क्या हिन्दू असहिष्णु है!?
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(निर्भयता, निर्वैर और उदारता की त्रयी)
"क्या हिन्दुत्व / हिन्दू आतंकवादी हो सकता है?"
इस लेख का एक शीर्षक यह भी हो सकता है।
आतंकवादी होना तो दूर की बात, हिन्दुत्व का एक दोष अवश्य ही यह भी है, कि जहाँ उसे असहिष्णु होना चाहिए, वहाँ भी वह असहिष्णु नहीं है।
पिछले दो पोस्ट्स को लिखते लिखते यह विचार मन में आया कि ऐसा क्यों है / हुआ है? क्या अपने सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्यों का निर्वाह करने में हमसे प्रमाद नहीं हुआ। प्रमाद का जैसा तात्पर्य है, यह लापरवाही का ही पर्याय है और लापरवाही जानबूझकर भी की जा सकती है, या अपने दायित्व की उपेक्षा किए जाने से भी हो सकती है।
मूलतः सनातन धर्म का ही एक व्यावहारिक प्रकार होने से हिन्दू धर्म और संस्कृति, सभ्यता में और परंपरा में उदारता सहिष्णुता अन्तर्निहित तत्व ही है। इसीलिए सनातन धर्म किसी अन्य पंथ या मत आदि का विरोध तक नहीं करता, फिर बलपूर्वक उस पर अपने आदर्श, मूल्य थोपने की तो कल्पना कर पाना तक उसके लिए असंभव है। हिन्दू धर्म के रूप में प्रचलित सनातन धर्म की यही विशेषता हिन्दू धर्म की एक बहुत बड़ी कमजोरी हो जाती है। और इस पर सहसा किसी का ध्यान तक नहीं जाता।
सनातन धर्म से उत्पन्न हिन्दू धर्म में इसलिए उदारता जन्म-जात ही है और इसीलिए हिन्दू धर्म और परंपरा, हिन्दुत्व आक्रामक परंपराओं के निहित ध्येयों के प्रति असावधान होता है। यही तो सनातन धर्म का अर्थात् हिन्दू धर्म का अब तक का दुर्भाग्यपूर्ण और दुःखद इतिहास रहा है।
इसी आधार पर इस पर ध्यान देना आवश्यक है कि हिन्दू धर्म, संस्कृति, सभ्यता, और परंपरा को जहाँ सावधान रहना चाहिए था, वहाँ पर भी सावधानी रखने की बजाय लापरवाही से काम लिया गया। और जहाँ हिन्दू समाज को अपनी अस्मिता, गरिमा, स्वाभिमान और अस्तित्व की रक्षा के प्रति सतर्क होना चाहिए था, उसने वहाँ पर भी प्रमादवश सहिष्णुता का व्यवहार किया।
आज भी यही स्थिति है और हिन्दू धर्म, सभ्यता, संस्कृति और परंपरा से द्वेष करनेवाले अपने कुत्सित ध्येयों को पूर्ण करने के लिए हिन्दू धर्म के माननेवालों पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने की धृष्टता करने का दुःसाहस करने लगे हैं।
हमारा यह प्रमाद ही है कि अपने बीच विद्यमान ऐसे दुष्ट लोगों को पहचान कर पाने तक में हम प्रमादवश ही भूल कर बैठते हैं, उनकी चिकनी चुपड़ी बातों से भ्रमित और मोहित भी हो जाया करते हैं। और कभी कभी तो हम उसे ही गौरवान्वित करने में प्रसन्नता भी अनुभव करने लगते हैं। क्योंकि हममें न तो राष्ट्रप्रेम की, न अपने धर्म, कर्तव्य और राष्ट्रीयता की ही पहचान है। अपने तात्कालिक क्षुद्र स्वार्थों और लाभों के लिए अपने दायित्व और कर्तव्यों को ताक पर रखने में हमें शर्म या हिचक तक नहीं होती है। यही तो हमारा एकमात्र दोष है!
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