को ’वैचारिक-आकृति’ देता है । इस प्रकार किसी वस्तु-विशेष के लिए कोई शब्द-विशेष मान्य कर लेता है जिसे उसके परिवार और समाज में भी इसी तरह प्रयोग किया जाता है ।
यह तो हुआ भाषा और बोली के उद्भव का क्रम । किन्तु इसके अनन्तर मनुष्य में भावनाएँ और अनुभूतियाँ अर्थात् भावनात्मक अनुभवों की स्मृति भी विकसित होने लगती है, जिन्हें वह किन्हीं तय शब्दों के रूप में अपने समाज में व्यक्त करने लगता है और जिसे समाज का हर सदस्य भी धीरे-धीरे अपनाने लगता है । इस प्रकार भाववाचक-संज्ञाएँ प्रचलित होने लगती हैं । किन्तु न तो भौतिक वस्तुएँ और न भावनात्मक अनुभव वस्तुतः ऐसे ठोस तथ्य होते हैं जिनका कोई वास्तविक शाब्दिक अर्थ हो सकता हो । यह केवल उनकी मान्यता और स्वीकार्यता पर ही निर्भर होता है । इसलिए भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग अलग भाषाएँ और बोलियाँ अस्तित्व में आती हैं । इनके परस्पर व्यवहार से पुनः वे और अधिक समृद्ध लेकिन अधिक दुरूह तथा जटिल भी होने लगती हैं । ध्वनि-संकेतों को लिखने के इतिहास ने भी इसी प्रकार भाषाओं की लिपि के आविष्कार के बाद ही व्यवस्थित रूप ग्रहण किया । यह क्रम सुदूर अतीत में कब से शुरू हुआ होगा इसका अनुमान लगाना भी कठिन है ।
जो भी हो, लिपि के आविष्कार के बाद भाषा(एँ) और अधिक समृद्ध तथा क्लिष्ट भी होने लगी होंगी । तब हर भाषा में शब्दों और वाक्यों के  प्रचलित स्वरूप को सूचीबद्ध कर कुछ व्यावहारिक नियम (rules and regulations / conventions) तय किए गए जिनसे भाषा(ओं) का व्याकरण बना । यह भी स्पष्ट है कि यह व्याकरण भी निरंतर बदलता रहा होगा । फिर किसी भी भाषा का ’मानक-स्वरूप’ / standard form निर्धारित किया गया होगा । किसी भौतिक या भावनात्मक तथ्य को कथ्य (narrative) का स्वरूप दिये जाने में इस सारे क्रम की  भूमिका असंदिग्ध रही होगी ।
भावनात्मक तथ्य (fact) को कथ्य का स्वरूप दिये जाने में जैसे विरोधाभास और विसंगतियाँ पैदा हुए, भौतिक वस्तुओं को शब्द दिए जाने में वैसे और उतने अधिक विरोधाभास और विसंगतियाँ नहीं पैदा हुए । बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा, कि भावनात्मक तथ्य और ऐसे तथ्यों की अभिव्यक्ति के लिए कोई शब्द दिए जाते ही ये तथ्य कोरे वैचारिक-तथ्य (abstract notions) बनकर रह गए जिनसे किसी हद तक काम तो चलाया जा सकता था, लेकिन इससे भ्रम पैदा होने की संभावनाएँ और भी, उतनी ही अधिक बढ़ भी गईं । प्रत्येक मनुष्य में किसी दूसरे मनुष्य की तुलना में संवेदनशीलता और संवेदनशीलता का प्रकार (sensitivity and mental orientation भी भिन्न-भिन्न होता है । अपने समूह, परिवार, स्थान, संस्कृति आदि से जुड़ाव या अलगाव भी इसी प्रकार कम या अधिक हो सकता है । ’ईश्वर’ नामक सत्ता की कल्पना तथा उसके स्वरूप के बारे में उसकी कल्पना भी दूसरों से बहुत भिन्न हो सकती है, और प्रायः होती भी है, क्योंकि ऐसा ’ईश्वर’ और उसकी सत्ता, एक बौद्धिक विचारजनित अमूर्त कल्पना ही तो होती है, न कि कोई ठोस इन्द्रियगम्य और बुधिगम्य भौतिक तथ्य जिस पर सब आसानी से सहमत हो सकें । यदि किसी मनुष्य को ऐसे किसी ’ईश्वर’ और उसकी सत्ता का साक्षात्कार हुआ भी है, तो भी वह दूसरों को इसे वास्तविक सत्य की तरह मानने के लिए राज़ी कर ले यह भी लगभग असंभव ही है । वह यद्यपि ’अपने’ अनुभवों और अनुभवों से प्रमाणित उसके नितान्त निजि प्रमाणों को शब्दों से वाणी द्वारा और ग्रन्थ के रूप में लिखे गए शब्दों से अभिव्यक्त भी कर दे, तो भी जिन्हें उस ’ईश्वर’ और उसकी सत्ता नामक तथ्य का प्रत्यक्षतः साक्षात्कार नहीं हुआ है, वे उसकी शिक्षाओं की जो और जैसी व्याख्या करेंगे, उससे उनका भ्रम और भी कई गुना बढ़ जाएगा इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि मनुष्य का अब तक का इतिहास इसी तथ्य की पुष्टि कर रहा है ।
इसलिए ’धर्म’ और ’पंथ’ के अनेक रूप बनते और कुछ काल तक रूढ़ि की तरह प्रचलित होकर अन्ततः इस तरह से समाप्त भी हो गए, मानों उनका उद्भव ही कभी हुआ ही नहीं था । इस सब के साथ अगर कुछ स्थिर और अमिट रहा तो वह था ’धर्म’ का विचार । यद्यपि रूढ़ियाँ और परंपराएँ बनती-मिटती रहीं, कुछ अत्यंत इने-गिने मनुष्यों में यह जिज्ञासा और उत्कंठा जागृत हुई, कि क्या अस्तित्व में सब कुछ नाशवान है, और क्या ऐसा कुछ नहीं है, जिसे नित्य और अविनाशी कहा जा सके? इस जिज्ञासा में किसी ’ईश्वर’ या उसकी सत्ता का विचार यद्यपि शामिल रहा या न भी रहा हो, इससे इस जिज्ञासा और उत्कंठा की तीव्रता कम या अधिक नहीं होती ।
इस प्रकार ’धर्म’ ने एक ’वैचारिक-सत्य’ का रूप ग्रहण किया जो सामान्य मनुष्य के लिए नितांत दुर्बोध्य और अविश्वसनीयता की हद तक आश्चर्यजनक था । किंतु इसी / इन्हीं ’वैचारिक सत्यों’ के आधार पर अनेक ’पंथ’ निर्मित हुए / किए गए, और सामान्य मनुष्य को उनमें से शायद ही किसी की ज़रूरत / उपयोग कभी रहा हो ।
इन्हीं वैचारिक सत्यों के बीच परस्पर सत्ता-संघर्ष होता रहा और आज भी सतत चल ही रहा है ।
इतिहास गवाह (गवाक्ष) है कि बहुत से सत्तालोलुप महत्त्वाकाँक्षी मनुष्यों ने अपने-अपने ’पंथ’ (sect) को विश्वविजय करने और भूमि, धन, अधिकार और साम्राज्य की अपनी तुच्छ लालसाओं को तुष्ट करने का साधन बनाया, जिससे संसार का घोर अहित ही हुआ और अन्तहीन युद्ध होते रहे । इसकी तुलना अगर भौगोलिक क्षेत्र भारत और उसमें प्रचलित ’सनातन-धर्म’ से करें, जिसे ’हिन्दू’ कहना उसे संकीर्णता की छोटी सीमा में संकुचित कर बाँध रखने जैसा ही है, तो यह समझना सरल है कि ’सनातन-धर्म’ ने कभी अपनी मर्यादा (अखंड भारत) का उल्लंघन नहीं किया और यद्यपि पश्चिम, पूर्व दोनों दिशाओं में समुद्र पार के देशों (स्थानों) तक इसका प्रसार हुआ, ’पंथ’-आधारित दूसरी राजनैतिक सत्ताओं ने न सिर्फ़ इस भारत-भूमि पर सतत आक्रमण किए, बल्कि अपनी बर्बरता के मद में भारत-भूमि को दासता की श्रँखलाओं में इस बुरी तरह जकड़ दिया कि आज हम भारत-भूमि के रहनेवालों की संस्कृति, सभ्यता और ’धर्म’ भी वास्तव में कितने श्रेष्ठ और श्रेष्ठतम रहे हैं इस तरफ  हमारा ध्यान ही नहीं जाता बल्कि हम सेक्युलर (secular) नामक निषेधात्मक वक्तव्य (negative narrative) के आधार को गौरवान्वित करने में खुशी तक अनुभव करते हैं । यदि यह शब्द ऐसा निषेधात्मक वक्तव्य (negative narrative) न होता तो हमारे देश के संविधान-निर्माता शुरू में ही इसे हमारे राष्ट्र के संविधान की भूमिका (Preamble) में शामिल कर देते।
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aleph, bet,

