Thursday, 22 December 2022

चेतना के ध्रुव

एक-ध्रुवीय, द्वि-ध्रुवीय और त्रि-ध्रुवीय चेतना

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समस्त सांसारिक अनुभव तथा ज्ञान के अर्थ में चेतना सदैव एक द्वि-ध्रुवीय वास्तविकता है। जहाँ और जब भी चेतना का कार्य या गतिविधि किसी अनुभव, या ज्ञान के रूप में घटित होती है, तब वहाँ अपरिहार्यतः कोई न कोई विषय होता है और विषय तथा विषयी के मध्य का प्रसंग वृत्ति के रूप में पाया और देखा जाता है। विषय स्वयं जड होता है, जिसका स्वतंत्र अस्तित्व है,  यह संदेहास्पद है, जिसे न तो सिद्ध किया जा सकता है और न ही असिद्ध किया जा सकता है,  - शायद यह प्रश्न ही त्रुटिपूर्ण है। इसकी तुलना में जिस विषयी (चेतन) के प्रकाश में विषय (जड) वास्तविकता ग्रहण करता हुआ प्रतीत होता है, उसका अस्तित्व अकाट्यतः और निर्विवादतः स्वतंत्र है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चेतन (विषयी) और जड (विषय) एक ही चेतना के दो पक्ष हैं, क्योंकि अभी यह कहना जल्दबाजी ही होगा कि क्या किसी विषय के अभाव में चेतन (विषयी) का अस्तित्व संभव है! किन्तु यह तो कहा जा सकता है कि विषय (जड) और विषयी (चेतन) जिस चेतना में अस्त्तित्वमान होते हैं (या होते हुए प्रतीत होते हैं) वह आधारभूत अधिष्ठान / आधार नित्य, और सदैव एकरस विशुद्ध और अखंड वास्तविकता है। यद्यपि इस विवेचना में उसे 'वह' कहना भी त्रुटिपूर्ण है, किन्तु तात्कालिक  और प्रयोजन की दृष्टि से इसका उपयोग है ही।

विषय-विषयी का संबंध ही मन है यही व्यक्तिगत अस्तित्व भी है क्योंकि मन सदैव और आवश्यक रूप से विषयी-केन्द्रित होता है । इस व्यक्तिगत विषयी का उल्लेख प्रत्येक मनुष्य "मैं" शब्द से करता है। इसकी तुलना में विषयमात्र का उल्लेख 'यह', 'वह' आदि शब्दों से किया जाता है। विषयी सदैव चेतन / 'मैं' है, और 'मैं' का उल्लेख 'यह' या 'वह' शब्द से नहीं किया जा सकता। इस प्रकार अपने अस्तित्व को 'मैं' के रूप में जानना अनायास होता है, और यह जानना ही चेतना है। इसलिए जानना चेतना है, जबकि 'मैं' चेतन। जैसे ही 'मैं जानता हूँ' कहा जाता है, तो तुरन्त ही विरोधाभास पैदा होता है। इसलिए एक जानना वह है जिसमें जाननेवाला (ज्ञाता) और जाना हुआ (ज्ञेय) सत्य परस्पर अभिन्न होते हैं, जबकि एक जानना वह है जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय दो भिन्न वस्तुएँ होती हैं। इस दूसरे प्रकार के जानने में ज्ञाता -जाननेवाला ही चेतन है, जबकि पहलेवाले जानने में ज्ञाता शुद्ध चेतना है।

फिर 'विचार' क्या है?  क्या विषय और विषयी किसी एक या दोनों के अभाव में 'विचार' का अस्तित्व संभव है? 'विचार' पुनः शाब्दिक, भावनात्मक, स्मृति या कल्पना के रूप में हो सकता है। किन्तु है तो यह किसी न किसी स्थूल या सूक्ष्म विषय और चेतन के बीच होनेवाली कोई प्रक्रिया ही। इस वैचारिक प्रक्रिया के होते समय विषय और विषयी दूध और पानी की तरह एक दूसरे से मिले हुए से हो जाते हैं, और जैसे ही वैचारिक प्रक्रिया का विषय बदलता है, विषयी तत्क्षण ही किसी दूसरे विषय से एकात्म हो जाता है। फिर भी उसे भूल से भी इस बारे में कभी संशय तक नहीं होता कि उसका अस्तित्व सतत है। विभिन्न और विविध विषयों के विचार स्वरूपतः एक शाब्दिक, भावनात्मक या धारणात्मक अनुभव या स्मृति ही होते हैं, जिनके पुनः होने की कल्पना ही 'भविष्य' है। यही मन, समग्र मन, सामूहिक मन या सामूहिक चेतना है, इसलिए समस्त ज्ञान बीजरूप में सब में और प्रत्येक में ही विद्यमान होता है, और अपने व्यक्तिगत 'मैं' का विचार केवल वैचारिक भ्रम है।

 चेतना इसलिए सार्वत्रिक, सार्वकालिक सत्य है, यद्यपि सर्वत्र (स्थान) काल (समय) भी चेतना की ही अभिव्यक्ति मात्र हैं।

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शब्द-कुँजी (हिन्दी-अंगरेजी) 

चेतना - consciousness

चेतन - sentient / conscious, 

जड - insencient

शुद्ध चेतना - pure consciousness, 

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Tuesday, 20 December 2022

सरलता, विनम्रता और कुटिलता

ज्ञान का दम्भ और दम्भ का ज्ञान!!

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विप्रतिषेधे परं कार्यं... 




कुछ और नये संकेत

विप्रतिषेधे परं कार्यम्।।

(अष्टाध्यायी १/४/२)

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तुल्यबलविरोधे(*१) परं कार्यं स्यात। इति लोपे प्राप्ते पूर्वत्रासिद्धमिति।

रोरीत्यस्यासिद्धत्वादुत्वमेव(*२)। मनोरथः।।

(ढ्रलोपेपूर्वस्य दीर्घोऽणः ६/३/१११)

*१ अत्रपूर्वग्रहणमुत्तरपदाधिकारनिवृत्त्यर्थमत एव व्यस्तप्रयोगं उदाहरति -- 'पुना रमते' इत्यादि 

*२ प्रकृते 'पुना रमते' इत्यत्र 'रो रि' ८/३/१४, इत्यस्य 'शिवो वन्द्यः' इत्यत्र 'हशि च' ६/१/११४ इत्यस्य लब्धावकाशतया 'मनोरथः' इत्येकस्मिँलक्ष्ये द्वयोः प्राप्तिरतो विप्रतिषेधः।। इस प्रकार इस सूत्र में कहीं कोई विसंगति या विरोधाभास तक नहीं है। ऋषि राजपोपट ने 'गुरुणा' (*३) पद की सिद्धि के लिए इस सूत्र को मनमाने तरीके से तोड़मरोड़कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि उसने 2500 वर्ष पुरानी समस्या का हल खोज लिया है! और स्पष्ट है कि यह सब इसलिए किया गया है कि पाणिनी, कात्यायन और पतञ्जलि के द्वारा की गई विवेचना त्रुटिपूर्ण है यह प्रतीत हो।

*३ इसी प्रकार से 'गुरुणा' पद की सिद्धि के लिए :

"स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम् भिस् ङे ..." ४/१/२ का प्रयोग पूरी तरह से अनावश्यक है। इस प्रकार से अनावश्यक विवाद पैदा करना इनके उद्देश्य को दर्शाता है। और इस पद 'गुरुणा' की सिद्धि में "विप्रतिषेधे परं कार्यं" लागू ही नहीं होता। 

यह सिद्ध करने के लिए बहुत सी बातें लिखी जा सकती हैं, कि किस प्रकार से यह सब एक षड्यन्त्र के तहत किया जा रहा है। 

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Thursday, 15 December 2022

पूर्वत्रासिद्धम्

मुनित्रय-प्रामाण्यम् 

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ऋषिराज पोपट नामक पी. एच. डी. संस्कृत के रिसर्च स्कॉलर हैं, जिन्होंने पाणिनी के अष्टाध्यायी के सूत्र :

८/२/१ -- पूर्वत्रासिद्धम् 

का नया तात्पर्य खोजा है। 

अभी तक यह माना जाता था कि इस सूत्र के अनुसार मुनित्रय अर्थात् पाणिनी, कात्यायन और पतञ्जलि के द्वारा प्रतिपादित नियमों में से किसके नियम को ग्रहण किया जाना उचित होगा, यह संदेह उठने पर बाद में हुए मुनि के द्वारा प्रतिपादित नियम को ही ग्रहण किया जाए, अर्थात् पहले हुए मुनि के नियम को बाद में हुए मुनि के संबंध में असिद्ध मानना चाहिए। 

किन्तु ऋषिराज पोपट की खोज के अनुसार इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि जब किसी समास शब्द की व्युत्पत्ति करते समय दो भिन्न नियमों में से किसी एक को चुनने का प्रश्न हो, तो पाणिनी के द्वारा रचित अष्टाध्यायी के उपरोक्त सूत्र ८/२/१ का अर्थ यह ग्रहण करना उचित होगा कि पूर्वत्र -- पहले के शब्द से संबंधित नियम को, बाद के शब्द से संबंधित नियम के प्रति असिद्ध माना जाए।

[अस्वीकृति / Disclaimer :

पता नहीं यह कहाँ तक ठीक है!

केवल अपने रेकॉर्ड के लिए यहाँ नोट और पोस्ट कर रहा हूँ!]

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Monday, 21 November 2022

Everything.

Everything Is Made Up Of.....

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P O E T R Y / 22-11-2022

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Everything Is Essentially,

Made Up Of Everything,

Because Everything Is,

Made Up Of Matter.

Though The Matter Is,

Made Up Of The Five,

Fundamental Elements.

Just As, 

Thinking Of Anything, 

Is Made Up Of Thought. 

And Conversely As Well, 

The Thought Is,

Made Up Of Thinking.

But The Consciousness Is, 

Not Made Up Of,

Or From Anything, 

Whatever Or What-so-ever!

Everything,  That Is Made Up, 

Is the Consequence Of,

An Action And  Reaction, 

But The Consciousness Is, 

Neither The Action, 

Nor The Reaction. 

And Though It, 

Neither Causes, Creates,

Sustains Nor Destroys Anything,

It Remains In The Abeyance.

Ever So Conspicuous,

Ever So Resplendent!

One Who Knows This, 

Everything Indeed,

Everything Emerges From One, 

Everything Submerges Into One.

Everything Remerges From One,

Yet Consciousness Stays Alone. 

Immutable, Inimitable,

Innocuous, Innocent.

One Who Knows It, 

Is Verily Itself Alone!

One Who Is Itself, 

Knows It Alone. 

But the Thought,

That Emerges In, 

An Organism,

Declaring Oneself As

The Sole Independent Owner, 

And The Only Lord Of,

Everything That Is  Everything!

Causes The Illusion, 

That Is But The Light,

Of Consciousness Alone.

And Though Everything Is Essentially,

Made Up Of Everything, 

Consciousness Alone Is,

The Ground and Foundation,

Where-in And Where-upon, 

Everything Assumes Existence. 

