प्रतीक या रूपक?
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किसी ऋषि का शौनक यह नाम कुछ विचित्र सा प्रतीत होता है, क्योंकि शौनक शब्द की व्युत्पत्ति श्वन् से हुई है, जिसका संबंध श्वान से हो सकता है।
श्वा शुनौ शुनः
श्वान् प्रातिपदिक, जिसका सामान्य अर्थ 'कुत्ता' होता है, प्रथमा विभक्ति के क्रमशः एक-वचन, द्वि-वचन और बहु-वचन रूप हैं। संस्कृत भाषा में 'श्वा' धातु चलने के अर्थ की द्योतक है, पर्याय से श्वास के रूप में भी ग्रहण की जाती है।
इसके दो रोचक उदाहरण इस प्रकार से हैं -
मातरिश्वा - मातरि श्वा - वह जो माता का श्वास है। मातरि शब्द पुनः मातृ प्रातिपदिक स्त्रीलिंग सप्तमी विभक्ति एक-वचन शब्द है - अर्थात् जो अपने कारण या स्रोत में सोया हुआ है, या श्वास लेता हुआ है। प्राणवायु, प्राण या वायु ही मातरिश्वा है।
दूसरा उदाहरण संप्रसारणविधिसूत्रम्,
लघुसिद्धान्त कौमुदी सूत्र २९१, -पाणिनी अष्टाध्यायी का है :
'श्व-युव-मघोनाम तद्धिते' ६|४|१३३
काचं मणिं काञ्चनमेकसूत्रे ग्रथ्नासि बाले किमिदं विचित्रम् ।
विचारवान् पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह इति।।
पूर्वार्ध में प्रश्न है -
"हे बालिके! क्या यह कुछ विचित्र नहीं है कि तुम एक ही सूत्र में काँच, मणि और स्वर्ण को एक साथ गूँथ रही हो!?"
उत्तरार्ध में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वह बालिका कहती है :
"इसमें ऐसा भी क्या विचित्र है! महर्षि पाणिनी ने भी क्या एक ही सूत्र में श्वन्, युवन् और मघवन् को एक साथ नहीं रखा था?"
तात्पर्य यह है, जैसे ऋष् धातु का प्रयोग चलने के अर्थ में किया जाता है और उससे बना ऋषि शब्द भी है, जिसे ब्रह्मा से प्रारंभ कर अङ्गिरस् और शौनक तक के लिए इस उपनिषद् के प्रथम मुण्डक के प्रथम खण्ड के प्रथम पाँच मन्त्रों में प्रयुक्त किया गया है, वैसे ही शौनक और ब्रह्मा का प्रयोग भी यहाँ ऋषि के अर्थ में है। वे सभी ऋषि हैं।
उदाहरण के लिए,
आदित्यहृदयस्तोत्रम् के ऋषि अगस्त्य हैं।
ऋषि का अर्थ हुआ विधान करनेवाला।
पुनः इस पर दृष्टिपात करें -
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव
विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-
मथर्वायज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा-
थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय
प्राह भारद्वाजो अङ्गिरसे परावराम्।।२।।
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ।।३।।
तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च ।।४।।
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरम् अधिगम्यते।।५।।
उपरोक्त पाँच मन्त्रों में जहाँ एक ओर, ब्रह्मा ऋषि, देवों में प्रथम हुए, ऐसा कहा गया, वहीं उन्हीं के क्रम में उनके ज्येष्ठपुत्र अथर्वा को उनके द्वारा इस ब्रह्म-विद्या का उपदेश प्रदान किया गया, और यह क्रम अङ्गिरस् तक चला। ये सभी चेतना की उपाधियाँ भी हैं, और उन उपाधियों के ऋषि तथा उनके नाम भी जिनका विशेष प्रयोजन है। ब्रह्मा वह ब्रह्म है, जो सतत बढ़ता और विस्तीर्ण ही होता है। अङ्गिरस् वह ऋषि चेतना है जो शरीर में कार्य करती है, और चेतन भी है। शौनक अर्थात् श्वान वह चेतनता है, जो कि सतत गतिशील रहती है। महाशाल किसी विद्या-पीठ के प्रमुख हैं, जिन्होंने समस्त अपरा विद्याओं का पूर्ण अध्ययन कर लिया है। अर्थात् वे परम विद्वान परमाचार्य हैं, और उन समस्त अपरा विद्याओं का अध्ययन कर लेने के उपरांत भी उन्हें प्रतीत होता है, कि यह वह ज्ञान नहीं है, जिसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जा सकता है, या जान लिया जाता है। "अतः इन समस्त अपरा विद्याओं से विलक्षण वह कौन सी विद्या हो सकती है, जिसका अध्ययन कर लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है!"
अपनी इसी जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करने के लिए हाथों में समिधा लेकर वे महर्षि अङ्गिरा / अङ्गिरस् के समीप प्रस्तुत हुए।
पर्याय से और संक्षेप में, अङ्गिरस् इस स्थूल शरीर में विद्यमान वह रस है जो इसे जीवन देता है। और शौनक यह स्थूल शरीर है, जो यन्त्र है और यन्त्र की तरह अनायास कार्य करता है।
कुछ क्रियाएँ क्यों और कैसे होती हैं, उन्हें कौन संचालित करता है, हमें नहीं पता होता। जैसे श्वास-प्रश्वास, सोना, चलना, दौड़ना आदि। हमें लगता है, उन्हें हमारी इच्छा के अनुसार ही हम करते हैं, क्योंकि शरीर तो जड है, उसमें स्वतंत्र इच्छा, संकल्प आदि कैसे हो सकते हैं! किन्तु इच्छा या संकल्प किसे होते हैं? क्या हम इच्छा और संकल्प से बाध्य होते हैं, या क्या वे हमारी बुद्धि के अनुसार अपना कार्य करते हैं? स्पष्ट है कि हमारी बुद्धि और इच्छा तथा संकल्प के बीच सदैव सामञ्जस्य रहता ही हो, ऐसा होना आवश्यक नहीं। उनके बीच प्रायः टकराहट होती रहती है, इच्छा और संकल्प हमारे वश में नहीं, बल्कि हम ही उनके वश में हुआ करते हैं। 'हम' अर्थात्?
क्या मूलतः यह 'हम' भी विचार ही नहीं होता? यह और दूसरे भी विचार क्या अनायास ही हमारे नियन्त्रण से बाहर ही नहीं होते? फिर, वे हमारे नियन्त्रण में होते हैं, या कि 'हम' ही उनके नियन्त्रण में। हमें कुछ पता नहीं होता, जिसकी कल्पना भी नहीं होती, क्या ऐसे अनेक विचार अप्रत्याशित रूप से हमारे 'मन' में नहीं आते जाते रहते हैं! और यह वस्तु जिसे 'मन' कहा जाता है, क्या सचमुच कहीं हुआ भी करती है। फिर भी केवल प्रमादवश और अभ्यासवश ही 'हम' अपने आपको 'मैं' और 'मेरा मन' इन दो में विभाजित कर लिया करते हैं। यह मूल अज्ञान या अविद्या ही हमारी समस्या है।
उपनिषद् के इन मन्त्रों का प्रयोजन और इंगित यही है।
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विचार ध्यान / अवधान में बाधा है और इस बाधा का निवारण ध्यान / अवधान से ही होता है।
Thought is an obstacle to meditation and this obstacle is removed by meditation only.
-जे. कृष्णमूर्ति
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