अलोऽअन्त्यस्य
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अष्टाध्यायी १/१/५२
'अल्' प्रत्याहार समस्त व्यञ्जनों का समाहार है।
भगवान भारद्वाज ऋषि के आशीर्वाद से मुझे भारद्वाज-व्याकरण का ज्ञान आवश्यकता के अनुसार प्राप्त हो जाता है।  जब नहीं मिलता, तो मैं समझता हूँ कि उसकी मुझे आवश्यकता नहीं है।
वैदिक-शास्त्रों में केवल नौ व्याकरणों का उल्लेख पाया जाता है।  फिर इस दसवें 'भारद्वाज-व्याकरण' की क्या प्रामाणिकता है? इसे मिलाकर ही तो संस्कृत के दस व्याकरण हो सकते हैं?
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मुझे बचपन से उर्दू सीखने की चाह थी।  उसकी प्रेरणा कहाँ से हुई?
मुझे बचपन से यह अंतर्दृष्टि प्राप्त थी कि भाषा कोई भी हो एक तो उसका लौकिक व्याकरण होता है और दूसरा अलौकिक अर्थात् वाणी से संबद्ध, वाणी का व्याकरण।
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ऋषि जाबाल के बारे में मेरी जिज्ञासा और उत्कंठा तब शांत हुई जब मैंने वाल्मीकि-रामायण में उनके बारे में पढ़ा।  वहीं से मुझे ज्ञान हुआ कि ऋषि जाबालि / जाबाल वैसे तो सभी दूसरे ऋषियों की तरह त्रिकालदर्शी और त्रिकालव्यापी हैं लेकिन शारीरिक रूप से वे ही कभी कहोड (अष्टावक्र के पिता) तो कभी तथागत सिद्धार्थ (भगवान् बुद्ध) के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए।
अष्टावक्र की माता सुजाता वैसी ही श्रेष्ठ सती नारी थी जो उनके अनेक जन्मों में उनकी सेवा के धर्म का निर्वाह करती रही।
सुजाता / वनदेवी / वार्क्षी के रूप में उन्होंने ही सिद्धार्थ की तपस्या के अंतिम सोपान पर उन्हें खीर अर्पित किया जिससे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हुए।  निरंजना-तट की वह कथा भी आपको मेरे किसी पोस्ट में मिल जाएगी।
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पहले मैं सोचता था कि ऋषि जाबाल को आर्च-एंजिल Arch-Angel समझना मेरी कपोल-कल्पना हो सकता है, लेकिन जब मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मुण्डक, प्रथम खण्ड के द्वितीय मन्त्र में इसकी पुष्टि पर ध्यान गया तो मैंने अपनी अंतःप्रेरणाओं पर शंका करना छोड़ दिया।
इस मन्त्र में पुनः ऋषि भारद्वाज का साक्ष्य मेरे लिए ऐसा प्रमाण था, जिसकी सत्यता  पर अविश्वास करना मूढ़ता ही होता। भारद्वाज ऋषि से मेरे अपने संबंध का प्रमाण मुझे ऋग्वेद मण्डल २, सूक्त २४, मन्त्र ९ में मिला, जिसके बारे में पहले उल्लेख कर चुका हूँ कि किस प्रकार वह प्रमाण मुझसे जुड़ा है।
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अपने अध्ययन के दौरान कठोपनिषद् की कथा से जीसस क्राइस्ट की कहानी का गहरा साम्य देखते ही मुझे स्पष्ट हो गया, कि किस प्रकार कापालिक से क़ाबा और कठोपनिषद् से कैथोलिक 'परंपरा' का उद्भव हुआ।
मुझे तब और अधिक आश्चर्य हुआ जब मैंने इजिप्ट, फ़लस्तीन और इसरायल के इतिहास और परस्पर संबंधों पर खोज-बीन की। मेरा ध्यान इस ओर गया कि मिस्र की गीज़ा के पिरामिडों का फ़लस्तीन के गज़ा (Gaza) से अवश्य कोई संबंध है। मुझे पता चला कि क्यों अरबी लिपि में 'प' नहीं है। इसलिए 'कापालिक' कपाल -कबाल हो जाता है।  Jewish Cabal भी इसी का प्रकार है।  कबीला शब्द इसी से बना है।  
पैग़म्बर मोज़ेस और एंजिल (ईशदूत) गैब्रिएल (जाबाल-ऋषि) की कथा (Exodus) पढ़ते ही मुझे यकीन हो गया कि मोज़ेस को किस प्रकार इजिप्ट से निकाल दिए जाने पर पार्षद / फ़रिश्ता एंजिल (ईशदूत) गैब्रिएल (जाबाल-ऋषि) और इंद्र (Metatron) ने उनकी सहायता की। ऋषि प्रेरणा के रूप में उन्हें अदृश्य रहकर मार्ग दिखा रहे थे, इंद्र मेघ के रूप में उन पर और उनके कबीले (कापालिक) पर छाया कर रहे थे और भगवान् शिव स्वयं उनके आगे-आगे ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में मार्ग में दूर दिखाई दे रहे थे। 
जाबाल-ऋषि ही उन्हें लाल-सागर के किनारे से होते हुए वर्त्तमान फ़लस्तीन ले गए।
फ़लस्तीन / फ़िलिस्तीन में वर्त्तमान में विद्यमान स्थान 'जबालिआ' में भी इसकी पुष्टि देखि जा सकती है। 
'यह्व' Jehovah के दो रूपों में पुनः उन्हें वैदिक सनातन धर्म की शिक्षा दी, जो अग्नि की साक्ष्य में दी गयी।
'यह्व' Jehovah का एक प्रत्यक्ष अर्थ है 'मैं वह (हूँ)' तो दूसरा विस्तृत अर्थ है वेदवर्णित 'यह्व' ।
लेकिन हिब्रू और यहूदी धर्म के संबंध में मेरी जानकारी की प्रामाणिकता संदिग्ध होने से मुझे हिब्रू सीखने की ज़रूरत महसूस हुई। फिर मैंने भगवान परशुराम का ध्यान किया जिन्होंने पार्श्व-देश वर्त्तमान ईरान / फ़ारस में उसी प्रकार सनातन धर्म की स्थापना और विस्तार किया जैसे जाबाल ऋषि ने इसरायल और इजिप्ट में किया था।
अरबी / उर्दू / हिब्रू सीखने के संबंध में मुझे एक दुविधा इसलिए भी थी क्योंकि वैश्विक-चेतना में ज्ञान की दो धाराएँ क्रमशः दक्षिण और वाम तंत्र के अनुसार गतिशील होती हैं।  हर मनुष्य के भीतर इनमें से एक ही धारा एक समय पर कार्य कर सकती है।  सरल शब्दों में :
यदि आप बाँये से दाँयें लिखते हैं, -जैसा कि हिंदी, संस्कृत, तमिल तथा अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाएँ लिखते समय किया जाता है तो आपकी चेतना एक प्रकार से कार्य करती है। यदि आप दाँयें से बाँयें लिखते हैं जैसा कि फिनीशियाई, हिब्रू, अरबी, उर्दू तथा फारसी लिखते समय किया जाता है तो आपकी चेतना एक भिन्न प्रकार से कार्य करती है। दोनों के अपने-अपने लाभ और हानियाँ भी हैं। इस बारे में यदि विस्तार से जानना चाहें, तो न्यूरोलॉजिस्ट श्री वी. एस. रामचंद्रन् (V.S.Ramachandran)के साहित्य और खोजों के बारे में पढ़ सकते हैं।
वैसे यह कुछ गूढ और जटिल विषय है इसलिए मैं यहाँ विस्तारपूर्वक नहीं लिखूँगा।
दूसरी और यह तथ्य भी विचारणीय है कि हम बाँये हाथ से लिखते हैं या दाँये हाथ से। क्योंकि हमारे मस्तिष्क के बाँयें भाग की स्नायुप्रणाली का सीधा संबंध हमारे दाँयें हाथ से तथा दाँयें भाग की स्नायुप्रणाली का सीधा संबंध हमारे बाँयेँ हाथ से होता है।
यह आकस्मिक संयोग नहीं है कि पश्चिम में तर्क-आधारित गणित और विज्ञान विकसित हुआ जबकि पूर्व में विवेक / चिंतन और अनुसंधान पर आधारित धर्म विकसित हुआ।
१४ माहेश्वर-सूत्र (अक्षर-समाम्नाय) वाणी के व्याकरण का आधार है।
अब यदि अरबी भाषा के शब्दों की रचना देखें तो वह संस्कृत के उणादि प्रत्ययों तथा उपसर्ग (prefix) एवं तद्धित (suffix) का ही विशेष प्रकार है। अरबी की एक विशेषता यह है कि यह तमिल की तरह फ़ॉनेटिक है अर्थात् किसी लिखे हुए वर्ण का उच्चारण क्या होगा, इसे सुनकर ही जाना जा सकता है। तमिल भाषा का एक ब्राह्मी प्रकार भी अवश्य है, जिसमें लिखे हुए वर्ण का उच्चारण सुनिश्चित होता है। इसलिए इसे पढ़कर भी इसका सही उच्चारण क्या है, इसे समझा जा सकता है।
अंततः जब हिब्रू के लिए एक अच्छा विडिओ मिला तो मेरी यह समझ दृढ हुई कि अरबी तथा हिब्रू में भी अलिफ़, बे के बाद 'पे' क्यों नहीं होता इसलिए क्यों 'पाकिस्तान' एक absurdity है। इसलिए उर्दू में बे को रूपांतरित कर 'पे' के सृष्टि की गयी।
मज़ाक छोड़ें तो भी यह सत्य है कि 'अलिफ़' जैसा कि हिब्रू में लिखा जाता है, मूलतः वाम-स्वस्तिक या ॐ का ही एक रूप है, जबकि हिब्रू के दूसरे वर्णों के लिए 'आ' की मात्रा को वर्ण के नीचे लगाया जाता है।  इसी प्रकार अरबी में 'इ' का 'य' होना, 'उ' का 'व' होना संस्कृत व्याकरण के 'गुण' और 'संप्रसारण' के ही प्रकार हैं। यहाँ तक कि अलिफ़ का रूप 'अ' का विलोम है और हिब्रू में भी 'अ' के पूरे उच्चारण के लिए इसे व्यंजन के नीचे लगाया जाता है। दूसरी ओर अरबी में अलिफ़ 'आ' की मात्रा से मिलता जुलता है।    
सबसे बड़ी बात यह कि 'अलिफ़' 'ब' / 'बे' का उद्भव भी 'अ' तथा 'द्वे' से हुआ है ऐसा समझना अनुचित न होगा।  गुजराती में भी '२' को 'बे' कहा जाता है।  इसके बाद आता है 'ते', जो त्रि का ही रूप है और फिर सीधे 'चे' आ जाता है जो चतुर्थ / चत्वार / चतुर का रूप है।  इसलिए अरबी से 'पे' ग़ायब है।
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उपरोक्त पोस्ट निष्कर्ष न होकर विचार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
संभावित त्रुटियाँ कृपया सुधार लें।
पाठक अपने विवेक के अनुसार तय करें कि यह कितना  ग्राह्य / अग्राह्य है।
इसे लिखने का मूल उद्देश्य यह समझना है कि कट्टरता वास्तव में सबके और हर किसी के लिए भी कितनी हानिकारक है।
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औचित्य / कविता