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Wednesday, 9 November 2022

Mr.H.C.Joshi / ह.चिं.जोशी / ha.ciṃ.jośī

~~~ हरेश्वर चिन्तामणि जोशी ~~~
प. रेकॉर्ड नं. No  1/1
25-3-73
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A Date with Destiny.
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On that fateful day in the year 1992, I was lying on the bed.
Half-asleep, in a trans-like dream, I was listening Him while He was delivering a 'Talk' :
(निरूपणें / nirūpaṇeṃ). Where? I couldn't say. Nevertheless, I had a strong sense I was connected with Him as if over phone. I could see Him before my mental eyes, present at His home, before His devotees, disciples and visitors known and unknown to Him, where  some cosmic network connected us together so as to happen this dialogue.
"Oh!" -said He.
I instantly and spontaneously recognized, had an inkling, as if my sixth sense might have told me, He was none other than the Master (Parama pujya Sat-guru Shri Nisargadatta Maharaj) Himself. Though in the dream I also had a firm and clear understanding that my physical body was somewhere lying on a bed and this dream was taking place despite my knowing where I am in the physical world or even on this astral plane. summarily; I was but aware of 'me' and Him as two cosmic presences only.
I wanted to check, if my guess was correct.
But I had no enough courage to ask directly.
So my curiosity took this turn. I asked :
"Had you ever lived in Mumbai?"
"Oh, for so long, almost a big part of my whole life."
"O.K.! Could you please tell me about some-one who you know to and who know to me as well?"
"Mr Ratnaparakhe, Mr.H.C.Joshi, (Mr.Joshi)".
Quick came the reply.
I already knew Mr. Ratnaparakhe, an elderly gentleman living at Ujjain, where I too was living at that time. But I couldn't remember the other 2 names. At that time I thought He, in His native Marathi of Mumbai had told me not one but two other names besides Mr. Ratnaparakhi.
Then He prompted me to ask something else.
I asked Him :
"Why I find connecting with women in general, rather difficult?"
"Did you yourself ever try to find out, what could be the reason behind it?"
At this very moment, our conversation all of a sudden was disrupted by an outside sound. The trans-like statewas broken and I found myself lying on the bed, awakened from my dream.
I was suffering from Malaria and was trying to rest.
After a few days when I had recovered from Malaria, I narrated my this 'experience' to my 'friends'.
I told them how Maharaj had referred to me the three names. One was Mr. Ratnaparakhi, while another was something like 'Misechky' and the last was "Mr.Joshi". I tried to find out but in vain, who might have been 'Misechky', Maharaj had talked about?
An year or two went by, when I happened to buy some Marathi books of Sri Nisargadatta Mahaaj.
One book was 'सदाचार / sadācāra' His (निरूपणें / nirūpaṇeṃ) on this title, -text of 'श्री शङ्कराचार्य / śrī śaṅkarācārya'. In the introductory pages I came to know how He had categorically admired one of His disciples named :  हरेश्वर चिन्तामणि जोशी /  hareśvara cintāmaṇi jośī / who had attained the state of "स्वरूपदर्शन" or the "Self-Realization'.
I knew then that at that time, He was living at Mumbai. I found out His residential address and started correspondence with Him. During this time I was busy in translating 'I AM THAT', and had almost completed the whole manuscript. I had first written the whole manuscript in pencil because repeated alteration and editing needed that I could 'erase' the part of the text again and again. Then I wrote / copied down  this whole text 'neatly' onto loose papers and filed them spiral-bound.
Then I wrote to Him about my endeavours.
He was very happy and only because of His personal efforts and blessings the same saw the light of the day.
Years later while I was talking with a friend, I referred to His name as I found there in His signature.
And suddenly I could see my error. 
Shri Nisargadatta Maharaj had in fact told me names of two persons only.
One of Mr.Ratnaparakhi, who happened to live at the same place Ujjain, where I was living at that time.
Another was "Mr.H.C.Joshi" which I mistook for "Misechky".
And it dawned on me, this "Mr.H.C.Joshi" was none other than ह.चिं.जोशी / ha.ciṃ.jośī, which sounded to me as "Misechky".
Later on I met Him several times.
He gave me the 'notes' He had taken while he attended talks with Shri Nisargadatta Maharaj. These 'notes' are in Marathi, took down during 1973.

Maybe someday I or someone else keeps the records straight!
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Sunday, 25 September 2022

सनातन धर्म त्रयी

क्या हिन्दू असहिष्णु है!?

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(निर्भयता, निर्वैर और उदारता की त्रयी) 

"क्या हिन्दुत्व / हिन्दू आतंकवादी हो सकता है?"

इस लेख का एक शीर्षक यह भी हो सकता है। 

आतंकवादी होना तो दूर की बात, हिन्दुत्व का एक दोष अवश्य ही यह भी है, कि जहाँ उसे असहिष्णु होना चाहिए, वहाँ भी वह असहिष्णु नहीं है।

पिछले दो पोस्ट्स को लिखते लिखते यह विचार मन में आया कि ऐसा क्यों है / हुआ है? क्या अपने सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्यों का निर्वाह करने में हमसे प्रमाद नहीं हुआ। प्रमाद का जैसा तात्पर्य है, यह लापरवाही का ही पर्याय है और लापरवाही जानबूझकर भी की जा सकती है, या अपने दायित्व की उपेक्षा किए जाने से भी हो सकती है।

मूलतः सनातन धर्म का ही एक व्यावहारिक प्रकार होने से हिन्दू धर्म और संस्कृति, सभ्यता में और परंपरा में उदारता सहिष्णुता अन्तर्निहित तत्व ही है। इसीलिए सनातन धर्म किसी अन्य पंथ या मत आदि का विरोध तक नहीं करता, फिर बलपूर्वक उस पर अपने आदर्श, मूल्य थोपने की तो कल्पना कर पाना तक उसके लिए असंभव है। हिन्दू धर्म के रूप में प्रचलित सनातन धर्म की यही विशेषता हिन्दू धर्म की एक बहुत बड़ी कमजोरी हो जाती है। और इस पर सहसा किसी का ध्यान तक नहीं जाता।

सनातन धर्म से उत्पन्न हिन्दू धर्म में इसलिए उदारता जन्म-जात ही है और इसीलिए हिन्दू धर्म और परंपरा, हिन्दुत्व आक्रामक परंपराओं के निहित ध्येयों के प्रति असावधान होता है। यही तो सनातन धर्म का अर्थात् हिन्दू धर्म का अब तक का दुर्भाग्यपूर्ण और दुःखद इतिहास रहा है।

इसी आधार पर इस पर ध्यान देना आवश्यक है कि हिन्दू धर्म, संस्कृति, सभ्यता, और परंपरा को जहाँ सावधान रहना चाहिए था, वहाँ पर भी सावधानी रखने की बजाय लापरवाही से काम लिया गया। और जहाँ हिन्दू समाज को अपनी अस्मिता, गरिमा, स्वाभिमान और अस्तित्व की रक्षा के प्रति सतर्क होना चाहिए था, उसने वहाँ पर भी प्रमादवश सहिष्णुता का व्यवहार किया। 

आज भी यही स्थिति है और हिन्दू धर्म, सभ्यता, संस्कृति और परंपरा से द्वेष करनेवाले अपने कुत्सित ध्येयों को पूर्ण करने के लिए हिन्दू धर्म के माननेवालों पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने की धृष्टता करने का दुःसाहस करने लगे हैं। 

हमारा यह प्रमाद ही है कि अपने बीच विद्यमान ऐसे दुष्ट लोगों को पहचान कर पाने तक में हम प्रमादवश ही भूल कर बैठते हैं, उनकी चिकनी चुपड़ी बातों से भ्रमित और मोहित भी हो जाया करते हैं। और कभी कभी तो हम उसे ही गौरवान्वित करने में प्रसन्नता भी अनुभव करने लगते हैं। क्योंकि हममें न तो राष्ट्रप्रेम की, न अपने धर्म, कर्तव्य और राष्ट्रीयता की ही पहचान है। अपने तात्कालिक क्षुद्र स्वार्थों और लाभों के लिए अपने दायित्व और कर्तव्यों को ताक पर रखने में हमें शर्म या हिचक तक नहीं होती है। यही तो हमारा एकमात्र दोष है!

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Saturday, 24 September 2022

।। ॐ सह नाववतु ।।

।। मा विद्विषावहै ।। 

वैदिक शान्तिपाठ का एक मन्त्र है :

ॐ सहनाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

The above Vaidik Hymn is sankalpa-Hymn. 

"Hymn" and "Amn" come from :

संस्कृत -- हि + म्न, आ + म्न,

(√म्ना - अभ्यासे, मनति) 

Where 'hi' / 'हि' is a prefix emphatic, 'A' / 'आ' is also a prefix denoting wholeness or entirety.

'mna' / '√म्ना' is a verb-root, implying thinking or meditating about.

The word 'think' itself is a generative of the word 'Theo', 'Theory', "Tao", and the artical 'the', from संस्कृत 'धी'. 

(This has been dealt with in my the previous post in this blog ).

This way, the above hymn ends in :

"मा विद्विषावहै।।"

The inspiration behind this is a wish and a feeling, a sentiment and a sense that means :

"May we not be jealous, may not breed envy or hatred, with one-another."

That is the key-word, the spirit behind the two words --

निर्भयता (fearlessness) and 

निर्वैर (with no enmity / hostility towards any of the living beings). 

For the Veda declares :

This all is verily Brahman ब्रह्म only, A unique Whole, The existence devoid of differences any.

"सर्वं खल्विदं ब्रह्म / आत्मन्"

The differences spring up in the individual intellect (बुद्धि) that is again associated with the body-mind-me-notion.

Realizing this fundamental, core one-ness that is the same Self and the self-same self also, creates in us a spontaneous sense, that there is no other except the  Self / Brahman. 

Because of this realization that the 'other' has no existence what-so-ever; that there is nothing and no-one other than the Self, one becomes fearless, developes no jealousy / envy towards any, who appear other than one-self. Though the sense of this 'other' still persists at the phenomenal level, it is then seen only as superficial and formal.

This doctrine inculcated in us takes us to the higher level of consciousness, sensitivity and sensibility that is wisdom. 

You can then neither harm anyone else, nor anyone can harm to you, so you are fearless and cultivate no enmity towards any else. 

Having accomplished  निर्भयता / fearlessness, and निर्वैर / utter lack of enmity to anyone else, you are calm, complacent. You rejoice and all anxiety in you is no more. 

Sanatana Dharma therefore respects all and has no idea or desire to 'convert' others and bring them into the fold of this Dharma that is the core and essence of all real Dharma.

Hindu (Dharma) is but a synonym for this Sanatana Dharma.

Knowingly or unknowingly, deliberately or voluntarily, whenever one comes across this reality consciously, one at once understands and abides naturally in this Truth.

This Understanding itself is wisdom, and so many different people come to this and try to express the same truth in their own way, according to the society, people and tradition they live in. They have to talk about this in their own style, language and conditions, but the essence is the same and unique.

