Monday, 19 September 2022

शिक्षा की परंपरा

और परंपरा की शिक्षा

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मुण्डकोपनिषद् का प्रारंभ इस मंत्र से होता है;

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव 

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-

मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।

(प्रथम मुण्डक, प्रथम खण्ड)

उपरोक्त मंत्र आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों अर्थों का द्योतक है। सृष्टि का प्रारंभ करनेवाली शक्ति को कर्म तथा उस शक्ति को प्रेरित करनेवाली सत्ता को चेतना कहा जाता है। यह निर्वैयक्तिक चेतना ही देवताओं में सर्वप्रथम देवता ब्रह्मा है, जो प्रथम अभिव्यक्ति है। काल और बुद्धि का उद्भव भी इसी चेतना में होता है तथा पुनः उनका लय भी इसी चेतना में होता है जिसका अधिष्ठान काल और बुद्धि से अप्रभावित और परे है।

यही ब्रह्मा सृष्टिकर्त्ता के रूप में भगवान् विश्वकर्मा हैं। यही विष्णु के रूप में इस सृष्टि के परिरक्षणकर्ता और शंकर के रूप में पुनः संहारकर्ता भी हैं । समस्त सृष्टि अव्यक्त से व्यक्त होती है और व्यक्त से पुनः अव्यक्त  में लय हो जाती है। 

ब्रह्मा अर्थात् सृष्टिकर्त्ता में यह ब्रह्मविद्या बीजरूप में अव्यक्त और जगत् रूप में व्यक्त होती है। अव्यक्त से व्यक्त और पुनः व्यक्त से अव्यक्त होने के बीच में काल की कल्पना उसी अक्षर से उत्पन्न होती है -

अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापकः उच्यते। 

व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो। 

यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः।। 

(शिव-अथर्वशीर्ष)

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा-

थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।।

स भारद्वाजाय सत्यवहाय

प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।२।।

(मुण्डकोपनिषद् मुण्डक १, खण्ड १)

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ। 

कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।३।।

तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च ।।४।।

ब्रह्मविद जिस विद्या के बारे में कहते हैं उस विद्या को अपरा और परा इन दो रूपों में जाना जा सकता है। पुनः, उनमें से अपरा विद्या तो ऋग्वेद ... आदि हैं -

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।

और परा विद्या है, जिससे अपनी अव्यय, अविनाशी और अक्षर स्वरूप उस आत्मा को जाना जाता है --

अथ परा तदक्षरमधिगम्यते।।५।।

जो वह आत्मा सापेक्ष नहीं, निरपेक्ष है, इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, बुद्धिगम्य, तर्कगम्य और अनुभवगम्य भी नहीं है। उसका कोई गोत्र अथवा वर्ण आदि नहीं है, जो नेत्रों, कानों हाथ पैरों आदि से रहित है अर्थात् स्थूल या सूक्ष्म देह से रहित है। जो नित्य ही सर्वत्र विद्यमान सबमें ओत प्रोत, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, अव्यय है और समस्त भूतों का उद्भव जिससे होता है। धीर ही उस आत्मा को भलीभाँति देख पाते हैं। 

यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादम्। 

नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीरा।।६।।

इस ब्रह्मविद्या के क्रमशः दो प्रकार स्पष्ट किए गए हैं : 

अपरा और परा दोनों विद्याएँ ग्रन्थरूप में अथवा श्रवण (श्रुति) के माध्यम से प्राप्त हो सकती हैं। अपरा विद्या सांसारिक ज्ञान है, जबकि परा विद्या आत्म-ज्ञान ही है जो पुनः दो रूपों में हो सकता है। ब्रह्म के स्वरूप का बौद्धिक ज्ञान या चार महावाक्यों से सुसंगत अपने आपको उस ब्रह्म से एकमेवाद्वितीय, अनन्य और अभिन्न जानने-रूपी आत्म-ज्ञान। अर्थात् निज आत्मा का  अपरोक्ष ज्ञान।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १०,

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वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।

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कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय,

प्रथम वल्ली 

ॐ उशन्ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।।१।।

इससे स्पष्ट है कि गीता में जिस उशना को कवियों में प्रधान कहा गया, यह वाजश्रवा का पुत्र था। यही भार्गव अर्थात् महर्षि भृगु के वंश में उत्पन्न होने से भार्गव तथा उद्दालक का पुत्र होने से औद्दालकि भी था। भृगु अर्थात् दैत्यों के आचार्य शुक्राचार्य।

इस प्रकार कठोलिक (Catholic) का संबंध और मूल क्या है इसका संकेत कठोपनिषद् से मिल सकता है।

इसी तरह कापालिक (Cabal) का संबंध किसी दूसरी परंपरा से है। वर्णों की मातृका (matrix) के रूप में स्कन्द-पुराण से भी इसकी पुष्टि होती है। अक्षरसमाम्नाय से भी। 

नचिकेता और यम के संवाद पर आधारित कठोपनिषद् ही वह ग्रन्थ है जिसकी कथा का साम्य यीशू ख्रीश्त की कथा से किया जा सकता है।

वाल्मीकि रामायण में यमराज की पुत्री (मृ) के पुत्र का वर्णन है। अब्राहम और इस्माइल की कहानी भी इसी कथा के समानान्तर है ऐसा समझा जा सकता है। तात्पर्य यह कि इन दोनों पाश्चात्य परंपराओं में औपनिषदिक सत्य को देखा जा सकता है।

वाल्मीकि रामायण के ही उत्तरकाण्ड सर्ग 87 में वर्णित राजा इल के वृत्तान्त के परिप्रेक्ष्य में भी यह तथ्य दृष्टव्य है। 

महाप्रतापवान राजा 'इल' तीनों लोकों का एकमात्र ईश्वर है और यक्ष, गंधर्व, राक्षस, दैत्य सभी उसके शासन में रहते हुए उसकी कृपा प्राप्त करने के अभिलाषी हैं। कौन है यह महाप्रतापवान राजा 'इल'? यहाँ केवल संकेत दिया जा रहा है! 

इस पूरी भूमिका के उपरान्त ऐतिहासिक और औपनिषदिक यथार्थ की दृष्टि से शिक्षा की परंपरा और परंपरा की शिक्षा के बीच क्या संबंध हो सकता है इसे समझना आसान होगा।

अस्तु।

इसी क्रम में मेरे द्वारा पोस्ट किए गए आज के 5 ट्वीट्स के स्क्रीन-शॉट यहाँ प्रासंगिक होंगे ऐसा मुझे लगता है। 



 



 







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