निर्वासन में 
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बहुत गर्म दिन,
कोमल तृण,
-अंकुरित होने से डरते हैं,
अंकुरित तृण,
- लू की लपटों से।
कँटीले कैक्टस, नागफनी,
डटकर करते हैं सामना।
गुलमोहर कहीं नहीं दिखाई देते,
हाँ, वहाँ होंगे वो मेरे शहर में।
तेज़ धूप में भी बिखेरते होंगे वहाँ लौ।
पर मेरा शहर ही अब कहाँ है?
सिवा मेरी यादों और सपनों के?
अभी तो वक्त बस ठहरा सा है,
चिलचिलाती धूप का पहरा सा है,
यह शहर दूर दूर तक,
फैला हुआ सहरा सा है,
और बोझिल सन्नाटा,
गहरा सा है।
खोलता हूँ पुराना संदूक,
देखता हूँ नया पंचांग,
सर्च करता हूँ weather,
-Google पर,
हाँ, अभी बहुत दिन न बदलेगा मिजाज़ !
दुबक कर बैठ जाता हूँ, पीता हूँ,
हर घंटे भर बाद घूँट-घूँट पानी,
फ्रिज़ का नहीं, घड़े का ठंडा ,
पर नहीं चलाता हूँ कूलर मैं !
बहाना राजीव दीक्षित जी का हो,
या हो बिजली की आँखमिचौली का,
या कि पानी की कमी का,
नहीं देखता, वो ई.एम. आई. के विज्ञापन,
आजकल बिजली भी मिलती है जिन पर !
भूले-भटके से फ़ोन आते हैं।
"आपको लोन चाहिए क्या?"
कोई जवाब नहीं मेरे पास !
और यूँ गुज़र रही है दोपहर,
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कल तक था चुनावों का बहाना,
उत्सुकता थी, कि कौन जीतेगा,
कौन सी सरकार आएगी अगली,
होगी वो मज़बूर या होगी मज़बूत,
आज वो नतीजे भी आ गए हैं,
हाँ राहत तो है, उम्मीदें भी हैं,
अगले मौसम में ज़रूर मैं जाऊँगा,
अपने गुलमोहर-शहर के साए में ।
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Saturday, 18 May 2019