From the time immemorial, many an ancient people, civilizations and  cultures have come to this, for it is always the same, unique and immutable principle, unaffected by time.

The ancient Pagans knew it and revered this in their own traditional orthodox manner. But the next coming religions despiced at it through hatred and disdain.

In the passage of history, this started an era of long-lasting hatred, adamant, audacious, aggressive fanatism, unnecessary avoidable confrontations between various cults and religions, and unfortunately resulted in such great perils and sufferings for the whole world, which could not have been overcome so far, by us.

May we, with compassionate consideration and understanding care for the humanity at large and rediscover the essential truth, the Dharma!

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Friday, 23 September 2022

The Only Suffering.

 The Sanatana Dharma.

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-------------The Hindu.-----------

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Presently the entire world appears to have been polarised between the Hindu and the anti-Hindu.

Though this naming itself is erroneous and the only cause of all fear, misunderstanding and disbelief between the various and many ideologies that are in favour of or against the Hindu.

Hindu basically is the identity of the people, culture, the traditions and the religion of all those who live in India, who are born here, have their parents, the fore-fathers and the ancients who were born here, belong to this place through the DNA since distant past.

The very concept of "Religion" in Sanatana Dharma denotes peaceful co-existence of a multicultural society in harmony with many different and divergent beliefs and lifestyles.

Dharma basically the Sanatan Dharma has the dictum of

"अहिंसा परमो धर्मः"

as its very foundation, it is the underlying  principle.

This is again the very first in the five major sarvabhaum mahavrata-s (Sovereign duties)  maintained and pointed out in scriptures, to be followed by all and everyone irrespective of his or her beliefs or ideology.

Patanjal yoga refers to this as 'Yama' which should not be transgressed in any condition, by anyone.

But how to attain this "अहिंसा" in life, action  and in principle too! 

Sanatana Dharma points out two alternative  steps क्रम-विनिमेय चरण, to achieve this goal.

Just as while walking, one puts forward one foot, and stands firmly on the another, then stands firmly on that, puts forward another, and in this way walks on.

These two steps thus each one help the other and one can walk on, on the way. 

 This "अहिंसा" ; loosely translated as the non-violence, is walking like this on the two steps that are  अभय / निर्भयता - fearlessness, and निर्वैर  -  utter lack of enmity to all creatures.

These two steps help one-another and result in achieving the goal of "अहिंसा". This is kind of a  सिद्धि - supernatural power gained by one who has practiced, understood, attained this noble goal, walking upon the path of Dharma.

A Hindu is thus one who is neither scared, afraid and have no enmity with anything or  anyone.

This achievement is not a result of some belief or faith but is gained by one naturally,  when one realizes how all things happen in their own way and nothing and nobody can destroy or kill you. 

It is Yama or Dharma that brings you the life, birth and the good or bad experiences in your life.

जाति, आयु, भोग,

Determine and govern  everyone's life and death also.  Nothing could change this course of the Providence or the Destiny.

Having firmly realized this fact and settled in it, one is ultimately released from all the miseries. 

But the core question is :

How and why one comes across this trouble?The answer is : The ignorance of the truth of one's own timeless reality. That is again due to blind acceptance of the world and oneself, also, as it appears to one and the inattention to this ignorance.

This is truly a vicious circle, still if one is not afraid, has patience and has keen interest in  finding out what it (the phenomenal world, life and I) is all about, one can sure break it and attain the peace ultimate.  And that is the only release from all misery and sorrow.

But as soon a world is assumed to exist, and one who in this world as 'me', and these two in conflict with one-another, all the trouble starts.

The collective existence and taking oneself as a mere person causes imagination, fear and uncertainty holds. Then one identifies oneself with certain idea and ideology, still the doubt persists.

The history looks like a reality and everyone takes granted that he or she is subject to the conditions he or she was born in.

Then various many sects and cults spring up and one is caught in them. 

There is constant struggle and strife.

And then the fear and the enmity, faith and doubt and the uncertainty keeps lurking in the background.

That is what Sanatan Dharma hints at.

Calling it "Hindu" could either help us in getting rid of all this or could further make it difficult to overcome the present situation.

That is the core-truth of this matter behind the apparent war between the anti-Hindu and the "Hindu".

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Monday, 19 September 2022

शिक्षा की परंपरा

और परंपरा की शिक्षा

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मुण्डकोपनिषद् का प्रारंभ इस मंत्र से होता है;

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव 

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-

मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।

(प्रथम मुण्डक, प्रथम खण्ड)

उपरोक्त मंत्र आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों अर्थों का द्योतक है। सृष्टि का प्रारंभ करनेवाली शक्ति को कर्म तथा उस शक्ति को प्रेरित करनेवाली सत्ता को चेतना कहा जाता है। यह निर्वैयक्तिक चेतना ही देवताओं में सर्वप्रथम देवता ब्रह्मा है, जो प्रथम अभिव्यक्ति है। काल और बुद्धि का उद्भव भी इसी चेतना में होता है तथा पुनः उनका लय भी इसी चेतना में होता है जिसका अधिष्ठान काल और बुद्धि से अप्रभावित और परे है।

यही ब्रह्मा सृष्टिकर्त्ता के रूप में भगवान् विश्वकर्मा हैं। यही विष्णु के रूप में इस सृष्टि के परिरक्षणकर्ता और शंकर के रूप में पुनः संहारकर्ता भी हैं । समस्त सृष्टि अव्यक्त से व्यक्त होती है और व्यक्त से पुनः अव्यक्त  में लय हो जाती है। 

ब्रह्मा अर्थात् सृष्टिकर्त्ता में यह ब्रह्मविद्या बीजरूप में अव्यक्त और जगत् रूप में व्यक्त होती है। अव्यक्त से व्यक्त और पुनः व्यक्त से अव्यक्त होने के बीच में काल की कल्पना उसी अक्षर से उत्पन्न होती है -

अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापकः उच्यते। 

व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो। 

यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः।। 

(शिव-अथर्वशीर्ष)

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा-

थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।।

स भारद्वाजाय सत्यवहाय

प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।२।।

(मुण्डकोपनिषद् मुण्डक १, खण्ड १)

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ। 

कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।३।।

तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च ।।४।।

ब्रह्मविद जिस विद्या के बारे में कहते हैं उस विद्या को अपरा और परा इन दो रूपों में जाना जा सकता है। पुनः, उनमें से अपरा विद्या तो ऋग्वेद ... आदि हैं -

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।

और परा विद्या है, जिससे अपनी अव्यय, अविनाशी और अक्षर स्वरूप उस आत्मा को जाना जाता है --

अथ परा तदक्षरमधिगम्यते।।५।।

जो वह आत्मा सापेक्ष नहीं, निरपेक्ष है, इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, बुद्धिगम्य, तर्कगम्य और अनुभवगम्य भी नहीं है। उसका कोई गोत्र अथवा वर्ण आदि नहीं है, जो नेत्रों, कानों हाथ पैरों आदि से रहित है अर्थात् स्थूल या सूक्ष्म देह से रहित है। जो नित्य ही सर्वत्र विद्यमान सबमें ओत प्रोत, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, अव्यय है और समस्त भूतों का उद्भव जिससे होता है। धीर ही उस आत्मा को भलीभाँति देख पाते हैं। 

यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादम्। 

नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीरा।।६।।

इस ब्रह्मविद्या के क्रमशः दो प्रकार स्पष्ट किए गए हैं : 

अपरा और परा दोनों विद्याएँ ग्रन्थरूप में अथवा श्रवण (श्रुति) के माध्यम से प्राप्त हो सकती हैं। अपरा विद्या सांसारिक ज्ञान है, जबकि परा विद्या आत्म-ज्ञान ही है जो पुनः दो रूपों में हो सकता है। ब्रह्म के स्वरूप का बौद्धिक ज्ञान या चार महावाक्यों से सुसंगत अपने आपको उस ब्रह्म से एकमेवाद्वितीय, अनन्य और अभिन्न जानने-रूपी आत्म-ज्ञान। अर्थात् निज आत्मा का  अपरोक्ष ज्ञान।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १०,

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वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।

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कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय,

प्रथम वल्ली 

ॐ उशन्ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।।१।।

इससे स्पष्ट है कि गीता में जिस उशना को कवियों में प्रधान कहा गया, यह वाजश्रवा का पुत्र था। यही भार्गव अर्थात् महर्षि भृगु के वंश में उत्पन्न होने से भार्गव तथा उद्दालक का पुत्र होने से औद्दालकि भी था। भृगु अर्थात् दैत्यों के आचार्य शुक्राचार्य।

इस प्रकार कठोलिक (Catholic) का संबंध और मूल क्या है इसका संकेत कठोपनिषद् से मिल सकता है।

इसी तरह कापालिक (Cabal) का संबंध किसी दूसरी परंपरा से है। वर्णों की मातृका (matrix) के रूप में स्कन्द-पुराण से भी इसकी पुष्टि होती है। अक्षरसमाम्नाय से भी। 

नचिकेता और यम के संवाद पर आधारित कठोपनिषद् ही वह ग्रन्थ है जिसकी कथा का साम्य यीशू ख्रीश्त की कथा से किया जा सकता है।

वाल्मीकि रामायण में यमराज की पुत्री (मृ) के पुत्र का वर्णन है। अब्राहम और इस्माइल की कहानी भी इसी कथा के समानान्तर है ऐसा समझा जा सकता है। तात्पर्य यह कि इन दोनों पाश्चात्य परंपराओं में औपनिषदिक सत्य को देखा जा सकता है।

वाल्मीकि रामायण के ही उत्तरकाण्ड सर्ग 87 में वर्णित राजा इल के वृत्तान्त के परिप्रेक्ष्य में भी यह तथ्य दृष्टव्य है। 

महाप्रतापवान राजा 'इल' तीनों लोकों का एकमात्र ईश्वर है और यक्ष, गंधर्व, राक्षस, दैत्य सभी उसके शासन में रहते हुए उसकी कृपा प्राप्त करने के अभिलाषी हैं। कौन है यह महाप्रतापवान राजा 'इल'? यहाँ केवल संकेत दिया जा रहा है! 

इस पूरी भूमिका के उपरान्त ऐतिहासिक और औपनिषदिक यथार्थ की दृष्टि से शिक्षा की परंपरा और परंपरा की शिक्षा के बीच क्या संबंध हो सकता है इसे समझना आसान होगा।

अस्तु।

इसी क्रम में मेरे द्वारा पोस्ट किए गए आज के 5 ट्वीट्स के स्क्रीन-शॉट यहाँ प्रासंगिक होंगे ऐसा मुझे लगता है। 



 



 







