Friday, 16 September 2022

अतीत, वर्तमान और भविष्य

स्मृति, विचार और संकल्प

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अतीत स्मृति है और स्मृति अतीत ही है।

यदि स्मृति है, तो ही अतीत का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है, या अनायास कर लिया जाता है। 

विचार वर्तमान है, और वर्तमान विचार ही है।

यदि वर्तमान है, तो ही विचार (का आगमन) संभव होता है और वर्तमान का विचार किया जाता है, या अनायास हो जाता है।

भविष्य संकल्प है, और संकल्प भविष्य ही है।

यदि भविष्य है तो ही (उसका) संकल्प हो सकता है, और किसी संकल्प के होने पर ही किसी भविष्य के अस्तित्व को अनायास ही स्वीकार कर लिया जाता है। 

स्मृति, विचार और संकल्प का उन्मेष मन की जाग्रत दशा में ही होता है, और मन ही, -न कि शरीर, जाग्रत, स्वप्निल या सुषुप्त होता है।

यह निर्वैयक्तिक चेतना, निजता और नित्यता ही, स्मृति, विचार और संकल्प के कार्य की अव्यक्त आधारभूमि है। मन सुषुप्ति या स्वप्न में, या जाग्रत होने पर यह अव्यक्त अप्रकट निर्वैयक्तिक चेतना स्मृति, विचार और संकल्प के रूप में अव्यक्त से व्यक्त, अप्रकट से प्रकट रूप में अभिव्यक्त हो उठती है। स्मृति, विचार और संकल्प का कार्य प्रारंभ होते ही इन सभी अभिव्यक्तियों में विद्यमान निर्वैयक्तिक चेतना का, अव्यक्त और अप्रकट आधार-भूत प्रकार, उसके व्यक्त और प्रकट प्रकार में जिस स्थायी सत्ता जैसा प्रतीत होता है, वही 'मैं' के रूप में चेतना का वैयक्तिक, व्यक्तिगत प्रकार है। इस व्यक्त आधारभूत निर्वैयक्तिक चेतना का तुरंत ही रूपांतरण हो जाता है और मन की जाग्रत, स्वप्न या सुषुप्ति की दशा के अनुसार वहाँ तब निर्वैयक्तिक चेतना का दृष्टा और दृश्य की तरह दोहरा, आभासी विभाजन हो जाता है। 

पातञ्जल योग-सूत्र :

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

(साधनपाद)

के सन्दर्भ में इस अहं-प्रत्यय से ही द्वैत का आभास पैदा होता है, और वैयक्तिक चेतना में और उसमें विद्यमान निजता और नित्यता की भावना में ही समस्त दृश्यमात्र को संसार, तथा दृष्टा को अहं-प्रत्यय अर्थात् 'मैं' के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है। 

इस प्रकार का विभाजन अनवधानता (in-attention) का ही परिणाम है, और निर्वैयक्तिक चेतना के स्वभाव से विपरीत होने के कारण दुःख-प्रत्यय है। अवधान (attention) ही एकमात्र वह उपाय है जो कि वैयक्तिक 'मैं' अर्थात् अहं-प्रत्यय का और दुःख-प्रत्यय अर्थात् दुःख का निवारण कर देता है।

पातञ्जल योग-सूत्र :

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।।

(समाधिपाद)

में इसी स्थिति का वर्णन किया गया है।

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