मृद्भान्ड और मृद्-शकटिकम्

कविता / 19-05-2019 
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(मृद्भान्ड और मृच्छकटिकम्)
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धर्म अविकारी तृणवत्,
सनातन और सतत,
नित्य और शाश्वत्,
तृण सा विलुप्त हो जाता है,
ग्रीष्म में,
तृण सा पुनः उग आता है,
पावस के आते ही,
चरते हैं चौपाए-मृग,
जिनके विस्फारित-दृग,
और वे पंछी पतंगे भी,
पलते हैं व्योम-खग,
रोकती है घास जल को,
रोकती है मृदा को भी,
मृद्भाण्ड में जल-बीज,
सृष्टि-बीज जीवन का !
देह धरती की मिट्टी,
मिट्टी का ही मृद्भान्ड भी,
देह मनुज की मिट्टी,
गंध लिए मिट्टी की,
गंध मिट्टी का गुण,
जगाता है स्पर्श को,
स्पर्श वायु का गुण,
जगाता है अग्नि को,
अग्नि आकाश का गुण,
शब्द सा व्यापक हर ओर,
और गूँज-अनुगूँज,
जीवन की, सृष्टि की ।
जीवन चलता चरैवेति,
मिट्टी की गाड़ी,
-मृच्छकटिकम्,
चलती है गाड़ी जीवन की !
अंग-अंग मिट्टी का,
अंग-राग भी मिट्टी,
राग-रंग मिट्टी का,
कण-कण में व्याप्त मिट्टी ।
फिर क्यों मिट्टी से शर्म,
फिर क्यों मिट्टी का मर्म,
समझता नहीं मनुज-धर्म,
एक दिन सो जाना है,
ओढ़कर चादर मिट्टी ।
'धूल भरे अति सोहित स्यामजू',
गाता है रसखान,
'किलकि किलकि उठत धाय,
गिरत भूमि लटपटाय,
ठुमकि चलत रामचंद्र ...'
देखते हैं तुलसीदास, -अपलक,   
शूद्र कः?, -शूद्रकः !
मिट्टी से जुड़ा,
लिखता है चरित्र मिट्टी का,
माहात्म्य यूँ मिट्टी का !
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(कल्पिता)