Friday, 16 September 2022

अतीत, वर्तमान और भविष्य

स्मृति, विचार और संकल्प

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अतीत स्मृति है और स्मृति अतीत ही है।

यदि स्मृति है, तो ही अतीत का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है, या अनायास कर लिया जाता है। 

विचार वर्तमान है, और वर्तमान विचार ही है।

यदि वर्तमान है, तो ही विचार (का आगमन) संभव होता है और वर्तमान का विचार किया जाता है, या अनायास हो जाता है।

भविष्य संकल्प है, और संकल्प भविष्य ही है।

यदि भविष्य है तो ही (उसका) संकल्प हो सकता है, और किसी संकल्प के होने पर ही किसी भविष्य के अस्तित्व को अनायास ही स्वीकार कर लिया जाता है। 

स्मृति, विचार और संकल्प का उन्मेष मन की जाग्रत दशा में ही होता है, और मन ही, -न कि शरीर, जाग्रत, स्वप्निल या सुषुप्त होता है।

यह निर्वैयक्तिक चेतना, निजता और नित्यता ही, स्मृति, विचार और संकल्प के कार्य की अव्यक्त आधारभूमि है। मन सुषुप्ति या स्वप्न में, या जाग्रत होने पर यह अव्यक्त अप्रकट निर्वैयक्तिक चेतना स्मृति, विचार और संकल्प के रूप में अव्यक्त से व्यक्त, अप्रकट से प्रकट रूप में अभिव्यक्त हो उठती है। स्मृति, विचार और संकल्प का कार्य प्रारंभ होते ही इन सभी अभिव्यक्तियों में विद्यमान निर्वैयक्तिक चेतना का, अव्यक्त और अप्रकट आधार-भूत प्रकार, उसके व्यक्त और प्रकट प्रकार में जिस स्थायी सत्ता जैसा प्रतीत होता है, वही 'मैं' के रूप में चेतना का वैयक्तिक, व्यक्तिगत प्रकार है। इस व्यक्त आधारभूत निर्वैयक्तिक चेतना का तुरंत ही रूपांतरण हो जाता है और मन की जाग्रत, स्वप्न या सुषुप्ति की दशा के अनुसार वहाँ तब निर्वैयक्तिक चेतना का दृष्टा और दृश्य की तरह दोहरा, आभासी विभाजन हो जाता है। 

पातञ्जल योग-सूत्र :

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

(साधनपाद)

के सन्दर्भ में इस अहं-प्रत्यय से ही द्वैत का आभास पैदा होता है, और वैयक्तिक चेतना में और उसमें विद्यमान निजता और नित्यता की भावना में ही समस्त दृश्यमात्र को संसार, तथा दृष्टा को अहं-प्रत्यय अर्थात् 'मैं' के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है। 

इस प्रकार का विभाजन अनवधानता (in-attention) का ही परिणाम है, और निर्वैयक्तिक चेतना के स्वभाव से विपरीत होने के कारण दुःख-प्रत्यय है। अवधान (attention) ही एकमात्र वह उपाय है जो कि वैयक्तिक 'मैं' अर्थात् अहं-प्रत्यय का और दुःख-प्रत्यय अर्थात् दुःख का निवारण कर देता है।

पातञ्जल योग-सूत्र :

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।।

(समाधिपाद)

में इसी स्थिति का वर्णन किया गया है।

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Thursday, 8 September 2022

ऋषि अङ्गिरस् और शौनक

प्रतीक या रूपक? 

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किसी ऋषि का शौनक यह नाम कुछ विचित्र सा प्रतीत होता है, क्योंकि शौनक शब्द की व्युत्पत्ति श्वन् से हुई है, जिसका संबंध श्वान से हो सकता है।

श्वा शुनौ शुनः 

श्वान् प्रातिपदिक, जिसका सामान्य अर्थ 'कुत्ता' होता है, प्रथमा विभक्ति के क्रमशः एक-वचन, द्वि-वचन और बहु-वचन रूप हैं। संस्कृत भाषा में 'श्वा' धातु चलने के अर्थ की द्योतक है, पर्याय से श्वास के रूप में भी ग्रहण की जाती है।

इसके दो रोचक उदाहरण इस प्रकार से हैं -

मातरिश्वा - मातरि श्वा - वह जो माता का श्वास है। मातरि शब्द पुनः मातृ प्रातिपदिक स्त्रीलिंग सप्तमी विभक्ति एक-वचन शब्द है - अर्थात् जो अपने कारण या स्रोत में सोया हुआ है, या श्वास लेता हुआ है। प्राणवायु, प्राण या वायु ही मातरिश्वा है।

दूसरा उदाहरण संप्रसारणविधिसूत्रम्,

लघुसिद्धान्त कौमुदी सूत्र २९१, -पाणिनी अष्टाध्यायी का है :

'श्व-युव-मघोनाम तद्धिते' ६|४|१३३

काचं मणिं काञ्चनमेकसूत्रे ग्रथ्नासि बाले किमिदं विचित्रम् ।

विचारवान् पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह इति।। 

पूर्वार्ध में प्रश्न है -

"हे बालिके! क्या यह कुछ विचित्र नहीं है कि तुम एक ही सूत्र में काँच, मणि और स्वर्ण को एक साथ गूँथ रही हो!?"

उत्तरार्ध में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वह बालिका कहती है :

"इसमें ऐसा भी क्या विचित्र है! महर्षि पाणिनी ने भी क्या एक ही सूत्र में श्वन्, युवन् और मघवन् को एक साथ नहीं रखा था?"

तात्पर्य यह है, जैसे ऋष् धातु का प्रयोग चलने के अर्थ में किया जाता है और उससे बना ऋषि शब्द भी है, जिसे ब्रह्मा से प्रारंभ कर अङ्गिरस् और शौनक तक के लिए इस उपनिषद् के प्रथम मुण्डक के प्रथम खण्ड के प्रथम पाँच मन्त्रों में प्रयुक्त किया गया है, वैसे ही शौनक और ब्रह्मा का प्रयोग भी यहाँ ऋषि के अर्थ में है। वे सभी ऋषि हैं।

उदाहरण के लिए,

आदित्यहृदयस्तोत्रम् के ऋषि अगस्त्य हैं।

ऋषि का अर्थ हुआ विधान करनेवाला। 

पुनः इस पर दृष्टिपात करें -

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-

मथर्वायज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा-

थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।। 

स भारद्वाजाय सत्यवहाय

प्राह भारद्वाजो अङ्गिरसे परावराम्।।२।।

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।

कस्मिन्नु भगवो  विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ।।३।।

तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च ।।४।।

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरम् अधिगम्यते।।५।।

उपरोक्त पाँच मन्त्रों में जहाँ एक ओर, ब्रह्मा ऋषि, देवों में प्रथम हुए, ऐसा कहा गया, वहीं उन्हीं के क्रम में उनके ज्येष्ठपुत्र अथर्वा को उनके द्वारा इस ब्रह्म-विद्या का उपदेश प्रदान किया गया, और यह क्रम अङ्गिरस् तक चला। ये सभी चेतना की उपाधियाँ भी हैं, और उन उपाधियों के ऋषि तथा उनके नाम भी जिनका विशेष प्रयोजन है। ब्रह्मा वह ब्रह्म है, जो सतत बढ़ता और विस्तीर्ण ही होता है। अङ्गिरस् वह ऋषि चेतना है जो शरीर में कार्य करती है, और चेतन भी है। शौनक अर्थात् श्वान वह चेतनता है, जो कि सतत गतिशील रहती है। महाशाल किसी विद्या-पीठ के प्रमुख हैं, जिन्होंने समस्त अपरा विद्याओं का पूर्ण अध्ययन कर लिया है। अर्थात् वे परम विद्वान परमाचार्य हैं, और उन समस्त अपरा विद्याओं का अध्ययन कर लेने के उपरांत भी उन्हें प्रतीत होता है, कि यह वह ज्ञान नहीं है, जिसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जा सकता है, या जान लिया जाता है। "अतः इन समस्त अपरा विद्याओं से विलक्षण वह कौन सी विद्या हो सकती है, जिसका अध्ययन कर लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है!"

अपनी इसी जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करने के लिए हाथों में समिधा लेकर वे महर्षि अङ्गिरा / अङ्गिरस् के समीप प्रस्तुत हुए। 

पर्याय से और संक्षेप में, अङ्गिरस् इस स्थूल शरीर में विद्यमान वह रस है जो इसे जीवन देता है। और शौनक यह स्थूल शरीर है, जो यन्त्र है और यन्त्र की तरह अनायास कार्य करता है। 

कुछ क्रियाएँ क्यों और कैसे होती हैं, उन्हें कौन संचालित करता है, हमें नहीं पता होता। जैसे श्वास-प्रश्वास, सोना, चलना, दौड़ना आदि। हमें लगता है, उन्हें हमारी इच्छा के अनुसार ही हम करते हैं, क्योंकि शरीर तो जड है, उसमें स्वतंत्र इच्छा, संकल्प आदि कैसे हो सकते हैं! किन्तु इच्छा या संकल्प किसे होते हैं? क्या हम इच्छा और संकल्प से बाध्य होते हैं, या क्या वे हमारी बुद्धि के अनुसार अपना कार्य करते हैं? स्पष्ट है कि हमारी बुद्धि और इच्छा तथा संकल्प के बीच सदैव सामञ्जस्य रहता ही हो, ऐसा होना आवश्यक नहीं। उनके बीच प्रायः टकराहट होती रहती है, इच्छा और संकल्प हमारे वश में नहीं, बल्कि हम ही उनके वश में हुआ करते हैं। 'हम' अर्थात्?

क्या मूलतः यह 'हम' भी विचार ही नहीं होता? यह और दूसरे भी विचार क्या अनायास ही हमारे नियन्त्रण से बाहर ही नहीं होते? फिर, वे हमारे नियन्त्रण में होते हैं, या कि 'हम' ही उनके नियन्त्रण में। हमें कुछ पता नहीं होता, जिसकी कल्पना भी नहीं होती, क्या ऐसे अनेक विचार अप्रत्याशित रूप से हमारे 'मन' में नहीं आते जाते रहते हैं! और यह वस्तु जिसे 'मन' कहा जाता है, क्या सचमुच कहीं हुआ भी करती है। फिर भी केवल प्रमादवश और अभ्यासवश ही 'हम' अपने आपको 'मैं' और 'मेरा मन' इन दो में विभाजित कर लिया करते हैं। यह मूल अज्ञान या अविद्या ही हमारी समस्या है। 

उपनिषद् के इन मन्त्रों का प्रयोजन और इंगित यही है। 

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विचार ध्यान / अवधान में बाधा है और इस बाधा का निवारण ध्यान / अवधान से ही होता है।

Thought is an obstacle to meditation and this obstacle is removed by meditation only. 

-जे. कृष्णमूर्ति

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Wednesday, 7 September 2022

प्रत्यारोपित

Being Transplanted.

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Consciousness -- चैतन्य-ब्रह्म :

और,

consciousness -- चेतना

का वही परस्पर संबंध है जो सूर्य और उसकी किरणों का है।

किरणें जिस वस्तु पर पड़ती हैं, उसे आलोकित करती हैं, यह स्थूल भौतिक प्रकाश का स्वभाव है। आलोकित वस्तु को जो नेत्र देखते हैं वे स्थूल ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, न कि स्वयं यह चेतना: - जो उनके माध्यम से आलोकित वस्तु में प्रकाश के माध्यम से वस्तु की पहचान करती है। स्थूल ज्ञानेन्द्रियों और उनसे संबद्ध सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियों में व्याप्त चेतना भी तत्वतः तो वही है जो कि सर्वत्र विद्यमान चैतन्य ब्रह्म है। किन्तु पञ्चतत्वों से बने विभिन्न शरीरों / जीवनरूपी जीवपिण्डों में इन्द्रिय-ज्ञान से उत्पन्न हुई स्मृति के कारण ऐसे प्रत्येक शरीर में अपना स्वतंत्र और संसार से भिन्न एक अस्तित्व होने की भावना जन्म लेती है, और यही व्यक्तित्व विशेष होता है, जिसकी अपनी औपचारिक सत्यता है, जो कि पूर्णतः व्यावहारिक यथार्थ भी है।

"सत्यता व्यावहारिक यथार्थ है।"

इसका तात्पर्य यह है कि व्यावहारिक सत्य (वैज्ञानिक आधार) के रूप में उस सत्यता को सभी अनायास अनुभव और स्वीकार भी करते और कर सकते हैं, और इस बारे में कोई शंका नहीं है। अतः प्रत्येक ही चेतन पिण्ड-शरीर में यह चैतन्य जागृत होता है, और उस शरीर में उसका वह चेतना-रूपी प्रकाश व्याप्त होता है, जो उसमें उसके अपने एक स्वतंत्र अस्तित्व होने की भावना का एकमात्र कारण है। यह चैतन्य और इससे फलित होनेवाली  प्रतिबिम्बित चेतना के बीच परस्पर वैसा ही संबंध है, जैसा सूर्य और उसकी किरणों से आलोकित किसी वस्तु के बीच होता है।

चैतन्य स्वयं ज्ञान ही है, जबकि शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि में व्याप्त चेतना उसकी शक्ति तथा प्रकाश है। चैतन्य तो केवल ज्ञान ही है, जबकि चेतना ज्ञान, शक्ति और कार्य भी है, जिसे कि क्रमशः ज्ञान-शक्ति और क्रिया-शक्ति कह सकते हैं।

पुनः मुण्डकोपनिषद् :

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।

कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।३।।

समस्त विद्याओं का स्रोत / अधिष्ठान तो ब्रह्मविद्या है, यह स्पष्ट करने के बाद उस ब्रह्मविद्या से उत्पन्न और फलित जो असंख्य विद्याएँ हैं, वे ज्ञान नहीं, ज्ञान प्रतीत होनेवाला ज्ञान का आभास मात्र है। शौनक नामक ऋषि, - महाशाल किसी महाशाला के अधिष्ठाता थे, जिनके बहुत बड़े विशाल महाविद्यालय में उनके अनेक शिष्य विद्याध्ययन किया करते थे।

उन्होंने अनुभव किया कि समस्त ज्ञान और विद्याओं में निष्णात हो जाने पर भी 

'यह सब क्या है!',

इस प्रश्न का उत्तर नहीं प्राप्त हो पाता। इसी जिज्ञासा से वे प्रेरित हुए, और इसका समाधान पाने के उद्देश्य से वे महर्षि अङ्गिरस् के समीप पहुँचे और इसका समाधान प्राप्त करने के लिए उनसे विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की, और फिर उनसे प्रश्न किया --

"भगवन्! वह क्या है, जिसे जान लिए जाने पर :

'यह सब क्या है?'

