Friday, 5 September 2025

The Divinity and The Divine.

देवता और ईश्वर

ईश्वर देवता है, किन्तु देवता ईश्वर की सीमित अभिव्यक्ति मात्र है। इसलिए देवता अनेक हो सकते हैं क्योंकि ईश्वर यद्यपि किसी भी नाम रूप और आकृति में अभिव्यक्त हो सकता है किन्तु ऐसे विभिन्न नाम रूप और आकृतियों के शक्ति और सामर्थ्य की मर्यादा होती है और उन विभिन्न नाम रूपों तथा आकृतियों में अभिव्यक्त ईश्वर / दिव्यता उस मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। सनातन ईश्वर / धर्म की यही वैदिक मर्यादा है। हर और प्रत्येक आकृति उसी ईश्वर की नाम रूप, शक्ति और सामर्थ्य की अभिव्यक्ति है, इसलिए ईश्वर को एकमेव या अनेक कहना भी उसकी महिमा से अनभिज्ञता ही है। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि एक अथवा अनेक होना भी ईश्वर की अभिव्यक्ति के भिन्न भिन्न प्रकार मात्र हैं न कि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप। सामान्यतः मनुष्य की बुद्धि यह नहीं समझ पाती है कि विभिन्न नामों, रूपों और आकृतियों में भिन्न भिन्न की तरह से अभिव्यक्त और प्रतीत होनेवाला अस्तित्व 'एक' अथवा 'अनेक' की तरह से संख्या विशेष का प्रकार और गणना का आधार है जिसकी तात्कालिक उपयोगिता तो है, किन्तु इस प्रकार से जिस आधार को स्वीकार किया जाता है, उस 'एक' या 'अनेक' संख्या की सत्यता वैचारिक मूल्यांकन के अतिरिक्त और किस रूप में हो सकती है। क्या अस्तित्व ही नाम रूप और आकृति से स्वतंत्र वह ईश्वर नहीं है जो नाम रूप और आकृति की तरह से साकार होने पर भी उनसे स्वतंत्र और अभिन्न भी है और इसलिए वह निराकार भी अवश्य है। किन्तु जैसे ही स्वयं को एक चेतन अस्तित्व की तरह किसी नाम रूप और आकृति सहित सीमित शक्ति और सामर्थ्य से युक्त और समष्टि अस्तित्व से पृथक की तरह मान्य कर लिया जाता है तो उस समष्टि अस्तित्व को ईश्वर की संज्ञा प्रदान कर दी जाती है जो यद्यपि साकार तथा निराकार भी है, फिर भी जिसके 'एक' या 'अनेक' के रूप में होने के बारे में भिन्न भिन्न कल्पनाएँ की जाती हैं। और फिर उसे ही भिन्न भिन्न 'देवता' नामक सीमित शक्ति और सामर्थ्य से युक्त भिन्न भिन्न उपाधियों से चिह्नित कर भिन्न भिन्न नाम प्रदान किए जाते हैं। यद्यपि यह केवल औपचारिक रूप से भी सत्य हो सकता है और काल्पनिक मान्यता भर भी हो सकता है, किन्तु जब व्यावहारिक दृष्टि से उसी तरह से तात्कालिक रूप से उपयोगी भी पाया जाता है जैसा कि 'एक' और 'अनेक' की मान्यता के आधार पर किया जानेवाला वैचारिक मूल्यांकन, तो 'देवता' के रूप में उस वह स्वरूप अस्तित्व ग्रहण करता है, जिसकी उपासना से लौकिक प्रयोजन सिद्ध किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए पञ्च महाभूत - भूमि / पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। किसी भी तरह के स्वयं के अपने आपके  पृथक सीमित साकार शक्ति और सामर्थ्य से युक्त स्वतंत्र प्रतीत होनेवाले व्यक्ति-विशेष का अस्तित्व क्या इन्हीं पञ्च महाभूतों पर आश्रित और अवलंबित नहीं है? और क्या इन पञ्च महाभूतों के अस्तित्व पर संदेह तक किया जा सकता है? प्रश्न केवल उनसे संवाद की संभावना का है। इन पञ्च महाभूतों के प्रति कृतज्ञता की भावना होने पर उन्हें ही साकार / निराकार ईश्वर या देवता की तरह से भी मान्य किया जा सकता है। यद्यपि उनकी सहायता से अनेक कार्य संपन्न और सिद्ध होते हैं और फिर भी उनके प्रति अनुग्रह और कृतज्ञता की भावना मन में नहीं हो तो क्या इसे कृतघ्नता ही नहीं कहा जाना चाहिए?

जिसे 'एक' या 'अनेक', साकार या निराकार 'ईश्वर' की तरह मान्य किया जाता है, क्या वह 'ईश्वर' ही इन पाँचों के रूप में संपूर्ण और समस्त, समष्टि जीवन का आधार और आश्रय भी नहीं है? यदि उसे इन पाँच प्रकारों में इन विभिन्न और विशिष्ट प्रकारों में स्वीकार कर उनसे संपर्क करने का प्रयास किया जाता है तो क्या यह अवैज्ञानिक होगा? क्योंकि विज्ञान प्रयोग और अन्वेषण के माध्यम से अनुभव और ज्ञान प्राप्त करने और उसका उपयोग करने का ही तरीका है। ईश्वर या प्रकृति के रूप में अभिव्यक्त अस्तित्व के मूल तत्वों को विज्ञान के माध्यम से जानने पर ही जब जीवन इतना अधिक सुखपूर्ण हो सकता है, तो क्या उनसे चेतना के आयाम में संपर्क करने पर और भी अधिक और श्रेयस्कर लाभ न होगा? वैदिक ऋषि ऐसे ही आध्यात्मिक वैज्ञानिक हैं जो वैदिक सिद्धान्तों का अन्वेषण, आविष्कार और ज्ञान प्राप्त करते हैं और उसी ज्ञान को मनुष्यमात्र के लिए उपलब्ध करने के प्रयास में संलग्न रहते हैं।

यंत्र, मंत्र, तंत्र, यज्ञ आदि की विभिन्न प्रणालियाँ, सांख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त आदि दर्शन इसी वैज्ञानिक परंपरा और ज्ञान का समृद्ध आधार और अक्षुण्ण भंडार हैं।

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