Friday, 17 May 2019

Damien and Shibumi

During 1991 to 1995 I chanced upon reading the book 'Shibumi' by Trevanian.
Long before that I knew about "Siddhartha" by Herman Hesse.
There was this attraction to the Spiritual that I sensed was the reason why I liked Herman Hesse.
Then Sometime from 1983 to 1990 I got to read 'Damien'.
The treatment of the subject in these three books is with a perspective to the occult, the spiritual and the esoteric with a dash of mystery upon it.
Shibumi and Hirobumi are Japanese words and have traveled from Indian Sanskrit and legendary words Shivabhumi and Shirobhumi.
The same is true for the name of the erstwhile Emperor of Japan "Hirohito" that must have been a cognate of Sanskrit "Shirohito".
My way of understanding the words of different languages is that I first try to find out the nearest approximate of a word in Sanskrit that also conveys the meaning of the word in that language and the same meaning in Sanskrit as well. I don't claim how far this is the correct approach, but for me it works.
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The book Damien attracted my attention because it started with the idea of 'meditation'.
This was not a bad start. For the introductory knowledge this is quite helpful.
There is a similar treatment of 'Tantra' in 'Shibumi', where a character says how anything and everything could be used as a weapon.
(This reminds me about a case when a Mossad-agent successfully killed some-one by putting poison into his tooth-paste! However, I didn't try to check if it is a true or a fake story)
Once I was talking to the friend who had given the book 'Shibumi'; and I narrated to him how in Tantra a straw too could be used as a very powerful weapon. I even told him how a mustered-seed or any other seed preferably like a gram or lentil too could be used in a way so as to destroy even a big fort. Obviously, this was what was possible theoretically. I had my understanding of it, may be just a whim.
A bit strange but true, a year ago when I found out by chance a description that affirmed that my understanding was not just a fanciful capricious whimsical thought but may be a reality too.
I was going through वाल्मीकि-रामायण / Valmiki-Ramayana (अरण्यकाण्ड सर्ग 12, and बालकाण्ड सर्ग 77) where Rishi Agastya and Rishi Vishvamitra give to Shri Rama the celestial weapons and powers, namely the आयुध / weapons that work through 'mantra' and as a fact the weapons / devata / mantra themselves live permanently in the storehouse of Cosmic Knowledge (The mind of Brahma) they could be invoked anywhere by one who has propitiated them at any time. Collectively and also as a single object, they are called 'Brahmastra' .
Next I came to see the incidence when Jayanta (the son of Indra) came in the guise of a crow to the hermitage where Sri Rama Sita and Lakshamana lived and tried to picking at Sita's breasts, taking the same as some kind of fruits.
Shri Rama was at that time reclining, sleepin on the lap of Sita.
When Sita could bear no more the attacks of Jayanta, she trembled, Shri Rama woke up and saw Jayanta.
Shri Rama then took a straw, invoked the devata (mantra) and threw the straw upon Jayanta.
The straw pursued Jayant following him everywhere where he wanted to escape.
Ultimately Jayanta had to come to Shri Rama, asked him for the pardon but then Shri Rama said :
"Well now the arrow (straw) once released could not return without fulfilling its purpose. Tell me where it should target?"
Then Jayanta agreed that his left eye may be the target.
So the straw hit the left eye of Jayanta.
Since then (as the story tells) crow are single-eyed. Crow use the same one eye which is not blind.
There is a reference in Upanishad.
This is a parallel to the above story.
Lord Shri-Rama is the Lord Supreme (Ishvara) while Sita is 'nature' / 'Prakriti',
Both are the Father Divine and Mother Divine.
Indra is Man.
Jayanta is the 'son' of the Man.
Jayanta means one who wants to win over the nature.
Thus Jayanta is verily the attempts of Man towards spoiling and destroying the purity and sanctity of nature.
Again, Upanishad say, The Lord / Self in Man dwells in the right eye of Man.
This is exactly the same thing when Sri Ramana Maharshi says 'Self' / Lord Supreme abides in the Heart (in the right side of the human chest.
This is the analogy and the algorithm of the secret.
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Damien and Shibumi though begin with striking a chord about the Spiritual, are soon lost in the labyrinth of thought and imagination.
A good pass-time, may be; - but nowhere a match with the wisdom of the Upanishad and the वाल्मीकि-रामायण / Valmiki-Ramayana.
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Not going to edit further.                               