इसे, अर्थात् इस सबको जान लिया जाता है?"

तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च।।४।।

"शौनक! ब्रह्मविद कहते हैं : जानने योग्य विद्याएँ तो दो ही हैं - परा एवं अपरा।"

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।।५।।

"शौनक! उन दोनों प्रकार की विद्याओं में से एक तो वह अपरा विद्या है, जिसके माध्यम से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष को जाना जाता है, तो परा विद्या इनसे भिन्न वह विद्या है, जिससे उस अक्षर अविनाशी को जाना जाता है।"

इस प्रकार ज्ञान, बुद्धि और विद्या का जो क्रम है, वह उत्तरोत्तर अक्षर से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अव्यक्त-व्यक्त, अव्यक्त-व्यक्त से स्थूल  मन, बुद्धि, और फिर और भी अधिक स्थूल इन्द्रिय-गोचर ज्ञान तथा फिर संसार का ज्ञान और स्मृति का रूप ग्रहण करता है। बुद्धि क्षण क्षण प्रकट और क्षण क्षण अप्रकट होते रहनेवाला तत्व (principle) है, जबकि विचार उसकी तुलना में काल से जुड़ी गतिविधि है, और इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं हो सकता है, कि बुद्धि का उन्मेष काल से होता है, या काल की कल्पना का बुद्धि से। किन्तु फिर भी बुद्धि, काल से सीमित नहीं होती और उसका स्रोत काल से परे (Time-less / beyond time) है। इसी प्रकार काल बुद्धिगम्य होते हुए भी, बुद्धिग्राह्य नहीं हो सकता, और इसीलिए काल के रहस्य को आज तक के वैज्ञानिक नहीं खोल सके। यह समझना कठिन नहीं है कि काल केवल कल्पना / अनुमान और विचार की गतिविधि मात्र है, न कि कोई विद्यमान भौतिक वस्तु या तत्व। 

अब विद्या के बारे में यह स्पष्ट ही है कि विद्या के स्रोत दो ही हो सकते हैं : अभ्यास और बुद्धि। अभ्यास करते करते अभ्यास हो जाता है, जिसे फिर कौशल कहा जाता है। सभी विद्याएँ निरंतर अभ्यास से प्राप्त की जाती हैं, इसलिए विद्या और काल का एक दूसरे से गहरा संबंध है। यद्यपि काल विद्या का अतिक्रमण कर सकता है, किन्तु विद्या काल का अतिक्रमण नहीं कर सकती। 

विचार (thought) ही विद्या की मर्यादा (limit) है, इसलिए विचार कर सकना अभ्यास है और इसका कितना भी अभ्यास कर लिया जाए, इससे बुद्धि उत्पन्न नहीं होती । जबकि बुद्धि के कौंधते ही उसे शब्दों और भाषा के माध्यम से व्यक्त कर किसी विचार के रूप में प्रकट और अभिव्यक्त भी किया जा सकता है। रोचक सत्य यह भी है कि विचार के माध्यम से यदि किसी सत्य को व्यक्त कर भी दिया जाए तो भी यह आवश्यक नहीं, कि उस विचार को पढ़ने या सुनने वाला उस सत्य को ग्रहण कर ही ले। अतः शास्त्र अन्य किसी रीति से उस सत्य की प्राप्ति करने के लिए, उसको जानने के उपाय को इंगित करते हैं, क्योंकि यदि वह सत्य जो कि बुद्धि से भी परे है, और यदि उसे बुद्धि से भी नहीं पाया जा सकता, तो विचार या विद्या से उसे प्राप्त करने की तो कल्पना तक भी नहीं की जा सकती।

ब्रह्मविद्या भी इसीलिए ब्रह्म के अर्थात् आत्मा, या परमात्मा के साक्षात्कार का प्रत्यक्ष / अपरोक्ष उपाय नहीं, किन्तु इंगितमात्र तो अवश्य ही हो सकता है।

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Tuesday, 6 September 2022

Being Uprooted!

Skill, Thought, Talent, Idea and Wisdom. 

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मुण्डकोपनिषद्

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प्रथम मुण्डक - प्रथम खण्ड

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ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।। 

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-

मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा-

थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्यां।।

स भारद्वाजाय सत्यवहाय

प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावरम्।।२।।

शौनको वा महाशालो ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।। 

कस्मिन्नो भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवितीति ।।३।।

तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च।।४।।

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।।

अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।। ५।।

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मुण्डक का अर्थ है मुखमण्डल। 

मुण्डकोपनिषद् में 3 मुण्डक हैं, और प्रत्येक मुण्डक में पुनः दो खण्ड हैं। प्रथम मुण्डक, प्रथम खण्ड का प्रारंभ उपरोक्त पाँच मन्त्रों से होता है। देवताओं में सर्वप्रथम ब्रह्मा का प्राकट्य हुआ। प्राकट्य का अर्थ है, जो अप्रकट, अव्यक्त था, वही प्रकट और व्यक्त हो उठा। कथा में यद्यपि भूतकाल के परिप्रेक्ष्य में, काल को अतीत की तरह, सन्दर्भ में रखा गया है, किन्तु इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इस प्रसंग का संबंध किसी सुदूर या संनिकट अतीत से है, क्योंकि काल का अनुमान बुद्धि से ही होता है, और तब उसी काल का वर्गीकरण शाश्वत्, सनातन, चिरन्तन, नित्य, वर्तमान और अनित्य आदि में किया जाता है। इस प्रकार काल को अव्यक्त, अप्रकट और पुनः व्यक्त और प्रकट रूपों में जाना जाता है। यह जाननेवाला, जिससे काल का जन्म होता है, स्वयं ही काल और काल से परे भी अक्षरस्वरूप पुरुष है। 

अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापकः उच्यते। व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते... रुद्रः संहार्यते प्रजाः।। 

(शिव-अथर्वशीर्ष)

यह संदर्भ इसलिए दिया गया ताकि स्पष्ट हो कि यहाँ भूतकाल का प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से औपचारिक व्यवहार और प्रयोग के लिए किया गया है। 

"आब्रह्मभुवनाल्लोका", "अव्यक्तादीनि भूतानि" के तथा "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" के अनुसार किसी समय आब्रह्म, जो कि अव्यक्त और प्रकट था, तथा जिसने व्यक्त और प्रकट रूप ग्रहण किया, उसे ही यहाँ औपचारिक रूप से ब्रह्मा कहा गया है। 

इस प्रकार देवताओं में सर्वप्रथम ब्रह्मा हुए। यही प्रथम तत्त्व जो बुद्धि (Wisdom) है, उसके सक्रिय होने के बाद ही अन्य सब जाना जाता है, जिनमें से काल भी एक बुद्धिजनित, बुद्धिगम्य, बुद्धिग्राह्य वास्तविकता है।

चेतना (consciousness), बुद्धि (Wisdom) और ब्रह्मा (Creator) परस्पर पर्याय (synonyms) हैं। 

इससे ही समस्त भुवनों (लोकों) की सृष्टि होती है / हुई, और इसके ही द्वारा उनकी सुरक्षा की जाती है। इस प्रकार सृष्टि की इस ब्रह्मविद्या ही दूसरी भी समस्त विद्याओं का अधिष्ठान है। 

ब्रह्मा ने इसी ब्रह्मविद्या का उपदेश अपने ज्येष्ठपुत्र अथर्वा को दिया। अथर्वा को ब्रह्मा ने जिस ब्रह्मविद्या का उपदेश प्रदान किया, उसे ही अथर्वा ने अङ्गिरस को प्रदान किया। उसे ही पुनः अङ्गिरा ने भरद्वाज को प्रदान किया और उसे भरद्वाज सत्यवह ने भारद्वाज को या अङ्गिरस को प्रदान किया। इस प्रकार क्रमशः इस ब्रह्मविद्या का अवतरण जगत् में हुआ।

पर से अवर, उच्चतर से अन्य, अपेक्षाकृत निम्न श्रेणी तक इस विद्या के ज्ञान का संप्रेषण हुआ।।१,२।।

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Next:

Being Transplanted

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Monday, 5 September 2022

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया...

मुण्डकोपनिषद् 3/1/1,

श्वेताश्वतरोपनिषद् 4/6,

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Sunday, 7 August 2022

तत्वविद् और तत्वदर्शी

एकमेव और अद्वितीय सृष्टिकर्त्ता  

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फेसबुक पर एक नये मित्र बने। 

उनके पोस्ट्स देखते-देखते एक वीडियो से सामना हुआ। एक सुप्रसिद्घ अभिनेता ने एक सुप्रसिद्घ आध्यात्मिक मार्गदर्शक से प्रश्न पूछा :

"आपको कभी अकेलापन / loneliness महसूस हुआ है?" 

"हाँ, लेकिन जब ऐसा हुआ तब मैंने सोचा कि संसार की सृष्टि किसने की होगी! आपने तो नहीं की न!"

किसी कारण से उस समय इस वीडियो को और आगे देख पाना मेरे लिए संभव न हुआ। इसके कुछ समय बाद मुझे याद आया, लेकिन फिर सोचा कि बाद में, आराम से देखूँगा।

इस ब्लॉग के इससे पहले के पोस्ट में मैंने ऋषि, कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञ के बारे में लिखा है।

इस वीडियो को देखते हुए मुझे याद आया कि इसे वेदान्त की भाषा में अनवस्था-दोष (absurdity ad-infinitum) कहा जाता है। एक उदाहरण यह है : पहले अंडा हुआ या मुर्ग़ी?

मुझे लगता है, कि उपरोक्त वीडियो में उन मार्गदर्शक ने इसके आगे शायद ऐसा कुछ कहा होगा :

"तब मैंने सोचा कि जिसने संसार को बनाया, मुझे भी उसने ही तो बनाया होगा!

इसलिए वह मेरे और इस संसार के बारे में भी मुझसे तो अधिक और बेहतर ही जानता है! और इसलिए वह हमेशा ही मेरे साथ है, भले ही मुझे यह पता हो या कि न हो, याद रहे या कि न रहे! और इसलिए मुझे कभी अकेलापन महसूस नहीं होता है।"

चूँकि अभी तक मैंने उस वीडियो को आगे नहीं देखा है, इसलिए उन्होंने क्या कहा होगा इस बारे में केवल अनुमान लगा रहा हूँ, कुछ और कहना अभी न्यायसंगत नहीं होगा।

कोई व्यक्ति इतने ही उत्तर से संतुष्ट हो सकता है और उसमें उस सृष्टिकर्ता के बारे में और अधिक जानने की उत्सुकता पैदा नहीं होती होगी। जबकि दूसरा कोई 'बुद्धिवादी' तर्क कर सकता है : "फिर उस सृष्टिकर्त्ता की सृष्टि भी तो किसी ने की होगी!"

दूसरा कोई व्यक्ति ऐसे किसी सृष्टिकर्त्ता के अस्तित्व के विचार से अभिभूत होकर उसे ही ईश्वर या परमेश्वर मान लेता है, और वह भी संतुष्ट हो सकता है।

तीसरा कोई व्यक्ति इस पूरे तर्क-वितर्क को शब्दाडम्बर समझ लेता है, और इस चर्चा से उदासीन हो जाता है।

चौथा ऐसा ही कोई उस ईश्वर के बारे में और भी अधिक जानने, और उसके प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए उत्कंठित हो सकता है। 

शायद कोई बिरला ही उस सत्य की खोज में संलग्न होकर इस पर ध्यान दे सकता है, कि क्या सृष्टि का विचार ही सृष्टि नहीं है? क्या यह विचार आने के बाद ही यह प्रश्न नहीं उठता है कि सृष्टि कब हुई होगी, किसने इस संसार की सृष्टि की होगी! 

और किसी इससे भी अत्यन्त ही बिरले ही मनुष्य का ध्यान इस

पर जा पाता होगा कि 'सृष्टि कब हुई होगी!' यह प्रश्न तो अभी, -इसी क्षण ही तो मन में आया है, और 'कब' के प्रश्न के माध्यम से समय को अनायास, अनवधानता (in-attention) से एक ऐसी वस्तु मान लिया गया है, जो कि कभी था, अभी है, और भविष्य में भी होगा! इस प्रकार की भूल को ही प्रमाद (in-attention) कहा जाता है। इसी प्रकार से इस संसार को भी स्वयं से स्वतंत्र एक ऐसी वस्तु मान लिया जाता है, जिसमें मेरा जन्म हुआ। इसी प्रकार से, शरीर को ही भूल से मैं मान लिया जाता है, जबकि एक बच्चा भी स्वाभाविक रूप से यही जानता है कि शरीर उसका है, न कि शरीर वह स्वयं है!

फिर भी कोई इस बारे में और अधिक ध्यान देकर यह भी कह सकता है कि मैं शरीर नहीं, मन हूँ। किन्तु कोई उससे अधिक विवेकशील व्यक्ति पूछ सकता है, कि मन तो अपना रूप सतत बदलता रहता है, इसलिए मैं, जो हमेशा एक जैसा हूँ, मन नहीं हो सकता। वह इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है, कि यद्यपि मैं शरीर, मन नहीं हूँ, और केवल वह भान या चेतना हूँ, जिसमें कि यह सब, - शरीर, मन तथा संसार पुनः पुनः प्रकट और अप्रकट होते रहते हैं।

इस प्रकार अंततः उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह जो है, उसे  यद्यपि अपने से भिन्न की तरह नहीं जाना जा सकता, क्योंकि तर्क की दृष्टि से भी, जाननेवाला (विषय), जाननेवाले (विषयी) से पृथक् ही होता है; फिर भी उसे इस बारे में कोई संदेह, संशय या अज्ञान भी नहीं होता कि यह "मैं" व्यावहारिक, अनित्य और  उससे परे के नित्य वर्तमान रूप में क्या है। चूँकि वह जड नहीं, चेतन है, इसलिए जो भी वह है, उसे 'क्या' न कहकर 'कौन' ही कहना उपयुक्त होगा। क्योंकि 'क्या' सर्वनाम, निर्जीव और जड वस्तुओं के संबंध में प्रयुक्त किया जाता है, और 'कौन' सर्वनाम किसी जीव के संबंध में।

ऐसे व्यक्ति के लिए 'सृष्टि' शब्द ही किसी अभिप्राय का सूचक  नहीं होता, और सृष्टि किसने की, और कब की होगी जैसे प्रश्नों की तो कल्पना भी वह नहीं कर सकता।