Thursday, 16 May 2019

वयं राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिताः

राष्ट्रनिष्ठा और देशभक्ति 
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मेरा सबसे अधिक देखा गया पोस्ट इस ब्लॉग में नहीं है, यद्यपि यह ब्लॉग अवश्य ही मेरे सभी ब्लॉग्स में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाता है।  सोचा क्यों न मेरे उस पोस्ट को यहाँ प्रस्तुत करूँ, जिसे अब तक 3344 से अधिक बार देखा गया है। यह सच है कि जब 'राजस्थान-पत्रिका' का हिंदी अखबार 'पत्रिका' प्रारम्भ हुआ था, तो उस पर प्रदर्शित उसके इस 'नीति-वाक्य' / logo से ही मुझे यह कविता लिखने की प्रेरणा मिली थी।
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यह भी सच है कि इससे बहुत पहले वर्ष 1991 में सर्वप्रथम मैंने इससे मिलती जुलती सूक्ति  :
वयं राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिताः (यजुर्वेद ९/२३) 
को उज्जैन के दशहरा-मैदान स्थित गर्ल्स' डिग्री कॉलेज के गेट पर देखा था।
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फिर मैंने इस पर गौर किया कि वैदिक-दर्शन के अनुसार 'राष्ट्र' और 'राष्ट्रवाद' क्या है और क्या यह किसी संकीर्णता या कट्टरता का पर्याय हो सकता है? यह भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या साम्प्रदायिक सीमाओं से परे 'वसुधैव कुटुंबकम्' के अंतर्गत सभी और प्रत्येक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (उच्छृंखलता नहीं) और मर्यादा का हनन न करते हुए ही राष्ट्र की अस्मिता के सम्मान की रक्षा का पर्याय है।
वैचारिक अपरिपक्वता और कट्टरता से प्रभावित कोई व्यक्ति किन्हीं आग्रहों (या दुराग्रहों) के चलते 'हिंसा' को राजनीतिक हथियार बनाते हुए भी अपने-आपको 'देशभक्त' कह सकता है और 'हिंसा' के उसके तरीके का न्यायोचित 'कर्तव्य' होने का दावा भी कर सकता है, और ऐसे किसी व्यक्ति की 'देशभक्ति' पर प्रश्न भी उठाया जाना चाहिए, किन्तु उसे आतंकवादी कह देना कहाँ तक और कितना उचित है? उसकी राष्ट्रनिष्ठा कितनी सत्य है यह तो उसे ही पता होगा किन्तु उसका ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाना ज़रूरी है कि हिंसक राजनीतिक तरीकों से किसी उद्देश्य की प्राप्ति अंततः एक मरीचिका ही सिद्ध होती है।
दूसरी ओर कुछ ऐसे भ्रमित या स्वार्थी राजनीतिवादी भी हैं, जिनकी निष्ठा न तो राष्ट्र और न राष्ट्रवाद में होती है और जो मूलतः अवसरवादी भर होते हैं। इसके विस्तार में जाना अनावश्यक है। ऐसे लोगों के कुछ उदाहरण राजनीति में अक्सर दिखाई देते हैं। 
इसलिए भी राष्ट्र को उन पुरोहितों की हमेशा ही अत्यंत आवश्यकता है, जो राष्ट्र के जनमानस को सतत जागृत रखें, जागृत करते रहें। 'इलेक्ट्रॉनिक मीडिया' को भी चाहिए कि वह भी ऐसा पुरोहित हो।         
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Wednesday, 15 May 2019

अज्ञेयवाद / agnosticism

लापतागंज / अज्ञेयवाद और वैचारिक सत्य
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... इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी विषय की वैचारिक स्मृति उसका 'भाषागत निरूपण' है और यह स्मृति अर्थात् भाषागत 'जानकारी' कितनी भी व्याकरणसम्मत भी क्यों न हो, केवल एक मानसिक शब्द-प्रतिमा है जिसका जो भी तात्पर्य ग्रहण किया जाता हो, भाषा के अंतर्गत पुनः केवल सुगठित या अपेक्षाकृत कम सुगठित शाब्दिक संरचना भर होता है।  जैसे कोई गणितीय विवेचना या कंप्यूटर पर प्रयोग किए जानेवाला लिखित 'प्रोग्राम' होता है । उस लिखित 'कोड' को पढ़कर कोई जानकार 'डिकोड' कर सकता है और 'प्रोग्राम' / 'ऐप' का उपयोगकर्ता अपना कोई प्रयोजन तो सिद्ध कर सकता है किन्तु 'कोडिंग'-'डिकोडिंग' से उसका कोई लेना-देना नहीं होता।  इस प्रकार 'जानकारी-युक्त' ज्ञान भी पुनः सार्थक या सप्रयोजन हो सकता है।  जब यह केवल सप्रयोजन होता है; - जैसे कि 'ऐप' या प्रोग्राम के सन्दर्भ में, तो उसके विस्तृत 'अर्थ' का कोई विशेष मतलब नहीं होता, और जब विस्तृत बारीकी से इसकी रचना महत्वपूर्ण होती है; - जैसे कि 'प्रोग्रामर' के लिए होती है तब 'प्रयोजन' बिलकुल भिन्न होता है।
इसलिए ऐसा ज्ञान मूलतः और अंततः परिणाम की दृष्टि से भी ज्ञान का भ्रम होता है, लेकिन व्यवहार में उसे ज्ञान ही कहा जाता है। दूसरी ओर, ऐसे तथाकथित 'ज्ञान' या  'अज्ञान' (नामक इसके अभाव) का भान / बोध यद्यपि निःशब्द होता है जहाँ वस्तुतः 'कुछ भी' नहीं जाना जाता, लेकिन कोई 'जाननेवाला' वहाँ अकाट्य रूप से मौजूद है जिसे 'वैचारिक सत्य' की तरह न तो व्यक्त किया जा सकता है और न वह वैसा कोई 'वैचारिक सत्य' है, जिसका उपयोग साहित्य, कला, गणित, दर्शन-शास्त्र, विज्ञान या तकनीक (technology) आदि में  होता है। और वह न तो भावना का, बुद्धि का, अनुभव का या स्मृति का विषय हो सकता है। लेकिन यह कहना भी त्रुटिपूर्ण है कि उसे 'जाना 'नहीं जा सकता। जिस बोध / भान (awareness) में उसे जाना जाता है वह बोध / भान (awareness) ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय के विभाजन से रहित होने से वास्तव में उसे अपने से भिन्न किसी दूसरी वस्तु की तरह वैसे नहीं जाना जा सकता जैसे किसी प्रकार के लौकिक ज्ञान को जाना जाता है, जहाँ ऐसा विभाजन अवश्य होता है।  इसलिए निष्कर्ष के रूप में 'अज्ञेयवाद' भी वैसा ही भ्रम है जैसा कि आस्तिकता या नास्तिकता की मान्यता / विश्वास / सिद्धांत।
अस्तित्व, जीवन या वज़ूद कभी ज्ञान / अज्ञान का विषय नहीं होता। इसलिए 'अज्ञेयवाद' अपने-आप में एक अर्थहीन शब्द है।
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Tuesday, 14 May 2019

... और ’भ्रम’ का ज्ञान

दिनांक 19-07-2018 के बाद किसी दिन 'कुछ भी' शीर्षक से यह कविता लिखी थी।
आज जब पिछले पोस्ट 'ज्ञान का भ्रम' के सन्दर्भ में नया पोस्ट '... और ’भ्रम’ का ज्ञान' लिखा तो इस कविता पर ध्यान गया जिसके बाद यह पोस्ट लिखा गया।
ऐसा लग रहा है कि यह पोस्ट इस कविता के सन्दर्भ में भी सार्थक है।
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[कुछ भी !
डगर बहुत कठिन पनघट की,
प्यास बड़ी गहरी पर घट की,
एक घड़ा मिट्टी का बना,
मन-प्राणों का दूजा बना,
बाहर की प्यास पानी से बुझे,
भीतर की कौन बुझाए, बूझे?
रह रह उठती-बुझती प्यास,
पानी की बस वह झूठी आस,
पानी धरती पर चारों ओर,
जिसका कहीं ओर ना छोर,
भीतर शुष्क हृदय मन-गात,
मृत्यु जीवन को देती मात !]
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... और ’भ्रम’ का ज्ञान
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मनुष्य ही नहीं प्रत्येक प्राणी के पास किसी घटना की उसके दृश्य-श्रव्य रूप में, भावना या अनुभव के रूप में जानकारी होती है । चूँकि प्रत्येक छोटा-बड़ा पिंड अर्थात् जड-चेतन प्रकार की कोई भी छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी वस्तु भी प्राण से ओत-प्रोत होती है, भले ही ही यह प्राण अव्यक्त,  अनभिव्यक्त या प्रकट रूप में हो, और प्राण स्वयं ऊर्जा की अस्थिर आकृति में होनेवाली गतिविधि है, इसलिए प्राण और अस्तित्व परस्पर एक ही अनन्य और अभिन्न तत्व है । इस प्रकार प्रत्येक प्राणी के पास ’जानकारी’ के रूप में स्थैतिक और गतिशील स्मृति होती है जो उसे निरंतर सक्रिय रखती है । मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में यह अधिक स्पष्ट रूप से होता है । मनुष्य के विषय में ’भाषा’ नामक साधन उसे किसी स्मृति को शब्द-बद्ध कर वैचारिक-स्मृति में रूपान्तरित करने में सहायक होता है । इस प्रकार से ’वैचारिक-स्मृति’ का उद्भव और विकास होता है । यह ’वैचारिक-स्मृति’ ज्ञान नहीं, ज्ञान का आभास मात्र होता है क्योंकि किसी भी ’विचार’ का ’तात्पर्य’ हर मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न हो सकता है ।
इस प्रकार ’वैचारिक-स्मृति’ /memory in terms of thought इन्द्रियगम्य / sensory, भावगम्य / sentimental, emotional, in feeling, तथा अनुभवगम्य / experiential जानकारी को ’बुद्धिगम्य’ रूप / intellectual-form देकर ’निष्कर्ष’ / inference के संग्रह में बदल देती है ।
इस प्रकार की बौद्धिक जानकारी / intellectual information उस बोध / realization से बहुत भिन्न है जो बोध / भान / revelation की तरह इन्द्रियगम्य, भावगम्य तथा अनुभवगम्य ज्ञान से भी पूर्व, उस ज्ञान से अप्रभावित तथा अछूता होता है । यह निर्विशेष बोध / भान / non-specific revelation / realization वह स्थिर अचल पृष्ठभूमि है जो इन्द्रियगम्य, भावगम्य तथा अनुभवगम्य रूप में प्रत्यक्षतः directly अवगम्य / cognizable नहीं है । और यद्यपि इसका परोक्ष / indirect अनुमान / guess बुद्धि से अवश्य किया जा सकता है, जो अपरोक्ष अनुभूति / Immediate, Instant and Direct Realization नहीं हो सकता ।
’अनुभूति’ / experience (becoming) का अर्थ ही है ’भूति’ / being के बाद उसके अनुसार होनेवाला प्रत्यय / revelation । ’भूति’ का उद्भव / emergence और लय / dissolution होता है ।
इस प्रकार ’अनुभूति’ / experience (becoming) भी एक तात्कालिक तत्व हुआ । जानकारी-रूपी ज्ञान, -ज्ञान अर्थात् बोध / भान नहीं, ज्ञान का आभास या भ्रम है । यह भ्रम भी किसी काल में व्यक्त होकर पुनः मिट जाया करता है । ’काल’ की अवधारणा भी पुनः ऐसा ही एक भ्रम है इसलिए ’अस्तित्व’ को अनादि या अनंत कहना भी औपचारिक वक्तव्य अर्थात् ’वैचारिक सत्य’ / abstract notion भर है । ’काल’ तथा ’स्थान’ परस्पर अभिन्न हैं क्योंकि ऐसा कोई ’काल’ नहीं जहाँ ’स्थान’ न हो, और ऐसा कोई ’स्थान’ नहीं जो ’काल’ से रहित हो । इसलिए अस्तित्व में अपने होने का ’वैचारिक सत्य’ / abstract notion भी औपचारिक सत्य / formal truth है ।
और चूँकि विचार के अभाव में अपने-आपको परिभाषित तक नहीं किया जा सकता, तो ’संसार’ और जिसका ’संसार’ है, ऐसे किसी स्वतन्त्र ’मैं’ की कल्पना तक कैसे की जा सकती है?
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Monday, 13 May 2019