फिर भी वह तत्त्वदर्शी होता है क्योंकि नित्य-अनित्य का भेद उसे नितान्त स्पष्ट होता है। और वह इस दृष्टि से रहस्यदर्शी भी कहा जा सकता है कि यद्यपि वह सत्य और आत्मा, परमात्मा के स्वरूप को भलीभाँति जानता है, किन्तु उसे वाणी से प्रकट करने में असमर्थता अनुभव करता है।

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Wednesday, 3 August 2022

ज्ञानी, कवि, गणितज्ञ और वैज्ञानिक

कर्म, अकर्म और विकर्म 

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किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।। 

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।१८।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय ४)

अथातो कर्मजिज्ञासा :

किं कर्तव्यमकर्तव्यं किं कर्म च कः कर्ता।।

कथमेतद्विजानीयात् तेषामपि किं तत्त्वम्।।

किं प्रत्यक्षं किमानुमानं कः आगमः प्रमाणं किम्।।

कस्मिन्काले च ज्ञातव्यं यस्मिन्मोहं तु निवर्तयेत्।।

कथमेतद्विजानीयात् कालस्य स्वरूपं किम्।

कथमेतद्भवेत्कालं यस्मिन् पूर्वापरं न चेत्।।

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अंतिम तीनों श्लोक स्वरचित हैं।

कथ्यते अतः --

अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापकः उच्यते।।

(शिव-अथर्वशीर्ष)

उपरोक्त श्लोकों में कर्म के स्वरूप की विवेचना की गई है। 

यह विवेचना ज्ञानी, कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञ की दृष्टि से भी की जा सकती है। ज्ञानी अर्थात् तत्त्वविद् को इस विषय में संशय नहीं होता कि किसी भी प्रकार का कर्म सदैव काल-स्थान के सन्दर्भ में ही हो सकता है। कवि की बुद्धि इस विषय में मोह से युक्त भी हो सकती है, और यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक ही कवि मोहित-बुद्धि होता हो, क्योंकि कवियों में से भी कोई, ज्ञानी तत्त्वदर्शी ऋषि हो सकता है, जबकि कुछ दूसरों को सत्य का आभास किसी कौंध जैसा होकर पुनः विलीन हो सकता है।

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तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।१७।।

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवनुत्तमां गतिम्।।१८।।

(अध्याय ७)

पुरातन / पुराने का विचार, नवीन / नये के आभास से, और उस आभास की सत्यता के विचार से ही उत्पन्न होता है, इसलिए इस प्रकार से जिस काल का अनुमान किया जाता है, वह अतीत की स्मृति या भविष्य की कल्पना का कारण होता है, जबकि न तो ऐसा काल, अतीत या भविष्य कोई वास्तविकता है। इसी अतीत को अनादि समझा जाता है और फिर किसी आरंभरहित समय का अनुमान किया जाता है, जबकि अनादि का एक आशय यह भी है जिसका आरंभ है ही नहीं। इसी प्रकार भविष्य को अनन्त कहे जाने का एक आशय यह है कि यह सतत और अन्तरहित है, तो अन्य आशय यह भी हो सकता है कि अभी भी विद्यमान  न होने से भविष्य में इसका अन्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता।

चूँकि काल इस प्रकार से, पञ्च महाभूतों में से कोई तत्त्व नहीं है, यह तो स्पष्ट ही है, फिर काल को क्या गुण कहा जा सकता है? यह जानना रोचक हो सकता है कि काल को न तो उत्पन्न किया जा सकता है, और न उसे नष्ट किया जा सकता है, फिर भी गुण के रूप में काल का संचय अवश्य किया जा सकता है। जैसे किसी औषधि / रसायन आदि को कुछ समय तक संचित कर रखने पर उसका प्रभाव भिन्न होता है, और उस समय का किसी स्वीकृत  पैमाने / प्रमाण से मापन भी किया जा सकता है, उसी आधार पर काल का इस रूप में भौतिक सत्यापन भी किया ही जाता है।

यह हुआ काल के स्वरूप का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन।

किन्तु इस सतत चलनशील काल की पृष्ठभूमि में काल-निरपेक्ष जो अविकारी अपरिवर्तनशील वर्तमान है, क्या गणना या गणित के माध्यम से उसका आकलन किया जा सकना संभव है? 

यद्यपि यह वर्तमान ही चलनशील काल की धुरी है, किन्तु इसके स्वरूप को जान सकना असंभव है क्योंकि हम स्वयं ही वह हैं।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

(अध्याय २)

स्पष्ट है कि स्वरूपतः तो आत्मा ही वह अविकारी अविनाशी अक्षर तत्त्व है जो स्वरूपतः हम हैं। जबकि यह आभासी काल जिसका आकलन और कलन कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञों के द्वारा किया जाता है, उसका सतत चलनशील बाह्य प्रकार है।

काल का यह बाह्य प्रकार ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण है, जो पुनः प्रकाश, क्रिया और स्थिति के रूप में नित्य वर्तमान वास्तविकता (ever present, ever-abiding Reality)  है, जिसका अध्ययन भौतिकशास्त्र के विज्ञान का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक (Physicists) भी काल को :

light, momentum, और inertia

की तरह से परिभाषित कर किया करते हैं।

और इसी काल की उपासना पुनः दशमहाविद्याओं में से ही एक  रूप महाकाली के रूप में भी की जाती है।

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Sunday, 29 May 2022

The Extrovert Mind

The Introvert Mind. 

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All admit, there is something, such a thing, that is called:

"The Mind"

When-ever this "Mind" is described as some-thing that exists, is it not the mind itself, that describes itself? Is not this really a paradox,  a contradiction?

Is the One that is described as "Mind", and the one, that describes this "Mind", one and the same, or mutually exclusive, and truly very different from one-another?

That is the very essential and fundamental  question and the conflict from where begins all confusion and differences, opinions and different views.

Again, and as soon as this thing, the "Mind" is designated and categorized further into the terms like "my mind", and "your mind", this conflict becomes manifold, even more complex.

Mind is consciousness and Conversely :

Consciousness is Mind. For they are but two aspects of the same and unique reality. One can't exist in the absence of the other.

As soon as this "Mind" / the "Consciousness" is given the over-tone of "me", gets the color of "me", it loses all its invincibility, becomes a mere person, "consciousness" or a "mind".

Is not "my" a thought only, that corrupts and distorts this very "Mind" / "Consciousness", that is essentially incorruptible, pristine and pure awareness only?

Before the arrival of this thought, the "me", is there any possibility, ground or place for conflict and ignorance?

Thought / "me" itself then leads the "Mind" or the "Consciousness" into believing : 

"my" mind is extrovert or introvert.

The ridiculous fact is :

"me" itself is an idea, thought, concept, only. 

Is not thought itself in general, and also the thought in the garb of "me", the real hurdle, the only obstacle, the very hindrance in the way of Truth?

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Friday, 27 May 2022

Is தமிழ் Eternal?

What is Eternal? 

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Our honorable Prime Minister of India said :  தமிழ் is (an) eternal language.

I trust Him, yet I would like to point out that தமிழ் is not the only eternal language. 

Like 'द्रविड', The very word 'தமிழ்' is also a Sanskrit word indeed.

I do agree, தமிழ் / 'द्रविड' is also as much ancient, classic and old as is Sanskrit.

But the other South Indian languages like Malayalam, Telugu and Kannada are not of lesser.

The first two தமிழ் words I came across and learnt were :

அது  and இது

These are the two pronouns in தமிழ் that are phonetically as well structurally closely related to their Sanskrit equivalent like :

इदं and अदस्

I don't know what words are there in other South Indian languages that are equivalent to these two words / pronouns.

And I learnt these two and other few தமிழ்  words while trying to study the literature of Sri Ramana Maharshi.

Kavyakanta Sri Ganapati Muni, His esteemed disciple, has categorically applied the word 'द्राविड' for தமிழ்.

While Sri Ganapati Muni has extolled தமிழ், He has also put it on the same pedestal with Sanskrit.

सद्दर्शनम् द्राविडवाङ्निबद्धम् महर्षिणा श्री रमणेन शुद्धम् ।।

प्रबन्धमुत्कृष्टममर्त्यवाण्यामनूद्य वासिष्ठमुनिर्व्यतानीत् ।।४१।।

No doubt I felt elated when I knew how our Honorable P. M. Sri Modiji is trying to draw our attention that all our Indian languages are Great and deserve due respect and love from all of us Indians.

The point is :

Collectively, all these South Indian languages together, are known as Dravid, while தமிழ்  being only one of them.  

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Tuesday, 24 May 2022

Friday, 20 May 2022

Two Screen-Shots

Our Common World

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And the common cold! 













Faith* or Conscience*?

Religion* or Dharma*? 

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Faith* - Faith is synonymous with affection, Belief, Trust and the natural feeling of one-ness to one and all, the whole existence, not only of one's own caste, creed, people, tribe, God as well, but Life itself as a whole.

Conscience* - Conscience is synonymous with the due care, sensitivity and attention that comes out from the observation of Life, World and oneself.

In his English-Hindi Dictionary Kamil Bulke has translated this word "conscience" as :

अंतःकरण, सदसद्विवेक (सत्-असत् विवेक)

Though in the vedantika parlance, there is yet another word 'discrimination' also for "विवेक", between the सत् (Real) and the असत् (Un-real).

I can also see that this word could be related, or cognate / सज्ञात / सजात of the Sanskrit root-verb word संश् / शंस् also. (This appeals well to my conscience).

I can therefore unhesitatingly use this word / term as the equivalent of the Sanskrit word : "धर्म".

Religion* - Religion is synonymous with the tradition, rituals, practices and activities that one comes up through while being brought up in a culture, society or even the family. 

Now, while I have been given by my friends and well-wishers, -a tremendously difficult task to perform, I have also a chance to start the same from quite a new approach and a new beginning.

In brief, I have been designated the whole and sole 'soul' of this WhatsApp group :

"Truth is Path-less Land."

In a way, -- because of their love and regard, I have myself entered this trouble.

Why?

Because I felt the deep significance of this.

I have the urge, interest and I am also quite enthusiastic about the same.

I never expect that I become kind of a leader of a religious or spiritual movement, - any. Not in the least as a traditional Teacher or Guru.

Simply, just because I do not think that I am  suitable or appropriately qualified for this.

For my entire life so far, I've been, and even now, I am a seeker only, and I would like to say so. This, I have already pointed out in my blogspot e-blogger profile :

vinaykvaidya,

I am strictly of the view that one has to find out one's own approach and way to Reality. 

In this endeavor, I think, according to one's temperament, Mind-set, mental orientation, one may find a Religion or Tradition quite suitable, helpful for the spiritual growth and though one can attain the Goal, -the Supreme Truth, a sense, meaning, the Ultimate value of Life, one would be so utterly humble that could not impose and or exercise authority, or dictate terms upon the fellow seekers.

I felt like make it clear so that I can perform my job well.

Just for the record. 

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Monday, 9 May 2022

स्मृति और अतीत

'मैं', 'मन' और विचार

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अतीत और स्मृति क्या दो अलग अलग वस्तुएंँ हैं? 

अतीत स्मृति है, और स्मृति ही अतीत है।

किन्तु विचार ही वह सूत्र है जिसका एक सिरा अतीत, तो दूसरा सिरा स्मृति है। क्या विचार के सक्रिय होते ही स्मृति का कार्य प्रारंभ नहीं हो जाता? और क्या स्मृति के सक्रिय होते ही विचार का कार्य प्रारंभ नहीं हो जाता? क्या किसी तथाकथित अतीत के अभाव में इनमें से किसी का भी कार्य हो पाना संभव है? 

किन्तु अतीत का विचार, 'समय' नामक जिस आभासी सत्यता को अस्तित्व प्रदान करता है, क्या ऐसी किसी वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व होता भी है?

फिर भी यह तो मानना ही होगा और इसमें सन्देह भी नहीं है कि विचार का एक तात्कालिक और शाब्दिक अस्तित्व तो होता ही है। इस प्रकार, विचार के होने में जो समय व्यतीत होता है, उस समय की भौतिक सत्यता से इनकार नहीं किया जा सकता। इस समय को क्षणों, पलों, मिनटों आदि में मापा जा सकता है, और इसलिए कोई विचार अल्पकालिक और कोई अपेक्षतया दीर्घकालिक भी हो सकता है। क्या समय का यह छोटा या बड़ा प्रकार घटना के रूप में ही नहीं होता?

किन्तु अतीत को स्मरण करते समय क्या समय इस प्रकार से छोटा या बड़ा अनुभव होता है?

शायद यह कहा जा सकता है कि समय की यह लंबाई, या यह अंतराल, वस्तुतः काल्पनिक ही होता है।

इसकी तुलना में विचार द्वारा लिया जानेवाला समय काल्पनिक न होकर भौतिक पैमाने पर मापनीय एक अन्तराल होता है। 

'मन', 'मैं' और 'विचार'

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'मन', 'मैं' और 'विचार' क्या भिन्न भिन्न और / या एक दूसरे पर निर्भर, और / या एक दूसरे से स्वतंत्र वस्तुएँ हैं? जैसे शरीर को 'मेरा' कहा जाता है, उसी प्रकार जाने-अनजाने ही 'मन' को भी कभी कभी 'मैं' और कभी कभी 'मेरा' नहीं कहा जाता? किन्तु स्मृति या विचार, भावना या बुद्धि के बारे में ऐसी कोई दुविधा नहीं होती। उन्हें हमेशा ही 'मेरा' ही कहा जाता है, 'मैं' नहीं!  'मन' नामक वस्तु क्या स्मृति या विचार, भावना या बुद्धि ही नहीं होती? स्पष्ट है, यद्यपि 'मन' को भी कभी कभी 'मेरा' कहा जाता है, किन्तु कभी कभी 'मैं' को 'मन' या / और 'मन' को 'मैं' भी कह दिया जाता है। जब 'मन' को अतीत या स्मृति से संबंधित कर लिया जाता है, तब कहा जाता है : 'मन' चिन्तित, प्रसन्न, दुःखी या सुखी था। किन्तु जब 'मन' को इस क्षण या वर्तमान से जोड़कर देखा जाता है तो उसे 'मैं' कहा जाता है। 'मन' के साथ यह दोहरा व्यवहार ही 'मैं' नामक वस्तु की पहचान में त्रुटि पैदा होने का कारण होता है।

क्या 'मन', 'मैं' है? 

और, क्या 'मैं', 'मन' है?

दो महान गणितज्ञों, देकार्त (Descartes) की स्थापनाओं और कुर्ट गॉडेल (Kurt Godel) की विवेचनाओं (deduction) में इसलिए परस्पर विसंगति है। किन्तु दोनों ही वैचारिकता और बौद्धिकता तक सीमित हैं। 

देकार्त के अनुसार :

मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ। यह आभासी सत्य है। वास्तव में मैं हूँ, इसलिए मैं सोचता / नहीं सोचता हूँ। 

इसमें एक विसंगति यह भी है कि 'मैं' नामक वस्तु का सोचने या विचार से कोई संबंध ही नहीं हो सकता। सोचना अर्थात् विचार करना 'मन' का कार्य है, न कि 'मैं' के द्वारा किया जानेवाला / होनेवाला कोई कार्य ।

कुर्ट गॉडेल के अनुसार :

कोई भी और प्रत्येक ही स्व-सापेक्ष वक्तव्य अधूरा और आंशिक होता है। 

वैसे भी 'मन' की योग्यता भी नहीं, और उसे अधिकार भी नहीं कि वह 'मैं' शब्द का प्रयोग करे। 

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Saturday, 7 May 2022

मृत्यु का ज्ञान

ज्ञान / ज्ञात की मृत्यु

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कठोपनिषद् को सर्वथा नये सिरे से पढ़ना प्रारंभ किया।

कठोपनिषद् में कथा का नायक वाजश्रवा का पुत्र, आरुणि है। उसका एक नाम उशना है, जिसका उल्लेख गीता अध्याय १० के इस श्लोक में भी है :

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय।।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कवि।।३७।।

वैसे गीता में उक्त श्लोक में वर्णित उशना कवि, दैत्यों के आचार्य शुक्र भी हैं, जिनका नाम भृगु या गौतम है, और जिन्हें परशुराम के रूप में भी जाना जाता है। 

छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात। 

का रहीम हरि को घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।

किसी पुराकल्प में एक बार इन्द्र और देवताओं से डरकर दैत्यों ने रक्षा के लिए उनके आचार्य शुक्र, भृगु के आश्रम में शरण ली। उस समय भृगु महर्षि अपने किसी कार्य से आश्रम से बाहर गए हुए थे। उनकी पत्नी आश्रम में थी, जिसने दैत्यों को आश्रम में छिपने और सुरक्षित रहने में सहायता की। तब भगवान् विष्णु ने चक्र से उसका सिर काट दिया। इस पर भृगु क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने भगवान् विष्णु की छाती पर लात मारकर उन्हें यह शाप  दिया कि त्रेतायुग में उन्हें भी पत्नी से दूर होने का अत्यन्त कष्ट भोगना होगा। त्रेतायुग आने पर भगवान् विष्णु (हरि) का राम के रूप में अवतार हुआ। रावण उनकी पत्नी को हर ले गया।

उपनिषदों और पुराणों में, यहाँ तक कि वेदों में भी ऋषियों और देवताओं को उनके कुल-नाम से जाना जाता है, इसलिए कभी कभी उनकी कथाओं को समझने में भूल हो जाना स्वाभाविक ही है।

ऋषि उशना ने सर्ववेदस् यज्ञ किया, जिसमें सब कुछ त्याग दिया जाता है। सब कुछ का यहाँ अर्थ है स्वामित्व की भावना को ही  त्याग दिया जाना। प्रयोजन है अहंकार का निवारण करना, जैसे भी हो सके। स्वाभाविक ही है कि अहंकार स्वयं अपना निवारण / विनाश नहीं कर सकता। वैसे तो वह स्वयंभू है, किन्तु उसे यह नहीं पता, और न वह इसका अनुमान या कल्पना ही कर सकता है, कि जिससे या जहाँ से उसका उद्भव हुआ, उस मूल तत्व का  अस्तित्व यद्यपि असंदिग्ध और स्वप्रमाणित है, किन्तु स्वरूप क्या है, इस विषय में भी उसे कुछ नहीं पता। अपने बारे में उसे यह तो पता है कि वह नित्य है, किन्तु उसे इस बारे में कुछ नहीं पता कि मृत्यु क्या होती है। और मृत्यु हो जाने के बाद वह रहेगा या नहीं, पुनः किसी लोक में उसका नये रूप में नया जन्म होगा या  क्या वह स्वर्ग या नरक आदि किसी लोक में जा पहुँचेगा, क्या वह मनुष्य, पशु-पक्षी या किसी अन्य लौकिक प्राणी के रूप में रहेगा, या प्रेत-योनि को प्राप्त होगा। मृत्यु में सब कुछ समाप्त हो जाता हो, तो इसका प्रमाण कौन, किसे दे सकता है। और अगर मृत्यु हो जाने पर भी ऐसा कुछ रहता है जिसकी मृत्यु नहीं होती, तो क्या ऐसे परिवर्तन को मृत्यु कहा जा सकता है?

यह तो स्पष्ट है कि अहंकार की ही तरह अस्तित्व भी स्वयंभू है क्योंकि उसका उद्भव किससे और कहाँ से हुआ, इसे कोई नहीं जानता। पुनः, अस्तित्व के भी दो पक्ष - अहंकार और संसार हैं, संसार का प्रमाण तो अहंकार है, किन्तु अहंकार का प्रमाण वह स्वयं है, न कि संसार या कोई और। इस प्रकार अहंकार चेतन है जबकि संसार या कोई भी अन्य वस्तु जड है। अहंकार दृष्टा है, जबकि अन्य सब दृष्ट या दृश्य है।

इस अहंकार में दृष्ट या दृश्य ही ज्ञात है, और जिस मूल तत्त्व से अहंकार की उत्पत्ति होती है वह अज्ञात है। किन्तु अहंकार यह भी जानता है कि ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व अकाट्य और असंदिग्ध सत्य है। अहंकार, इस सत्य को भी समझ सकता है कि उसका उद्भव उसी 'अज्ञात' से ही हुआ है। तब वह या तो अपने आपको उसके प्रति समर्पित कर दे, जिसके बारे में उसे बस यही पता है कि उसका अस्तित्व है, किन्तु जिसके स्वरूप के बारे में वह कुछ नहीं जानता, या उसे जानने का यत्न करे। 

उसे जानने के यत्न का अर्थ हुआ 'आत्मानुसन्धान' करना। इस प्रकार के आत्मानुसन्धान के यत्न में अहंकार को समस्त 'ज्ञात' को त्याग देना होगा। उशना के द्वारा जिस विश्वजित् नामक यज्ञ का अनुष्ठान किया जा रहा था, उसके माध्यम से उसने अपने स्वामित्व की सभी वस्तुओं को अर्थात् सर्ववेदस् को त्याग दिया।

उसका नचिकेता नामक एक पुत्र था, पुत्र और आत्मज का अर्थ समान है। आत्मज अर्थात् जिसकी उत्पत्ति स्वयं से होती है। इस का दूसरा अर्थ 'मन' हुआ । मन की उत्पत्ति भी अपने आप से ही से होती है। इसलिए 'मन' भी आत्मज है ।

अब हम महर्षि श्री रमण विरचित 'सद्दर्शनम्' ग्रन्थ के प्रारंभिक दोनों पदों का तात्पर्य समझ सकते हैं :

सत्प्रत्ययाः किं नु विहाय सन्तं

हृद्येष चिन्तारहितो हृदाख्यः।। 

कथं स्मरामस्तममेयमेकम्

तस्य स्मृतिस्तत्र दृढैव निष्ठा।।१।।

मृत्युञ्जयं मृत्युभियाश्रिताना

महंमतिर्मृत्युमुपैति पूर्वम्।। 

अथ स्वभावादमृतेषु तेषु

कथं पुनर्मृत्युधियोऽवकाशः।।२।।

उशना ने सर्वस्व दान कर दिया किन्तु दान करनेवाले अहंकार अर्थात् मन रूपी आत्मज का दान वह न कर सका। तब उसके मन ही ने उससे प्रश्न किया :

"पिताजी, यदि आप अपना सब कुछ ही दान कर रहे हैं तो आप मुझे भी तो किसी न किसी के लिए दान में देंगे ही! वह कौन है जिसके लिए आप मेरा दान कर देंगे?"

दो तीन बार ऐसा पूछे जाने पर उशना ने कहा :

"मैं मृत्यु के लिए तुम्हारा दान करता हूँ!"

तात्पर्य यही कि मन को मृत्यु प्राप्त हो जाए। 

उपरोक्त श्लोक २ में  इसे ही अक्षरशः 

"अहंमतिर्मृत्युमुपैति"

के द्वारा व्यक्त किया गया है।

आत्मा / परमात्मा की प्राप्ति / खोज के दो ही उपायों (निष्ठाओं) का वर्णन गीता में प्राप्त होता है :

लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(अध्याय ३)

तथा, 

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।। 

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।। 

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

(अध्याय ५) 

इन्हीं दो निष्ठाओं का उल्लेख गीता के द्वितीय अध्याय में तथा बाद के अन्य सभी अध्यायों में क्रमशः किया गया है।

'सद्दर्शनम्' से उद्धृत उपरोक्त दोनों श्लोक भी क्रमशः इन्हीं दोनों उपायों / निष्ठाओं के द्योतक हैं।

अहंकार (ego) का निवारण (elimination) ही समस्त ज्ञान / ज्ञात से मुक्ति का द्योतक है।

यही मृत्यु का ज्ञान और ज्ञान / ज्ञात की मृत्यु भी है।

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Wednesday, 27 April 2022

करना, होना, पाना, जानना,

The Four Pillars of Ego.

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अहंकार के चार आधार-स्तम्भ

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जिसे "मैं" अर्थात् "मन" कहा जाता है वह एक ही वास्तविकता "व्यक्तित्व" के दो नाम हैं। फिर यह भी स्पष्ट है कि यह पृथकता जिन चार आधारोंं पर टिकी और खड़ी रहती है, वे हैं : 

कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व। 

वैसे इन चार रूपों में "मैं" या "मन" विद्यमान होता है, इसलिए अहंकार को त्यागना या अहंकार से मुक्त होना मूलतः विसंगति-युक्त है। यह प्रश्न ही विरोधाभासपूर्ण है। क्योंकि तब अहंकार या "मन" को त्यागनेवाले किसी अस्तित्व को मानना होगा। जबकि ऐसा कोई अस्तित्व न तो तर्क, न अनुभव और न सिद्धान्ततः हो सकता है। जिस चेतना में "मैं" या "मन" का आगमन होता है, जिसमें उनकी गतिविधि (activity) होती है, वह एक अथवा अनेक के रूप में नहीं हो सकती। 

समस्त 'भेद' (distinctions) तीन प्रकारों में पाए जा सकते हैं । वे तीनों प्रकार क्रमशः सजातीय, विजातीय तथा स्वगत इन तीन रूपों में हो सकते हैं ।

सजातीय का अर्थ है - एक ही जाति के, जैसे कि चिड़िया और कौआ, 

विजातीय का अर्थ है - भिन्न-भिन्न जाति के, जैसे गाय और वृक्ष,