ज्ञान का भ्रम

युद्ध क्यों समाप्त नहीं होते ? 
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11 मई 2019 को अपने hindi-ka-blog में एक पोस्ट लिखा था, जिसमें से कुछ अंश यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ:
"... किसी व्यक्ति / वस्तु के 'नाम' से हम उस व्यक्ति / वस्तु के बारे में (व्यावहारिक रूप से काफी हद तक) सुनिश्चित रूप से यह जान जाते हैं कि उसका स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि (क्या) है, क्या उस व्यक्ति / वस्तु को 'दिए गए' ईश्वर, अल्लाह, God या ख़ुदा, भगवान, जैसे किसी 'नाम' से उस सत्ता, व्यक्ति / वस्तु के स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि के बारे में हमें ऐसा कोई ठोस, सुनिश्चित, (और भौतिक) प्रमाण / निष्कर्ष प्राप्त होता है, जिस पर सब परस्पर सहमत हो सकें? "
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" ... किसी 'सत्य' (या असत्य) को यद्यपि 'विचार' में ढाला जा सकता है, किन्तु (ऐसा) वैचारिक सत्य / असत्य व्यवहार के स्तर पर हमेशा अपूर्ण, आधा-अधूरा ही होता है क्योंकि इसकी व्याख्या (और मतलब) हर कोई अपने तरीके से तय करता है; - और तब उसे भ्रम हो जाता है, - या वह विश्वास कर बैठता है, कि (दूसरे भी) सभी उस (विचार या शब्द-समूह) का वही तात्पर्य ग्रहण करते हैं  जैसा कि वह सोचता है।"
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" ... क्या  'धर्म', 'सत्य', 'आत्मा', 'परमात्मा', 'हिन्दू' 'जाति', 'मुसलमान', 'यहूदी', 'ईसाई', 'भारतीय, 'रूसी', 'सभ्यता' 'संस्कृति', 'समाज', 'मन', ..... 'चीनी',  'कांग्रेसी', 'कम्युनिस्ट', 'नास्तिक' (atheist), 'आस्तिक' (theist), 'अज्ञेयवादी' (agnostic), 'संदेहवादी' (skeptic) आदि भी क्या ऐसे ही 'वैचारिक सत्य' / abstract notions नहीं हैं, जिनकी हर कोई अपने ढंग से व्याख्या तो कर सकता है, लेकिन जिनका कोई ठोस (भौतिक, इन्द्रियग्राह्य और बुद्धिग्राह्य)  सुनिश्चित स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि क्या है, इस बारे में न तो कोई ठीक-ठीक जानता है और न इसे समझा ही सकता है ?"
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किन्तु ऐसे ही अनेक 'वैचारिक सत्य' / abstract notions फिर भी मनुष्य को अनेक कल्पित समुदायों / वर्गों में बाँटकर विभाजित और विखंडित कर देते हैं, और हर मनुष्य अलग-अलग समय में ऐसे परस्पर विसंगत अलग अलग समुदाय से जुड़े होने का, उसके प्रति 'समर्पित' होने का दावा और आग्रह भी करता है।
उदाहरण के लिए मैं 'कम्युनिस्ट' हो सकता हूँ, साथ-ही साथ कट्टर हिन्दू या मुसलमान या बौद्ध या ईसाई भी हो सकता हूँ। 'हिन्दू' होते हुए भी मैं 'मूर्तिपूजक' या 'मूर्तिपूजा का विरोधी' हो सकता हूँ।  मैं स्त्री-स्वतंत्रता का समर्थक या विरोधी हो सकता हूँ और पुनः स्त्री-स्वतंत्रता की मेरी अपनी व्याख्या और तात्पर्य है, जो औरों से बहुत अलग है। 'धर्म' या 'धर्म-निरपेक्षता' की मेरी अपनी व्याख्या और तात्पर्य है जो औरों से बहुत अलग है।
क्या ऐसे संसार में रहते हुए हम कभी परस्पर सौहार्द्र और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना के साथ सरलता से एक साथ रहने की कल्पना कर सकते हैं ?
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Sunday, 12 May 2019

The occupied mind.

How to overcome hate and anger?
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Big / tough question indeed!
First of all, let us see why we hate and develop anger?
Isn't the hatred and the anger two faces of the same truth?
And isn't fear / apprehension of the past experience, again another angle of the same fact which we call hate and anger?
We think there is a past.
And we keep accumulating anger / hatred / fear / apprehension because of the things that happen to us all the time.
Let us not say anger is bad and we should not become prey to anger. That means we shouldn't hate.
But still the anger is there all the time, because there is fear / apprehension that the past could repeat again and again.
So the cycle continues.
But look at this, -this way.
Usually every person is dominated by the accumulated fear, anger, apprehension and sorrow / misery of failures in life and the things one always wanted to have and the life simply denied all or a few of them. There are also some pleasures that come our way quite unexpected and then we feel somewhat relaxed for a short-while. Though that serves as a consolation-prize, if any.
Why we feel insecure?
Isn't life insecure every moment.
Anything untoward can happen to any-one any moment.
Yet every-one is cocooned in one's own petty fears, sorrows, anguish and when it becomes unbearable one feels depressed.
Depression too is the inverted state of anger only. Anger is the heightened state of tension, Depression is a deep plummeting.
But could we understand that all these states are phases of mind that come for a time and then just go away, leaving without a trace?
If you flow with and identify yourself with the mind in terms of the thought :
"This is happening with / to me."
Then this thought is again a phase like those many which come and go away.
Yesterday I was saying of something about 'attention'.
If we give attention to the phases of mind and keep calm without thinking of dealing with them in any way, without being distressed, (for example we can divert our attention away from them and think of something else, like the thousand things reading, eating, listening to music or viewing TV, playing a game on video or in a court),  .... and just watch very silently what is going on in the mind, perhaps we could sense something altogether new.
In a split second you can transcend the whole mind itself.
All good, bad and the usual things happen to every-one and all, at different times.
And no one is spared or 'secure', 'safe' in the strict sense.
Ultimately we all say; -'there is death'.
But isn't death too a thought only?
But we fear death (or sometimes anticipate too). Because we tend to think death will make us free from all the troubles that we have to endure in life.
This way we just vegetate and the life passes by.
I feel, all the while we keep seeking solutions and answers to the imaginary, even hypothetical problems that we are surrounded by.
And it is because our attention is focused on the thought of those things.
Yet there are far more serious, genuine and real problems in life that wait us while we sulk and indulge in worrying of those many imaginary hypothetical things.
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Love!