स्वगत का अर्थ है एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न अंग होना - जैसे शरीर में विभिन्न अंग शरीरगत होते हुए भी रचना और कार्य की दृष्टि से उनमें भेद होता है। 

केनोपनिषद् में जिसे ब्रह्म कहा गया वह ब्रह्म नामक वस्तु इस प्रकार के भेदों से रहित है। चूँकि वह सब / सर्व है, और उसमें सब / सर्व है, इसलिए वह सब / सर्व से अभिन्न है। इसी प्रकार चेतना / consciousness सब / सर्व में है और सब / सर्व भी चेतना / consciousness में, चेतना / consciousnes भी उपरोक्त तीनों भेदों से रहित है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि चेतना अर्थात् consciousness जीव-चेतना (sentience) एक ही वस्तु नहीं  है। यदि इसे स्मरण न रखा जाए तो प्रश्न पैदा होगा कि सब / सर्व तो अवश्य ही किसी या किसी न किसी की चेतना में होता ही है, किन्तु जड वस्तुओं में ऐसी चेतना कहाँ हो सकती है? इसलिए चेतन वस्तु को  sentient तथा जड वस्तु को insentient कहा जाता है। 

किन्तु फिर भी एक भेद और भी हो सकता है जो उपरोक्त तीन भेदों से भिन्न है। वह है जीव और ईश्वर के बीच का उपाधिगत भेद। इस उपाधि / adjunct के भेद को कल्पित माना जाए, तो जीव तथा ईश्वर में चेतना / consciousness उभयनिष्ठ तत्व है, और वही ब्रह्म भी है।

इस प्रकरण में उपदेश-सार के निम्न श्लोक उल्लेखनीय हैं :

ईशजीवयोर्वेष-धीभिदा।।

सत्स्वभावतो वस्तु केवलम्।।२४।।

वेषहानतः स्वात्मदर्शनम्।। 

ईशदर्शनं स्वात्मरूपतः।।२५।।

इस पूरी विवेचना का उद्देश्य यह है कि जिसे उपनिषद् में इंगित से 'प्रतिबोधविदितं' कहा गया है, वह सत्य जीव, ब्रह्म तथा ईश्वर तीनों में समान रूप से विद्यमान वास्तविकता है। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।

(उपरोक्त पंक्ति उपनिषद् के खण्ड १ के मंत्र क्रमांक ४, ५, ६, ७ एवं ८ की दूसरी पंक्ति है।)  

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यदि कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व को क्रमशः करना, होना, जानना तथा पाना इन चार के पर्याय की तरह जान लिया जाए, तो अहंकार या 'मन' को त्यागना का प्रश्न ही व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। 

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Thursday, 21 April 2022

यद्भूतम् यच्च भव्यम्।

भावयिता यश्च भाव्यम्।। 

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ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति । नारायणो एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम्। ...।।२।।

भावयिता यश्च भाव्यम्।।

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यह सब जो हुआ, होता है, होनेवाला है, होने जा रहा है, होगा या होता हुआ प्रतीत होता है, वह सब नारायण है। जो प्रतीत होता है, और जैसा प्रतीत होता है वह सब नारायण है।

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अहं सुवे पितरमस्यमूर्धन्मम योनिरप्सवन्तः समुद्रे।

य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति।।७।।

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एषो ह देवः प्रदिशो नु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः। स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः। 

सृष्टि-संहार-सृष्टि

(The Creation/ Manifestation, Annihilation or Dissolution, and The Creation - Cycle) 

मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत्। 

मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयत्यवमानोऽधिशीर्षतः तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुज्झितः। 

तत् प्राणोऽभिरक्षति शिरोऽन्तमथो मनः। 

न च दिवो देवजनेन गुप्ता न चान्तरिक्षाणि न च भूम इमाः। यस्मिन्निदं सर्वमोतप्रोतं तस्मादन्यन्न परं किञ्चनास्ति। 

न तस्त्मापूर्वं न परं तदस्ति न भूतं नोत भव्यं यदासीत्।

सहस्रपादेकमूर्ध्ना व्याप्तं स एवेदमावरीवर्ति भूतम्।

अक्षरात्संजायते कालः* कालाद् व्यापक उच्यते। 

व्यापको हि भगवान्-रुद्रो भोगायमानो, - यदा शेते रुद्रो संहार्यते प्रजाः।।

सृष्टि-क्रम / Creation :

उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका* भवन्ति। 

अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम्। एतद्धि परमं तपः आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों नम इति।।६।।

(लोकाः - 7 Spaces / 7 Spheres, as well as the 7 states of matter, कालः - Time -- the 11 strings, synonymous with the दिशःप्रतिदिशश्च - the 11 Directions / Dimensions),

All that has  happened, appears to happen,  seems to be happening, may or might, will happen is verily Narayana.

तत् त्वं -- तत् त्वं प्रत्यक्ष तत्त्वमसि ।

त्वमेव केवलं कर्त्तासि ।

त्वमेव केवलं धर्तासि।

त्वमेव केवलं हर्तासि।

त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।

त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्।

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अथ सूर्य अथर्वशीर्षम्  :

हरि ॐ ।

अथ सूर्याथर्वाङ्गिरसं व्याख्यास्यामः।

ब्रह्मा ऋषिः। 

गायत्री छन्दः।

आदित्यो देवता। 

हंसः सोऽहमग्निनारायणयुक्तं बीजम्।

हृल्लेखा शक्तिः।

वियदादिसर्गसंयुक्तं कीलकम्। 

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सूर्य आत्मा जगस्तस्थुषश्च ।

सूर्याद्वै खल्विमानि भूतानि जायन्ते। 

सूर्याद्यज्ञः पर्जन्योऽन्नमात्मा।

नमस्त आदित्य त्वमेव केवलं कर्मकर्तासि।

त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।

त्वमेव प्रत्यक्षं विष्णुरसि। 

त्वमेव प्रत्यक्षं रुद्रोऽसि।

त्वमेव प्रत्यक्षमृगसि।

त्वमेव प्रत्यक्षं यजुरसि। 

त्वमेव प्रत्यक्षं सामासि। 

त्वमेव प्रत्यक्षमथर्वासि।

त्वमेव सर्वं छन्दोऽसि।

आदित्याद्वायुर्जायते।

आदित्यात्भूमिर्जायते।

आदित्यादापो जायन्ते। 

आदित्याज्ज्योतिर्जायते।

आदित्याद्व्योम दिशो जायन्ते।

आदित्याद्देवा जायन्ते। 

आदित्याद्वेदा जायन्ते।

आदित्यो वा एष एतन्मण्डलं तपति।

असावादित्यो ब्रह्म। 

आदित्योऽन्तःकरणमनोबुद्धिचित्ताहंकाराः।

आदित्यो वै व्यासः समानोदानोपानः प्राणः। 

...

...

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।। 

सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सूष्टुतैतुः।। १०।।

...

...

अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।। 

तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।१३।।

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It would be highly rewarding if one goes through these 5 Atharva SheerSha texts, that are closely inter-related and point out to the same subtle truth which removes and clears away all doubts and ignorance that usually emerge out from our mind.

Presently, we think (believe) that we think.

This very belief covers up our ignorance of the Reality. That is the very first ignorance of the Reality. 

Then we wander into the intellectual search, we try to find out the Reality, Self, Truth, or  even peace of mind on the intellectual level, in terms of knowledge, which keeps us away from the Real Intelligence. 

But once we see and appreciate what is our Real Being and Know the same, we also see that Knowing and Being are but two aspects of the same Truth. This is then experienced as Bliss also.

This is the only Intelligence worth the name.

The three synonyms if the Intelligence are again termed as :

सत् चित् and आनन्द, -respectively.

From this Reality emerges all the manifest existence.

Which is termed as Narayana.

Thought is Narayana.

Idea is Narayana.

Thought / Idea is but Hypothesis.

Hypothesis is Narayana.

This is the very origin of all existence.

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Tuesday, 12 April 2022

सुरक्षा-असुरक्षा और निश्चिन्तता

सनातन-सत्य

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ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्याम् जगत् ।।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ।।१।।

(ईशावास्योपनिषद्)

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।१७।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २)

उपरोक्त दोनों उद्धरणों से इस तथ्य पर हमारा ध्यान जा सकता है कि इन्हें केवल शाब्दिक विचार की तरह ग्रहण किया जाता है, या ये दोनों वक्तव्य जिस सत्य को इंगित करते हैं, उस सत्य को ग्रहण किया जाता है।

क्या सत्य एक है? या सत्य अनेक हैं? या, क्या सत्य को 'एक' अथवा 'अनेक' की कोटि में रखा भी जा सकता है? 

'विचार', बुद्धि को इसी प्रकार मोहित करता है।

'विचार' के द्वारा जिस तथ्य को कहा जाता है, एवं बाद में पुनः सुना और शब्दार्थ तथा भावार्थ के रूप में ग्रहण किया जाता है, बुद्धि उस तात्पर्य की व्याख्या पुनः किसी 'विचार' के रूप में कर सकती है, और इस प्रकार उस तत्व सत्य पर ध्यान ही नहीं जा पाता, जिसे 'विचार' के माध्यम से प्रकट किया गया था। 

सत्य या ईश्वर, आत्मा, मन, स्थान और समय आदि ऐसे ही शब्द हैं, जिन्हें सुनकर यह भ्रम पैदा हो जाता है कि ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है, और तब उस वस्तु पर 'एक' अथवा 'अनेक' का विशेषण आरोपित कर लिया जाता है।

किसी भौतिक और इन्द्रियग्राह्य वस्तु को शायद 'एक', 'अनेक' आदि कहा जा सकता है, किन्तु हवा, पानी, वायु, गरमी, शीत, भूख या प्यास, प्रेम, आदि वस्तुओं को 'एक' या 'अनेक' कहना क्या संभव, या उचित भी है?

क्या सत्य या ईश्वर, आत्मा, मन, स्थान और समय ऐसे ही शब्द नहीं हैं, जिनकी वास्तविकता से अनभिज्ञ होते हुए भी, हम उन पर 'एक' या 'अनेक' का विशेषण आरोपित कर देते हैं? 

क्या 'हम', 'व्यवस्था', परिस्थिति, ऐसे ही और शब्द नहीं हैं? 

अतः इस प्रकार से कहा और सुना गया कोई भी वक्तव्य, शब्द या तो शब्दों का समूह मात्र हो सकता है, या किसी इन्द्रियग्राह्य तथ्य का द्योतक भी हो सकता है।

किन्तु जब ऐसा कोई तथ्य केवल कोई कल्पना, भावनात्मक या केवल मानसिक अनुभूति हो, तो ऐसा आवश्यक तो नहीं है कि वह इन्द्रियग्राह्य भी हो ही! 

इसीलिए भावग्राह्य, मनोगम्य, कल्पनाजनित, या भावनात्मक अनुभूति के तथ्यों को जिस प्रकार शब्दों के माध्यम से वक्तव्य का रूप दिया जाता है वैसा करना तथ्य को न केवल विरूपित कर सकता है, बल्कि उन्हें एक बिल्कुल भिन्न आवरण के भीतर छिपा भी सकता है।

किन्तु अगर भाषा के माध्यम का प्रयोग न किया जाए, तब भी क्या भावनात्मक वस्तुओं के बारे में, उन मानसिक अनुभूतियों का संप्रेषण किया जाना संभव है? जैसे सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, चिन्ता-निश्चिन्तता, सुरक्षा-असुरक्षा, भय-लोभ, मोह-द्वन्द्व, राग-विराग, आसक्ति-अनासक्ति, वैराग्य इस प्रकार की भावनात्मक स्थितियों को व्यक्त करने के लिए क्या कोई और साधन हमारे पास है? भाषा से 'विचार' का जन्म होता है और संप्रेषण के लिए विचार अवश्य ही एकमात्र उपलब्ध साधन भी है। यद्यपि विचार की अपनी सीमितता / सीमा होती है, और विचार प्रायः अनेक अर्थों का सूचक भी हो सकता है । पुनः ये विभिन्न अर्थ भी परस्पर विसंगतिपूर्ण हो सकते हैं। यही है विचार की सीमा। 

किन्तु विचार की इस सारी गतिविधि में वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य ही, आँखों से ओझल और दृष्टि से परे हो जाता है जिसे कि विचार आवरित कर लेता है। वह तथ्य है विचार की वह पृष्ठभूमि जो प्रकाश / चेतना की तरह से विचार और उसके तात्पर्य को आलोकित करते हुए भी स्वयं विचार और उसके शाब्दिक अर्थ से परे होती है।

चिन्ता, वैचारिक चिन्तन, तथा चिन्ता का दूर हो जाना, यह सभी यद्यपि विचार की ही गतिविधि है, किन्तु विचार की पृष्ठभूमि इस सब से सर्वथा अछूती, वह निर्विचार ज्योति है जिसे विचार के झोंके स्पर्श तक नहीं कर पाते।

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